Friday, December 3, 2010

अपने आप में ही कितने मस्त हो गए हैं हम।

अपने घर के नजदीक तक मेट्रो आ गई है। सो जब कभी पीठ में दर्द होता है। या फिर थकान होती है। तो मेट्रो एक सहारा होती है। और मोटरसाइकिल इतनी दूर चलाने से बच जाते है। सुबह सुबह जल्दी जाना था। इंडिया गेट पर विकलांगता दिवस कवर करने की जिम्मेदारी अपन को दी गई थी। सो मेट्रो के जरिए जल्दी पहुंच जाएगे। ऐसा सोचा, और मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में अगर सीट मिल जाए। तो आपको भी लगेगा कि पब्लिक ट्रांस्पोर्ट कितना सस्ता और आसान है। सीट हमें ही नहीं सभी को मिल रही थी। अपनी बाजू वाली सीट पर आकर एक चमकीला, समझदार और आधुनिक किस्म का युवक बैठ गया। उसने मेरी तरफ हेय भरी नजरों से देखा और फोन निकालकर उसमें कुछ तार लगा दिए। तार कान में चले गए। और जो भी अंदर बज रहा हो। वह झूमने लगा। अगला स्टेशन हौज खास है। दरवाजें दाई तरफ खुलेगें। कृपया सावधानी से उतरें। अपने लिए यही सूचना मनोरंजन का साधन थी। सो अपन ऐसी सूचनाएं सुनने लगे।
मेरे बाजू में बैठे उस युवक के करीब एक बुजुर्ग बैठे थे। वे सूचनाएं सुनने की बजाए। उससे बार बार कुछ न कुछ पूछते रहते। वह बेचारा गुस्से में पूरे तार निकालता। उनकी बात सुनता और फिर ना कहकर आंखें बंद कर लेता। और अपने तार कान में वापस रख लेता। मुझे कुछ देर बाद समझ में आया। वे बुजुर्ग उससे स्टेशन पूछ रहे थे। और वह संगीत में मस्त था। मैं उन्हें बताने लगा। और जब आईएनए का स्टेशन आया तो मैं सहारा देकर उन्हें दरवाजे तक छोड़ आया। कुछ स्टेशन निकल जाने के बाद उसने अबकी बार मुझसे ही पूछा आईएनए स्टेशन। मैंने कहा कि वह तो तीन स्टेशन पहले ही निकल गया। उसने अंग्रेजी की एक गाली दी। मुझे समझ में नहीं आया। वो मेरे लिए थी। या अपने संगीत के लिए । या फिर उस मेट्रो स्टेशन के लिए जो चुपचाप आई और चली गई। इसे बताया भी नहीं।
बात सिर्फ यह नहीं है कि हम अपने में इतने मस्त हैं कि किसी दूसरे के लिए हमारे पास वक्त ही नहीं है। बात उस मस्ती की भी है। जो हमें अपने से ही दूर किए जा रही है। यह मस्ती है या नशा। या फिर सिर्फ दिखावा। कि हमें यही ना पता चले कि हमें जाना कहां है। हमारे लिए महत्वपूर्ण मंजिल है या रास्ते का मजां। जिंदगी भी तो हम इसी तरह जिए जा रहे है। हमें पता ही न चले अपने लक्ष्य का हम सिर्फ एक दिखावे में उलझते जाएं। हम बेहतर है। हम आधुनिक है। हम जिंदगी का सलीका जानते है। सिर्फ इतना ही समझाने के लिए हम अपना वक्त जाया कर रहे है। क्या हम इस तरह की आधुनिकता का दिखावा किए बगैर जी सकते है। मैं न संगीत का दुश्मन हूं। न उस यंत्र का जो हमें कान में संगीत सुनाता है। और हम झूमने लगते है। हम सिर्फ चिंता में है उस बात को लेकर कि हम संगीत के चक्कर में अपना स्टेशन ही भूल रहे है। आप क्या कहते हैं। मुझे लिखिएगा जरूर।

Wednesday, November 17, 2010

Tuesday, November 16, 2010

गरीबी ही अपने आप में हादसा है।

आप क्या कर लोगे ? दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का।उनके सांसद बेटे संदीप दीक्षित का। दिल्ली के महापौर का। पुलिस आयुक्त या फिर दिल्ली के उपराज्यपाल का। एमसीडी के कमिश्नर का। मैं यही सोचता रहा। उस मलवे के पास खड़े होकर। जहां पर कुछ सरकारी किस्म के लोग मलवा हटा रहे थे। पुलिस के कुछ आला अफसर दूर से ही गतिविधियों को देख रहे थे। इस खबर पर अपन नहीं थे। लेकिन फिर भी मन नहीं माना देखने चले ही गए। कुछ दोस्तों ने कहा भी कहां अंदर चले जा रहे हो। वहां बदबू बहुत है। लेकिन मन नहीं माना और कूदतें फांदते पहुंच ही गए। उस जगह पर जहां बच्चों की किलकारियां चीख में बदल गई। लोगों की जिंदगियां मौत का तमाशा बन गई। और देखते ही देखते वह जगह जहां लोग जिंदगी की उम्मीद लेकर रहते है। जिसे हम घर कहते हैं। कैसे वह जगह शमशानघाट से भी ज्यादा खतरनाक लगने लगती है। मैंने देखा। कुछ आंसू मेरी आँखों से छलके। कोई इसे नाटक न समझे सो अपन चुपचाप अँधेरे में किनारे हुए और बाहर आ गए।
बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। कि कोई हादसा हो गया। और लोग मर गए। बात उस बेईमानी के धंधे की है। जो राजधानी में फल फूल रहा है। इसमें पुलिस से लेकर सरकारी नुमाइंदे तक शामिल है। यह बात क्या हमारी मुख्यमंत्री या एमसीडी के महापौर नहीं जानते। अगर नहीं जानते तो उन्हें शासन करने का क्या हक है। मुझे समझ में नहीं आता। लोकतंत्र की किताब मे लिखी इबारतें सोने की तरह चमकती है। लेकिन हकीकत की दुनिया में वे कहां चली जाती है। पता ही नहीं चलता। एक हादसा हुआ है। जहां से लगातार लाशें निकलती जा रही है। उस इलाके की जनता का प्रतिनिधित्व करने वालों को नींद कैसे आ सकती मुझे यह भी समझ में नहीं आया।
मैं पूरी घटना को कभी पत्रकार बनकर तो कभी आम आदमी की तरह जगह बदल बदल कर देखता रहा। और सोचता रहा। क्या हम कुछ भी नहीं कर पाएगें। इन बेइमान लोगों का। क्या कल फिर यही लोग अपने दफ्तरों में जाकर फिर कुर्सियां तोड़ेगे। फाइलों पर दस्तखत करेगें। क्या इन लोगों कि जिंदगिया यू ही बेकार थी। जो चली गई। क्या इसकी कीमत कोई नहीं चुकाएगा। मैंने सुना है जब बहुत बातें करनी हो तो कुछ भी नहीं कहा जाता। आज यही हालत मेरे साथ है। मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूं। लेकिन आज लिख नहीं पा रहा। पर यह जरूर है। हमारे देश में गरीबी ही सबसे बड़ा हादसा है। जो हमारे साथ हर रोज घटता है। कभी नाम बदलकर। कभी चेहरा बदलकर। कभी हम दब कर मर जाते हैं। तो कभी हम बिना दवाई के।हमारी जिंदगी खत्म हो जाती है।कभी तेज रफ्तार की बस आकर कुचल देती है। तो कभी कोई रहीसजादे नशे में हमारे ऊपर से गाड़ी चलाकर ले जाते है। आप को क्या लगता है कि हमारी जिंदगी इतनी सस्ती क्यों है। क्यों कोई जिम्मेदार ठहराया जाएगा। इन मौतों के लिए। या यह सिर्फ एक खबर बन कर रह जाएगी। लिखिएगा जरूर।

Monday, November 15, 2010

दोस्त से मदद मांगना मुश्किल होता है।

गॉडफादर। यह फिल्म आपने देखी होगी। या फिर हो सकता है उपन्यास भी पढ़ा हो। मारिया पूजो का। आज कुछ ऐसी घटना घटी। कि यह उपन्यास याद आ गया। उपन्यास का नायक डॉन वीटो कारलोन एक जगह कहता है। दोस्त से मदद मांगना कठिन होता है। व्यक्ति बहुत हार थक कर ही। मदद मांगने जाता है। लिहाजा ऐसे समय सावधानी पूर्वक मदद करनी चाहिए। और ऐसे समय दोस्त को इस तरह मदद करनी चाहिए कि उसे लगे भी न कि उसकी मदद हुई है। मेरे एक हैड़ थे। उनका नाम लिखकर उनसे नजदीकी का डिंडोंरा पीटना नहीं चाहता। लेकिन वे कहते थे। कि मदद करते समय व्यक्ति को और भी नम्र हो जाना चाहिए। वर्ना मदद अहसान लगती है। जिसे लेना और भी कठिन हो जाता है।
जिंदगी में अक्सर ऐसा होता है कि हम अपने साथियों के साथ साथ चलते रहते है। लेकिन जिंदगी के मीटर कुछ और होते है। वह कभी किसी को तो कभी किसी को अपने हिसाब से नांपती तौलती रहती है। उसके तराजू में कौन भारी हो जाए। और कौन बौना रह जाए। कहना मुश्किल है। लेकिन जो लोग जिंदगी की दौड़ में आगे निकल जाते है। कायदे से उन्हें और भी ज्यादा नम्र और आत्मीय हो जाना चाहिए। लेकिन ये लोग अक्सर अक्खड़ और बदमिजाज हो जाते है। वे शायद बताना चाहते है। कि वे इसलिए आगे हैं क्योंकि वे काबिल है। लेकिन क्या जिंदगी में तरक्की सिर्फ काबिल लोगों को मिलती है। क्या जिंदगी की गणित में सिर्फ हुनर ही जीतता है। ऐसा नहीं है। मंजिल के रास्ते कई तरह के होते है। कई जगहों से होकर गुजरते हैं। लिहाजा हो सकता है कि कई बार व्यक्ति सिर्फ भाग्यशाली था और वह कुछ कदम आगे चल गया।लेकिन जिंदगी सिर्फ कुछ सालों का या कुद पदों का खेल नहीं है। जिंदगी तो पूरी की पूरी नापी जाती है। लिहाजा इसका फैसला अभी करना कि कौन कितना आगे और कौन कितना पीछे है। यह मूर्खता ही होगी।
अपन भी जिंदगी में कई लोगों के साथ चले। लेकिन अपनी चाल कुछ मस्ती वाली है। लिहाजा आराम से टहलते हुए चलते है। न किसी का पीछे करने की इच्छा। न किसी से आगे जाने की कवायद। सो तिक्कड़म। जोड़ घटाना कभी सीखा ही नहीं। जो अपन से आगे निकल गए। वे कभी पीछे मुड़कर देखते है। तो अपन भी सलाम कर लेते है। लेकिन सांस फूलाकर उनके पीछे भागते नहीं। न कभी दम लगाकर उनके पीछे पीछे चलने की कोशिश की। पीछे पीछे चलने में भी एक अलग तरह का मजा है। सबको आगे जाते देखते रहिए। और खुद आराम से चलते रहिए। लेकिन अगर आपकी इच्छा आगे जाने की न हो तो। अगर आप इच्छा रख कर भी आगे नहीं जा पाते है। तो फिर आप अपनी कर्महीनता को दर्शन बना रहे है।
जिंदगी में हमारे लिए सबसे कठिन होता है उनसे मदद मांगना जो कभी आपके साथ थे। मदद मांगते समय यह बात तो मन मे रहती ही है। कि हम साथ थे। लेकिन आज हम पीछे हो गए। इस भाव के बाद भी जरूरत मजबूर करती है। कि आप अपने दोस्तों से मदद मांगे। आपके भी कई दोस्त होगें। जिन्हें जिंदगी ने आपसे ज्यादा दिया होगा। सही बताइए। उनसे जलन होती है। या उन्हें देखकर अच्छा लगता है। और आपके भी कई ऐसे दोस्त होगें। जिन्हें आपसे कम मिला है। आपके क्या अनुभव है मदद मांगने के या दोस्तों की मदद करने के। हमें बताइएगा जरूर

Sunday, November 14, 2010

रहीस आए थे हमसे रोशनी मांगने। हमने अपना झोपड़ा जला दिया।

आज खबरों का सिलसिला दिन भर चलता रहा। ए राजा का पीछा करते करते दिन पूरा निकल गया। ए राजा चेन्नई से दिल्ली आए। फिर प्रधानमंत्री के घर जाकर इस्तीफा दिया। दिन बदल गया। बारह से ज्यादा बज गए थे। घर वापसी के लिए रेसकोर्स से कोई साधन नहीं दिखा। ड्राइवर से कहा घर छोड़ दो। मेरा यह प्रस्ताव स्वाभाविक रूप से उसे अच्छा नहीं लगा। फिर भी मेरी तरह वह भी नौकरी करता है। सो वह मान गया। मैं जानता था। वह भी दिन भर से मेरी ही तरह भूखा है। हम दोनों में एक फर्क था। मुझे भरोसा था। कि मेरे घर पर पत्नी जाग रही है। और घर पर खाना है। उसकी आंखों में शंका थी। दफ्तर पहुंच कर। पराठें की दुकान खोजनी होगी। रास्तें में हम दोनों एक जगह उतरें। और मेंने उसके साथ एक फुटपाथ पर बैठकर खाना खाया। खाना खत्म हुआ। मेंने उसकी चमकती हुई आंखो में तृप्ती देखी। और वह सिर्फ बोला। भाईसाहब धन्यवाद। बहुत बहुत धन्यवाद।
हम और आप हर रोज ही किसी ने किसी के साथ पैसा खर्च करते रहते हैं। कभी चाय पर तो कभी पान पर। कभी कभार दोस्तों के साथ खाना पर भी। लेकिन हमें शायद यह उम्मीद रहती है। कि कल हमारे लिए ये भी खर्च करेंगे। आज जो हम इनके साथ कर रहे हैं। ये कल लौंटा देंगे। वह न मदद है। न दोस्ती। सिर्फ एक अच्छे किस्म का investment है। या फिर अगर हम कभी कभार त्योहार पर या फिर अपने बुजुर्गों की पुंण्य तिथि पर किसी गरीब को खाना खिला देते हैं। तो वह भी पुण्य की आंकाक्षा को लेकर किया गया एक सौदा है। जो हम अक्सर करते रहते हैं। लेकिन क्या बिना किसी आकांक्षा के बिना किसी सौदा के हम किसी के लिए एक कप चाय भी नहीं पिला पाते। वह शायद घाटा होगा। और हम घाटे के हामी नहीं है।
हम बचपन से ही एक बात देखते आए है। शादियां और दरवाजे पर व्यवहार कि कॉपी। जिसमें हिसाब रहता है। तुम्हारे साथ किसने क्या किया। इसमें लिखा रहता है। मुझे यह बात समझ में नहीं आती। हम अपने परिचितों के साथ वह व्यवहार नहीं करना चाहते। जो हमारी इच्छा है। लेकिन हम वह करना चाहते है। जो उन्होंने हमारे साथ किया है। या फिर हम उनकी हैसियत के हिसाब से हम अपना व्यवहार वापस करते है। छोटे शहरों में किसी भी रहीस आदमी के यहां शादी हो तो गरीब से गरीब आदमी भी ज्यादा से ज्यादा व्यवहार देना चाहता है। लेकिन गरीब मित्र के घर पर शादी पर वह इतनी तकलीफ नहीं लेता। मुझे यह प्रश्न कई बार परेशान करता रहा। कि हमारे संबंध अपनी हैसियत से बनाए जाने चाहिए। या फिर सामने वाले की हैसियत देखकर। हमारे एक दोस्त दिल्ली में है। वे तो कई कदम आगे है। वे कपड़े भी सामने वाले कि हैसियत देखकर पहनते है। जब किसी काबिल दोस्त की शादी होती थी। तो वे सूट पहन कर जाते थे। और उन्हीं दोस्त को मैंने कुर्ता पयजामा पहन कर भी शादियों में जाते देखा है।
हमारी मानसिकता का ये पहलू मुझे कभी समझ में नहीं आया। जिन्हें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है। तुम उनकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते हो। लेकिन जिन्हें तुम्हारी जरूरत है। तुम उनसे हमेशा बचते रहते हो। किसी रहीस को अगर रोशनी की जरूरत है तो तुम अपना झोपड़ा भी जला दोगे। लेकिन गरीब के लिए एक दिया भर तेल देना भी हमें शायद गंवारा नहीं होता। बात साफ है। यह मदद हम गरीब या फिर रहीस की नहीं करते है। यह मदद है हमारी अपनी। इस उम्मीद के साथ कि मदद उसकी करो। जो जरूरत पढ़ने पर लौटा सके। लेकिन मदद या सौदा नहीं है। कारोबार नहीं है। न ही बीमा कि कोई पॉलिसी है। जो वक्त पर काम आएगी। यह तो आत्मा का खेल है। मैंने भी तो 40 रुपए के दो पराठें खिलाकर ब्लाग लिख दिया। आप शायद यही सोच रहे होगें। लेकिन क्या करें। इच्छा हुई सो लिख दिया। हमारे ईश्वर तो आप है। सही या गलत जो भी लगे बताइएगा।

