Sunday, July 10, 2016

नेताओं ने हमारी इंसानी पहचान मिटा दी। हमें सिर्फ जातियाों में बांट दिया।

सुबह खबर पढ़ी। मायावती ने कहा है कि वे उत्तर प्रदेश में सौ मुसलमानों को टिकिट देगीं। इसके पहले मोदी मंत्रीमंडल में जातिगत समीकरण देख चुका हूं।  एक जगह पड़ा था। इतने दलित। इतने पिछड़े। इतने ब्राह्मण मंत्री बनाए गए। इन तमाम गणितों को देखकर दुख होता है। मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहान कहते है कि किसी माई के लाल में दम नहीं है। जो आरक्षण खत्म करा दे। लगता है कि हम सिर्फ जातियों में बंट कर रह गए हैं। हमारी  इंसानी पहचान खत्म हो गई है। अलग अलग राजनैतिक दलों के अलग अलग समीकरण है। किसी पार्टी ने हिंदू और मुसलमान एकता की  बात की और एक पार्टी बना ली। किसी ने सिर्फ हिंदुओं की बात की। पार्टी बना ली। यादव और मुसलमान पार्टी बना ली। दलित और मुसलमान पार्टी बना ली। क्या ये समीकरण सिर्फ चुनाव के जीतने के लिए खड़े किए जाते  है। शायद नहीं। इन समीकरणों पर मेहनत करके समाज को बांटने की साजिश हो रही है। और हम पूरी मासूमियत के साथ  बंटते चले जा रहे है। जरा गौर कीजिए कहीं हमारी पहचान सिर्फ जातियों की ही न बचे। और हम अपनी इंसानी पहचान खो दे। 

Wednesday, June 8, 2016

संयुक्त परिवार में व्यक्ति जल्दी बड़ा हो जाता है। एकल परिवार में लंबे समय तक वह छोटा ही बना रहता है।

कान्हा तीन साल के हो गए है। इसी साल नर्सरी में जाने लगे है। पिछले दिनों छोटी बहिन पोचम्मा के यहां बेटा हुआ। कान्हा को बताया कि तुम अब बड़े भैया बन गए हो। इसके पहले पोपी और गोगी हमारी दो और छोटी बहिनों के यहां बेटा हुए हैं। सो कान्हा को अब गिनती आने लगी है। तीन छोटे भाइयों के वे दादा बन गए है। हमसे पूछा पापा हम क्या राम बन गए है। हमने कहा बनना मुश्किल नहीं है। राम होना मुश्किल है। पापा क्या कहा आपने। कान्हा ने पूछा। मैंने सोचा पहले खुद तो समझ लू। फिर इसे बताउं। सयुक्त परिवार में तीन साल का कान्हा भी बड़ा हो गया है। उसे बात बात में बताया जाता है कि वो बडा भाई है। ये लोग छोटे है। बात खिलोना देने की हो। या फिर कोई और बात। लेकिन एकल परिवार में कान्हा अभी छोटा ही है।उसकी हर जिद पूरी होती है। समाज को उदार बनाने के लिए और सहनशील होने के लिए संयुक्त परिवार शायद इसीलिए जरूरी है।जहां तीन साल का लड़का भी राम बनकर अपनी चीजें बांटने को तैयार हो जाता है।

Monday, June 6, 2016

नहीं। कुछ पानी तो आदमी का अपना भी होता हैं।

हम लोग बैठकर गप कर रहे थे। तभी किसी ने कहा इस जगह का तो पानी ही खराब है। यहां का पानी पीकर हर कोई ऐसा ही हो जाता है। राज पाठक ने तपाक से कहा कि सारा दोष जगह के पानी का नहीं होता। कुछ पानी तो आदमी का अपना भी होता है। बेबाक और हाजिर जबाबी पर लोग हंसने लगे। लेकिन मैं वही अटक गया। राज पाठक हमारे पुराने साथी है। और करीब मैं उन्हें 15 साल से जानता हूं। वे प्रगतिशील भी हैं। और लिखते भी रहते है। अच्छी बातें लिखने और करने का उन्हें अभ्यास है। लेकिन यह बात सो टंच की थी। बात संस्कार की थी। हालात कैसे भी हो। लेकिन जो संस्कार तुम्हें मिले हैं। तुम उन्हें नजर अंदाज नहीं कर सकते.।तुम्हारे अपने संस्कार बोलते भी हैं। और दिखते भी हैं।

Thursday, June 2, 2016

हम मामा बन गए। आठ सौ ग्राम की पोचम्मा के यहां हुआ है। दो किलो का बेटा। घर में कृष्णा आया

मुझे एक घड़ी बहुत पसंद है। लेकिन उसे देखकर डर भी लगता है सो निकाल के रख दी। उसे इस तरह से डिजाइन किया गया है कि वक्त का कांटा रुकता ही नहीं है। सेकेंड वाली सुई लगातार चलती रहती है। उसे देखकर अपन को डिप्रेशन होता है कि वक्त बढ़ता जा रहा है। और अपनी जिंदगी रुकी हुई है। वक्त की रफ्तार ने एक बार आकर कांन में जोर से चिल्लाया। अपन पहले डर गए। फिर उस रफ्तार को पहचाना भी। एचआरडी मंत्री के इंटरव्यू का इंतजार कर रहा था। शास्त्री भवन में। यहां पर फोन के सिग्न कुछ कम थे। सो कुलू की आवाज टूट कर आ रही थी। पहले बीना बुआ ने बताया था कि पोच्चमा को एडमिट किया है। अस्पताल में। फिर कुछ देर बार कूलू का फोन आ गया कि पौचम्मा के यहां बेटा हुआ है। अपन मामा बन गए।
पोचम्मा हमारी छोटी बहन है। वह जब पैदा हुई थी। तो आठ सौ ग्राम की थी। उसका बचना उसका स्वस्थ्य रहना भगवान का प्रसाद है। हम लोगों के लिए। वह घर में छोटी थी। सो अभी तक छोटी ही है। उसका मांं बनना हमारे लिए वक्त की रफ्तार का अंदाजा है। मीटर है। हमारी छोटी सी पोच्चमा मां बन गई। भगवान उसे इस जिम्मेदारी के लिए तैयार करे।और उस पर अपना आशीर्वदा बनाए रखे। अपने छुटके लाल को देखने की खूब इच्छा है। काम से फुर्सत मिले। तो फौरन भाग कर सागर जाउँगा।
हमारी छोटी बुआ की एक सहेली आती थी। वे साउथ इंडियन थी। उन्हीं दिनों पौचम्मा की जन्म हुआ। और उसका नाम पौचम्मा हो गया। बाद में पता चला कि साउथ में एक बहुत दयालू देवी है। उनका नाम है। पौचम्मा। उनका मंदिर भी है। लेकिन पौचम्मा ने अपना नाम सार्थक किया है। हालांकि मैं सोच रहा था कि यह काम सिर्फ कोई मां ही कर सकती है। जो खुद आठ सौ ग्राम की होकर जन्म लेती है। लेकिन अपने बच्चें को उसी शरीर में से दो किलों का बनाकर निकालती है।

Sunday, May 29, 2016

मछलियां सीख जाती है। हम इंसान नहीं सीख पाते। ऐसा क्यों ।

पिछले दिनों एक वीडियो देख रहा था। aquarium  का। अपन  आज तक किसी ऐसे शहर मे गए नहीं। जहां पर इस तरह के  aquarium होते हैं। सुना है पचासों फुट लंबी कांच की टंकियां। उनमें घूमती बड़ी मछलियां। शार्क भी। जहरीले मैंढक। कच्छुए। और न जाने कौन कौन से पानी के जानवर। देखकर विचित्र लगा। लेकिन ये अपनी व्यक्तिगत परेशानी है।aquarium में  मछली देखें। पिंजड़े में पक्षी। या फिर किसी चिड़िया घर में बंदर या शेर। मन उदास हो जाता है। अपन इनका मजा नहीं ले पाते। उनकी कैद उदास करती है। लेकिन इस विशालकाय aquarium को  देखकर मन ये सोचने लगा कि ये बड़ी मछलियां जब सागर में होती है। तब छोटी मछलियों को खाकर या फिर जीव जंतुओं को  खाकर जीवित रहती है। फिर aquarium में ये बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को क्यों  नहीं खाती। कई लोगों से बात की। इंटरनेट खंगाला। कुछ जानकारों  से चर्चा की। फिर दुनिया भर में घूमते फिरते शिव भैया से पूछा। उन्होंने मजेदार बात बताई। बोले इन विशालकाय मछलियों की छोटे से ही कंडीशनिंग होती है। उन्हें इस तरह पाला जाता है। जब वे छोटी होती है। उन्हें तभी एक तय समय में मीट के टुकड़े डाले जाते हैं। और उन्हें उस समय उस तरह के भोजन की आदत हो जाती है। कई जगहो पर तो एक विशेष प्रकार का संगीत भी उस सयम बजाया जाता है। यानि संगीत के बजते ही उन्हें लगता है भोजन का समय हो गया। और फिर वह टुकड़ा जो उन्हें  हर दिन दिया जाता है। वही उन्हें भोजन लगता है। लेकिन आदत तो देखिए सागर में जो चीज उन्हें भोजन लगती है।इस तरह के aquariumमें वह उनके साथ रहते  है।
बात एक aquariumकी नहीं है। बात हमारी सोच की है। क्या समाज की इस हालत के लिए हमारे परिवार दोषी है। या हमारा समाज दोषी है। लोगों को अपराधी बनाने के लिए। क्या हमने उनकी कंडीशनिंग ऐसी कर दी  है। कि वे इस तरह दरिंदे बन  गए है। क्या हमारे  मां-बाप। या हमारे स्कूल। या फिर समाज। सरकारें। समाज की हिंसक सोच की कौन जिम्मेदारी लेगा। हम मछलियों की मानसिकता बदल सकते हैं। लेकिन इंसानों की नहीं. फिर वही  दिल्ली । फिर वही हालात। फिर एक लडकी का अपहरण। हमने इतने सालों में क्या बदला। किसने कोशिश की है।
मुझे लगता है। हमारे  मां-बाप। हमारे परिवारों को अपने बच्चों  को  संस्कारित करने के लिए एक बार फिर से सोचना पड़ेगा। अपने बच्चों  की परवरिश में कहीं हम गलती तो नहीं  कर रहे है। मैं अक्सर सुनाता हूं। बच्चों  को किताबों या बातों से संस्कारित नहीं किया जाता ।उन्हें महसूस कराया जाता है। मुझे पिता बने हुए सालों हो गए। लेकिन सागर जाता हूं। तो स्टेशन पर अब भी कई बार पिता चले आते हैं। एक बार तेज बारिश हो  रही थी। स्टेशन से बाहर निकला तो  आटो किया। और घर जा रहा था। तभी अचानक बारिश में भीगते पिता पर नजर पड़ी। आटो रोका। कुछ समझ में नहीं आया। पूरी तरह झल्ला गया। मैंने कहा। इतनी बारिश मे ंतुम भीगकर आए हो। मैं साथ चलूगां। मैं भी भीग जाउंगा। सामान भी भीग जाएगा। तुम्हारी गाड़ी कहीं रपट जाए वो अलग। मैं आटों से इत्मीनान से आ जाता। न तुम भीगते न हम। न हमारा सामान। लेकिन मुझे लगा वह एक संस्कार था जो उस रात में मुझ तक पहुंचा। अब शायद जीवन में हम उनसे कभी नहीं कह सकते कि दिल्ली में टैक्सी करके घर आजाना।या टैक्सी कर दी है। स्टेशन चले जाना। हमें शायद अपने बच्चों को फिर से प्रेम से करूणा से संस्कारित करना पड़ेगा। जब मछलियां सीख सकती है।  तो हम क्यों नहीं।

Saturday, May 28, 2016

किसी का मकान खाली होता है। मुझे बुरा लगता है। मैं मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार हूं क्या