Saturday, November 13, 2010

कद अपना होता है। ऊंचाई नहीं।

मेरे एक बहुत ही प्रिय दोस्त का रात दो बजे फोन आया। वे निराश थे। टूटे हुए। और बेहद दुखी। हमने उन्हें इस रुप में कभी न देखा था। न इस भाषा में उन्हें सुना था। वे लगभग रोने को थे। और बात खत्म करते करते रो ही दिए। वे एक प्रमुख अंग्रेजी चैनल में रिपोर्टर थे। लेकिन अचानक अपने संपादक से अनबन कर बैठे। कल उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। पत्रकारिता अजीब क्षेत्र है। तुम मेहनत करते हो। तिनका तिनका जिंदगी भर जमा करते हो। लेकिन एक झटके में सब कुछ लुट जाता है। तुम्हें पता ही नहीं चलता। और तुम जमीन पर होते है। वो ऊंचाई जिस पर तुम हमेशा अपने को खड़े पाते है। जहां से तुम्हें दुनिया बराबरी की लगती है। और कई लोग बहुत छोटे लगते है। वह ऊंचाई असल में तुम्हारी नहीं होती। तुम्हारे नीचे से जैसे ही उसें खींच लिया जाता हैं। तुम इस जमीनी हकीकत को पचा ही नहीं पाते। और तुम टूटते हो इंच इंच।
बात एक नौकरी जाने की या फिर मिलने की नहीं है। बात है उस झूठे भ्रम की।जो हम पाल कर रखते हैं। और उस रेत की ऊंचाई की ।जिस पर हमें खड़े होकर लगता है। कि यह स्थाई है। हम जिंदगी भर को यहीं डेरा डालकर बैठ गए है। लेकिन असल में वह प्रपंच होता है। झूठ होता है। आदमी का कद उसका होता है। ऊंचाई उसकी नहीं होती है। यह बात हमें समझ में ही नहीं आती। लेकिन इस पहेली को सुलझाना कठिन है। हम कैसे कोशिश करें। कि हमारा कद बढ़े। ऊंचाई नहीं। हम अक्सर जो आसान होता है। उसें पाने में लग जाते हैं। प्रेमचंद हों या फिर निराला। ये लोग किसी नौकरी के या फिर किसी नकली ऊंचाई के मोहताज नहीं थे। इन्होंने अपने कर्म से अपना कद ऊंचा कर लिया था। आज सचिन तेंदुलकर को आप भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बनाए या नहीं। इससे उस प्रतिभाशाली खिलाड़ी को फर्क नहीं पढ़ेगा। न हिं किसी एक फिल्म के हिट होने या फिर फ्लाप होने से अमिताभ बच्चन का कद कम या ज्यादा नहीं होता।
हम अगर जीवन में कुछ स्थाई करना चाहते है। तो हमें ऊंचाई पर कम और अपने कद पर ज्यादा ध्यान देना होगा। हालांकि कहा भी जाता है कि यह सदी उसकी है जिसके पास ज्ञान है। हमें अपना हुनर और ज्ञान बढ़ाना होगा। हमें छुद्र सफलताओं के पीछे भागने के बजाए। कुछ सार्थक करने की बात सोचनी होगी। ऐसा जीवन में क्यों होता है। कि एक चोट में हम पूरे के पूरे टूट जाते हैं। शायद हमारा होम वर्क अधूरा रहता है। या फिर हमने अपने आप को कर्म की और अभ्यास की आग में तपाया ही नहीं ।मैं अपने दोस्त का फोन सुनकर रात भर सो नहीं पाया। काफी दुखी थी। लेकिन यह दुख यह परेशानी उसके लिए नहीं थी। यह अपनी लगती है। फर्क सिर्फ इतना है कि हम उस रेत के टीले पर अभी भी खड़े है। और वह जमीनी हकीकत पर आ गया है। क्या करें अपने कद के साथ समझ में नहीं आता। आप ही कुछ बताइए। जल्दी करिएगा।

Friday, November 12, 2010

क्या आप कभी मिलते हैं। अपने दादा के दोस्तों से।

कैलाश जोशीजी के पास प्रतिक्रिया लेने गए थे। सुदर्शन सोनिया विवाद पर। बात संघ की निकली और उनके लोगों की। उन्होंने बताया कि गोपाल जी व्यास इन दिनों दिल्ली में हैं। वे छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के सदस्य है। करीब 25 साल पहले उन्हें देखा था। फिर वे इधर उधर घूमते रहे। और अपन दिल्ली आ गए। लेकिन दादा के पास उनके पत्र आते रहे। वे अपने हालचाल भी पूछते थे। सो उनका मकान नंबर पूछकर आज मिलने पहुंच गए। पत्रकार की वेशभूषा में देखकर वे समझ गए। कि प्रतिक्रिया चाहिए। मैंने बताया कि में पत्रकार बन कर नहीं आया हूं। सिर्फ आपसे मिलना चाहता हूं। खूब बातें करी। उन्होंने पुरानी बातेँ। सुनाई। 25 साल बाद भी पूछा। कि अभी भी नई नई किताबें पढ़ने की रुची है या छूट गई। मैं चुप रहा।
मैं दिन भर सोचता रहा। अपने दादा के एक पुराने दोस्त से मिलने गया था। या उस रूप से अपने दादा को देखना चाहता था। उस बुजुर्ग आदमी में शायद मैं अपने बब्बा को खोजता रहा। हम अक्सर बुजुर्ग लोगों में अपने दादा को तलाशते रहते हैं। और जो हिस्सा उनसे मिलता है। हम उसे पूजने लगते हैं। लगता है जैसे इस दुनिया के हर बुजुर्ग में एक हिस्सा मेरे दादा का है। उस हिस्से की तलाश में हर बुजुर्ग को खंगालता रहता हूं। मेरे मकान मालिक हर सुबह चार बजे उठकर बैठ जाते हैं। उनकी यही आदत मुझे मेरे दादा से मिलाती है। और उनके प्रति एक अपनापन लगता है। पिछले दिनों बस में एक बुजुर्ग महिला से मुलाकात हुई। अपन शान से बैठे थे। सफर लंबा था। लेकिन वे बाजू में खड़ी थी। हम खड़े हो गए। और उन्हें बैठा दिया। दो घंटे के सफर में थका नहीं। सिर्फ उन्हें देखता रहा। उस हिस्से को तलाशता रहा। जो उन्हें मेरी दादी के साथ मिलाता हो। पीछे खड़े एक आदमी ने कहा भी आप भले आदमी मालूम होते है। बुजुर्ग की इज्जत करते हैं। मैंने सोचा इसको कैसे बताऊ। यह सीट मैंने अपनी दादी को दी है। इस बुजुर्ग महिला को नहीं।
जब कभी हमारी जिंदगी का एक हिस्सा कट कर हमसे छूट जाता है। उस अधूरे पन को दूर करने के लिए हम कितनी कोशिशें करते हैं। कभी स्वाभाविक तो कभी आर्टीफिशियल ।लेकिन हम कितनी ही खींचतान करें। जो छूट जाता है। वह पूरा नहीं होता। लेकिन मैंने पढ़ा है कि एक लेखक ने लिखा है कि जिन्हें रेगिस्तान में मृगमारीचका नहीं होती। उनकी प्यास में जरूर कुछ कमी रहती है। मेरे दोस्त अक्सर शिकायत करते हैं कि ब्लाग में दादी और दादा से ऊपर उठो। लेकिन न जानें क्यों मैं वापस उन्हीं के पास आ जाता हूं। शायद यह मेरा वो टूटा हुआ हिस्सा है जिसे में अक्सर पूरा करने की कोशिश में लगा रहता हूं। क्या आप भी कभी भागकर जाते हैं। अपने दादा के दोस्तों से मिलने मेरी तरह। कैसे करते हैं जिंदगी के इस टूटे हुए हिस्से को पूरा। हमें लिखिएगा जरूर।

Monday, October 18, 2010

मुफ्त के मजे के सहारे कटती जिंदगी।

अपन साउथ दिल्ली की सबसे खूबसूरत मॉल के सामने रहते है। सिलेक्ट सिटी वॉक। लेकिन महीनों में जा पाते हैं। कभी कभार। पिछले दिनों गए थे। मॉल में घुसते ही एक सुंदर स्मार्ट लड़की ने नमस्कार किया। और बताया कि उसके साथ हमें एक खेल खेलना है। खेल जीते तो कोल्ड ड्रिंक की दो बोतलें मिलेगीं। और हार भी गए तो भी एक बोतल तो साथ रहेगी ही। खेल सीधा साधा था। खेल का नाम था। ऊ....आ। वो ऊ कहेगी तो हाथ आगे ले जाना है। आ कहेगी। तो हाथ पीछे लाना है। और ऐसा करते रहना है। जो आखरी में बचा रहेगा। वो जीत जाएगा। बात खेल की नहीं थी। बात मुफ्त में कोल्ड ड्रिंक की बोतल की थी। मैं न बोलकर आगे चला गया। वो बोली आपका दिलचस्पी क्या खेल में नहीं है। मैंने कहा खेल में है। मुफ्तखोरी में नहीं है। यह खेल नहीं है। लालच का दाना है। मुझे नहीं खाना है।
आगे फिर एक नौजवान मिला। बोला सर इस फार्म को भर दीजिए। मैंने कहा कि मुझे यह सुविधा नहीं चाहिए। वह बोला फिल्म के दो टिकिट मुफ्त में मिलेगें। इसके कुछ कदम बाद फिर किसी ने रोका सर यह कार्ड बनवा लीजिए। आपको फ्री में कॉफी मिलेगी। मैं चुप रहा और सोचने लगा कि हमारी रोज मर्रा की जिंदगी में अब इतना समय और धन नहीं है। कि जिंदगी को घसीटते घसीटते उसमें मजा के लिए भी हासिया हो। लिहाजा इस बाजार ने मुफ्त में मजा का लालच देने का फार्मूला बना लिया है। वह जानता है कि नौकरी पेशा आदमी अगर फिल्म देखता है तो कई बार बजट लिखता और मिटाता है। लेकिन अगर उसे मुफ्त में फिल्म की टिकिट मिल जाए। तो उसे लाटरी लग जाती है। कौन और क्यों यू ही बैठकर कोल्ड ड्रिंक पिए। लेकिन अगर आ और ऊ करने से मुफ्त में मिलती है तो बुराई क्या है।
अब हमारी जिंदगी में मजा करना कठिन और मंहगा होता जा रहा है। लगता है आने वाले दिनों में बाजार यू हीं हमारे लिए कभी कभार कुछ अपनी जूठन के टुकड़े फेकेगा और हम उसे खाकर धन्य होगें। वही हमारे लिए मजा होगा।
अमिताभ बच्चन भले कहते हों। कि उनका खेल लोगों के सपने पूरे करता है। लेकिन शायद उन्हें नहीं पता कि किसी के सपने किसी एक खेल से पूरे नहीं होते। सपने तो मंजिल तय करने और एकाग्रता के साथ की गई मेहनत से पूरे होते है। जुआ जीतने से कोई रास्ता नहीं बनता। बल्कि ऐसी बैशाखी लोगों को आंखों में इस तरह चित्रित होती है। कि लोग अपनी कुदाल और छैनी हथोड़ा भूलकर जुआ के पांसों में उलझ जाते हैं। इस मुफ्त खोरी की प्रवृत्तियों से हम अपने आप को कैसे बचा पाएगें। पता नहीं। आप क्या सोचते हैं। हमें लिखिएगा जरूर।

Sunday, October 17, 2010

अंदर का रावण मरे। तो अपन भी राम बनें।

विजया दशमीं को अपन दिल्ली में ही थे। घर नहीं गए। हालांकि घर से कई फोन आए। हमारे बुंदेलखंड में दुर्गा अष्टमी को कुल देवी की पूजा होती है। उसका महत्व दीपावली और होली से भी ज्यादा होता है। फिर भी अपन नहीं जा पाए। दादी को समझा दिया। हालांकि मध्यप्रदेश और दिल्ली की विजया दशमीं में काफी अंतर हैं। अपने घर पर परमा को देवी रखी जाती हैं। और फिर दसवें दिन उनका विसर्जन होता है। वैसा ही जैसे महाराष्ट्र में गणपति का होता है। सो दशहरे के दिन पूरी रात काली विसर्जन होता है। अखाड़े ढोल ढमाके और आतिशबाजी खूब होती है। दिल्ली में यह चलन नहीं है। यहां रावण को जलाना ज्यादा बड़ा त्योहार होता है।
बचपन में दादी से रामायण और महाभारत की कथाएं खूब सुनी है। जो कहानियां दादी रामायण और महाभारत की सुनाती है। उनमें से कई बातें पढ़ने पर नहीं मिलती है। वे बाते उन तक कैसे पहुंची। पता नहीं। लेकिन जो छोटी छोटी बातें बे अक्सर समझाती थी। उनमें खूब मजा आता था। दादी कहती है। कि रावण का अंहकार, कुंभकरण की नींद, और दूसरी तामसी प्रवृत्तियां जब तक हमारे अंदर है। तब तक हम भी रावण ही है। रावण और राम में विचार का अँतर है। अगर हमारे अंदर राम की मर्यादा है तो हम राम हैं। और अगर रावण का अंहकार है तो हम रावण है। लिहाजा यह हमारे ऊपर है। कि हमें क्या बनना है। राम और रावण दो अलग अलग नहीं है। हमारे भीतर एक साथ है।
इस बात को मैं जितना समझता जाता हूं। उतना अपने आप से डरने लगता हूं। अब हमें ऐसा लगता है। कि हमारी सोच और प्रवृत्तियों में राम कम और रावण ज्यादा हावी रहता है। हम ज्ञान में भले रावण से कम हों। लेकिन अंहकार को अगर किसी मशीन से नापा जाए। तो शायद हम आज रावण से ज्यादा अंहकारी है। कुंभकरण से ज्यादा तामसी और मेघनाथ से ज्यादा राक्षस।
मोहल्ले के बच्चे सुबह सुबह ही चंदा कर रहे थे। कहने लगे भाई साहब कुछ पैसे दीजिए। मैंने पूछा। तो उन्होंने बताया कि रावण जलाना है। मैंने पूछा क्यों। किसी ने सिखा दिया था। या वे ही मौलिक थे। पता नहीं। बोले रावण बुराई का प्रतीक है। उसे जलाना है। मैंने कहा रावण की बुराई तो जला दोगे। और अपनी का क्या करोगे। वे चुप हो गए। मुझे अपनी गलती समझ में आई। मेरा यह प्रश्न उन बच्चों से नहीं अपने आप से था। मैं चुपचाप एक नोट देकर घर आ गया। और मैं सोचता रहा। कि रावण को हम हर साल जलाते है। लेकिन जो अपने अंदर रावण पनप रहा है। फल फूल रहा है। उसका का क्या करें। और अंदर का राम तो दुबला और कमजोर होता जा रहा है। मुझे पता नहीं मेरे अंदर का रावण कैसे और कब मरेगा। यह मरे तो हम भी राम बने। आपको कोई उपाए पता हो तो बताइगा जरूर।

Wednesday, September 29, 2010

न जाने कौन सी मुलाकात आखरी हो।

अभी कुछ देर पहले सागर से आशीष ज्योतिषी का एसएमएस आया। आशुतोष तिवारी की मां शांत हो गई। कुछ दिन पहले ही इसी तरह का एसएमएस आशीष द्दिवेदी का सागर से आया था। दीपक दुबे के पिताजी का देहांत हो गया। इन दोनों घटनाओँ में एक समानता थी। मैं कुछ दिन पहले ही इनसे मिलकर आया था। रक्षाबंधन पर सागर गया था। आशुतोष के घर गया।मां से मिला। वे हमेशा से ही मूंगफली की बर्फी बनाती और हम लोगों को खिलाती थी। मुझे बेहद पसंद थी। आशुतोष के घर जाने का यह लालच हमेशा से था। मैं इस बार भी गया। वे बीमार थी। पहचान गई। और बात मूंगफली की बर्फी की भी हुई। उन्होंने वायदा किया कि अगले बार आओगे। तो जरूर खिलाउंगी। बे बीमार थी। शायद हमें बहला रही थीं। जैसे कोई मां बच्चों को बहलाती हो जब वे चांद के जिद करते हैं। लेकिन वे अपना वायदा इतनी जल्दी तोड़ देगी। मुझे यकीन नहीं आ रहा।
दीपक दुबे की साथी प्रकाशन। सागर के कटरा बाजार में है। यानि दिल्ली के कनाट प्लेस में। हम लोग बचपन से ही साथी प्रकाशन जाते। दीपक दुबे से किताबे उधार लेते। और किश्त किश्त पैसे चुकाते। दीपक की दुकान के आस पास समोसे से लेकर चाय पान तक तमाम चीजें आसानी से मुहैया हो जाती है। सो अपने मजे थे। इस बार भी सागर गए। दीपक के साथ समोसे खाए। चाय पान भी किया। उनके पिताजी से मुलाकात हुई। उन्होंने कहा कि रात को आए हो। किसी दिन जल्दी आना। बात करना है तुमसे। और फिर हम जल्दी न जा पाए। और दिल्ली लौट आए। फिर उनके जाने की खबर आ गई।
आप न दीपक दुबे को जानते है। और न आशुतोष तिवारी को। न उनके माता पिता को। फिर भी ये ब्लाग में क्यों लिख रहा हूं। इन घटनाओं को महशूस करने के बाद। एक अलग तरह का डर बैठ गया है। ये बात अचानक मेरे मन में डर की तरह बैठ गई। हमें ये जिंदगी में पता ही नहीं होता कि किस व्यक्ति से आखरी मुलाकात हो रही है। या फिर कौन सी मुलाकात अंतिम हो। हम अपनी बेतुकी जिंदगी में इतने व्यस्त होते जा रहे है। कि हम हर समय जल्दी में हैं। जल्दी किस बात की है। पता नहीं। जाना कहां हैं पता नहीं है। लेकिन एक रफ्तार है। बस उसके हिसाब से भागते जा रहे है। अब तो लगता है दूसरों की बात अलग है। हमारी अपनी ही अपने आप से मुलाकात कब हुई थी। पता नहीं। अब वक्त मिले तो विस्तार से अपने से मिलूंगा। और कुछ याद करूगां। अपनी बाते भी। आप की आखरी मुलाकात अपने आप से कब हई थी बताईएगा।

Wednesday, September 22, 2010

न अपने घर विराजे गणपति न विसर्जन हुआ।

अपन दादी से अभी भी झूठ बोलते रहते है। कई साल का अनुभव जो है। उनसे झूठ बोलने का। पता नहीं वे भी समझती है या नहीं। गणेश चतुर्थी से एक दिन पहले ही उन्होंने सब कुछ बता दिया था। कल गणेश चतुर्थी है। गणपति बब्बा को घर में बिठा लेना। पूजा करना और उनसे सद-बुद्धि मांगना। हर बार की तरह इस बार भी हमने कहा जैसा आप कहती जाती है। वैसा ही हम करते जाते हैं। आज भी उन्होंने कहा कि जाकर किसी मंदिर में गणपति रख आना। नदी पर मत जाना। पैर छूकर विसर्जन कर देना। उनसे सबके लिए कल्याण और अच्छा स्वास्थ्य मांगना। मैंने कहा जी। अभी घर पहुंचा तो फोन करके बता दिया। सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा आपने कहा था। दोनों समय आरती की। लड्डू का प्रसाद चढ़ाया। खूब पूजा पाठ उनकी सेवा की। और प्रार्थना हर रोज की। सद-बुद्धि के लिए।
सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठी अपनी बुजुर्ग दादी को मैं क्यों दुखी करूं। सच बोलकर। सो झूठ बोलना अच्छा लगा। सुबह से रात कब हो जाती है। खबर खोजते और बनाते बनाते पता ही नहीं चलता। ऐसे में ये कहां मुमकिन था। बाजार जाकर गणपति बब्बा की मूर्ति खोजना। उसे घर लाकर बैठाना। उनकी पूजा समय से करना। हर रोज आरती करना। और फिर पूरे नियम कायदे से उनका विसर्जन करना। हमारी जिंदगी से हर वो चीज दूर होती जा रही है। जिसे हम टाल सकते है। टालने को तो हम फ्यूज ट्यूबलाइट बदलना भी कई दिन तक टालते रहते है। सो गणपति बब्बा भी इस साल टाल ही दिए।
शायद आपको भी याद होगा। जब हम और आप बच्चे थे। गणपति को घर में बिठालना। उनकी झांकी बनाना। फिर प्रसाद का इंतजाम। और दूसरे कार्यक्रम। कितना मजा देते थे। लेकिन धीरे धीरे हम जिंदगी और फिर परिवार और अब नौकरी में ऐसे फंस गए कि सब तीज त्योहार भूल ही गए। अब तो सिर्फ खबरों से पता चलता है कि आज गणपति विसर्जन था। या फिर देवी विसर्जन। मुझे एक बात समझ में नहीं आती। दादी कहती है। कि तुम लोगों की वजह से त्योहार है। और मुझे दिल्ली में लगता है कि त्योहार की रौनक ही बुजुर्ग होते है। उन्हीं ही आखों में त्योहार पलता है। पनपता है। और उन्हीं की झुर्रियों में रुकता है। बरसता है। अगर हम से त्योहार होता तो हम अकेले और उदास न होते ।मेरे त्योहार तो दादी की कहीं किसी झुर्री में रुके हुए हैं। सागर जाउंगा तभी उनके साथ मनाउँगा। उन्हीं के साथ बैठकर गणपति से सद-बुद्धि मांगूगां। आज तो अपन ने झूठ बोल दिया। वे शायद चैन से सो भी गई होगीं। आपने क्या किया अपने गणपति का हमें बताइएगा जरूर।

Monday, August 9, 2010

त्यौहारों की रौनक। परदेश में उदास करती हैं।

मैं जब भी अपने घर का पता बताता हूं। पूछता हूं। आपने सिलेक्ट सिटी मॉल देखा। दिल्ली का सबसे सुंदर मॉल है। बस उसी के ठीक सामने रहता हूं। घूमने लायक जगह है जरूर देखना चाहिए। कभी आईए ना। मैं किसी को भी पता बताते वक्त अपनी पत्नी के चेहरे की तरफ नहीं देखता हूं। मुझे पता है। वह मेरी तरफ कैसे देख रही होगी। बात आप शायद समझ गए होगें। कि मॉल हमारे घर के ठीक सामने हैं। लेकिन जिसका इस्तेमाल अधिकतर अपने घर का पता बताने के लिए ही करता हूं। उसमें घूमने नहीं जा पाता। जब घर से निकलता हूं। तो मॉल बंद रहता है। जब घऱ आता हूं। तो मॉल बंद हो जाता है। संडे की अपनी हिम्मत घर से निकले की ही नहीं होती। लिहाजा मॉल दूर से ही देखता हूं। खरीददारी करना तो अपनी कूबत के बाहर है। लेकिन पिछले दिनों संडे की पूरी छुट्टी थी बिना किसी तनाव के। सो अपन पत्नी के सात मॉल घूमने चले गए। वहां जाकर पता चला कि रक्षाबंधन करीब ही है। और यह भी याद आ गया कि लोकसभा का सत्र चल रहा है। सो छुट्टी मिले या न मिले। मांगने में ही शर्म लगेगी।
मॉल में तरह तरह की राखी देखीं। राखी के साथ विज्ञापन भी। अब तो हमारे त्यौहार बाजार ने खरीद लिए है। उसने इन त्यौहारों पर इस तरह से कब्जा कर लिया है कि लगता ही नहीं कि कभी ये त्यौहार अपने घर के थे। लगता है हमेशा से ही इन मुनाफखोरों के थे। हर जगह विज्ञापन थे। विज्ञापन वो भी ऐसे की आपको अपनी क्षमताओं पर ही शर्म लगे। हजारों रुपए के जेवर। उन पर लिखा था। इनकी मदद से आप अपनी बहिन को बता सकते हैं कि आप उसे कितना प्यार करते हैं। बड़ी बड़ी कपड़ों की दुकानें। चमकती उपहारों की दुकानें। राखी दब गई कहीं। त्यौहार बुझ जाता है कहीं। सिर्फ कारोबारियों के उपहार देने की नसीहत उभर के बार बार सामने आती है।
बात उस चकम धमक की नहीं थी। बात उस बाजार की भी नहीं है। जिसके अपन सिर्फ दर्शक हैं। खऱीददार नहीं। बात उस रौनक की है। जो हमारे भीतर त्यौहारों को जन्म देती है। बात उस सूचना की भी है। जो हमें कई बार बाजार देता है। रक्षाबंधन की दुकानें देखकर मुझे अपना घर और संगे संबंधी याद आने लगे। सावन को बुदेंलखंडी में हम साहुन कहते हैं। सो साहुन का महीने लगते ही राखी की तैयारियां शुरू हो जाती है। किस तरह के कपड़े खरीदें जाएगें। बहिन को क्या दीया जाएगा। बहिन किस तरह की राखी खरीद कर लाएगी। हमारे इलाके में एक विशेष प्रकार का पकवान बनता है। जिसे हम फैनी कहते है। गोल गोल जलेबी की तरह। लेकिन फैनी पर शक्कर अलग से चड़ती है। जिसे दादी हफ्तें भर पहले से ही पागने में लग जाती थी। और त्यौहारों की रौनक पूरे शरीर में चमकती थी।
लेकिन इस बार मॉल की राखियां देखकर मन कुछ उदास सा हुआ। न घर जाने की सुविधा। न त्यौहारों में पहले जैसा रस। अब दादी भी बूड़ी हो चली है। सो अब वे पकवान और मिठाइयां उतने उत्साह से नहीं बना पाती है। लेकिन घर के लोग बताते हैं। जिन त्योहारों पर हम सागर जाते हैं। उन त्योहारों पर वे अभी भी पहले की ही तरह जुटी रहती है।
यह बात सच है कि त्यौहारों की रौनक अपनो से जन्म लेती है। और वहीं पनपती है। दिल्ली में नया साल या फिर वेलेंटाइन डे देखने और मनाने मे मजा तो आ सकता है। लेकिन साहुन या फिर दिवाली का मजा घर में ही आता है। और त्यौहारों के लिए सजे ये बाजार हमें घर की याद दिलाते हैं। उदास करते है। इनकी रौनक हमारे अंदर उत्साह नहीं उदासी भरती है। आप ही बताओं क्या करें। इन बाजारों का। इन उदास त्यौहारों का। या फिर इस अकेलेपन का। आप कैसे लड़ते हैं इन सबसे हमें भी बताइएगा। जरूर।

Sunday, August 8, 2010

न पैर में खुजली होती है। और अब न ही कोई याद करता है।

शायद आपको याद होगा। जब कभी बचपन में हमारे पैर के तलवे में खुजली होती थी। तो दादी कहती थी। कोई याद कर रहा होगा। आज अचानक कई सालों बाद मेरे पैर में अचानक खुजली हुई। और मैं सोचने लगा कि शायद कोई याद कर रहा होगा। लेकिन इतने सालों बाद। बात कुछ अजीब सी है। लेकिन इन विश्वासों का जमघट जिंदगी में लंबे समय तक रहा है। हमारे बुंदेलखंड में अगर आपको हिचकी आने लगे। तो बाजू में बैठा कोई भी आदमी कह देगा। आपको कोई याद कर रहा है। लेकिन अब हमारी जिंदगी में न हिचकी आती है। और न ही पैर के तलवे में खुजली होती है।
बात इतनी सी नहीं है कि इन बातों का न कोई वैज्ञानिक आधार है। न सांस्कृतिक और न हीं दार्शनिक। ये हम भी जानते हैं। लेकिन फिर भी मन को हर खुजली के बाद हर हिचकी के बाद अच्छा लगता था। इस दुनिया में कहीं कोई है जो हमें याद करता है। लेकिन अब इस भागती और अकेली होती दुनिया में हमें कोई याद ही नहीं करता। हम सब अपनी दुनिया में अकेले होते चलते हैं। दिल्ली में ऐसा कभी होता ही नहीं। कि आपके दरवाजे की घंटी बजे और कोई आपका चाहने वाला दरवाजे पर खड़ा हो। कहता हो तुम्हारी याद आ रही थी। मिलने चला आया। यहां पर सिर्फ धोबी। कचरा उठाने वाले। पेपर या केबिल का बिल लेना वाला ही घंटा बजाता है। या कभी कभार गुस्से में पड़ोसी आता है।गाड़ी ठीक से खड़ा किया करो। मुझे अपनी गाड़ी निकालनी है। बुदबुदाकर चला जाता है।
लेकिन अपन जिन छोटे शहरो से आए है। वहां अक्सर ऐसा होता है। कि कोई भी आपको दरवाजे पर मिल जाएगा। उसे आपसे मिलने की इच्छा हुई । और वह चला आया। गप की। और चला गया। हमारे छोटे शहरों में लोगों के पास एक दूसरे के लिए समय है। उनके लिए स्थान भी है। लेकिन दिल्ली में तो अपने लिए ही आपको वक्त कम पड़ता है। परिवार मे हर रोज चिकचिक होती है। ऐसे में आप किसको याद करेगें। मुश्किल है न। चलिए फिर भी आज अच्छा लगा कि शायद दादी की बात सही हो। और किसी ने मुझे याद किया हो। कभी कभार आप भी मुझे याद कर लिया करिए। बहुत दिन हुए हिचकी नहीं आई।