आप मझे बीमार कह सकते है। मनोवैज्ञानिक रूप से। या फिऱ पागल। सनकी। या अपनी सुविधा से कुछ और। लेकिन मैं झूंठ क्यों बोलूं। जब भी कभी मुझे घर के नीचे सामान से भरा जा रहा ट्रक खड़ा दिखता है। मुझे बुरा लगता है। किसी का मकान खाली होता। मुझे अच्छा नहीं लगता। यह बात किसी से कहूंगा तो मुझे मूरख कहेगा। (यह शब्द शिव भैया मेरे लिए अक्सर इस्तेमाल करते हैं। ) लेकिन आप को बता सकता हूं। दफ्तर से लौटा तो घर के नीचे एक ट्रक खडा था। सामान भरा जा रहा था। किस का सामान था पता नही। किस का मकान खाली हो रहा था पता नही। बस कोई जो अब तक हमारे साथ रहता था। अब जा रहा हैं। मन यही सोचकर उदास हो गया। उपर आया तो पत्नी ने पूछा मूड क्यों खराब है। फिर किसी से झगड़ा करके आए हो क्या। मैंने सिऱ पर हाथ फेरा वो समझ गई। बोली हां पता है तुम्हारे ऊपर सिंग नहीं लगे है। लेकिन तूम सिंग वालों से टकराते घूमते हो। मैने मुस्करा कर बात खत्म कर दी।
ऐसा क्यों होता है। किसी का घर खाली हो तो मुझे बुरा लगता है। किसी का घर टूटे तो अपनों की याद आती है। कल रात घर के नीचे एक दादी गर्मी में बैठी थी। मैंन पूछा तो बताया बहू बाजार गई है। दरवाजा बंद करके। सो यही बैठी हूं। बेटा पानी पिला दे। मैं कान्हा को गोद में लेकर आ रहा था। पसीना पसीना। कुछ देर को डर गया लगा क्या कल को कोई ऐसा मेरे साथ भी करेगा। पता नहीं। लेकिन शायद हर दूसरे की परेशानी या हर दूसरे का दुख अपना मान लेता हूं। शायद इसीलिए हर खाली होते घर के सामान के साथ मेरा कुछ हिस्सा भी उसके साथ चला जाता है।

Thursday, May 26, 2016

मोहब्बत की दुनिया में। ये कौन नफरत घोलता है। कल लव मैरिज की थी।और आज ?

गांव  की चौपाल में बैठी महिलाएं उनसे नफरत करती थी। धीमी आवाज में उन्हें हमेशा भला-बुरा कहती हैं। उन्हें बदतमीज और बेशर्म भी अक्सर कहा जाता रहा है। लेकिन मुझे वे दोनों बहुत अच्छे लगते हैं। एक दम ठेठ प्रेमी। जो अभी कुछ महीनों पहले शादी करके आए है। जिनके उपर जेठ दोपहरी में भी सावन बरसता है। वे जहां से भी गुजरते हैं मोहब्बत की आबोहवा अपने साथ बहाकर ले जाते हैं। प्रीत की खुशबू से उनके होने का अहसास होता है। बस वे परवाह नहीं करते दकियानुसी रिवाजों की। झूठी बासी औपचारिकताओं को नहीं निभाते। सम्मान देते है। बस क्लास टीचर की तरह तुम्हारी मौजूदगी उन्हें परेशान नहीं करती। सिर्फ यही उनका गुनाह है। जो कुंठित समाज को अखरता है। वे शाम को सज संवर कर घूमने निकलते हैं। पहली बारिश में भीगते हैं। हां खाली सड़क पर हाथ पकड़कर चलते है। आइसक्रीम एक ही लेते है। साथ साथ खाते हैं। दूसरी फिर लेकर वहीं खाने लगते है। बच्चों की तरह। उनकी ये मासूमियत मुझे कान्हा जैसी लगती है। शायद इसीलिए भी वे दोनों मुझे अच्छे लगते है।
मुझे उसकी नौकरी का पता नहीं। लेकिन वो आधी-रात को कहीं से लौटती है। और उसका पति प्रेमियों की तरह घर के नीचे  हीइंतजार करता रहता है। गर्मी में कई बार ठंडे पानी की बोटल भी साथ लिए रहता है। कई बार वे लोग नीचे से आईसक्रमी खाने चले जाते है। पूरे अल्हड़पन और मासूमियत के साथ बतियाते हंसते घूमते रहते है। मुझे उनको देखकर ताजगी का अहसास होता है। चलो इस दुनिया में  कोई तो खुश है इतना कि जो बाहर भी मजा बांट सकता है। वर्ना लोग तो सिर्फ दुख ही दुख बांट  रहे है। रात को अक्सर बालकनी में उसी समय कभी चाय पीता रहता था। कभी कुछ पढ़कर घूमता रहता हूं। तो कभी किसी अाहट पर यू हीं बाहर हवा खोरी करने लगता हूं। और उसी बीच उन्हें मेें देख लेता था।
कल करीब एक बजे रात एक किताब पढ़ रहा था। कुछ आंधी सी थी। कुछ तेज हवा। मौसम मजेदार सो अपन बाहर बालकनी पर टहल रहे थे। एक कार आकर रुकी। वह लड़की भी उत्तरी। बड़ी जद्दोजहद के बाद उसने अपना बैग उतारा। ड्राइवर पूरी बेशर्मी के साथ देखता रहा। उसने मदद की कोई पेशकस तक नहीं की। मुझे लगा इस बैग को लेकर वह पांच मंजिल कैसे चढ़ाएगी। सो मैं ही उतर  गया। वह न करना चाहती थी। लेकिन काम असंभव सा था। सो कुछ संकोच के साथ हां कर दिया। मैंने सीधा पूछ ही लिया। वो कहां है। वो चुप रही। मैंने सोचा शायद गलत सवाल था। मैंने चुपचाप बैग उसके घर पर रखा। और नीचे उतर आया। इसके पहले  सिर्फ इतना ही संबंध था कि कान्हा उसे बुआ बुलाता था। उसके पति को उसी ने सिखा दिया था। फूफा। सो वह उसे फूफा कहता है।
फिर अचानक दो तीन दिन बाद मकान खाली हो रहा था। मैंने फिर पूछा क्या हुआ। वह चुप रही। फिर न जाने क्यों वो मेरे पास आकर बैठ गयी। उसने कहना शुरू किया भैया हम दोनों मद्रास में  एक साथ काम करते थे। प्यार हो गया। हम लोग अलग अलग जाती के थे। सो घर वाले माने नहीं। रोज रोज की धमकियों से तंग आकर हम लोग दिल्ली  आ गए। हम मजे में थे। सिर्फ इसका नशा हमें परेशान करता था। हम मना करते रहे। ये झूठ बोलता रहा। बात सीमा से उपर हो गई। हम अलग अलग हो गए। वो मुम्बइ चला गया। मेरी नौकरी कोलकाता में लग गई ैहै। में जा रही हूं। कान्हा को बहुत सारी चॉकलेट वो देकर जाने लगी। मैंने कहा तुम्हारे पास एक मिठास है। बहुत अंदर। कुए की तरह जो सबको मीठा पानी देते है।अपनी मिठास खोना नहीं। उसे बनाए रखना। और अपना अंहकार त्यागकर कुछ दिनों बाद फिर सोचना। शायद कोई रास्ता दिखे।
रात के एक बजे हैं। वो आइसक्रीम वाला शायद अपनी दुकान उनके इंतजार में खोले होगा। मुझे बालकनी पर टहलते हुए लगा कि जाकर उससे कह दूं। वे लोग घर छोड़कर चले गए है। अब तुम्हारे पास इतनी रात गए कोई इठलाता हुआ नहीं आएगा। न जोन कौन है जो प्रेम की इस दुनिया में नफरत घोलता है। 

Sunday, May 22, 2016

अभी तक तो हम खुद गोद में हैं। कान्हा को कैसे उतार दे।

कान्हा मंडे और संडे के बीच का अंतर सीख गए हैं। वे मंडे को ही सुबह सुबह आ जाते हैं। रिहर्सल करने के लिए। पापा आज मंडे है। फिर पूरा हफ्ता गिनते है। सेटरडे कहते कहते पूरी आंख चमक जाती है। और आखरी में कूंदकर कहते हैं। फिर आएगा संडे। और लंबी लिस्ट सुनाते हैं। पहले रेबिट को कैरिट खिलाएगें। डियर को ब्रैड। पीकॉक को दानेें। डक को आटे की गोलियां। फिर चलेगें। शनि मंदिर। रास्ते में जगन्नाथ मंदिर भी मिलेगा। और आखरी में खाएगें आइस्क्रीम। मॉल में। उनके इस कार्यक्रम में कोई फेरबदल करना पाप लगता है। लिहाजा वो जो कहते है। सो अपन करते चलते है। आज उन्हें गोद में लेकर घूम रहे थे। डियर पार्क में। एक दोस्त मिल गए। कहने लगे बेटे को तुमने सिर पर बैठा रखा है। मैंने कहा सही कहा तुमने। कहने लगे इसे कम से कम गोद से तो उतार दो। मैंने कहा मैं खुद ही अपने मां-बाप। दादी। बुआ। सबकी गोद में  बैठा हूं। इसे कैसे उतार दूं।

उनके जाने के बाद मुझे लगा कि अपनी परवरिश का असर अापके बच्चों  पर पड़ता है। जिस तरह से आपको पाला गया है। उसी तरह अाप अपने बच्चों  को पालते हैं। जैसे बचपन में  मुझे चाट बहुत पसंद दी। चाट खाकर बीमार होना भी स्वाभाविक सी बात थी। लेकिन मेरे पिता ने मुझे कभी भी चाट के लिए ललकने नहीं दिया। न अपन ने कभी चटे की तरह चाट के ठेला को देखा। न किसी को चाट खाते देखकर मन ललचाया। खूब चाट खाई छक के। और आज ये हालत है कि सालों से मैंने गोल गप्पे नहीं खाए। कल ही केबिनेट मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने बुलाया था।  पार्टी में। लेकिन मैंने वहां भी गोल-गप्पे या आलू टिक्की नहीं खाई। सो उसी तरह से जाने अनजाने में कान्हा के साथ भी मैं वहीं व्यवहार करता हूं। उसे आइस्क्रीम बहुत पसंद है। और आइसक्रीम खाने के  बाद खांसी आना तय है। लेकिन आइसक्रीम देखकर उसकी आंखें चमकती है। और फिर वह कमजोर कड़ी पर चोट करता है। मेरी  तरफ देखता है। मैं हर बार उसकी मदद करता हूं। फिर वह खांसता है। तो चुपचाप मेरे हाथ से दवाई भी पी लेता है।

आज के आधुनिक  तौर तरीके मेरे मां-बाप शायद सागर में नहीं जानते थे। लेकिन जो भी कुछ थोड़ा बहुत जानते थे। उन्होंने मुझ पर नहीं थोपा। सो अपना विकास प्राकृतिक हुआ। अगर जीवन में बहुत कुछ नहीं कर पाए। या सफलता के झंडे नहीं गाड़ पाए। इसके लिए अपनी परवरिश नहीं शायद कुंडली दोषी है। इसी तरह मुझे  लगता है कि मेरा बेटा भी जैसा भी हो प्राकृतिक हो। उसे किसी प्रकार की कोई कुंठा न हो। मुझे सिर्फ इतना ही करना है। ताकि में कह सकूं। जैसे मेंरे परिवार ने मुझे पाला था। वैसा मैंने कान्हा को पाल दिया। हां दादी चिंता बहुत करती थी। सो् अपन  कान्हा की चिंता करते हैं.। वह अभी से  हंसता है। कहता है पापा आप डरते बहुत हो। मैं भी कभी दादी से .यही कहता था  कि आप डरती बहुत हो।  क्यों कि उन्होंने कभी अपन को देर रात फिल्म देखने नहीं जाने दिया। न कभी ऐसी जगह पिकनिक जाने  दिया जहां  नदी या गहरा पानी हो। देर होेने पर दरवाजे पर खड़ी रहती थी। पिता ने कहा था कि कोई भी नशा करो पहली बार मेरे साथ करना। सो अपन कभी हिम्मत ही नही  कर पाए। पिता ने अपन से दोस्ती की सो अपन कान्हा के  दोस्त  हो गए। और हां अभी भी दादी फोन करके कहती रहती है। कि गर्मी है। बाहर निकलो तो खूब सारा पानी पी लेना। कुछ दिन पहले  तक ठंड को लेकिर चिंतित रहती थी। वह मुझे अभी तक गोद में बैठाए हैं। मैं कान्हाको अपनी गोद से कैसे उतार दूं। 

कृष्ण की तरह हैं। कौशल। सिर्फ मुुसीबत में आते हैं।

बोलो क्या काम हैं ? फोन की घंटी खत्म होते ही दूसरी तरफ से आवाज आती है। बस यू हीं याद आई तो फोन कर लिया। वह फिर बोला। काम है तो जल्दी बताओ। कहा नहीं। बस हालचाल पूछने को फोन किया था। हमें औपचारिकता में फोन मत किया करो। हमारे पास और भी काम है। रखूं फोन। मैंने कहा अरे सनो तो। वह फिर कुछ खिसयाकर बोला। अरे यार तुम्हें गप मारनी है। तो तुम्हारे पास बहुत लोग है। मुझे क्यों फोन कर रहे हो। फोन पर झल्लाहट सीधी कान तक सुनाई दे रही थी। रखता हूं। कुछ काम हो तो बताना। इस बेहद बदतमीज दोस्त का नाम कौशल कांत मिश्रा है। कौशल इस समय दिल्ली के नामचीन हड्डी के डाक्टर है। वे पहले एम्स में थे। आजकल दिल्ली के एक महंगी और अत्याधुनिक अस्पताल में अपना परचम लहरा रहे है। 
कौशल जैसे दोस्त भगवान का आशीर्वाद है। जो वो खुश होकर किसी किसी को दे देता है। इस बद-दिमाग आदमी से दोस्ती करीब एक दशक पहले हुई थी। उन दिनों अपन हैल्थ बीट के रिपोर्टर थे। और कौशल डाक्टरों के नेता। एंटी रिजर्वेशन की कमान संभाले घूमते थे। अपन को काम का जुनून था। और कौशल को अपने मिशन का। दोस्ती हो गई। वक्त के साथ संबंध गहराते गए। जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की बाइट के लिए अपन जा रहे थे। और एक्सीडेंट हुआ। चार हड्डी टूट गई। दर्द से रोते हुए फोन किया। उधर से कौशल की आवाज आई। हिम्मत रखो। मैं दस मिनिट में पहुंचता हूं। कौशल छह मिनिट में ही आ गया। फिर इलाज हुआ। आजकल अपन कान्हा के साथ फुटबाल भी खेल लेते हैं। 
कान्हा जब 50 दिन के थे। तब वे बीमार हो गए। एम्स दिखाने गए थे। बात फौरन भर्ती की हुई। फुग्गे में से हवा निकलते सुना था। देखा था। अपने शरीर से वैसे ही हवा निकल गई। कौशल पूरी रात अपने साथ थे। हिम्मत दी। वो अलग। जब कान्हा पैदा हुआ। उस रात कौशल दरी पर उसी एम्स के गलियारे में सोए थे। जहां उनकी तूती बोलती थी। आज भी कोई काम आ जाए। तो उनकी याद आती है। कौशल कृष्ण है। सिर्फ मुसीबत के समय आते है। औपचारिकता में फोन करो तो झल्लाते हैं। मेरे पास ऐसे कई जानने वाले है। जो परेशानी में छोड़कर चले गए। कौशल इकलौते है। जो परेशानी में आते है।

Wednesday, May 18, 2016

कछुआ से अच्छा गुरू कौन हो सकता है।

कान्हा पेंटिग सीखने जाते है। पहले दिन में भी उनके साथ गया। सिखाने वाले टीचर ने पूछा कौन सा जानवर पैंट करना है। कान्हा ने कछुआ चुना। शायद वह बड़े आकार का था। या ज्यादा रंगीन था। खाने ज्यादा थे। रंग भरने के लिए। वजह तो कान्हा ही जानता होगा। लेकिन मैंने सोचा कि जिंदगी हो या पेंटिंग कछुआ से अच्छा गुरू कौन हो सकता है। बचपन की कहानियों में हमने सीखा है। अगर व्यक्ति लगातार चलता रहे। तो वह खरगोश यानि ज्याद क्षमताओं वाले व्यक्ति को भी हरा सकता है। हमने यह भी सीखा कि महत्वपूर्ण जीवन में क्षमताएं नहीं है। न भगवान की दी हुई शक्तियां है बल्कि आप की उद्देश्य के प्रति निष्ठा और उस पर लगातार काम करना ही सफल जीवन का निचोड़ है। कछुआ लंबी उम्र जीता है। उसकी एक और विशेषता है। वह अपना विकास लगातार करता रहता है। हमें उससे यह भी सीखना होगा।

Sunday, May 15, 2016

तुम्हारे नाम पर किताब इश्यू थी। सो वापस नहीं की।

तुम तो इमानदारी का ढोल पीटते रहते हो। हर वक्त। फिर लाइब्रेरी की यह पुस्तक वापस क्यों नहीं की। और इसे सूटकेस में क्यों रखे हो। अलमारी में क्यों नहीं। इसे कभी पढ़ते तो हो नहीं। सिर्फ जिल्द बदलते रहते हो। इसे कपड़े में लपेट कर गीता की तरह क्यों रखे हो। पत्नी के एक सवाल में। हजार बातें छुपी थी। इमानदारी पर तंज था। तो कोई पुरानी चोरी पकड़ने का आत्मविश्वास। नई बात जानने की हुमक। और न जाने क्या क्या। मैंने कहा कि यह किताब किसी अपने के खाते से इश्यू थी। सो वापस नहीं की। खंडर महलों में भी कुछ पत्थर। कुछ टूटी दीवालों के हिस्से बचे रहते हैं। जिनसे खत्म हुई चीजें भी अपनी पहचान बताती रहती है। मरी हुए रिश्तें भी जिंदा बने रहते है।
जिंदगी में अपन ने दो ही काम समय से किए। कालेज टाइम से पहले जाना और रोज लाइब्रेरी जाना। हालांकि लाइब्रेरी के अंदर नहीं जाता था। अपनी कोर्स की किताब लाइब्रेरी के बाहर ही मिल जाती थी। उसी की आंखों में ढाई आखर पढ़ लिया करते थे। और पंडित हो गए। बीए में दो और एम ए में चार किताबें एक छात्र को मिलती थी। लेकिन अपने कार्ड पर हमेशा ही दोस्तों का कब्जा रहा। या फिर साहित्य की किताबें उन पर निकलती और जमा होती रही। अंग्रजी से एम ए कर रहा था।लेकिन हिंदी साहित्य की अच्छी किताबें हमेशा रजिस्टर में अपने नाम पर ही लिखी रहीं। और जब जरूरत पड़ी तो न कार्ड था और न समय। फिर किसी ने किताब खोजी और अपने कार्ड पर इश्यू कराकर दे दी। लेकिन वह किताब आज तक पढ़ी नहीं। सिर्फ उसकी पूजा करता रहता हूं। और जिल्द बदल देता हूं। कोई राजदार मिल गया तो कह दूगा कि इसे मेरे साथ जाना है। आखरी वक्त याद रखना.।

Saturday, May 14, 2016

पापा हमनें एबीसीडी सीख ली है। अब हम स्कूल नहीं जाएगें। हमारी नौकली लगवा दो। हम आफिस जाएगें.

कान्हा को अपनी तरफ आते देखकर मैंने खीजकर कहा। कुछ जोर से भी कहा। अभी हम कहानी नहीं सुनाएगें। कान्हा जैसे विलोमार्थी शब्द लिख रहा हो। उसने उतने ही प्यार से कहा। मुस्कराते हुए धीरे से कहा। पापा कहानी नहीं सुनना है। एक बात बतानी है। मुझे राहत मिली। मैंने कहा सुनाओं। कान्हा ने बहुत इत्मीनान के साथ बात शुरू की। पापा हमने नई स्कूल में एबीसीडी सीख ली है.। अब हम आफिस जाएगें। हमारी नौकरी लगवा दो।हम स्कूल नहीं जाएगें। कुछ देर बाद उन्होंने दूसरा रास्ता सुझाया। या फिर आइसक्रीम की दुकान खोल लेते है। सब बच्चों को देते जाएगें। हम भी खा लिया करेंगे। अब मंडे से स्कूल नहीं जाएगें।

Wednesday, May 11, 2016

शिक्षकों की ड्यूटी जूते-चप्पल संभालने में लगा दी। बेशर्मी की हद है कलेक्टर साहब।

सुबह सुबह मूड खराब हो गया। मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में शिक्षकों की ड्यूटी जूते -चप्पल संभालने की लिए लगा दी। ड्यूटी लगाई वहां के लाट साहब खंडवा के डीएम महेश अग्रवाल ने। कुछ खबरें पढ़ कर दुखी हो जाते है। तो कुछ को पढ़ कर मूड ही खराब हो जाता है। मैंने सुना है स्टालिन अपनी जिंदगी में सिर्फ एक व्यक्ति को बाहर तक भेजने आया था। जब उसके प्राइमरी स्कूल के टीचर उससे मिलने पहुंचे। वहां गुरू ही परमेश्वर है।। ऐसा उनकी संस्कृति में नहीं है। लेकिन फिर भी तानाशाह होने के बाद भी हमसे ज्यादा वे गुरू का सम्मान जानते है। और बेशर्मी की हद तो देखिए कि डीएम साहब कहते है कि शिक्षकों ने सेवा की इच्छा जताई थी। इस आदेश को वापस तो ले लिया गया। लेकिन इस मानसिकता का आप क्या करोगे। जो हमारे समाज में एेसे डीएम पैदा कर रही है। मुझे इस बात को लेकर शर्म आई कि मैं मध्य प्रदेश में जन्मा हू। जहां पर लाट साहब शिक्षकों की ड्यूटी जूते चप्पल स्टेंड पर लगाते हैं। वे नेता। वे संगठन। वे पत्रकार। वे समाजिक संस्थाएं चुप रहेंगी मैं जानता हूं। आखिर लाट साहब से कौन बुराई लेगा।वह भी उन गरीब गुरूओं के लिए।