Friday, August 6, 2010

जब एक बच्चे की गुल्लक फूटती है। तब हजार जवान सपने मरते हैं।

राजू भैया किराने की दुकान चलाते हैं। मोहल्ले की किराने की दुकान यानि सब कुछ मिलता है। जब भी कभी हमारे पास समय होता है। मैं अक्सर अपने मोटे भैया कि शिकायत दूर कर देता हूं। जाता हू। उनकी दूकान पर खड़ा हो जाता हूं। कभी आटे की बोरी पर बैठकर चाय पीता हूं। उन्हें कभी गालिब तो कभी कबीर। कभी क्राईस्ट तो कभी मोहम्मद सुना आता हूं। कलमाड़ी से लेकर शीला दीक्षित तक पर उनकी प्रतिक्रिया सुन लेता हूं। वे अक्सर कई चीजों को लेकर परेशान होते हैं। जैसे दो रुपए की सिगरेट लेने आए आदमी से। जो उन्हें अक्सर सौ का नोट देता है। वे जानते हैं। उसकी जरूरत सिगरेट नहीं फुटकर पैसे हैं। उसके जाते ही वे कहते भी हैं। सिगरेट का पैकेट लेगा सामने की दुकान से। और फुटकर लेता है मुझसे। बीबी को दफ्तर जाना होगा। बस का किराया चाहिए ना। सो सिगरेट लेने आ गए। जब वे इस तरह की दिक्कत से दो चार हो रहे थे। तभी एक आदमी एक हाथ में पालीथिन लिए आया। उसमें चिल्लर थी। और उसके पीछे। चल आया। चिल्लर का मालिक। जैसे चिंता में जवान बेटी के पीछे पीछे अक्सर मां चलती हैं।
उस आदमी ने तीन चार पालीथिन मिलाकर जो एक सुरक्षित थैला बनाया था। वह उसने भैया के काउंटर पर रख दिया। उन्होंने पूछा क्या है। वह कुछ बोलता इसके पहले वह बच्चा बोल पड़ा। चिल्लर हैं। मेरे गुल्लक की। 87 रूपए हैं। और दो चार आने भी। भैया चिल्लर देखकर इतने खुश हो गए कि उन्होंने उसे गिनने की भी जरूरत नहीं समझी। पूछा पक्का गिनकर लाए हो। जवाब फिर बच्चे ने ही दिया। पांच बार हमने गिनी है। दो बार पापा ने। भैया ने चिल्लर अपने काउंटर में डाल ली। और उनकी आंखे चमक गई। जैसे आज शाम का मोक्ष उन्हें मिल गया। और चिल्लर की खनक सुनकर उस बच्चें की आंख में मैंने एक ऐसा मरघट देखा। जहां पर किसी हादसे के बाद हजार सपने एक साथ जलते हों। मेरी आँखो में पानी भर आया। लेकिन मैं सिर्फ उस मातम में शामिल हो सकता था। मैं शिव की तरह किसी को जिंदगी नहीं दे सकता। न आदमी को न मरे हुए सपनों को। भैया ने 87 रुपए उसे दिए। और दो चार आने वापस कर दिए. ये नहीं चलेगें। उसने पूरी पवित्रता के साथ जेब में रख लिए। इलाहबाद से लौट रहे किसी सन्यासी के कमंडल में जिस तरह गंगा चलती है। उसी पवित्रता के साथ वे दो सिक्के बच्चे की जेब में खनकने लगे। दुकान के काउंटर पर रखी कई चाकलेंटों की बर्नियों पर उसने नजर दौड़ाई। और फिर उसकी आँखे चुप हो गई। मैं भैया की तरफ देखा। वे न जाने क्या समझे और उस बच्चें को दो टाफियां दे दी। पिता से पैसे भी नहीं लिए। यही दो टाफियां मुआवजा थी। उसकी गुल्लक का।
हो सकता है कि आप को लगे कि मैंने 87 का रुपए का फसाना बना दिया। दिल्ली में कौन इतना गरीब है। जो 87 रुपए के लिए अपने बच्चे की गुल्लक फोड़ता है। और यह रकम भी ऐसी नहीं है। जिसके लिए ब्लाग लिखा और पढ़ा जाए। लेकिन आप अपना बचपन याद करिए। आपने भी कोई गुल्लक कभी न कभी जरूर बनाई होगी। उसमें चिल्लर भी डाली होगी। अब सोचिए कहां से आती है वह रकम। जब कोई रिश्तेदार घर आता है। और कुछ दे जाता है। वे सिक्के जो लेकर आप पूरा बाजार घूमते हैं। कभी कुल्फी खाना चाहते हैं। तो कभी आलू चाट। कभी हरा सर्बत। कभी चमड़े के काले जूते लेना चाहते हैं। तो कभी सुंदर सा बस्ता। कभी रंगीन चश्मा तो कभी चाबीदार हैलीकाफ्टर लेकिन फिर आप तमाम चीजों पर संयम की दीवाल खड़ी कर देते है। और उस चिल्लर को गुल्लक में डाल देते है। कितने बार आप कई घंटे ज्यादा पढ़े है। परीक्षाओं के समय। और आठ आने मिले। कितने बार पिता के साथ घूमने नहीं गए। और सिक्का ले लिया। कितने बार उनके पैर दावे और चिल्लर ले ली।
मैं यकीन के साथ कह सकता हूं। वे 87 रुपए उस बच्चें ने हजार दिनों में जमा किए होगें। और लाखों बार अपनी इच्छाओं के साथ सौदा किया होगा। जब कहीं जाकर इतनी रकम बनती है। जिसमें दो चार आने खोटे भी निकलते हैं। कितने सपने होगें। जो इससे पूरे होने होगें। सपनो की तादाद और उनकी तीव्रता सिर्फ उस बच्चें की आंख में ही दिख सकी। मैं उसे लिख नहीं सकता। लेकिन उस बच्चें को कौन बताए। इसी देश में कलमाड़ी भी रहते हैं. जो कामनवैल्थ खेल करा रहे हैं। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगने लगे हैं। खेलों पर 87 हजार करोड़ रुपए खर्च होगें। लेकिन एक घर ऐसा भी है जो अपनी जरूरतों के लिए बच्चे की गुल्लक फोड़कर 87 रुपए निकाल लेता है। क्या आपको याद है कि कभी आपने भी अपनी गुल्लक फोड़ी हो किसी के लिए। कभी अपनों सपनो पर किसी की जरूरत को जिंदा किया हो। अगर ऐसा कोई वाक्या हो तो हमें लिखिएगा जरूर।

Thursday, August 5, 2010

करोड़ो रुपए देकर खरीदना चाहिए बुरा समय। बहुत कुछ सिखाकर जाता है।

हम जिंदगी में कुछ चीजें नहीं खरीद सकते। इसलिए भी वे कीमती है। लेकिन प्रकृति ने इसका ध्यान रखा है। मुझे नहीं लगता कि दुनिया का कोई भी मैंनेजमेंट गुरू आपको सालों में वह सिखा सकता है। जो बुरा समय कुछ दिनों में सिखा जाता है। लेकिन शायद यह बात परमात्मा को पता थी। इसी वजह से हम सब की जिंदगी में बुरा समय आता है। समय अच्छा या बुरा नहीं होता। सिर्फ हालात हमारे हिसाब से हमें परिणाम नहीं देते। जैसे अगर हमारा रोजगार छुट जाए। परिवार को कोई सदस्य बीमार हो जाए। या ऐसी कोई भी चीज जो हमें दुख देती है। घटित हो तो हमारा बुरा समय शुरू हो जाता है। और यह जो बुरा समय है। यह आपको वह सिखा देता है जो सालों में आप नहीं सीख पाते हैं।
रहीम ने कहा है कि रहीमन विपदा हू भली जो थोरे दिन होए। हित अनहित या जगत में जान पड़त सब कोए। रहीम वैसे भी अपन को इष्ट की तरह लगते हैं। लेकिन रहीम की यह बात जहन में आत्मा की तरह उतरती है। बुरा समय अपने दोस्तों चाहने वालों के चेहरे से तमाम तरह के रंग रोगन उतार देता है। जिसे आप पूरी जिंदगी नहीं उतार सकते। खराब समय के अलावा और कोई विज्ञान ही नहीं है। जिसके चलते आप अपने आसपास रहने वाले लोगों का स्वाभाविक रुप देख सकें। और जिस आदमी में जितनी ज्यादा औपचारिकताएँ होगी वह उतना ही ज्यादा अस्वाभाविक होता है। और उसका रंग सबसे पहले उतरता है। लाओत्से तो कहता है कि इनसब औपचारकिताओं के मलवे में हमारा स्वभाव ही खो गया है। हम असहज होने के आदी हो गए है। अगर घर पर पति का अफसर आ जाए। तो उसे खाना खिलाना ही है। लेकिन अगर वह नौकरी से विदा हो गया है। तो पत्नी कह देगी। हम थक गए हैं। चाय से काम चला लो। यही उसका स्वभाव है। जो आप अफसर रहते नहीं देख पाते।
रजनीश एक जगह कहते हैं कि अगर हम चौबीस घंटे को सिर्फ सोच ले कि हमारे उपर कोई कायदा या नियम लागू नहीं है। तो हम क्या क्या करना चाहेगें। आप शायद हैरान होगें। अपने विचारों पर। आप इतना जानवराना हो सकते है। शायद आपके ख्याल में नहीं आया होगा। लेकिन हम बंधे हैं कुछ नियम कायदो से। हम कुछ और हो गए । जबकि हम हैं कुछ और। हम पड़ौसी की पत्नी को लेकर भागना चाहते हैं। लेकिन भाग नहीं सकते। लिहाजा भाभीजी को हम घऱ जैसा मानते हैं। उनकी मां की तरह इज्जत करते हैं। हम ऐसा ही जताते हैं।
चलिए। बुरा समय हम सभी देखते हैं। लेकिन अक्सर उसका फायदा नहीं उठा पाते। हम भूल जाते है। भगवान ने हमारे लिए विशेष एक्सट्रा क्लास लगाई है। जिंदगी की। इससे बहुत कुछ सीखना है। आप भी शायद कई लोगों को जानते होंगे। जिन्होंने आपके बुरे समय में अपने रंग बदले होगें। बदले थे ना।।

Tuesday, August 3, 2010

38 साल के हो गए हम। दादी ने कहा जुग जुग जियो।

चुपचाप। अपन 38 साल के हो गए। दादी का फोन आया। दस मिनिट पहले ही। कहती थी। जुग जुग जियो भैया। जुग जुग शायद अपभ्रंश है। युग युग का। मैंने पूछा भी इतना कौन जीता है। और कैसे जीता है। उन्होंने कंपकंपाती आवाज में कहा। बेटा इतने साल आदमी नहीं जीता। उसकी कीर्ति जीती है। और शायद वे कुछ सोंचने लगी। फोन चुप था। मुझे लगा कि शायद वे अपनी बेवसी के बारे में सोचती होगीं। कि दुनिया में सब कुछ उनके सोचने से नहीं हो सकता। वे चाह कर भी मेरी उम्र हजारों साल नहीं कर सकती। लेकिन उनका आशीर्वाद की किसी नाम की कीर्ति हजारों साल रहे।
जन्मदिन की रौनक साल दर साल किस तरह फीकी होने लगती है। हमें याद है जैसे कल ही की बात है। स्कूल जुलाई में खुलते थे। और जन्मदिन अगस्त में। वह भी एक तारीख के पास ही। अपन हमेशा मजे मे रहें। जन्मदिन पब्लिक स्कूल में और भी मजा देता है। एक तो उस दिन रंगीन कपड़े पहनने की छूट होती है। सो पूरी स्कूल में आपके रंगीन कपड़े एलान करते हुए चलते हैं। कि आज आपका जन्मदिन है। हर कोई मुस्कराता हुआ देखता है। और हर भला आदमी शुभकानाएँ देता हुआ चलता है। हमारे कान्वेंट स्कूल में जन्मदिन के दिन प्रिंसिपल जन्मदिन वाले बच्चें को स्टेज पर बुलाती थीं। उसकी लंबी आयु और उसके उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना करती। पूरी स्कूल हैपी बर्थडे गाती। और फिर खूब जोर से तालियां बजती। इसके अलावा अपने किसी एक प्रिय दोस्त के साथ स्कूल के सभी टीचर्स को च़ॉकलेट बांटने की आजादी भी होती। क्लास में भी आप अपने सभी दोस्तों को मिठाई खिलाते और टॉफी बांटते दिन निकालते। अमूमन उस दिन कोई टीचर मारना तो दूर गुस्सा भी नहीं होता था। यानी पूरा दिन मजें में कटता। दादी ड्राईवर हरि अंकल और कंडक्टर दुलीचंद के लिए अलग से मिठाई का थैला बना देती थी। जो मैं उन्हें बस में घुसते ही पकड़ा देता। वे किसी न किसी को उठा कर मुझे खिड़की वाली सीट पर बैठा देते। यानि जन्मदिन माने वीआपी दिन।
लेकिन अब जन्मदिन सिर्फ एक तारीख मालूम पड़ती है। परिवार वालों के फोन। या फिर किसी एक आध भूले बिसरे साथी का फोन। उसमें भी शुभकामनाएँ कम। खुद की तारीफ ज्यादा होती है। कि इतने सालों बाद भी उन्हें हमारा जन्मदिन याद है। जन्मदिन पर हर साल कुछ न कुछ सोचता रहा हूं। कि नया काम कुछ शूरू करूंगा। लेकिन कभी कर नहीं पाया। इस बार सोचता हूं। कि साल भर लिखता रहूंगा। आप लोग आशीर्वाद दीजिए। जो काम 38 साल में नहीं कर पाया। वो अब कर सकूं। यानि साल भर लिखता रहूं। आपके आशीर्वाद का मुझे इंतजार रहेगा।

Friday, July 30, 2010

सिर्फ मनुष्य़ ही अपना स्वभाव बदलता रहता है। और कोई नहीं बदलता।

बचपन में मैंने कहानी सुनी थी। नदी से साधु नहा कर निकल रहे थे। उन्होंने अचानक एक बिच्छू को डूबते हुए देखा। उन्हें उस पर दया आ गई। वे फट से गए। उसे निकालने की कोशिश करने लगे। जैसे ही वह हाथ पर आया। उसने डंक मार दिया। छटपटा कर साधु के हाथ से बिच्छू पानी में गिर गया। यह क्रम कई बार चला। वे जैसे ही उसे अपनी हथेली पर बैठाते। वह उन्हें काटता। उनके हाथ से बार बार वह छूटता जाता था। पास में ही खड़े एक दूसरे साधु ने कहा कि महाराज आप क्या कर रहे हैं। वह अपना स्वभाव नहीं बदलेगा। आप फालतू में परेशान में हो रहे हैं। वह आपको बार बार काट रहा है। फिर भी आप उसे निकालने की कोशिश में लगे हैं। साधू बोले यही तो बात है। कि जब वह अपना स्वभाव बदलने को तैयार नहीं हैं। तो मैं अपना स्वभाव कैसे बदलू।
लेकिन आज की बात कुछ और है। मुझे लगता है पूरी प्रकृति में सिर्फ इंसान ही ऐसी कृति है जो अपना स्वभाव समय और लोगों के हिसाब से बदलता रहता है। आपने कभी नहीं देखा होगा। कि नीम पर आम का फल लग जाए। या फिर इमली पर टमाटर होने लगें। मांसाहारी जानवर सब्जियां नहीं खाते। तो शाकाहारी जानवर मांसाहार नहीं करते। लेकिन इंसान कब शाकाहारी से मांसाहारी हो जाए। पता ही नहीं चलता।
अपन जनसत्ता के समय से बार बार घर भागने के लिए बदनाम थे। कोई उपाय समझ में नहीं आता था। कि दिल्ली में मन कैसे लगे। मैंने एक कोशिश की। अपने बुंदेलखंड के लोगों को खोजा। उनसे दोस्ती की। उनसे मिलने जुलने लगे। मैंने देखा कि हमारे वे दोस्त जो सागर में तो बुंदेलखंडी में बोलते थे। लेकिन दिल्ली आने वाली रेल में बैठते ही उनकी भाषा बदल जाती। और वे खड़ी हिंदी बोलने लगते। उनकी पत्नियां दिल्ली आते आते कपड़े कब और कहां बदल लेती। पता ही नही चलता था। जिन भाभी को हमने सागर स्टेशन पर साड़ी पहने देखा। वे ही दिल्ली में जींस और टीशर्ट पहन कर उतरती थी। यानि स्वभाव के अलावा भी हम अपनी भाषा, अपना पहनावा, अपनी पहचान कितनी जल्दी बदल देते हैं। इसका अंदाजा हमें भी नहीं होता। लेकिन सब कुछ बदल रहा हो। ऐसे में कुछ चीजें थाम कर चलना चाहिए। शायद वक्त रहते कभी काम आए। क्या आप भी कुछ बदले हैं। क्या और कितना। क्यों और कैसे हमें बताना जरूर।