Monday, May 9, 2016

दोस्तों का हुजुम। ताली पर ताली। आपस में गाली। ठहाके। कहां गए सब।

संसद की स्टोरी करके मेट्रों से घर आ रहा था। स्टेशन पर गाड़ी रुकी। तो लड़कों का हुजुम गेट पर देखकर लगा। काफी भीड़ है। लगा दिल्ली में दस बजे रात में भी इतनी भीड़ न जाने कहां  से आ जाती है। मन में कुछ झुंझलाहट सी हुई। लेकिन फिर समझ में आया। भीड़ नहीं है। दोस्तों का हुजुम है। मुश्किल से अंदर घुस पाया। अंदर ज्यादा गुंजाइश नहीं  थी। सो थोड़ा आगे जाकर खड़ा हो गया। उन लड़को की वजह से हर चढ़ने वाले को परेशानी हो रही थी। और उतरने वाले को भी। हालांकि जो लड़किया थी या परिवार वाले थे वे गेट बदलकर उतर रहे  थे। उनका शोर। कुछ अपशब्द। एक दूसरे के साथ धक्का मुक्की। कुल मिला कर डिब्बे के यात्रियों को परेशानी थी। पत्रकार की हनक जो अपन में है। लगा उतरकर सीआईएसएफ वालों को बोलू। और इन लोगों की अकल ठिकाने लगे।
सोच ही रहा था कि उनके ठहाके ने ध्यान बंटाया। करीब दस बारह दोस्त किसी पार्टी से लौट रहे थे। पूरे मजे में। बात बात पर ठहाका। बात बात पर ताली। पूरी जिंदगी उन पर बरस रही थी। कुछ उनकी मजाक अपने कानों में  भी पड़ी। मजा आ गया। वे लोग किस तरह से  अपने एक दोस्त को तैयार करके ले गए थे कि वह आज  ( नाम सुन नहीं पाया। या फिर  समझ में नहीं आया ) उससे अपने दिल की बात कह ही देगा। उसे उन लोगों  ने हजार मौके मुहैया कराए। लेकिन वो भोदूं वापस खाली हाथ लौट रहा था। अचानक उसी लड़की का फोन भी आ गया। वो शायद समझ गई थी। फिर क्या था। क्या धूम मचाई उन्होनें। ्अपने उस दोस्त को गोदी में लेकर वे लोग शायद एक स्टेशन पहले ही उतर गए। आईसक्रीम की पार्टी करने। मन ने हजार बार कहा। इन लोगों  से कहूं। कुछ देर के लिए हमें भी अपने साथ करलो। हमें भी तुम्हारे बराबर मजा करना है। लेकिन अपनी दिल की बात उस लड़के की तरह में भी नहीं  कह पाया। चुपचाप मीडिल क्लास के पप्पू के पापा की तरह अपना बैग थामे मालवीय नगर मेट्रों स्टेशन पर उतर कर घर आ गया। 

Sunday, May 8, 2016

सयुक्त परिवारों में मां भगवान की तरह होती है। दिखती कहीं नहीं। होती है हर कहीं।

मेरे अपने लोग मुझ पर यह आरोप शब्द बदल-बदल कर लगाते है। उनका आरोप कम है। शायद मुझ से शिकायत ज्यादा है। वे अक्सर कहते है। तु्म्हारी बातों में दादी। तुम्हारी कविताओं में दादी। अब तुम्हारे ब्लाग में दादी। तुम्हारे जीवन में मां इतने पीछे क्यों है। दादी इतने आगे क्यों है। जिन्होंने सयुक्त परिवार नहीं  जिया। उन्हें इसका व्याकरण समझ में नहीं आएगा। यहां कोई कम या ज्यादा या फिर आगे या पीछे नहीं होता। सब कुछ संयुक्त होता है। बच्चें भी और बुजुर्ग भी।  सयुक्त परिवराों में सबकी भूमिका सबके रिश्ते अलग अलग होते है। जिन्होंने इस गंगा में नहाया है वे ही इस पानी के बहाव को समझ सकते हैं। करीब चवालीस साल बाद भी मैं इस तरह के परिवारों की संस्कृति का पंडित या जानकार हूं यह कहना मूर्खता होगी। सयुक्त परिवारों की विज्ञान क्या है। ये चलते कैसे है । यह समझना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि एक परिवार मे कम से एक आदमी की पहचान खत्म होती है। उसे बीज बनकर मिट्टी में अंदर दबना होता है। मेरे परिवार में यह काम मेरी मां ने किया।

संयुक्त परिवारों में मां की भूमिका अलग तरह की होती है। आप उसकी भूमिका महसूस कर सकते हैं। लेकिन आप उसे देख नहीं पाते । लिहाजा आपकी यादों में उसकी भौतिक मौजूदगी कम ही रहती है।  बीमार है तो आपका सिर गोदी में रखकर मां नहीं बैठेगी। वह खिचड़ी भी अपने हाथ से नहीं खिलाएगी। लेकिन किचिन में बनाएगी वो। उसकी जिम्मेदारी अपने बच्चों  पर शुरू होकर उन पर ही खत्म हो ऐसा नहीं होता। खुशी या दुख भी पहले पहल उस तक नहीं पहुंचते। दादा-दादी से शुरू होकर उस तक रिसते हैं। तुमसे संबंधित फैसलों पर मां का एेकाधिकार भी नहीं होता। वह उसका हिस्सा हो यह भी जरूरी नहीं। 

 सुबह तड़के उठकर टिफिन बनाती है। लेकिन पैरेंट्स टीचर्स मीटिंग में वह नहीं जाती। जिन कपड़ो को पहनकर तुम इतराते हों। उन्हें वह धुलती है। प्रेस भी करती है। लेकिन ड्राइंग रूम में तुम्हारे दोस्तों से नहीं मिलती। हां चाय नास्ता उसी के दम से होता है। लेकिन वो कहीं नहीं होती। हां जब दिल्ली आता हूं। तो वो कहीं नहीं दिखती। सिर्फ किचिन में भीड़ में पीछे। दो आखों से आसुओं की धार दिखती है। उन्हें पहचानेगा कौन पता नहीं। हां दुनिया ठीक कहती है। मेरी जिंदगी की गप्पों में मां नहीं है। लेकिन मैं जानता हूं। उसकी जिंदगी के हर पल में मेरा ख्याल है।
सयुक्त परिवारों में अपने अधिकारों का मां ओछा दिखावा नहीं करती। वह अपने बच्चों को भी परिवार में बांट कर चलती है। हम दिल्ली से जब भी सागर जाते है। उस आधी रात को सबसे आखरी में वहीं मिलती है। हां उठ पहली ही आवाज पर जाती है। लेकिन चुपचाप सबके लिए चाय बनाती रहती है। मैं भी आखरी में उसके पैर छूता हूं। जाते वक्त भी और आते वक्त भी। हां ट्रेन में टिफिन खोलकर जब खाना खाता हूं। तब उसकी मौजूदगी समझ में आती है। सब्जी वाला बताता है। हफ्ते भर पहले से ही वह मेरी पसंद की सब्जी मंगा कर रख लेती है। हां कहती नहीं। जताती नहीं। सिर्फ अहसास करा देती है। अपनी चाहत का। अब ऐसी मां को केसे हेप्पी मदर्स डे बोलू। हां भगवान से सिर्फ प्रार्थना करता हूं। उसे खुश रखना। स्वस्थ्य रखना।

Friday, May 6, 2016

किसान कितनी ही बदमाशी करले लेकिन गेहूं बो कर चना पैदा नहीं कर सकता। यह जिंदगी में भी है।

दादा  की बात चली तो एक बात और याद आ गई। उनकी ये बात मुझे भी बहुत पसंद है दूर से। मैं कोई तोपची नहीं हूं। वर्ना में कहता कि इस बात को मैं हथियार बनाकर जीता हूं। दादा कहते थे कि किसान कितना भी होशियार हो जाए। चाहे कितना उन्नत बीज जमीन में डाल दे। कितना अच्छी ही रसायन इस्तेमाल करे। खूब पानी दे। यानि सारे उपाय करले फिर भी वह यह करिश्मा नहीं कर सकता कि वह गेहूं बो कर चना पैदा कर ले। वे कहते थे और यही बात जिंदगी में भी सही है। जिस तरह से किसान जो भी बीज बोता है। वही काटता है। जीवन में भी हम यह बात अक्सर भूल जाते है कि जो हम करते है। वही हमारे सामने  आता है। लेकिन उलट है। हम बो कुछ भी लेते  है. लेकिन काटते वक्त हम उम्मीद करते है कि हमें वहीं  मिले जो हमारी इच्छा है। लेकिन ये कहां होता है। 

Thursday, May 5, 2016

आनंद ने मार्टिन लूथर की बातें भेजी हैं। पढ़कर मजा आ गया।

आनंद हमारे छोटे भाई है। लेकिन व्यवहारिक बातों में हमसे कई गुना ज्यादा जानते है। जरूरत पढ़ने पर दुनियादारी के मसले पर हम उनसे पूछते रहते है। लेकिन क्या करें। और लोगों की तरह वे भी मुझसे दुखी रहते हैं।अपनी गप्पें देने की आदत। आलसी स्वभाव और खून के साथ नसों में बहता निक्कमापन उन्हें परेशान करता है। आज उनने सागर से  एक अच्छी बात भेजी। मार्टिन लूथर किंग ने कहा है कि अगर तुम उड़ नहीं सकते तो दोड़ो। अगर तुम दोड़ नहीं सकते तो चलो। अगर चल भी नहीं सकते तो रेगों। पर आगे बढ़ते रहो। अपनी सोच और दिशा बदलो। सफलता आपका स्वागत करेंगी । बात अच्छी लगी सो सोचा आप तक पहुंचा दे। संसद की रिपोर्टिंग थका देती। सो इस बात पर गप्प फिर कभी करेंगे।

Monday, May 2, 2016

बुंदेली कहावत है। बाल्टी में रस्सी जरूर बांधना नहीं तो कुए का अपमान होता है।


दादा सीधे साधे सज्जन व्यक्ति थे। वे शब्दों के खिलाड़ी नहीं थे। न गप्पे ठोकना। न बड़ी बड़ी बाते करना। न रोचक बातें सुनाना। शब्दों से जाला बुनना। लोगों को अपने साथ सिर्फ बातें हांककर जोड़ना उन्हें नहीं आता था। लेकिन उनका हथियार मेहनत थी। वे मेहनती थे। गजब के। न जाने क्यों उनका ये गुण अपन तक नहीं पहुंच पाया। लिहाजा मैं ये कहकर बहुत सी बातें नहीं लिख सकता कि मेरे दादा कहते थे। लेकिन आज उनकी एक बात जो उन्हें बहुत पसंद थी मुझे याद आ गई। वे कहते थे कि बरसात में कई बार खेतों की कुइयों में पानी जमीन की सतह ता आ जाता है। तुम चाहो तो पानी सीधे कुएं से भर सकते हों।लेकिन तुम्हारे इस व्यवहार से कुएं का अपमान होता है। इसलिए हमेशा कोशिश करना कि बाल्टी में चाहे आधे हाथ की रस्सी बांधों लेकिन बांधना जरूर। इतना लिहाज हमेशा रखना।

Saturday, April 30, 2016

कान्हा की पुरानी टीचर देखकर रो पड़ी। कहा 23 साल में पहली बार कोई बच्चा मिलने आया है।

शनिवार था। देर से दफ्तर जाना था। सोने का पूरा मूड था। लेकिन सुबह पांच बजे से ही कान्हा ने ऊधम शुरू कर दिया। छह बजे उठ ही गया। कान्हा की जिद पर आज पहली बार इतना गुस्सा हुआ। चिड़ आई। पेऱशान हुआ। लेकिन बाद में आंखे ही डबडबा गई। आसुओं को बड़ी मुश्किल से रोक पाया। कान्हा ने अपनी प्ले स्कूल मालवीय नगर में ही की है। उस स्कूल में कान्हा को अपनी टीचर रीमा मैडम बहुत पसंद  थी। वक्त के साथ सब कुछ छूटता चलता है। लेकिन आदमी एक कच्ची सी डोर में  कुछ रिश्ते अपने साथ लेकर चलता है। इस साल कान्हा ने नरसरी में दाखिला लिया। तो पूरानी स्कूल छूट गई। और टीचर भी। शनिवार को उनकी अमिटी बंद थी।लेकिन वह सुबह से ही जिद कर रहा था। पुरानी स्कूल चलना है। रीमा मैडम से मिलना है। सो तैयार होकर चल पड़े। रास्ते में कहा मैडम तो हमको चाकलेट देती थी। उनके लिए भी एक चाकलेट ले लो। महीने की तीस तारीख को कान्हा का यह प्रेम मुझे कुछ ज्यादा ही महंगा लग  रहा था। लेकिन तीन साल के बच्चे को यह कैसे समझाएं की महीने की आखरी तारीख को महंगी चाकलेट किसी को देना अच्छी आदत नहीं है। लेकिन गुस्से में यह जिद भी पूरी की।
शनिवार को स्कूल उदास दिखते है। शायद उनकी रोनक उन बच्चों में होती है। जिनकी चहल कदमी  से वे जिंदा होते है। जैसे ऩई कोपल किसी भी पुराने पेड़ को जीवित बना देती है। सो उस उदास स्कूल में सन्नाटा पसरा था। कुछ टीचर आने वाले हफ्ते की तैयारी में जुटे थे। लेकिन कान्हा की आवाज गूंज गई। रीमा मेंम। मेम वो बैठी है। उन्हें शायद माजरा समझ में नहीं आया। यह बात उन्हें समझनें में।फिर यकीन करने में काफी देर लगी कि कान्हा उनसे मिलने आया है। चाकलेट लेकर। जब उन्हें यकीन हो गया तो वे चुप सी हो गई। कहने लगी। हमको इस स्कूल में 23 साल हो गए। जिंदगी में पहली बार कोई बच्चा मुझसे मिलने आया है। प्ले स्कूल का टीचर न बच्चों को याद आता है। न उनके मम्मी पापा को। उन्होने कान्हा को गोद में ले लिया। उससे बात करती रही। जब हम कान्हा को लेकर वापस आ रहे थे। तो उसके गाल पर दो आंसू चिपके थे। रीमा मैडम के। मुझे लगा ये दो अमृत की बूंदे है। जो शायद मेरे बेटे को  जीवन भर आशीर्वाद के रूप में काम करेगीं। मैंने भी सोचा जब भी सागर जाउंगा तो अपनी पहली टीचर के पैर छून जरूर जाउंगा। कान्हा ने आज मुझे  जिंदगी का पहला सबक सिखाया है। 

Friday, April 29, 2016

कान्हा परेशान हैं कि वो अपने आप को नहीं देख पाते। उसे कौन बताए हम भी तो नहीं देख पाते।

मेरा तीन साल का बेटा कान्हा परेशान है। वो अपने आप को नहीं देख पाता। लेकिन उसे कौन बताए कि हम भी तो अपने आप को नहीं देख पाते। दूसरों को ही देखते हैं। जिस दिन इतनी क्षमता विकसित हो जाएगी। अपने अाप को देखने की उस दिन हम संत हो जाएगें। मैंने कहीं पढ़ा था। इस दुनिया में तीन चीजें सबसे सख्त है। हीरा। इस्पात। और अपने आप को जानना। वैसे यह बात भी है कि हम कोशिश ही कब करते है।अपने आप को जानने की। हर दम हम दूसरों से या तो अपनी तुलना करते रहते है। या फिर उन्हें बेहतर मानकर उनसे जलते रहते है। कल एक नेताजी के पास हम बैठे थे। वे अपने समय कई दिग्गज नेताओं के साथ काम कर चुके है। इनमें सीताराम केशरी भी शामिल है।  उन्होंने एक अच्छी बात कही।  राजनीति में हर वो व्यक्ति जो तारीफ अपने मुंह से करता है। यकीन मानकर चलिए उसे मूर्ख बनाया जा सकता है। और यही कमजोरी हमारे कई बड़े नेताओं में  है। उन्होंने यह भी  कहा कि इस मनोविज्ञान के व्यक्ति से लंबी बातचीत  करना आसान होता है। एक मुख्यमंत्री ने  उन्हें दस मिनिट के लिए चाय पर बुलाया था। लेकिन इस कमजोरी के चलते बैठक लंबी चली। मुख्यमंत्री जब भी चुप हो। वे उनकी शान में एक बात गिना दी। वे फिर शुरू हो जाए। और बात मुलाकातों और मुलाकातें दोस्ती में बदल गई।
कान्हा शायद बड़ा होकर समझ जाएगा कि अपने आप को देखना कठिन काम है। जो अपने अाप को देख ले। समझ ले। फिर वो कभी दुखी नहीं होता। संतुष्ट हो जाता है। क्यों की हम अपने दुख से कम दुखी है। दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी  है। 

Thursday, April 28, 2016

कान्हा स्कूल जाते वक्त रोता है। और अनिता लौट कर

कान्हा स्कूल मजे से जाता था। कभी कभार मना करता था। लेकिन अब नर्सरी में कुछ दिनों से दुखी है। शायद उसका समय अब करीब करीब तीन गुना हो गया है। वो भी एक वजह है। लेकिन बहुत पूछने पर उसने बताया कि उसे स्कूल जाने से डर लगता है। वजह उसने बताई कि मैडम बच्चों को जोर से डांटती है। मैंने पूछा तुम्हें डांटती है। कहा नहीं। बोला हम तो शैतानी करते नहीं। जो बच्चे शैतानी करते है। उन्हें डांटती है। मैने पूछा तो तुम क्यों डरते  हों। मजेदार जबाब दिया। कहा कभी हमें डांट दिया तो। मैंने मन में सोचा। डर का  यही सिंद्धांत है। जो हम शुरू से  ही सीख जाते है। मैंने कहीं पड़ा था कि जिंदगी में हम उन चीजों  के लिए भी कई बार चिंतित हुए.जो कभी हुई ही नहीं।. ..लेकिन क्या कर सकते है। यही मानव स्वभाव है।
हमारे बुंदलेखंड में  एक लोक कथा है। मुझे अच्छी लगती है.। आपको  भी सुना देता हूं। एक व्यक्ति गर्मी में घर के  बाहर सो रहा  था। अचानक जोर जोर से रोने लगा। लोगों ने पूछा क्या हुआ। बोला अभी तो कुछ नहीं हुआ। फिर क्यों  चिल्ला रहे हो। लोगों ने दूसरा सवाल पूछा। उसने बताया कि उसकी छाती पर से एक चींटी निकल गई है. लोगों ने कहा तो रोने की क्या बात है। उसने  कहा कि कल चूहा निकलेगा। फिर बिल्ली निकलेगी। कुत्ता निकलेगा। एक दिन देखते देखते हाथी निकलेगा। और मैं फिर मर जाउंगा। आज जानवरों ने रास्ता देख लिया है.। इस लिए मैं रो  रहा हूं।
बहुत मुश्लिक होता है। रोते हुए बच्चे को  स्कूल भेजना । कितनी बातें। कितना समझाना। कितनी कहानियां गढ़ना। लेकिन अंत में जब वह स्कूल के  गेट पर चिपट कर रोता है। और कहता हैं मैं शैतानी भी नहीं करूंगां। मुझे वापस घर ले चलो.।.  हांड़ मुंह को आते है। शायद इसीलिए यह काम न कभी मेरे पिता कर पाए। और न मैं। मुझे दादा भेजते थे। कान्हा को  उसकी मां।  लेकिन कान्हा स्कूल जाते वक्त रोता है। और अनिता उसे भेजकर वापस आती है। जब रोती है। 

Wednesday, April 27, 2016

बहुत दिनों बाद बारात देखी। सो ठिठक कर देखता रहा।

सालों हो गए। किसी की बारात में गए ही नहीं। अब दिल्ली में सीधा reception का चलन है। कोई बारात के लिए अब बुलाता नहीं। सागर से इक्का-दुक्का फोन कभी-कभार आ जाते हैं। सो अपन जा कहां पाते है। लिहाजा अब बाराती बनने के सोभाग्य से अपन वंचित है। लेकिन सोचते है कि अभी भी लोग मुंह में रुमाल फंसा कर नागिन डांस कर रहे होगें। बारात जब लड़की की घर पहुंचती है। तो डांस बदल जाता है। नाचने वालों के अंदाज बदल जाते है। हर स्टेप छत पर देखकर होने लगता है। कुछ लोग जिन्हें सदियों से सिर्फ बारात जल्दी लगवाने की जिंम्मेदारी इश्वर ने दी है। शायद अभी भी चिल्लाते होगें। जल्दी करो। समय हो गया। वे लोग जो जन्मजात ही ट्रैफ्रिक को दूरुस्त करने में लगे रहते है। अपना काम कर रहे होगों। हालांकि वे बड़ा महत्वपूर्ण काम करते है। और हां जीजा-फूफा अभी भी बारात में देरी करवा रहे होगें। उन्हें इज्जत जो कम मिली है। चाचा जी अभी भी गुस्से में होगें। कहते होगें। अब बुजुर्गों की इज्जत कहां रही। चलो जैसा चल रहा है। तो चलने दो बारात के पीछे पीछे महिलाओं से अलग। छोटी मौसी या मंजली बुआ गुस्से में चल रही होगीं। वजह अजीब है। महीनों पहले तय हो गया था कि वे शादी में पिंक साडी़ पहनेगीं। चप्पल बबली की पहनेगीं। लेकिन अाज बबली ने अपराध किया है। खुद ही पिंक सूट पहन लिया। और चप्पल भी। अब बुआ जी को काली चप्पल पहननी पड़ी। वे गुस्से में है। पहले से मना कर देती तो बुआ जी कम से कम दस जोड़ी चप्पल ला सकती थी। आज इस परदेश में कहां से लाए।। दुल्हा पान खाकर बैठा था। अपने कुछ दोस्तों को नांचने के लिए कह रहा था। हमनें सोचा चलो पिछले 40 सालों में कछ नहीं बदला। और हां कुछ लोग छूट ही जाएगें। जिनके तिलक नहीं हो पाएगें। बात पैसे की नहीं थी। बात सम्मान की थी। उन्हें सालों तक कहने का मौका मिलता रहेगा।
हमारे समय में बारात बदल रही थी। उसमें नई नई चीजें आ रही है। बसों का चलन आम हो चला था।किराए के चार पहिया लेकर जाना। नौजवानों का नया फैशन था। दुल्हा का छोटा भाई अपने दोस्तों के साथ जीप करके जाता था। बसों में बुजुर्ग और महिलाओं की संख्या बड़ रही थी। डांस में डीजे शुरू हो रहा था। दुल्हें के साथ बराताी भी सूट पहनने लगे थे। नागिन के साथ साथ भांगड़ा शुरू हो गया था।

Tuesday, April 26, 2016

दोस्त ने सलाह दी है। सोशल मीडिया कमजरो दिखने की जगह नहीं है। न ही हर वक्त रोने की।

गालियां देना शुरू किया। उन्होंने फोन उठाते ही। हैलो नहीं कहा। वे गालियां नहीं लिख रहा हूं। बेवजह आपके मुंह का स्वाद खराब होग। कहने लगे पागल हो गए हो क्या। आजकल फैसबुक पर क्या लिखते रहते हो। हर समय रोते क्यों रहते हो। सोशल मीडिया को समझो। यहां पर कमजोर मत दिखो। अगर हो तो भी नहीं। यह प्लेटफार्म दुख या परेशानी सांझा करने के लिए नहीं हैं। इसका इस्तेमाल तुम भले ड्राइंग रूम में बैठकर कर सकते हो। लेकिन यह तुम्हारा ड्राइंगरूम नहीं है। देखा नहीं तुमने। लोग कितने सज संवर के। अपना फोटो अपडेट करते है। यहां पर अपना हर एचीवमेंट शेयर करते है। यहां कुछ अच्छा लिखो। यहां पर जितने हो उससे बड़े दिखों।
मैंने उनका फोन रखा। और मुझे अपनी स्कूल की कालू मैडम याद आ गई। कालू मैडम ने पहली बार दर्द से परिचय कराया था। बहुत छोटा था। शैतान भी नहीं था। लेकिन कालू मैडम पूरी क्लास को एक साथ मारती थी। थोड़ा भी कोई हल्ला करे। वे पूरी क्लास को खड़ा करके एक साथ मारती थी। उम्र में कम थे। तो कई बार हम लोग रोेने भी लगते थे। उनकी विशेषता थी। जो रोया उसे वे एक स्केल और मार देती थी। चिल्लाकर कहती थी। बिलकुल चुप। रोना मत। हमारा समाज भी कालू मैडम होता जा रहा है। मारता भी है। और रोने भी नहीं देता।
मैं उस समाज को अपना कैसे कहूं।जहां पर रोने के कायदे हो। और हंसने के लिए नियम। यानि अगर अाप अपना दुख सुख भी अपने मुताबिक नहीं अभिव्यक्त कर सकते तो फिर समाज आपका कैसे हुआ। और हर वो चीज जो अपने हिसाब से अभिव्यक्त नहीं की जा सकती। वो कुंठा बन जाती है। कुंठित समाज हो या व्यक्ति तरक्की नहीं कर पाता। मैं ऐसा मानता हूं।