Thursday, July 29, 2010

क्या आपके घर भी आते हैं चिपकू भाईसाहब। चाटू अंकल

पिछले दिनों मैं अपने एक दोस्त के घर बैठा था। प्रोग्राम था। बाहर जाकर खाना खाने का। दोस्त की पत्नी और बच्चे तैयार हो रहे थे। मैं भी अपने मित्र का उसके घर पर ही इंतजार कर रहा था। अचानक घंटी बजी। और हम सब खुश हो गए। कि वह दफ्तर से आ गया होगा। और हम अपने तय कार्यक्रम पर निकल पड़ेगें। लेकिन दरवाजा खोलने गया बंटी कुछ परेशान सा लौटा। मैंने पूछा। क्या हुआ। उसकी शक्ल देखकर मैं कुछ डर सा गया था। वह बोला अरे यार। चाटू अँकल आए हैं। मैंने सोचा। जैसा अपना घर का नाम चूंचूं है। वैसे ही किसी अंकल का नाम चाटू होगा। सो मैंने कहा कि इसमें परेशान होने की क्या बात है। अंकल आए है। तो उन्हें बैठने दो। चाय पानी दो। जब तक तुम्हारे पापा आजएंगे। वह मुझ पर ही गुस्सा हो गया। बोला। अब सब प्रोग्राम खराब हो गया। इतना कहकर उसने गुस्से में चप्पल उतारी और भीतर चला गया।
मुझे पूरा माजरा समझ में ही नहीं आया। कुछ देऱ बाद उनकी आवाज आई। बेटा पानी तो पिला। पता नहीं ....कौन ...पर कोई पानी दे आया। फिर उन्होंने पूछा भाभीजी घर पर है। कब तक आएंगे। साहब। शायद भाभी ने उनको टालने के लिए कहा। एक घंटा लग सकता है। उन्होंने कहा चलो कोई बात नहीं। हम उनका इंतजार कर लेगें। भाभी जी हम चाय पीएगें। फिलहाल। बाकी भाईसाहब को आने दो फिर देखते हैं। आवाज फिर आई। भाभीजी टीवी का रिमोट कहां है। पेपर कहां है। अरे रजनीश की सीडी कहां है। ये सारे प्रश्न उन्होंने एक ही सांस में किए थे। अब बात मुझे कुछ समझ में आने लगी थी। मैंने अपनी भाभी से पूछा। माजरा क्या हैं। उन्होंने बताया कि ये उनके दोस्त है। हर शनिवार को आते हैं। कभी कभी तो रविवार को भी आते है। इनका परिवार यहां नहीं रहता। खामियाजा हमें भुगतना पड़ता है। चाय के समय आते हैं। तो चाय तो पीते ही है। फिर घंटो बोलते रहते हैं। और खाना खाकर जाते हैं। क्या बताए। बहुत चांटते हैं। कई बार तो आपके दोस्त सो भी जाते हैं। लेकिन जब वे उठते हैं। तो ये बैठे ही मिलते हैं।
चाटू अँकल की सुनकर मुझे अपने एक चिपकू भाई साहब याद आगए। सागर में उन दिनों हम युनिवर्सिटी में पढ़ते थे। चिपकू भाई साहब हमसें दो तीन साल बढ़े थे। लेकिन वे हमारी ही क्लास में आ गए थे। उन्हें चिपकने की इतनी गजब बीमारी थी। कि उन्हें देख कई लोगों को मैंने दौड़ते देखा है। और शायद कई बार मैंने भी रास्ते बदले हैं। उनके साथ कई परेशानियां थी। वह बिना रुके। घंटों बोल सकते थे। अगर वो साथ में हैं। तो आप किसी से भी कोई भी बात नहीं कर सकते। बोलने का अधिकार सिर्फ वे अपने पास ही रखते थे। वे सलाह देने से लेकर शेऱ शायरी तक करते थे। वे ऐसे आदमी थे कि वे फुर्सत में भी अच्छे नहीं लगते थे। और एक बार वे मिल जाए। तो फिर घंटो आपसे चिपके रहते थे। आप दुनिया में कोई भी काम बताईए। वे उससे जुड़ा हुआ काम बताकर आपके साथ हो लेते थे। लेकिन इस दिल्ली में जहां हर कोई व्यस्त है। यहां घर पर न कोई चाटूं अंकल आते है। न रास्ते में कोई चिपकू भाई साहब मिलते हैं। क्या आपके घर भी कभी कोई चाटू अँकल या चिपकू भाई साहब आते थे। अगर आते थे हमें बताईएगा जरूर।

Wednesday, July 28, 2010

हमनें पहले ही कहा था। अनुशासन अपनी कूबत के बाहर है।

चलो अच्छा हुआ। हम फिर से फैल हो गए ।इस बार लिखने में। हम जिस तरह से लिखते जा रहे थे। हमें खुद भी अजीब सा लग रहा था। लगातार इतने दिन तक कोई काम हम से सधा ही नहीं था। हम पहले ही कह चुके थे। अनुशासन अपनी कूबत के बाहर की चीज है। लेकिन आप लोगों की प्रतिक्रियाएं। मुझे मजा दे रही थी। सो लिखता गया। लेकिन जो लापरवाही अपन ने सालों से पाली है। उसे खिलाया पिलाया जवां किया है। उसे भी तो अपना रंग दिखाना ही चाहिए। वर्ना हमें भी लगता कि हम कुछ बदल से गए हैं। लेकिन लगातार न लिख पाने से। अच्छा लगा। लगा कि अभी भी हम वहीं है। लापरवाह। अनुशासनहीन। मौजी। और जिस काम को करने की इच्छा न हो। सो नहीं करते। चाहे नुक्सान कुछ भी हो।
आज बहुत दिन बाद कुछ पढ़ा भी । और लिख भी रहा हूं। आयरिश कवि मुनरो को पढ़ रहा था। वो लिखतें हैं। जब भी कोई मरता है। तो मैं ही मरता हूं। और इसलिए कभी बाहर पूछने को मत भेजो कि किसकी अर्थी गुजरती है। मेरी ही अरथी गुजरती है। मुनरो को पढ़कर मुझे बुद्ध अचानक याद आ गए। बुद्ध को मरा हुआ आदमी देखकर लगा था कि मैं ही मर गया। अगर एक आदमी मर गया। तो मैं मर गया। मौत निश्चित है। तो अब जीवन बेकार हो गया। आप नाराज मत होना। आपको लगे। इतने दिन बाद कुछ लिखा। और जीवन की बात छोड़कर मरने की बात करता है। बात जीवन या मौत की नहीं है। बात सिर्फ इतनी सी है। कि जिस दिन हम ये बात समझ ले। ये सत्य समझ ले। उस दिन से हमारी जिंदगी में कई परिवर्तन शुरू हो जाएंगे। हमें लगने लगा कि पद, धन, मकान, कार कलर टीवी। क्या ये सब चीजें इतनी जरूरी है। क्या इनके लिए हमें इतना छल करना चाहिए। इतना कपट। इतना कष्ट।
पिछले कई दिनों से हमारे एक मित्र हमारे पीछे पड़े है। बंटवारे को लेकर। वे लोग अपना घर। जमीन जायदाद। सब बांट चुके हैं। सिर्फ एक मंदिर का अहाता है। जिस पर सबकी नजर है। लेकिन इसे बांटे कैसे। इस पर विवाद है। वे हमारी मदद चाहते हैं। मैंने उनसे पूछा। इसे कौन अपने हिस्से में चाहता है। पांचों भाई। एक साथ बोले। वे चाहते है। सबके अपने तर्क थे। मैंने फिर पूछा। अम्मा और बाबूजी को कौन ले जाएगा। वे आपके लिए और मेरे लिए न सही। लेकिन उन लोगों के लिए वे अब वस्तु ही है। सो मैंने इस भाषा का इस्तेमाल किया। इस पर सब चुप थे। जिन लोगों की संपत्ति पर इतना विवाद है। उन्हें ले जाने के लिए कोई तैयार नही है। क्या हम इस सत्य को भूल जाते है। कि हम भी उसी रास्ते पर हैं। कुछ देर बाद ही सही हमें भी वहीं पहुंचना है। पर शायद हमें यह याद नहीं रहता। अगर याद रहे। तो जिंदगी कुछ बेहतर हो।
चलिए। अगर आपका आशीर्वाद रहा। तो मैं फिर लिखने की कोशिश करता रहूंगा।

Sunday, July 4, 2010

दादी हमारी पीठ पर कील ठुकवा दो। बस्ता बहुत भारी है।

जीबू लाल का फोन आया था। पूछ रहे थे। ब्लाग लिखना क्यों बंद कर दिया। मैंने कहा वक्त नहीं मिलता। जीबू बोले। हमें अपना पास वर्ड दे दो। हम तुम्हारे लिए लिख दिया करेंगे। मैंने पूछा किस विषय पर लिखोगे। बोले विषयों की कमी है क्या। हमारे पास बहुत विषय है। हम स्कूल जो जाते हैं। जीबू लाल हमारे छोटे भाई है। और अब वे पांचवी क्लास में पहुंच गए हैं। उनकी ये बात सुनकर हमें अपने ऊपर एक बार फिर शर्म आई । जो अक्सर आती रहती है। लेकिन पूरी बेशर्मी से मैं उसे पी भी जाता हूं। लेकिन जीबू की बात काम कर गई। मैंने नहाया। और मैं ब्लाग लिखने बैठ गया। हांलाकि कल भारत बंद है। और मुझे खबर करने के लिए सुबह सात बजे जाना है। सो जल्दी उठना होगा।
मुझे याद है जैसे कुछ दिनों पुरानी ही बात हो। जीबू स्कूल से पहले दिन लौटे थे। और हमारी दादी को सुझाव दे रहे थे। बोले दादी। हमारा बस्ता बहुत भारी है। पीठ में कील ठुकवा दो। सारे लोग हंसने लगे। और मैं चुप होकर उसकी पीठ को और बस्ते के वजन को देखता रहा। हम किस तरह की शिक्षा दे रहे हैं। अपने स्कूलों में इन बच्चों को। क्या बस्तों का बोझ बढ़ाने से हमारे बच्चे ज्यादा समझदार और बेहतर इंसान बन पाएगें। या फिर हम सिर्फ अपनी नाकामी छुपाने के लिए इन पर बोझ डालते जा रहे हैं।
पिछले दिनों हमने एक खबर की थी। खबर एक विज्ञापन पर थी। विज्ञापन था। बच्चों के होमवर्क हमारे यहां पर सस्ते दामों में किए जाते हैं। उनके प्रोजेक्ट्स भी हम बनाते हैं। पता चला होलिडे होमवर्क का कारोबार हर साल वह सज्जन करते हैं। मैं जब मिला तो उन्होंने बताया कि यह काम वे पिछले दस सालों से करते आ रहे हैं। और ऐसे मां बाप जो दोनों नौकरी करते है। वे हमारी मदद लेने अक्सर आते है। होलिडे होमवर्क ही हमें समझ में नहीं आता। जिस छुट्टी में होमवर्क करना हो। वो छुट्टी ही कैसी। हमारे जमाने में अप्रैल में परिक्षाएँ होती थी। तीस अप्रैल को रिजल्ट आता था।दो महीने की खालिस छुट्टियां होती थी। और फिर एक जुलाई को स्कूल खुलता था। लेकिन अब फरवरी में परीक्षाएं होती है। और स्कूल लगना फिर शुरू हो जाता है। तो मानों गर्मी की छुट्टियां न होकर। सिर्फ एक ब्रेक सा मालूम पढता है। और बच्चों में पढ़ाई का तनाव उन छुट्टियों में भी रहता है।
आपको शायद अपनी गर्मियां की छुट्टियां याद होंगी। हम कितना खेलते थे। कितनी मौज करते थे। और कितने तनाव मुक्त थे। न होलिडे होमवर्क थे। न प्रोजेक्ट्स। लेकिन हम एक अजीब सी दौड़ में ऐसे फंसे हैं। कि निकलना बाहर है। दुनिया का हर आदमी अपने बच्चें को अपनी असफलता का तोड़ समझता है। वह तो क्लर्क ही बन पाया लेकिन बेटा कलेक्टर बन जाए। बस यही दोड़ है। जीबू की पीठ पर तो कील नहीं है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि आने वाले दिनों में हमारे माता पिता ही अपने बच्चों की पीठ पर कील ठोंकने लगे। संभलिए। और हमें बताइएगा। कि आप कितने सहमत है। इन बस्तों से और उनके बोझ से।

Monday, June 21, 2010

उपनामों की दुनियां। मैंने कहा चौंचे चाचा नमस्ते। वे गुस्साए। पिता झल्लाए।

मैं बचपन से ही पिता के साथ खूब घूमा हूं। उनसे अपनी जमकर दोस्ती रही। उनके साथ घूमना। बाजार में खाना पीना। दोस्तों की तरह बतियाना। आम बात थी। मैं उनके साथ एक दिन चाट खानें जा रहा था। कि पिता के एक बचपन के दोस्त मिल गए। मैंने पूरी सभ्यता दिखातें हुए। उनसे नमस्ते करने की बात सोचीं। और फट से कर भी डाली। इससे पहले की उनके और पिता के बीच कोई संवाद स्थापित हो पाता। मैंने उन्हें देखा। और कह डाला। चौंचे चाचा नमस्ते। मैं सोच रहा था कि वे हल्के से मुस्करा कर मुझे नमस्ते कहेगें। मेरी पढ़ाई लिखाई। स्कूल इन तमाम चीजों के बारे में पूछेंगे। लेकिन उन्होंने हमारी नमस्ते का जवाब तो नहीं दिया। और वे पिता से लगभग लड़ने की मुद्रा में थे। वे चिल्ला रहे थे। पहले तो तुम जिंदगी भर उल्टे सीधे नाम कहते और कहलवाते रहे। अब बच्चों को भी सिखा रहे हों। मुझे अपमानित करवा रहे हों। पिता उन्हें समझाते रहे। कि मेरी नमस्ते में उनकी कोई भूमिका नहीं है। लेकिन वे मानने को तैयार ही नहीं थे। कुछ देर गुस्साएं और फिर चिल्ला कर चले गए। उनके जाने के बाद पिता ने मुझे डाटा। तुम ने चौंचे से चौंचे क्यों कहा। मैंने पूछा तो और क्या कहता।उन्होंने कुछ सोचा। कुछ याद करने की कोशिश की। फिर बताया कि उसका नाम तो सुभाषचंद्र हैं।
उपनामों की दुनिया भी अजीब हैं। एक वह नाम जो हमारे माता पिता रखते हैं। जिसे हम पूरी साज सज्जा के साथ अपनी छाती पर टांक कर घूमते हैं। राशन कार्ड से लेकर वोटर आई कार्ड पर भी वही नाम होता है। लेकिन इस तरह के नाम अक्सर हमारी जुबान पर नहीं होते। और वे नाम जो यू हीं रख दिए जाते हैं। कभी दोस्तों के जरिए तो कभी अपनों के सहारे वे अक्सर चल जाते हैं। पिछले दिनों जब हम घर गए थे। तो एक नौजवान हमारे घर आया। नमस्कार हुई। मैंने बैठने को कहा। सयुंक्त परिवार हैं। तो पूछना पड़ता है। किसको बुलाना है। हमें बेघर हुए तो सालों हो गए। लिहाजा हमसे मिलने तो अब कोई भूला भटका ही आता है। उसने अपना परिचय दिया। लेकिन मुझे याद नहीं आया। उसने फिर बताया कि वह घसीटे लाल का नाती है। और मुझे सब कुछ याद आ गया। उसके दादा अब इस दुनिया में नहीं है। उनका नाम गोवर्धन प्रसाद श्रीवास्तव था। लेकिन वे शायद बचपन में चप्पल घसीट कर चलते थे। सो वे घसीटे हो गए। और वह नाम पिछले करीब 90 सालों से चला आ रहा है। मैंने सुना है। कि उन्होंने अपने घर की नेम प्लेट पर भी ब्रैकिट में लिखवाया था। घसीटे लाल। लोग पता भी बताते है। कि घसीटे के घर के सामने।
हमारे साथ एक महेंद्र जी पढ़ते थे। बातों बातों में उनका नाम पोपट लाल रखा गया। बात में हालत यह हुई कि अगर वो क्लास में न दिखे। तो हमारे टीचर्स भी पूछ लेते थे। और पोपट नहीं आया। वे इस बात को लेकर पिछले 30 सालों से मुझ से नाराज हैं। वे अब हमसे बात नहीं करते। लेकिन सागर में उन्हें आज भी अगर कोई पोपट भाई नमस्कार कह दे। तो वे उससे कुछ नहीं कहते। मुझे जरूर गाली बकते हैं। लेकिन मैं पिछले तीस सालों से उन्हें महेंद्र जी कहता हूं। लेकिन वे मुझे गाली ही बकते है। ये अलग बात है कि लोग उन्हें महेंद्र कम और पोपट के नाम से ज्यादा पहचानतें हैं। क्या आप भी ऐसे कुछ लोगों को जानते हैं। जिनके नाम इस तरह से बिगाड़ कर रखे गए हों। और उनकी एक कहानी भी हो। अगर हो तो हमें जरूर बताइएगा।

Monday, June 14, 2010

क्या हमारी शादियां मीटर होती है। दौलत और शोहरत की।

मैंने शादी का वह कार्ड कई बार देखा। देखने लायक था भी। बहुत सुंदर और बहुत मंहगा। फिर मैंने उसे रद्दी वाली टोकरी में रख दिया। लेकिन उसे टोकरी में से फिर निकाला।उसे मैं शायद अपनी अलमारी में रखना चाहता था। लेकिन पत्नी के डर कर मैं उसे नहीं रख पाया। वह शायद चिल्लाएगी। कि पहले से ही घर में तुम रद्दी का इतना सामान संभाल कर रखे हो। कहीं अखबारों की कटिंग। तो कहीं सर्वे की रिपोर्टस। कई चिट्ठियां जो तुम्हें आई। और कई चिट्ठियां ऐसी जो तुमने लिखी लेकिन डाली आज तक नहीं। कुछ सम्मान में मिले कागज। और भी कुछ इसी तरह की बेतुकी चीजों से तुम घर अपना भरे हों। जबकि पांडे भाभी का घर देखो। कितना साफ और कितना व्यवस्थित। अब शादी के कार्ड रखना मत शुरू कर देना। इन तमाम बातों को सोचकर वापस उसे टोकरी के हवाले ही कर दिया।
प्रफुल्ल जब अपनी बहिन का कार्ड देने आया था। तो मैं ही घर पर था। और कभी कभार की तरह मैंने ही दरवाजा खोला। कार्ड देखा तो सुंदरता की तारीफ कर दी। वह अंदर आया। और उसने पूरे आधें घंटे में बताया कि कार्ड किस तरह से उसने पसंद किया। नौ दिनों तक वह दिल्ली के अलग अलग बाजारों में घूमता रहा। 78 कार्ड के सेंपिल घर लाया। फिर घर में पंचायत हुई। और यह कार्ड पसंद किया गया। फिर भैया मैटर लिखने के लिए हमारे जीजाजी आए थे। झांसी से। उसने गर्व से बताया। वे गर्ल्स स्कूल में प्रिंसिपल हैं। और हिंदी के लेखक भी। उनकी कई किताबें छप कर आई हैं। उन्होंने दो दिन में कार्ड लिखा। भैया वैसे सभी लोग पूछ रहे हैं। कितने का छपा है। अब क्या बताएं। मेहनत का तो कोई मोल है नहीं। लेकिन अगर आप रुपए की बात करें। तो एक कार्ड 22 रुपए 50 पैसा का पड़ा है। उसे और अच्छा लगे सो हमने कार्ड देख कर और तारीफ करनी चाही। और स्वाभाविक रुप से पूछ बैठा कि शादी किस तारीख की है। मैंने कार्ड कई बार पलटा। लेकिन उसमें तारीख थी ही नहीं। शायद जीजाजी झांसी वाले। झांसा खा गए। और तारीख लिखना ही भूल गए थे।
वह चला गया और मैं कुछ देर तक कार्ड के बारे में सोचता रहा। कि अगर समाज बुरा न मानें तो मेरा दोस्त शायद यह विशेष नोट भी लिख देता। कि कार्ड 22 रुपए 50 पैसे का है। इसे झांसी वाले जीजाजी ने लिखा है। क्या हमारी शादियां हमारी दौलत और शोहरत की मीटर बन गई है। क्या शादियां दिखावे का एक जरियां हैं। जहां हम अपना कौशल। अपनी ताकत समाज के सामने पेश करते हैं। शादी का कार्ड एक सूचना है या फिर हमारे बैंक खाते का स्टेटमेंट। जो भी हो। लेकिन वह कार्ड शादी की तारीख की सूचना देने से तो चूक गया। लेकिन अपनी दौलत बखूबी बता गया। अपनी शादी की बात कुछ और थी। उसे निपटाना था। सो इसी तरह कार्ड भी था। सिर्फ छप गया। और लोगों तक सूचना पहुंच गई। आपकी शादी का कार्ड कितने में छपा था। और किसने लिखा था। हमें बताइएगा जरूर।

Sunday, June 13, 2010

रुमाल न मां ने बचपन में कमीज में टांका। न जवानी में पत्नी ने दिया।

महानगर की ये फैशन है। संडे है तो खाना बाहर खाना है। साथ में पत्नी को फिल्म भी दिखाना है। न फिल्म का अच्छा होना जरूरी है। और न खाने का स्वादिष्ट होना। यह सिर्फ छुट्टी की एक परंपरा है। जो आपकों हर संडे निभानी है। यह आपको बताना जरूरी है। कि आप अपनी फैमली के लिए भी समय देते है। क्वालिटी टाईम परिवार के साथ गुजारते हैं। क्वालिटी टाइम मुझे समझ में आज तक नहीं आया। इसका मतबल क्या होता है। क्यों कि परिवार के साथ गुजारा गया हर टाइम मुझे क्वालिटी टाइम ही लगता है। जैसे दादी को बोर होना। मूड नहीं होना समझ में नहीं आता। वे कहतीं हैं ऐसा कभी नहीं हुआ कि खाना बनाने के लिए हमारा मूड न हो।या फिर घर के कामों से हम बोर हो जाएं। ऐसा कभी भी हमारे साथ पिछले साठ सालों में नहीं हुआ। सो अपन भी संडे को पत्नी को लेकर खाना खाने बाहर गए। साथ में एक दोस्त भी थे। उन्हें भी संडे मनाना था। खाना खाकर उठे। तो मुझे हाथ साफ करने थे। लेकिन मेरे पास रुमाल नहीं था। ये बात सामान्य सी थी। जो मेंरे साथ पिछेल 30 सालों से घटित होने वाली घटना है। लेकिन दोस्त की बीबी को यह बात अजीब सी लगी कि मैं रुमाल लेकर नहीं चलता।
मुझे बचपन में अपनी क्लास याद है। हमारे साथी अपनी कमीज पर रुमाल टकवा कर आते थे।उनकी पढ़ी लिखी मम्मी सेफ्टी पिन से शर्ट पर उनका रुमाल लगा देती थी। और वे दिन भर अपना हाथ अपनी कमीज से ही साफ करते थे। या फिर पेंट से। लेकिन उस रुमाल को कभी मैंने इस्तेमाल होते या फिर गंदा होते नहीं देखा। फिर क्या वह सिर्फ फैशन थी। या उन मम्मी का अपना कॉम्पलैक्स दिखाने का एक तरीका था। हमें तैयार करती थी दादी। लेकिन उन्होंने हमें कभी भी इस तरह का रुमाल कमीज पर टांक कर नहीं दिया। रुमाल को लेकर अपनी कुछ किस्मत ही खराब रहीं। स्कूल के जमाने से ही प्रेम करना अपन ने शुरू कर दिया था। लेकिन आजतक किसी भी प्रेमिका ने अपना नाम लिखकर मुझे रुमाल नहीं दिया। हांलाकि हमारे साथी प्रेमी अक्सर बिना किसी वजह के रुमाल निकालते और खोलते रहते थे। जिस पर पान के पत्ते की तरह दिल बना रहता था। उसे भेदता तीर। और प्रेमिका के नाम का पहला अक्षर। और हम लोग समझ जाते थे। इसी हफ्ते इकरार हुआ है। क्योंकि अक्सर रुमाल पर नाम पहला उपहार होता है। जैसे प्रेमिकाएं टिफिन में सबसे पहले हलुआ बनाकर लाती है। शादी हुई तो पत्नी भी वैसी नहीं मिली। रुमाल वाली। जो रुमाल में परफ्यूम डालकर हर सुबह दफ्तर जाते वक्त दे। शायद वह फिल्में भी कम देखती हैं। और टीवी सीरियल भी लिहाजा इन कामों में पीछे ही हैं।
रुमाल के भी कई इस्तेमाल होते हैं। हाथ साफ करना तो एक है ही। कई लोग तो दिल्ली में गाड़ी चलाने से पहले पूरे तैयार होते है। रुमाल निकालकर अपना सिऱ ढक लेते हैं। रुमाल बड़ा हो तो सब्जी भी लोग ले आते है। मुझे एक बात और समझ में नहीं आई। महिलाओं को रुमाल की ज्यादा जरूरत होती है। लेकिन लेडीज रुमाल छोटे क्यों होते हैं। उपहार में देने के लिए भी एक आसान चीज तो है हीं। और मुझे अपने दोस्त की पत्नी को देखकर लगा कि सभ्य दिखने के लिए भी रुमाल का जेब में होना जरूरी है। आप इस्तेमाल करे या न करें। वो अलग बात है। क्या आप भी रुमाल रखते है। या मेरी तरह शहर के तौर तरीकों से अभी भी अनजान है। मुझे बताइएगा जरूर।

Saturday, June 12, 2010

हमनें कफन भी लिया है। तो जिंदगी देकर

खबर कुछ अटपटी थी। जल्दी लिखकर भी देनी थी। प्राइम टाइम में जानी थी। उसे जल्दी जल्दी टाईप कर रहा था। फिर भी script में जो संगीत बनता है। वह लय नहीं थी। सो मैं कुछ देर के लिए रुक ही गया। मैंने देखा मेरे एक साथी रजनीगंधा चोरी से खा रहे हैं। साथ में तुलसी मिलाकर। आज कल यह चलन में हैं। रजनीगंधा पान मसाला। और उसमें तुलसी जर्दा मिलाकर। मुझे लगा मैं भी दो चार दाने खा ही लूं। शायद लिखने में और ज्यादा मजा आए। मैं अपना काम छोड़कर उनके पास गया। मैंने कहा दो चार दाने हमें भी दे दे यार। वे बहुत ही सीधे और सज्जन आदमी है। हम कई सालों से एक साथ काम कर रहे हैं। हम कई बार एक दूसरे के काम आए हैं। लिहाजा उनके जवाब का इंतजार किए बगैर ही। हमने हाथ फैला दिया। लेकिन वे बोले भैया माफ करना। मैं नशे का सामान किसी को नहीं देता। मुझे अजीब लगा। लेकिन मैंने पूछा क्यों। वे बोले सौ बार देगें। तो आप कुछ भी नहीं कहेंगे। लेकिन एक बार मना कर देगें। तो आप बुरा मान जाएगें। लिहाजा सौ बार का क्यों इंतजार करना। आप आज ही बुरा मान जाइए। मैं चुप रहा। अपनी स्टोरी लिखने लगा। उसे जल्दी से बनाकर दे भी दिया। फिर कुछ देर बाहर निकला। और दस पैकेट खरीद कर लाया। रजनीगंधा पान मसाला के। और साथ में दस पैकेट तुलसी जर्दी के भी। उसके लिए।उसे धन्यवाद दिया। और कहा कि तुमने बात तो लाखों की कहीं। लेकिन मैं फिलहाल इतना ही दे सकता हूं।
मदद हो या फिर उधारी। इसकी मानसिकता भी गजब की है। शायद फ्रायड भी इसे आसानी से नहीं समझ पाता। अगर उसने कोशिश की होती। तो भी नहीं जान पाता। मैंने कई लोगों को देखा है। कि वे कुछ भी नशा करते हैं। और दिन रात इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं। कि कहीं से मुफ्त में जुगाड़ हो जाए। मैंने कई दोस्तों से पूछा भी। उनका गजब का मनोविज्ञान है। वे कहते हैं। हम नशे में पैसे बर्बाद नहीं करते। तो हमनें पूछा कि फिर करते ही क्यों हो। मैंने देखा है एक शराब की पार्टी के लिए। लोग किस तरह जुगाड़ में रहते हैं। एक सिगरेट या फिर मुफ्त में एक कप चाय भी उनके लिए उपलब्धि होती है। मैंरे एक दोस्त है। उनका नाम ही हम लोग जुगाड़ चंद रखे हैं। वे जुगाड़ करने में माफिर है। और हर चीज की जुगाड़ करते हैं। कभी शराब की। तो कभी नॉन वेज की । तो कभी अंडा करी की। कभी मुफ्त पास की। साल के शुरूआत मे कैलेंडर या डायरी की। और वे अक्सर सफल भी हो जाते हैं।
हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में हर चीज की कीमत अदा करना क्यों नहीं चाहते। हम मुफ्त में चीजें क्यों चाहिए। हमें जुगाड़ क्यों करनी है। हमें इमानदार नेता चाहिए। लेकिन खुद राजनीति में आने से परहेज करते हैं। हमें कर्मठ और संवेदनशील सरकार चाहिए। लेकिन वोट डालने नहीं जाते। हमें सजग और बेहतर मीडिया चाहिए। लेकिन अखबार वो खरीदेंगे। जिसमें रद्दी ज्यादा हो या फिर लड़कियों की तस्वीरें ज्यादा हों। हमें सच चाहिए। लेकिन उसकी कीमत अदा नहीं करेंगे। हमें हर चीज जुगाड़ से चाहिए। कीमत पर नहीं। मुझे नदीम का एक शेर यादा आ गया। हो सकता हैं थोड़ा गलत भी हो। हमें मुफ्त में कुछ भी लेने की आदत नहीं हैं नदीम। हमने कफन भी लिया है तो जिदंगी देकर।

Thursday, June 10, 2010

वे फोन काटते नहीं। खीज में चिल्लाते भी नहीं। कहते हैं हमें अपनो का चेहरा याद आता है।