Monday, April 25, 2016

सलाह देने से अपना अहंकार सतुष्ट होता है।

हमारे पिता पान के बहुत शौकीन हैं। उनके जीवन में पान की दुकान के किस्सों का भंडार है। वे एक बात अक्सर सुनाते हैं। सिविल लाइंस चौराहे पर एक दादा की पान  की दुकान थी। वे पान की दुकान चलाने वाले दादा कम और डाक्टर ज्यादा थे। उनके पास हर बीमाारी का इलाज होता था। पिता ने बताया कि वे एक डाक्टर मित्र के साथ हाइड्रोफोबिया पर कुछ बात कर रहे थे। बात चल रही थी।  कुत्ता काटे और फिर हाइड्रोफोबिया हो जाए तो बचना मुश्किल है। दादा ने बीच में ही अपना इलाज बताया। बोले डाक्टर साहब जिस व्यक्ति को यह बीमारी हो जाती है तो क्या उसके पेट में  पिल्ला हो जाते है। यानि कुत्ता के बच्चे। डाक्टर साहब को भी लगा कि बात बड़ाने  से क्या फायदा। चालू भाषा में ही समझा दो। वे बोले हां। फिर दादा ने इलाज बताया बोले डाक्टर साहब जिस व्यक्ति के लिए यह बीमारी हो उसे दस्त की दवाई दे दो। जितने कुत्ता के पिल्ला पेट में  होगें। वे सब निकल जाएगें। पिता ने कहा हां दादा और चाहोंं तो उन पिल्लों को बैच भी दो। दादा चुप रहे। लेकिन वे इस बात से सहमत जरूर थे।
कुछ बातें तय है।  जैसे देने वाला बड़ा होता है। चाहे वह सलाह ही क्यों न हो। किसी को भी सलाह देने  के कई फायदे हैं। सबसे पहले जैसे ही आप सलाह देते है वैसे ही सामने वाले से ऊपर हो जाते है। वह आपकी सलाह सुन रहा है। इसका मतलब साफ है। वह आप से कुछ ग्रहण कर रहा है। और आप मुफ्त में उसे कुछ दे रहे है। यह भाव आते ही व्यक्ति कृष्ण हो जाता है। इसे जाने बिना ही कि सामने वाला अर्जुन हुआ या नहीं। उसमें देवत्व प्रवेश करता है और गीता शुरू हो जाती है। अपन जैसे लोग जो जिंंदगी की दौड़ में पीछे रह गए उन्हें सलाह देने वाले बहुतायत में मिलते है। वे लोग जो संयोग से किसी बेहतर नौकरी में चले जाते है। उनसे मिलकर तो मजा ही आ जाता है। वे तो अलबर्ट आइंसटीन को फीजिक्स समझाने को भी तैयार रहते  है।
लोग अपनी बात पूरी करके यह जरूर कहते है कि हम तो भैया मुफ्त में सलाह दे रहे है। मानना हो तो मानो न मानना हो तो मत मानो।  हालाकि जिन दो जगहों पर जहां हमें अक्सर सलाह की जरूरत होती है। वहां  पर मिलती नहीं। जो जरूरी होती है। उसकी कीमत होती है।चाहे डाक्टर से सलाह लेनी हो या फिर वकील से। फीस तय है। ये अलग बात है कि हर बीमारी का उपचार किसी ने किसी के पास होता ही है। जैसे उसके पास अपनी समझदारी के किस्से रटे हुए रहते है.। हिंदुस्तान में तो रास्ता चलता व्यक्ति भी  डाक्टर है। वह अापको हर बीमारी का इलाज बता देगा। 

Sunday, April 24, 2016

गर्मी के इस मौसम में। कालेज के दिन और तुम बहुत याद आती हो।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों का विजय चौक अड्डा है। हमारे लिेए यह उस पेड़ की तरह है जहां हम हर उड़ान के बाद यहां कुछ देर को आते हीं है। इसकी कई वजह है। हमारी ओवी वैन यहीं खड़ी रहती है। लिहाजा हम अपनी स्टोरी इसी जगह से दफ्तर भेजते है।  हम जो भी काम करके लाते है। उसे यहीं से मोक्ष मिलता है। इसके अलावा तमाम पत्रकार यहीं जमा रहते है। सो गप्प बोनस में। टीवी में कोई भी पत्रकार तोपची नहीं हो सकता। कुछ  न कुछ किसी न किसी से कभी न कभी छूट ही जाता है। सो विजय चौक ऐसी जगह है। कि जब अपने छूटने से अपनी अटकी रहती है। तो यहीं  पर हम लोग अपने किसी साथी से ट्रांसफर ले लेते है। और उसे दफ्तर भेजकर नार्मल हो जाते है। खाना पीना भी यहीं पेड़ के नीचे होता है। इसके अलावा यह हमारे काम के सर्किल के बीच में हैं। लिहाजा किसी भी इमरजैंसी में यहांं से जगह तक पहुंचना सबसे आसान है। सो विजय चौक पर हम लोग सुबह दस बजे आकर खाम ठोक देते है। और आकर  बैठ जाते है।
कुछ काम खास नहीं था। फुर्सत में ही था लगभग। विजय चौक पर आकर बैठ गया। लू के थपेडों से बचने के लिए शायद कुछ लोगों ने  कुछ उपाय कर रखे होगें। सो ठेठ  दोपहरी में कोई साथी दिख भी नहीं रहा था। ना जाने क्यों पेड़ के  नीचे अकेले बैठने की इच्छा हुई। सो किसी योगी की तरह ध्यान जमा लिया। वे उदास सी दिख रही सरकारी इमारतें। अपने में एक अलग तरह का सूनापन लपेटे विजय चौक। जैसे अभी अभी थक कर सुस्ताने के लिए बैठे हों रास्ते। इन सबके बीच से होता हुआ मैं अपनी यूनिवर्सिटी पहुंच गया। इसी तरह का मौसम और बिलकुल ऐसा ही माहौल होता था परीक्षा के  आसपास। इस मौसम में हर किसी के पास जो होता था वही छूटता नजर आता था।. किसी से क्लास छूटती थी। किसा से हाथ छूटता था। किसी का साथ छूटता था। मौसम बेरहम होकर पेड़ों से उनके पत्ते तक ले जाता  था। लेकिन प्रकृति ने हमारे साथ धोखा किया है। जिन पेड़ो से वह पत्ते ले गई थी। उनके पत्ते फल सहित वापस कर दिए। जिस खेत से नमी ले गई। बारिश की पहली बूंद से उनकी शिकायत दूर हो गई। लेकिन प्रकृति जो हमसे छीन कर ले गई। वो आजतक उसने वापस नहीं किया।


Saturday, April 23, 2016

प्यास लगी है। बहुत तेज। दलाली की कुदाल से कुआं खोदूं या फिर कलम से।


किस्से कहानियां। कहावते। संस्मरण। जब सुनों तो कितने अच्छे लगते है। लेकिन जब खुद ही आजमाएं जाओ। तब मुश्किल होती है। तब उनके अर्थ शब्दों से निकलकर तुम्हारे सामने जिंदगी-जिंदगी खेलते है। अपन ने कितने बार सुना है कि नाविक की परीक्षा तूफान में होती है। पुरूष का धीरज मुसीबत से परखा जाता है। भोजन का संयम। भूख लगने पर समझ में आता है। यह बात सच मालुम होती हैं। जब तुम संकट में हो। तुम्हें किसी चीज की जरूरत हो। और तुम उसकी उपलब्धता से इंकार करते है। कुछ विचारों की वजह से। यहां आकर विचार बड़े हो जाते है। और जरूरत छोटी।
पिछले कुछ दिनों से अपन आर्थिक तंगी से गुजर रहे है। ऐसे में पत्रकारों के सामने एक आसान तरीका होता है दलाली का। उन लोगों को जिन्हें तुम जानते पहचानते है। उनके दलाल हो जाओ। यह कमाऊ तरीका भी होता है। और आसान भी। समाज इस तरह की चीजों को पहले ही स्वीकार कर चुका है। आपको समझोता अपने आप से करना है। दूसरा रास्ता होता है। लिखने पढ़ने का। कठिन और लंबा। जिंदगी कई बार दोराहे पर आकर खड़ी हो जाती है। लेकिन तुम्हारे कुछ अपने होते है। उनकी भी परीक्षा होती है। शिव भैया से गप कर रहा है। उन्होंने कहा कि कई बार कुदाल से कुआं खुद तो जल्दी जाता है। लेकिन पानी पीने लायक मिले। जरूरी नहीं। कलम से कुआँ न सही कोई नहर ही बन जाए। और अगर कहीं कोई झिर मिल गई। तो तुम्हारा भाग्य हो सकता है। लेकिन तुम्हारे अपने उस झिर से प्यास बुझाकर खुश होगें। लेकिन कई बार आदमी कुआँ का पानी पीकर कहता है। पानी खारा है। और प्यास भी नहीं बुझती। रही तुम्हारी प्यास की बात तो तुम्हें प्यासा नहीं मरने देगें। इसकी जबावदारी हम लेते है।

Friday, April 22, 2016

लोग उन्हें सनकी। पागल कहते रहे। लेकिन वे जिंदगी भर अपने मरे हुए दोस्त के साथ घूमते रहे।

बात मजाक से शुरू हुई। लेकिन मुझे यह सालों पुराना किस्सा याद आ गया। मेरे दादा यह किस्सा सुनाते थे। वे बताते थे। शुरूआती दिनों में उनके साथ एक तिवारी जी मास्टर थे। कम बतियाते थे। बेहद दिमागदार। अनुशासित। छात्रों में बेहद लोकप्रिय। लेकिन वे किसी से तपाक से नहीं मिलते थे। वे धीरे धीरेे घुलते थे। जैसे पानी में शक्कर घुलती है। और फिर एक दिन अचानक उनके व्यक्तित्व की पूरी मिठास तुम महशूश कर सकते थे। उन्हें कुछ लोग पागल। कुल लोग सनकी। और कुछ लोग हाफ माइंड भी कहते थे। उकने जीवन का एक किस्सा है। जो मेरे दादा को बहुत प्रिय था। और उन्होंने सुनाया तो मुझे भी प्रीतीकर लगने लगा।
तिवारी जी आठवी क्लास में थे। जब उनकी मित्रता एक दोस्त से हुई। मैं नाम नही जानता। शायद दादा भी भूल गए थे। दोनों मित्रों में प्रेम भी था। दोनों लोग सुबह उठकर घूमने भी जाते थे। दोस्ती ऐसी हुई। दोनों की नौकरी भी मास्टरी की लगी। वो भी एक ही स्कूल में। और उनका सुबह का घूमना बा दस्तूर जारी रहा। हादसा कैसे हुआ पता नहीं। लेकिन एक रेत से भरे ट्रक ने उन्हें कुचल दिया। और मौके पर ही उनकी ठौर मौत हो गई। लेकिन इस हादसे का तिवारी जी पर अजीब असर हुआ। वे दूसरे दिन अपने दोस्त के घर पहुच गए। जैसे उसे लिवाने जाते थे। फिर वापस उसे छोड़ने भी गए। जब भी तिवारी जाते थे। उनके दोस्त तैयार होने में हमेशा कुछ समय लगाते थे। तो उन्हें कुछ देर रुकने की आदत थी। सो बे हमेसा कुछ देर रुकते भी थे। शुरूआत में लोगोंं ने कहा कि शायद यह दोस्ती का दिखावा है। कुछ महीनों बाद लोगों ने कहा कि सनक है। फिर किसी ने कहा पागलपन है। फिर कहा गया कि हादसे से उनके जीवन पर गलत असर हुआ है। बात तो जब अजीब हो गई। जब उनके दोस्त के परिवार वालों ने उनके चलते घर ही बदल दिया। लेकिन दादा बताते थे। तिवारी जी जब तक जीवित रहे। अपने उस दोस्त के घर जाते थे। और उसके साथ जीवन भर घूमते रहे।
मुझे अब लगता है क्या था यह। सनक। पागलपन। या फिर प्रेम। क्या किसी नियम के प्रति इतना समर्पण मुमकिन है। जो भी हो। लेकिन आज की दुनिया में ऐसा किसी का करना। नार्मल नहीं है। लिहाजा वे जो भी थे। नार्मल नहीं थे।

Thursday, April 21, 2016

पढ़कर अच्छा लगा। पूरी दुनिया में आप जैसा दूसरा कोई नहीं।

पढ़ने लिखने का मौका कम मिलता है। यह बहाना नहीं चलेगा। जानता हूं। जिन्हें पढ़ना होता है। वे पढ़ ही लेते है। कभी भी कहीं  भी। लेकिन कहने में अच्छा लगता है। यह मुहावरा। पढ़ने लिखने का वक्त ही नहीं मिलता। इससे दो बातें साबित हो जाती है। पहली हम पढ़ने-लिखने वाले हैं। दूसरा आजकल काम में व्यस्त है। सो हम भी चूकेंगे नहीं। इन दिनों पढ़ाई-लिखाई नहीं हो रही। बहुत दिनों से कोई किताब ही नहीं  खरीदी। हां शुक्र है। WhatsApp का। आजकल दुनिया  के तमाम जानकार। दार्शनिक ।साहित्यकार। यहां मिल जाते हैं। और अपन अपडेट रहते है। एक मि्त्र ने ओशो का एक संदेश भेजा। बड़ा प्यारा। और उत्साहवर्धन करने वाला है। उसमें लिखा है। पूरी दुनिया में अगर तुम एक पत्ता लेकर भी निकलो। तो उस तरह का। उस जैसा। पूरी तरह उसकी फोटो कांपी मिलना मुमकिन नहीं  है। भगवान ने हर चीज को एक ही बनाया। इसमें उसने किसी को भी repeat नहीं किया। यह जानकार अच्छा लगा।
पिछले कई दिनों से। मन कुछ परेशान सा है। लगता है कि जिंदगी की किताब के पन्ने फिर से पलटकर देखे। कहीं कुछ गलत तो नहीं सीखा-समझा है। लेकिन अोशो की  यह बात पढ़कर अच्छा लगा। और उत्साह भी आया। लगा कि अपना सिर्फ होना ही सार्थक है। भगवान ने इस पूरी दुनिया में अपने जैसा कोई दूसरा नहीं बनाया। लिहाजा किसी दुसरे से अपनी तुलना करना बेमानी है। हर किसी की सफलता। हर किसी की असफलता। उसके जीवन मूल्य। उसकी चाल। उसका चरित्र। सब कुल अलग है। जब हमारे जैसे कोई दूसरा इस दुनिया है ही नहीं। फिर किसी से क्या तुलना। अपना आलस्य। अपनी गप्पे। अपनी बाते। अपनी हार। अपनी असफलता। सब कुछ अपना है।एक दम यूनिक। यानि न कोई अपन से आगे।  न अपन किसी से पीछे। सब के रास्ते। अलग अलग है। सबकी मंजिले अलग अलग है। जो कुछ हमारे पास है वो किसी दूसरे के पास नहीं। लिहाजा जो भी हमारे पास है। वह कीमती है।और शायद हम भी। और आप भी।

Wednesday, April 20, 2016

नसेनी को टिकाने के लिए दीवाल मत खोजो। हम आपस में ही कैंची बना लेते हैं।

सुबह सुबह मेरे एक भैया का फोन आया। पूछा क्या हाल चाल है। सवाल का जबाव देते देेत थक सा गया हूं। कह दो ठीक-ठाक हैं । तो प्रश्न पूछने वालों को क्या फर्क पड़ता है। कह दो यार परेशान है। तो वह कह देता है। अरे यार हम भी परेशान है। वक्त ही ऐसा कुछ चल रहा है। हर कोई परेशान है। इस तरह बात को खत्म ही कर देता है। और अपने काम की बात करने लगता है। जिसके लिए उसने फोन किया था। मैंने इस बार कुछ जबाव बदल दिया। कहा कि खाई में हूं। सहारे के लिए दिवाल भी नहीं मिलती। जिसके सहारे अपनी नसेनी टिका सकूं। और इस खाई से बाहर आ जाउं। उनका जबाव सुनकर मजा आ गया। कहने लगे । परेशानी में दीवाल नहीं मिलती। न सीड़ी टिकाने के लिए। न छत डालने के लिए। हम भी परेशान है। और तुम भी। चलो कैचीं नसेनी बना लेते है। और बाहर निकलते है। मुझे थोड़ी देर बाद बात समझ मेंं आई। और फिर लगा कि  परेशानी में वही मददगार होता है। जो खुद भी परेशान हो। उनकी बात  जम गई।
उम्र में बड़े है। इसलिए भी भैया कहता हूं। बातें भी अच्छी अच्छी करते हैं। लेकिन संबंध दोस्ताना है। वे भोपाल के बड़े कारोबारी है। लेकिन कई बार वक्त न जाने किस चाल से चलता है। उसे समझना मुश्लिक होता है। सो वे भी कुछ दिनों से परेशान  हैं। लगातार कारोबार में घाटा। फिर उनकी फैक्ट्री में एक बड़ी आग। सो वे भी कुछ अपने जैसे ही हो गए हैं। बुंदेलखंड में एक कहावत है। दुखिया ने दुख कउ। सुखिया ने  हंस दउ। मानवीय मनोविज्ञान पर  शायद ही इतनी अच्छी बात कही गई हो। हम अक्सर अपना  दुख उन्हें सुनाने जाते है। जिन्हें इसके व्याकरण से वास्ता ही नहीं होता। न वे यह भाषा समझते है। न ही इसमें कही गई बात। लिहाजा वे इसका जबाव अपनी भाषा में ही देते है। जिसके पैर में  कभी बिमाई नहीं फटी। वह दुसरे का दुख नहीं समझ सकता। सो मुझे लगा कि परेशानी में हमेशा उनका सहारा ही तको। जो तुम्हारी तरह ही परेशान है। वे ही मददगार साबित होगें। उऩ्हीं के सहारे अपनी नसेनी टिकाउं। कैसीं बना लो। और बाहर निकल आओ।

Tuesday, April 19, 2016

जानवर भी अपनी जानकारी के जरिए अपनी क्षमताओँ को अपडेट कर लेते हैं।

मैं कुछ परेशान सा हूं। इन दिनों। मेरे तमाम अपनो को लगता है। मेरे चाहने वाले लगातार फोन कर रहे हैं। और अच्छी अच्छी बातें सुना रहे है। मेरे चाहने वालों को लगता है शायद किसी न किसी बात से मुझे मोटिवेशन मिल जाए। और मेरा रुका हुआ चक्का चल पड़े । जो शायद जाम हो  गया है। मेरे एक दोस्त ने फोन करके सुनाया कि उन्होंने एक रिसर्च पड़ी है। रिसर्च जानवरों पर हुई। उसके नतीजे हैरत में डालने वाले है। बड़ी मजेदार बातें कही गई है। उन रिसर्च के नतीजों में। महत्वपूर्ण बात है। जानवर और पक्षी अपनी क्षमताओं को बेहतर तरीके से जानते है। वे अपनी जानकारी से उसे अपडेट भी करते  रहते है। जैसे किसी जानवर को पता है कि वह शेर से तेज नहीं दौड़ सकता। तो जब भी उसका सामना शेर से होगा। तो वह हमेशा तिरछा तिरछा भागेगा। या वह इस तरह से भागेगा जहां पर उसका अपना कौशल काम आए। अपनी सफलताओं और असफलताओं के जरिए वह अपनी छमताओं को अपडेट करते रहता है। यह बात इंसानों में भी है। लेकिन हम इसका उपयोग नहीं करते है। यह हमारी असफलता की एक प्रमुख वजह है.
मेरे मित्र ने कहा कि जीवन में यह करते रहना चाहिए। जब हम अपने फोन और कंप्यूटर अपडेट करते रहते है। तो हमें अपनी छमताओं को भी अपडेट करते रहना चाहिए। हो सकता है बड़ी हो या फिर घटी हो। दोनों  की ही जानकारी हमारे पास होनी चाहिए। आपने कब  से अपडेट नहीं किया। करिए और मैं भी करता हूं। ताकि फिर कुछ सार्थक किया जा सकें। 

Monday, April 18, 2016

जीवन में लगातार काम करते रहना भी सफलता का एक रास्ता है।

कल आधी रात को फोन बजा। घबराकर उठा। नंबर विचित्र सा था। सो राहत मिली। कोई मुसीबत में अपना वाला नहीं है। फिर दुविधा थी। उठाऊ की नहीं। फिर सोचा और उठा लिया। परदेश से दोस्त का फोन था। वे समय के हिसाब-किताब में कुछ गड़बडा गए। और फोन कर लिया। कुछ देर बार नार्मल हुआ। फिर बातचीत शुरू हई। उसने एक अच्छी कहानी सुनाई। बताया जब वह लंदन में एमबीए कर रहा था। तो उसे सुनाई गई थी। एक कारीगर था। मकान बनाने में उसे महारथ हासिल थी। बहुत सलीके से और बेहतरीन मकान बनाता था। सीधा-सादा और इमानदार भी था। उसने पूरी जिंदगी एक ही मालिक के पास काम करके गुजार दी। लिहाजा पूरी कंपनी में उसका सम्मान था। एक दिन जब वह बूडा हो गया। उसे लगा अब वह थक रहा है। लिहाजा अब वो रिटायर होना चाहता है। जिन्होंने काम अपना मन लगाकर किया हो। उन्हें काम से रिटायर होने पर भी एक सतुंष्टी मिलती  है। सो वह अपने मालिक के पास गया। रिटायरमेंट की बात की। सोचकर गया था कि मालिक जिंदगी भर  की मेहनत की तारीफ करेगा। उसे कुछ तोहफा देगा। प्रंशसा में कुछ कहेगा।और फिर विदा कर देगा।पुरे सम्मान के साथ। लेकिन उल्टा हुआ। उसने कहा कि ठीक है। तुम एक आखरी मकान बना दो। एक दम शानदार। फिर तुम विदा होना। कारीगर गुस्सा हो गया।सोचा कि पूरी जिंदगी कभी छुट्टी नहीं ली। मन लगाकर काम किया। आज जब रिटायरमेंट की बात करने आया। तब भी मालिक को काम ही याद आया।  उसने गुस्से में उस मकान को आनन फानन में पूरा किया। शायद यह काम उसके जीवन का सबसे बुरा काम था। गया और गुस्से में मालिक को चाबी देकर नमस्कार किया। कहा अब तो जाएं। मालिक ने कहा रुको। उसे पूरे सम्मान के साथ बिठाया। उसकी ताऱीफ की और जो मकान की चाबियां वो लाया था। उन चाबियोंं को उसे ही वापस कर दिया। कहा यह तुम्हारी मेहनत और सादगी का इनाम है। यह मकान तुम्हारा है। वह कारीगर हैरत में था। जिंदगी ने उसके साथ मजाक किया था। लेकिन क्या करता।  चुपचाप चला गया। अखिल ने बताया कि जिंदगी में  लगातार एक ही रफ्तार से काम करते रहने का इससे बेहतर उदाहरण मैंने किसी क्लास में नहीं सुना।
मेरी जिंदगी की  यह कमजोरी रही है।मैं कोई भी काम। पूरी मेहनत के साथ ज्यादा दिन तक नहीं कर पाया। इसी लिए शिव भैया कहते है कि तुम हर हफ्ते नया प्लान सुनाते हो। जिस बार तुम अपना पुराना प्लान ही लेकर आओगे।और कुछ उस पर अमल करना शुरू करोगे।सफलता दिखनी लगेगी। क्या आप भी मेरी तरह रास्ते और आइडिया बदलते रहते है। या एक ही रास्ते पर चलते है। चलो रास्ता नहीं बदला। कोई नया प्लान नहीं आया। तो फिर कल मिलेगें। 