डॉ शिव चौधरी। आपने यह नाम मेरे ब्लाग में कई बार पढ़ा होगा। और आगे भी पढ़ते रहेंगे। मैं जिन लोगों से सबसे ज्यादा प्रभावित हूं। उनमें डॉ शिव चौधरी भी एक हैं। वे एम्स के उम्दा कार्डियक सर्जन है। और वह धमनी जो हमारा खून दिल से दिमाग में ले जाती है। वे उसके विशेषज्ञ है। यह उनका हुनर है कि अगर किसी के दिल से उसका खून दिमाग की तरफ न जाता हो तो वे उस धमनी को चुस्त दुरुस्त कर देते हैं। शायद उसे आयोटा कहते हैं। वे इस काम के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। और शायद यही एक वजह है कि उनके विचार भी दिल से ही दिमाग की तरफ जाते हैं। वे सोचने का काम भी दिल से ही करते है। वे व्यस्त इतने रहते हैं। कि अगर आप कुछ ज्यादा देर उनके पास बैठना चाहें तो आपको खुद ही अपराधबोध होने लगेगा। हम जिंदा है और साथ में नौकरी करते हैं। लेकिन वे शायद सर्जरी करते है। और साथ में जीवित भी है। यानि उनका अपने मरीजों के लिए हर मिनिट समर्पित रहता है। लेकिन मुझे हैरत हुई जब मैने देखा कि विभिन्न स्कीमों के लिए आया हर फोन वे लगभग पूरा सुन लेते है। न चिल्लाते हैं। न खीजते हैं। और हमारी तरह यह कहकर फोन काटतें भी नहीं कि मीटिंग में हूं। मुझे हैरत हुई। मैंने पूछ ही लिया। वे बोले परेशान में भी कई बार हो जाता हूं। लेकिन फोन कांटने से पहले मुझे अपनों के चेहरे याद आते हैं। न जानें कौन टार्गेंट लेकर फोन बजाता होगा। स्कीम समझाने की जुगत में होगा। हो सकता है कि कल हमारे परिवार को भी कोई बच्चा किसी स्कीम के लिए फोन करता घूमें।
हमारी रोज मर्रा की जिंदगी में हमें इतने फोन सुनने पड़ते हैं। कि फोन सुनने से एक अलग तरह की एलर्जी सी हो गई है। ऐसे समय में बिना काम का एक भी फोन सुनना हमारें धैर्य की परीक्षा होती है। और खासकर ऐसे फोन जो हमारी मजाक बनाते हों। जैसे सर क्या आप होंडा सिटी कार का ट्रायल लेना चाहेंगे। ऐसे समय में जब हम बड़ी मुश्किल से अपना दो पहिया वाहन चला पातें हों। जवाब दिया नहीं। वह फिर पूंछती हैं। सर अभी आपके पास कौन सी कार है। कहा कोई भी नहीं। तो कौन सी लेना चाहेंगे।क्या जबाव देता । और मैंने फोन काट दिया। कुछ देर बार फिर फोन आता है। सर हमनें सेविंग प्लान लांच किया। इतना अच्छा प्लान पहली बार आया है। आपकों 50 हजार रुपए साल देना होगा। मैंने कहा.. नहीं चाहिए। वह बोली सर जिंदगी का क्या भरोसा। ले लीजिए। मैं उसे कैसे समझाता कि दिल्ली की 14 साल की नौकरी में अपने पास 50 हजार रुपए जमा नहीं हो पाए। तो हर साल 50 हजार कैसे देंगे। मैंने फिर फोन काट दिया। मीटिंग में था। सही की। फिर फोन आया। फाइव स्टार होटल की सदस्यता के लिए। मैं खीज गया। मैंने कहा कि आप लोंगों को नंबर कौन देता है। आपको पता नहीं मैं जरूरी मीटिंग में हूं। और में दस मिनिट तक चिल्लाता ही रहा। बाद में पता चला कि उसने न जाने कब फोन काट दिया था।
यह गुस्सा मेरा उसके ऊपर था। या अपने आप के ऊपर। घर हर रोज 11 बजे के बाद पहुंचता हूं। संडे को आलस्य और थकान घऱ से निकलने नहीं देता। कभी कभार होटल से खाना मंगाता हूं। या फिर किसी सस्ते होटल में जाकर खाना खा लेता हूं। ऐसी हालत में कोई बार बार यह समझाएं की आप 9 हजार 900 रुपए में पंच तारा होटल की सदस्या ले लीजिए। इससे आपको कई फायदे होंगे। बात तो वह लड़की सही कह रही थी। लेकिन शायद आदमी गलत था। हमें अभी भी समझ में नहीं आया। मेरा यह गुस्सा उस लड़की पर था। या अपने आप पर । क्या आपके पास भी इस तरह के फोन आते हैं।तो आप क्या करते हैं। सुनते हैं। शिव भैया की तरह। या काट देते हैं। खीजकर मेरी तरह। बताइएगा जरूर।

Wednesday, June 9, 2010

वे मिलने पर नमस्कार नहीं करते। चुगली करते हैं। कई बार झूठी भी।

डॉ मनोज सिंह। हम प्रेम में उन्हें टाईगर सिंह कहते हैं। एम्स में शायद ही ऐसा कोई डाक्टर हो जो उन्हें न जानता हो। या फिर शायद ही ऐसा कोई हो जिसे उन्होंने गालियां न बकी हों। पूरी दिल्ली में वे ही शायद ऐसे हैं। जों हमें भी गालियां ही बकते हैं। और अगर वे गालियां न बकें। तो मानलो या तो वे परेशान है। या फिर किसी संकट में। वे कैंसर की स्लाइड और हाथ की लकीर एक ही आंख से देख लेते हैं। pathology पर बात हो या फिर गालिब पर वे एक ही तरह से करते हैं। उनके कमरे में चना...और कॉफी...चाय का सामान हर समय होता है। हर किसी के लिए। वे पत्रकारों में भी काफी लोकप्रिय हैं। हम लोग उनसे मिलने जाते रहते हैं। मैं पिछले दिनों उनके साथ आ रहा था। कि एक डाक्टर साबह मिले ।उन्होंने नमस्कार नहीं किया। सिर्फ बताया कि एक व्यक्ति उनकी किस तरह से बुराई कर रहा था। टाईगर सिंह हंस दिए और चल दिए। उन्होंने कहा कि यह डाक्टर कभी भी हाय हैलो नहीं करता। जब भी मिलेगा। चुगली ही करेगा। या फिर किसी की बुराई।
इस मानसिकता से पीड़ित हमने कई लोगों को देखा है। वे कभी भी किसी भी व्यक्ति की अच्छी बात नहीं कर सकते हैं। हर व्यक्ति में बुराई निकाल ही लेगें। और चुगली करना शायद यह एक मानसिक बीमारी है। कुछ लोग इस दवा को रोज खाते हैं। दफ्तरों में यह बीमारी महामारी की तरह फैली हुई है। अपने अफसर के करीब जाने के लिए यह सबसे आसान और फुर्ती का तरीका है। अफसर को यह बात समझ में आजाती है। कि फलां व्यक्ति अगर उसके पास खबर ला रहा है। तो यह तय हो गया है कि चुगली करने वाला उसका खास आदमी है। लेकिन यह बात क्यों नहीं पूछी जाती है। कि जब मेरी बुराई हो रही थी। तो तुम चुप क्यों थे। तुमने इसका प्रतिकार वहीं क्यों नहीं किया। वे लोग जो हमारे शुभ चिंतक बनते हैं। और हमसे चुगंलियां करते हैं। उनसे यह बात जरूरी पूछी जानी चाहिए। हमारे बुंदेलखंड में कहते हैं। कि अगर वेवजह तुम्हें खांसी चलने लगे तो समझों कोई बीमारी आने वाली है। और कोई व्यक्ति अगर तुम्हारी अचानक खुशामद करने लगे। तो समझों तुम्हारे साथ कोई धोखा होने वाला है। क्या आप भी ऐसे लोगों को जानते हैं जिनका काम ही चुगली करना है। या फिर किसी न किसी की बुराई करना।

Tuesday, June 8, 2010

मैने कहा अंकल जी 40 नंबर कहां होगा। वे बोले अपने बाप से पूछो।

इलेक्ट्रानिक मीडिया की एक और विशेषता है। आप से फोन करके कभी भी कहा जा सकता है। यह एक नाम है। इनका घर का पता यह है। इनसे बाइट लानी है। आपको उनका घर पता करना है। उनसे बात करनी है। फिर कैमरे पर उनकी बाइट लेनी है। मैं अपनी खबर करने में जुटा था। कि अचानक दफ्तर से फोन आया। बाइट लेकर जल्दी आओ। मुझे नाम और पता लिखा दिया गया। मैंने पता देखा और चल दिया। लेकिन अजीब कालोनी थी। वहां 10 नंबर के बाद 11 नहीं आता था 15 नंबर और फिर सीधा 27 नंबर दिखा। घर का मकान नंबर किससे पूछे समझ में ही नहीं आ रहा था। दो तीन लोगों को ट्राई किया। बात बनी नहीं। पूरी कालोनी में घूम लिया। मकान मिला ही नहीं। फिर जब बाहर निकलने लगा था तो एक किराने की दूकान थी। जो कालोनी के शुरू होते ही थी। पहला मकान और उनकी पहली दुकान। मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया था। मैंने अंकल जी को नमस्कार किया। और पूछा। अंकल जी। 40 नंबर का मकान कहां पड़ेगा। वे गुस्से से आग बबूला हो गए। उन्होंने कहा अंधे हो क्या। मैने कहा नहीं। तो बाहर नहीं देखा क्या लिखा है। बाहर एक बोर्ड था। जिस पर लिखा था। इस दुकान पर पता पूछना सख्त मना है। मैने अंकल जी से माफी मांगी। फिर कहा कि अब पूछ ही लिया है। तो पता बता दीजिए। लेकिन वे फिर गुस्से में बोले जाओ। अपने बाप से पूछो। अंकल जी की यह स्टाइल देखकर मुझे मजा आ गया। और मैं कार से उतरकर उनके पास चला गया।
मैंने कहा कि अँकल जी आपके पास सबसे ठंडी कोल्ड ड्रिंक कौन सी है। उन्होंने बताया कि दो फ्रिज खराब है। सिर्फ एक ही चलता है। देखता हूं। फिर वे कोक निकालकर लाए। मैंने पूछा कि आप गिलास भी बेचते है। वे बोले हां। तुम्हे मतलब। मैंने कहा मुझे तीन खरीदने हैं। फुटकर तीन रुपए हैं। मैंने कहा हैं। उन्होंने तीन गिलास थमा दिए। मैंने कोक तीन ग्लास में डाला। एक मैं पीने लगा। एक हमारे साथी कैमरा मेन। और तीसरा मैंने कहा कि अंकल जी आप गुस्से में है। एक गिलास आप भी पी लीजिए। वे बोले मजाक करते हों। मैने माफी मांग कर कहा। मुझे अच्छा लगेगा। और गिलास रखकर मैं बाहर निकल आया। मैने एक घूंठ ही पिया था... कि कोरियर वाला आकर रुका। अंकल जी .....जोर से चिल्लाया। तिवारी की मकान कौन सा है। अंकल जी सारे ग्राहक छोड़कर उसे गरियाने लगे। वे अपनी गालियां पूरी नहीं कर पाए थे। कि एक पीजा वाला आ गया। बोला दादा जी हुनमान जी का मंदिर कहां है। दादी जी चुप रहे। तभी फिर एक और व्यक्ति आ गया। यहां पर कोई फोन की दुकान है। मैं पूरा मामला समझ गया। कि कालोनी की शुरूआत में अंकल जी की पहली दुकान है। हर भटके हुए आदमी को एक वे ही सहारा देते हैं। लिहाजा हर आदमी उनके पास रुकता है।
मैंने अंकल जी की परेशानी समझी। कुछ देर उनसे बतियाता रहा। उन्होंने अपने दुख दर्द सुनाए। किस तरह से वे किसी को गली दिखाने दुकान से बाहर निकले। और ग्राहक गल्ले में से पैसे ले गया। वे पता बताने में अक्सर अपना हिसाब भूल जाते हैं। 50 के नोट में 80 रुपए वापस कर देते हैं। बाद में बेटा बहू चिल्लाते हैं। मुझे अंकलजी की परेशानी सुनकर अपने एक पप्पू भैया याद आ गए। वे भी हमारे घर के पास किराने की दुकान चलाते हैं। उनका फोन आया कि भैया हम थाने में हैं। आ जाइए। मैं थाने पहुंचा तो पता चला कि वे दोपहरी में गर्मी से तंग आकर सोने गए थे। दुकान बंद करके। लेकिन ठीक दो बजे घंटी पर घंटी बज रही थी। वे बाहर निकले तो कोरियर वाला चिठ्ठी लेकर उनसे पता पूछने को खड़ा था। भैया ने उसे दो तीन चाटें मार दिए। और उसकी चिठ्ठियां फाड़ दी। सो पुलिस में शिकायत हो गई। हालांकि मैं भैया को थाने से छुटा लाया लेकिन मुझे इस परेशानी का पहली बार पता चला। पता बताने की। मैने दादाजी से फिर मांफी मांगी और कहा। आपने मुझसे कहा कि अपने बाप से पूछो। 40 नंबर का मकान कहां है। मैं आपकी जगह होता तो कहता अपने दादा से पूछो। 40 नंबर का मकान कहां है। गुस्से में दादा जी भूल गए थे। कि 40 नंबर का मकान उन्हीं का हैं। और मैं उन्हीं के बेटे से मिलने गया था। पता पूछने और बताने के आपके क्या अनुभव हैं। हमें बताइएगा जरूर।

Monday, June 7, 2010

घरों पर नाम थे। नामों के साथ ओहदे थे।

पिछले दिनों मुझे एक अफसर की बाइट लेनी थी। बाइट यानि प्रतिक्रिया। छुट्टी का दिन था। सो कुछ गुजारिश करके उनके घर ही चला गया। घर पहली बार गया था। सो पता खोजना पड़ा। इस चक्कर में कई घऱों के आगे लगी नेम प्लेट्स भी पढ़ता गया। मैंने इतनी मजेदार नेम प्लेट तो कभी पढ़ी ही नहीं थी। घर के दरवाजे एक दम पुते हुए थे। और साफ भी थे। काले दरवाजें पर सफेद रंग से लिखा था। राजेंद्र प्रसाद खरे। मोहल्ले के प्रतिष्ठित व्यक्ति। उसके नीचे लिखा था। रिटायर्ड सरकारी अफसर।
मुझे इस नेम प्लेट को देखकर कई यादें ताजा हो गई। मुझे याद है। सालों पहले मेरे मोहल्ले में एक सज्जन वकालत करते थे। उनके नाम के आगे लिखा। नाम था...........। वकालत की डिग्री। और फिर लिखा था। .....सिर्फ उलझे हुए मामलों के लिए ही मिले।........और वे अक्सर खाली बैठे रहते थे। हम लोगों को एक सुविधा थी। उनके पास एक दफ्तर था। बैठने को कुछ कुर्सियां। पंखा भी था। हमें और क्या चाहिए था। सो हम लोगों को जब भी फुर्सत मिलती थी। हम अपना डेरा जमा लेते थे। वकील साहब को फायदा था। जो चाय और पान हम लोग अपने लिए मंगाते। वे उसके हिस्सेदार होते थे।सो उनका भी काम चलता रहता था।और अपना भी। उन्हीं वकील साहब के एक बड़े भाई भी थे। वे अपनी नेम प्लेट पर पूरी डिग्रियां डिवीजन सहित लिखे थे। उनका नाम........ग्यारहवीं फर्स्ट क्लास.......बीए सेकेंड क्लास। एमए......सेकेंड क्लास....पीएचडी चल रही है।
हमारे घर के पास एक जैन परिवार रहता है। परिवार संयुक्त रहा होगा। अब अलग अलग मंजिल पर अलग परिवार रहते हैं। ग्राउंड फ्लोर पर सबके नेम प्लेट थे।और हर नेम प्लेट के आगे घंटी लगी थी। और लिखा था। घंटी ध्यान से बजाए। आप जिस परिवार से मिलने आए हैं। कृपया उसी परिवार की घंटी बजाए। उसी परिवार की एक नेम प्लेट के आगे लिखा था। हम लोग दोपहर में आराम करते हैं। कृपया घंटी न बजाए। दिल्ली में मेंरे एक दोस्त हैं। उनके घर के आगे अक्सर लिखा रहता है। कृपया दूध लेने के लिए घंटी का इस्तेमाल न करें। दूध फट गया है। कभी लिखा रहता है। दूध बिक चुका है। कालेज के दिनों में हम लोग अक्सर रात रात भर पढते थे। नींद आए तो घूमने निकल जाते थे। घूमते घूमते एक दिन एक घर पर नजर पड़ी तो लिखा था। कुत्तों से सावधान। मेरे एक मित्र कहीं से रंग उधार लाए। और नीचे लिखकर आए।क्या इस घर में सिर्फ पुरूष रहते हैं। बाद में वह सूचना हटा दी गई। और चावला जी ने अपने पिता का नाम लिखकर टांग दिया।
पर दिल्ली जैसे शहरों में जहां पर आदमी की पहचान ही नहीं है। उसे नेम प्लेट से कौन पहचानेगा। हम तो इस भीड़ में यू ही खोते जा रहे हैं। अपनी पहचान।अपना नाम। अपनी नेम प्लेट। क्या आपको याद है कोई मजेदार नेम प्लेट तो हमे लिखिएगा जरूर।