Sunday, April 17, 2016

मैंने कहा स्कूल में मेरा कुछ हिस्सा छूट गया है। वो वापस दिला दो।

करीब पच्चीस साल बाद सूर्य प्रताप सिंह से बातचीत हुई। अग्रेंजी में एमए साथ किया था। फिर कुंभ के मेले में भाइयों की तरह बिछड़ गए। WhatsApp ने  आज वापस मिला दिया। पूछा कहां हो। उन्होंने बताया कि सेंट्रूल स्कूल नंबर एक में पीजीटी अंग्रेजी हो गया हूं। मैंने कहा मेरी स्कूल में। उन्होंने हैरत जताई। फिर कहा हां। कहा कुछ काम हो  तो बताना। मैं मदद करूंगा। मैंने कहा कि मेरे कुछ टूटे हुए सपने बारवहीं क्लास के डेस्क पर रखे हैं। उनकी तामील करा दो। स्कूल की लाइब्रेरी में कुछ दोस्त गुम हो  गए थे। वे फिर मिले नहीं। उनसे मिला दो। स्कूल के पीछे एक केैंटीन थी। जहां कुछ रिश्ते बने थे। चाय और चाकलेट में लिपटे थे। वे अधपके रह गए है। उन्हें अंजाम तक पहुंचना था। वे भटक गए। उन्हें मंजिल तक ले आओ। फिजिक्स के लैब में एक कहानी अधूरी सुना कर आ गया था वो पूरी करनी है। समय को वापस पलटा दो। वे बोले ये मैं नहीं कर सकता।
जिंदगी के वे साल पता ही नहीं चले। कितनी स्पीड से निकल गए।  रफ्तार से निकली हुई किसी कार की धुधली सी यांद रह जाती है। बस वही है। कितना मजा। कितने सपने। कितने दोस्त।कितने किस्से। जमीन के उस हिस्से में बनते हैं। पनपते हैं। और जब उऩ्हें छोड़कर हम आगे बड़ते है। तो एक उम्मीद रहती है। कि बस अभी गए। और अभी वापस आकर सब कुछ बटोर कर ले जाएगें। अब तो पच्चीस साल से ज्यादा हो गए। कुछ दोस्त कभी कभार मिल भी जाते है। लेकिन न वो फुर्सत है। न वो तपाक से मिलते है। कुछ जो बह गया है। हमारे बीच अक्सर बना रहता है। लेकिन चलो इच्छा है कि कभी स्कूल जाकर अपना हिसाब-किताब पूरा करेंगे। पूछेगें। कि जो तुमने दिया वो मेरे साथ है। लेकिन जो तुमने देकर वापस छीन लिया था। वो कहां है। जो तुमने साथ किया था। वो मेरे साथ है। लेकिन जो तुम्हारे हवाले कर गया था। वो कहां गया।
स्कूल बताओ वो संडे के बाद बैचेन सी आंखें कहां है। जो सोमवार को दूर तक टकटकी लगाकर देखती थी। वे किताबें कहां  है। जिनके बीच में मैंने कुछ पत्र छोड़े थे। तुमसे कहा था। जबाव लेकर आना। क्या हुुआ। वे सुबहें कहांं हैं। जहांं पर जिंदगी नया जन्म लेती थी। वो ब्लेक बोर्ड कहां गया। जहां पर मेरा नाम उसके साथ मेरे एक दोस्त ने लिखा था। वो सालाना जलसा क्या हुआ। जब पर्दे के पीछे मैने उसका हाथ पहली बार पकड़ा था। वो मार्कशीट कहां गई। जहां  मेरा नाम आने पर उसकी आंखे ज्यादा बैचने होती थी। वो मंच का क्या हुआ। जहां से मैं बोलता था। और दूर से मुझे सिर्फ आंखे बजती हुई दिखती थी। बोलो स्कूल वो गेट कहां  गया। जहां से जानेे की उस रोज इच्छा ही नहीं  थी। मैं जानता था तुम धोखेबाज हो। तुमने कहा था। जाओं। जीवन में आगे चलो। जब कहोगे। तुम्हारा सब सामान वापस मिल जाएगा। स्कूल मुझे वापस चाहिए। वो वक्त। अपने पूरे दोस्त।

Saturday, April 16, 2016

जीवन में एक बार पलायन कर लो। तो फिर हर बार पलायन करना आसान होता जाता है।

यह पूरी बात निजी है। लेकिन सा्वजनिक इसलिए कर रहा हूं। मुझे लगता है। यह मानसिकत किसी एक की नहीं होती। हम सब की है। हम अपने भीतर जब आत्मविश्वास खोते है। मेहनत करने की क्षमता भूलते है। तब हमें हर आसान चीज भी कठिन लगने लगती है। और हम पलायन करने लगते है। लेकिन कितना पलायन इसकी कोई सीमा भी तो हो।हम जिंदगी हारते जाते है। और हमारे बहाने मजबूत होते जाते है। एक दिन वे झूठे बहाने भी हमें खुद को भी सही लगने लगते है।लेकिन इसक नुक्सान यह है कि हम जिंदगी हार जाते है। जो हमें अपमानित करते हैं। हमें उन पर गुस्सा नहीं आती। अपने पर दया आती है।
पोलीपल्ली राजेश्वर राव। पूरा नाम। हम लोग प्यार से उन्हें कभी राजेश तो कभी पी राजेश तो कभी कभार सिर्फ पी से भी काम चलाते है पी राजेश कभी भी कुछ अच्छा पड़ते हैं। कुछ अच्छा सुनते हैं। तो वे हमें जरूर भेजते हैं। हमारे बीच एक अलिखित समझौता है। जो सालों से चल रहा है। खासकर जो बात मेरे चरित्र से मिलती जुलती है। तो वे दुखी होकर। कुछ हंसकर मुझे जरूर सुनाते हैें। कल आधी रात उनका फोन आया। बिना किसी भूमिका के ही कहा। एक बात पढी है। ध्यान से सुनो। एक बार तुम पलायन करते हो तो उसके बाद पलायन करना हर बार आासान होता जाता है। इतना कहकर वे शांत हो गए। अपनी आदत के चलते वे चुप हो गए। शायद चाहते थे मैं अपनी जिंदगी के तमाम पलायन सोचूं। शायद वे हमें वक्त दे रहे थे। और फिर मैं रात की उम्र तो बता नहीं सकता। लेकिन बहुत देर तक सोचता रहा।
मेरी दादी पत्रकारिता को क्या समझती है पता नहीं। लेकिन आर्थिक तंगी को देखकर अक्सर कहती रहती है। मैंने कभी सोचा नहीं था कि तुम जिंदगी में इतने ही बड़ पाओगे। इसी तरह पी राजेश को भी लगता है। मेरे अंदर की आग जल्दी ही बुझ गई। लेकिन सामान कुछ बाकी है। इसे जब भी चिंगारी मिलेगी। एक बार धधकेगी। शायद यही वजह है कि वे बार बार फूंकते रहते है। लेकिन अपनी बेशर्मी है कि अपने अंदर से एक चिंगारी भी नहीं उठती है।
लगा कि पी राजेश से कह दू।अबकी बार भागूंगा नहीं। पलायन नहीं करूगा। चाहे मर जांऊ। लेकिन हिम्मत नहीं हुई। कायरों की तरह लिख रहा हू।ये हिम्मत कहां से और कैसे मिलेगी। लड़ने की मरने की डटने की। पी राजेश को फोन करने की। कोई तो बताओ।

Thursday, April 14, 2016

शिव भैया हारते नहीं हैं। शायद इसीलिए उनके मरीज आसानी से नहीं मरते।

शिव भैया तब भी नहीं हारते। जब मरीजों  के  परिवार वाले। भैया के स्टाफ वाले भी थक जाते हैं। और कहीं न कहीं  यह यकीन कर लेते हैं। भगवान ने मरीज की डोर खींच ली है। मैं मेडीकल भाषा में नहीं समझा पाउगां। लेकिन मैने देखा है कि मरीज के प्राण निकल गए हैं। ऐसा लगता है। शायद। इसके बाद भी वे उसके शरीर के साथ  जद्दोजहद करते रहते हैं। पिछले दिनों मैंने देखा । एक मरीज की शायद मौत की खबर उनका जूनियर उन्हें सुनाने आया था। वे बिजली की तरह भागें। न जाने क्या क्या करते रहे। फिर उसे अापरेशन थिएटर में ले गए। फिर कुछ करते रहे। करीब एक घंटा बाद उस व्यक्ति के साथ वापस लौटे। वे बोलते कम है। लेकिन आखों से लगा कि यमराज को शायद ललकार वापस ले आए हैं।  आज उस मरीज की छुट्टी हो गई। वह स्वस्थ्य होकर  घर चला गया। लिख इसलिए रहा हूं। कि शिव भैया जो दूसरो के साथ करते हैं हम उतना भी अपने साथ नहीं  कर पाते। हम हथियार डालने में। हार मानने में माहिर हो गए हैं। हमारी किस्मत में  नहीं था। यह कहकर चुप हो जाना हमारे लिए ज्यादा आसान है। शिव भैया मानो अपने मरीज के प्राणों के लिए काल से लड़ते है। अपनी बाजूओं और पुरूषार्थ के दम पर उसके चगुंल से  जीवन खींच लाते हैं। इसके लिए शायद यकीन चाहिए। अपने ऊपर। गुस्सा चाहिए सामने वाले दुश्मन पर। और हां जुनून तो चाहिए ही। एक एम्स बनने में शायद कई शिव भैया लगते है। लेकिन एक ड़ॉ शिव चौधरी बनने में ना जाने कितने इंसान लगते होगें। पता नहीं।

Saturday, February 13, 2016

शायद दिख जाए। इसी आशा में आधी रात को भी उसी गली से होकर गुजरते थे।


दादी बहुत चिंता करती थी। सो अपन गिनती के बार ही नौ से बारह फिल्म देखने गए। और वे तभी सोती थी। जब पूरे सदस्य घर आ जाते थे। लेकिन इसके बाद भी कभी आधी रात को घर लौटना हुआ। बाहर गए और आधी रात को सागर लौटे। पढ़ाई के नाम पर जब पूरी रात जागने की नौटंकी करते थे।ऐसे समय में भगवान का नाम लेकर चांस ले ही लेते थे। यानि जब भी मौका मिला उस गली के चक्कर लगा ही लेते थे। उम्मीद में शायद दिख जाए। जिंदगी में मौका किस रूप में आता है। इसकी गैरंटी कोई नहीं ले सकता। यह फार्मूला जिंदगी के हर क्षेत्र में लागू होता है। लेकिन मंजिल के प्रति इतना जुनून कहां होता है। कि आप हर मौके को इस्तेमाल करना चाहते है। वो तो जिंदगी में सिर्फ उसी दौरान होता है। 
अपन ने कभी नशा नहीं किया। सो नशे की तलब नहीं जानते। न नशा करके छोड़ा। लिहाजा नशा न मिल पाने की वजह से जो तड़प होती है उससे भी कभी वास्ता नहीं पड़ा। लेकिन एक सेकेंड को हल्की सी ही सही वह शक्ल दिख जाए तो क्या मजा आता है। और न दिखे तो क्या परेशानी होती है। आप लोग भी जानते होगे। जिंदगी में कभी न कभी किसी को देखने की ऐसी तलब आप को भी हुई होगी। लेकिन समझ में  नहीं आता ये लोग घर में क्या काम करने लगते हैं। कभी एक्सीडेंट से भी बाहर नहीं दिखते। अपन ने दिन के हर पहर मे ंट्राई किया। कभी सफल नहीं हुए।