Sunday, June 6, 2010

अगले जन्म में सुबह भी जल्दी उठूंगा। लिस्ट में यह भी शामिल।

सुबह चार बजे उठना था। फिर खबर करने जाना था। मन में लगा। जिस रिपोर्टर को कहूंगा। वही नाराज होगा। मन में ही सही। लगा खुद ही चलते हैं। सो अपना नाम ही लिखवा दिया। बुरी आदतें आसानी से नहीं बदलती। मन ने कई बार सोचा। कि जल्दी सो जांए। लेकिन नींद भी अपनी बात कहां मानती है। सो सोया रात दो बजे ही। लगा जैसे आंख बंद ही हुई थी। कि अलार्म बज गया। चार इतनी जल्दी बज जाते हैं। पता ही नहीं था। उठा और छह बजे घर से निकला।
कितने दिनों बाद सुबह देखी। इतनी मासूम। इतनी निश्छल। किसी छोटे बच्चे की तरह। बिना किसी तनाव के। अपनी ही मस्ती में झूमती हुई। मेंरे घर के नीचे ही पार्क है। सो नीचे उतरते ही। पार्क में टहलने जाते और लौटते लोग मिले। सुबह का समाज ही अलग होता है। राम राम करते लोग। आपस मे रुककर बतियाते लोग। चेहरे पर तनाव नहीं। एक सतुष्टि दमकती है। वे लोग हर रोज सुबह सुबह दफ्तर को भागते हुए दिखते थे। जिनसे सालों का परिचय है। लेकिन फिर भी मुस्कराकर ही काम चलाते हैं। लेकिन आज दादा जी मिले। ...घर ...कामकाज.. पत्नी सबके हालचाल पूछते रहे। खूब मेहनत करो अपने शरीर का ध्यान रखो। कई बातें करके गए। सड़क पर निकला। तो सड़क भी एक दम शांत और अकेली। न पीछे से हार्न बजाते वाहन। न रेड लाईट पर ट्रैफ्रिक जाम। न हुर्र हुर्र करते बाइकर्स। न बीआरटी पर वाहनों की लंबी कतार। दम घोंटू धुंआ भी नहीं। और रास्ते में फोन भी नहीं बजा। कि बार बार रुककर फोन सुनों। अपन शादी के घोड़े की तरह चलते हैं। हर थोड़ी देर में फोन बजता है। सुनने रुकते हैं। फिर चलते है। इस तरह दफ्तर पहुंचते हैं। लेकिन सुबह जल्दी पहुंच गया।
दिन तो रोज की तरह ही निकला। लेकिन सुबह का मजा। दिन भर आता रहा। लगा फिर कुछ चूक गए हैं। अपन ने जिंदगी भर दादा को देखा है। सुबह चार बजते उठते। ...नहाते... ध्यान करते। गायत्री का जाप करते। और फिर घूमने जाते है। कई बार हमारे सोने का समय होता था। और उनके जगने का। लगता था। कि मजा रात को ढावे पर बैठकर गप्पे करने में हैं। वो मजा शायद दादा को नहीं पता। ये तो शाम को दस बजे ही सो जाते है। किस तरह की गप्पे। जहां मोहन राकेश से शुरू हुई। तो कालिदास तक गई। लता मंगेशकर से लेकर अमिताभ बच्चन तक। मोहल्ले के किस्सों से लेकर सचिन की बैटिंग तक। कितनी बातें। कितना रस। और फिर ढाबा पर मिलने वाली चाय।गिलास भर। साथ में कभी फ्राई चावल। या फिर खाने की दूसरी चीजें।
लेकिन आज सुबह देखकर लगा। कि इस सुबह का मजा शायद उन रातों से कहीं ज्यादा है। मजा अंदर का है। बाहर का नहीं। और सुबह अँदर ले जाती है। रात बाहर। सुबह उठकर तुम्हें अकेले भी मजा आता है। लेकिन रात का मजा खुद में नहीं होता। बाहर तलाशना पड़ता है। कभी दोस्तों में कभी गप्पों में। अपने पास एक लिस्ट है। जो काम इस जन्म में नहीं हो पाए। वे अगले जन्म में करने हैं। जैसे समय से पढ़ाई लिखाई करनी है। कालेज पूरी करते ही। सरकारी नौकरी करनी है। समय से शादी करनी है। उल्टी सीधी जिंदगी के फलसफों से दूर रहना है। और अब एक चीज और। अगले जन्म में सुबह सुबह जल्दी उठना है। क्या आपके पास कोई ऐसी लिस्ट है। जिसे अगले जन्म में पूरा करना हो। अगर हो तो हमें बताइएगा।

हर बार थका। हारा। और पीछे छूटता गया। लेकिन लगता है इस बार आप लोग मेंरे साथ है।

मैंने जिंदगी में कई बार कई कोशिशें की। लेकिन शायद अपनी किस्मत कुछ अलग है। या फिर फितरत कुछ और ही है। कई बार हारा। कई बार टूटा। और जिंदगी में बहुत कुछ छूटता गया। बहुत कुछ टूटता गया। जिंदगी की कई डोरे थामता गया। और आसमान की तरफ यह सोचकर तकता रहा कि इस डोर के सहारे ही कोई फरिस्ता जिंदगी में आएगा। लेकिन कोई आया नहीं। हर बार अपने हाथ से डोर ही छूटती गई। और टूटी हुई डोर समेटकर जिंदगी में आगे चलते गए। अब इस बार जब ब्लाग की डोर हाथ से छूटने लगी। तो मैंने कोई बहाना या सफाई नहीं सोची। सीधा कह दिया। भाई अपने बस का नहीं है। लेकिन आप लोगों की प्रतिक्रियाओं ने मुझे नया हौंसला दिया है। लगता है कि इस ब्लाग की डोर थामने में आप सब लोग मेरे साथ है। मैं फिर से कोशिश करता हूं। कि लिखता रहूं। आशीर्वाद देते रहिएगा।

Thursday, June 3, 2010

ब्लाग की डोऱ मुझे से छूट रही है।

मैंने पहले ही कहा था। कि कोई काम अपन लगातार कर ही नहीं पाते। अनुशासन की कमी है। और मेहनत की भी। लेकिन ब्लाग अभी तक लिख रहा हूं। लेकिन समय की कमी। थकान। देर से घर आना। समय के प्रबंधन की कमी। मुझे हर रोज लगता है कि कि ब्लाग की डोर अपन से छूट रही है। समय से रोज लिखना अब बंद हो रहा है। कई बार सिर्फ औपचारिकता करके खत्म कर देता हूं। फिर भी शायद आपका प्यार है कि अब तक तो लिख रहा हूं। आप लोग ही कुछ सलाह दीजिए ।कैसे समय का प्रबंधन करते हैं। आप लोग। क्यों हर बार मैं ही पीछे छूट जाता हूं। समय अपनी रफ्तार से हर बार आगे निकल जाता है।

Wednesday, June 2, 2010

आज उलझा हूं। वक्त को सुलझाने में।

सालों पहले सुना था। अब कुछ याद है। कुछ भूल गया हूं। लिहाजा गलत लिखने के लिए मांफी पहले ही मांग रहा हूं। कल मिला वक्त तो जुल्फ तेरी सुलझा दूंगा। आज उलझा हूं। जरा वक्त को सुलझाने में। मैं थोड़ा सा वक्त सुलझा लूं। फिर अच्छे से आप लोगों के साथ आउंगा।

Tuesday, June 1, 2010

मैंने बहुत कुछ खोया गुस्सा होकर। क्या आपको भी जल्दी गुस्सा आता है।

जिंदगी में स्वभाव की क्या भूमिका होती है। कहना साफ साफ मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि स्वभाव की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका है। शायद इसीलिए जिंदगी में हम अदने आदमी बन कर रह गए। हमारा स्वभाव दुनियादारी के हिसाब से ठीक नहीं है। अपनी जिंदगी में गुस्से की वजह से हमनें बहुत कुछ खोया। जल्दी प्रतिक्रिया जता देना हमेशा ही नुक्सान दायक होता है। सही और वाजिब प्रतिक्रिया के लिए भी वक्त होता है। ये तमाम बातें हम जानते है। यह भी जानते हैं कि गुस्से में आदमी के पास विवेक नहीं होता। फिर भी इस पर कैसे काबू पाया जाए। समझ नहीं आता।
क्या आपको भी जल्दी गुस्सा आता है। क्या आपने भी जिंदगी में इस आदत की वजह से बहुत कुछ खोया है। इस पर कैसे काबू पाया जाए। हमें जरूर बताइए।

Monday, May 31, 2010

उधार की कार में शादी। क्या आप ने भी कभी कुछ उधार लिया ?

हमें एक शादी में जाना था। जगह हमारे घर से दूर थी। रात को बारह बजे के बाद ही लौटना था। अपने पास पुराने जमाने की मोटर साइकिल है। शादियों में जाना हो तो दो पहिए पर कई दिक्कतें होती है। हालांकि अपन कभी भी अच्छे कपड़ों के लिए नहीं जाने जाते। सो हमें यह दिक्कत नहीं है। कि दिल्ली का प्रदूषण हमारी सफेद शर्ट का रंग ही बदल देगा। लेकिन महिलाओं को साड़ी पहनकर बैठने में दिक्कत होती है। वह भी शादी वाली । बालों की भी परेशानी होती है। अगर आपकी पत्नी बालों को खुला रखकर शादी में जाना चाहती है तो। इसके अलावा दिल्ली में हो रही लूट भी एक परेशानी है। नकली जेवर भी लोग लूट ले लाए। इसका टेंशन नहीं है। लेकिन जान असली है। उसका भी खतरा है। आधी रात को आना हजार तरह की दूसरी शंकाओं को भी जन्म देता है। सो अपन ने एक दोस्त से कार उधार मांगी। और शादी में गए।
क्या किसी चीज को उधार लेना। हमारी परेशानी है। या फिर मानसिकता। मैं देर रात तक सोचता रहा। कई बार मजबूरी भी हो सकती है। लेकिन अपनी सुविधाओं के लिए उधारी। ये बात कुछ समझ में नहीं आती। अस्पताल जाना हो। रात को आटो न मिलता हो। तो कार मांगना समझ में आता है। लेकिन शादी के लिए कार। बात कुछ अटपटी सी लगती है। जिस तरह से जब भी दिल्ली में क्रिक्रेट का मैच होता है। या फिर संगीत का कोई कार्यक्रम। मैं पहले से डर जाता हूं। कि अब हमारे जानने वाले पास के लिए फोन करेगें। उसी तरह मेरे पड़ोसी भी शादियों का सीजन आते ही। अपनी कार को लेकर परेशान हो जाते है।
हमारे एक दोस्त है। भरत। उनका कहना है कि हम कई बार ऐसे लोगों से बेवजह संबंध बनाते हैं। जिनके पास कार होती है। उन्हें नमस्कार करते है। कभी कभार चाय नाश्ता पर भी बुलाते है। हमें यह बात क्यों नहीं समझ में आती कि इमरजेंसी में हम टैक्सी स्टेंड से भी कार मंगा सकते हैं। हमने वेवजह अपना समय सिर्फ कार के लिए जाया किया। हमारी जिंदगी में उधारी की महत्वपूर्ण भूमिका है। राशन उधार। रोज मर्रा के तमाम काम उधार। जरूरत पढ़ने पर पैसे उधार। शादी में जाना हो तो कार उधार। बीमारी में थर्मस उधार। कोई खाना खाने आए तो बाजू वाले से बर्तन उधार। मुझे लगता है। उधार एक सबसे बड़ा झूठ है। जो हम अपने आप से बोलते है। और एक ऐसा पानी का तालाब। जिसे देखकर हम रेगिस्तान में भागते है। हमें हर वो चीज जो मुफ्त में मिलती है। हम उसके पीछे भागने लगते है। जिंदगी में अब कई बार लगता है कि कई चीजें जो हमनें उधार ली थी। उनके बिना भी काम चल सकता था। जैसे कल मैं शायद बिना कार के भी शादी में जा सकता था। क्या आपकों भी लगता है कि उधारी के बिना ज्यादा बेहतर तरीके से जिया जा सकता है। हमें बताइएगा जरूर।

Sunday, May 30, 2010

शाम बीमार हुए। रात मर गए। सुबह उठे। चल दिए। जी रहे हैं लोग।

शाम बीमार हुए। रात मर गए। सुबह उठे। चल दिए। जी रहे हैं लोग। यह शेर। हमने करीब बीस साल पहले सुना था। जब हम कालेज में थे। कविताएं लिखते। और खूब सुनते-सुनाते थे। आपसे सच कहूंगा। उस समय मुझे यह समझ में ही नहीं आया था। मैंने न ऐसी जिंदगी देखी थी। और न दिल्ली । हम जब दिल्ली आए। और नौकरी करने लगे। फिर टेलीविजन की नौकरी करने लगे। अब इस महानगर की जिंदगी का हम हिस्सा बन गए हैं। अब हमें कुछ कुछ ये शेर समझमें आने लगा है। किस तरह से सुबह उठकर हम चल देते है। पूरे दिन का पता ही नहीं चलता। आधी रात को घर आते है। लगभग बीमार। और बिस्तर पर मरे हुए आदमी की तरह सो जाते है। और सुबह उठकर। फिर चल देते हैं।
आप भी मेरी ही तरह शायद जिंदा होंगे। अगर आप दिल्ली में हैं। या ऐसे ही किसी शहर में। ये शहर हमें दो जून की रोटी तो देते है। लेकिन इसकी कीमत आपको नहीं लगता कि कुछ ज्यादा ही वसूल लेते हैं। आपके परिवार में कोई शादी है तो लगभग मेहमान की तरह पहुंच पाते हैं। अगर किसी दूर के रिश्तेदार की शादी है तो टाल देते है। हमारी जिंदगियों से छोटी छोटी खुशियां कहीं गायब नहीं हो गई है।मुझे याद नहीं कि पिछले कितने सालों से मैंने किसी का मन भर के जन्मदिन या फिर किसी की शादी की सालगिरह मनाई हो। बिना किसी तनाव के फिल्म देखी हो। या फिर कहीं बाहर जाकर लंबें समय तक फुर्सत से बैंठे हों। कुछ आप ही बताइए। कहां से खोज कर लाऊ। जिंदगी में फुर्सत के रात दिन।

Saturday, May 29, 2010

लड़की से अकेले में क्या बातें करते हैं लड़के ? क्या आपने भी अपनी पत्नी से अकेले में बात की थी ?

मेरी एक दोस्त घर जल्दी जाना चाहतीं थी। कल संडे हैं। उन्हें आज ही ब्यूटी पार्लर जाना है। जरूरी। कल उन्हें शादी के लिए एक लड़का देखने जाना है। उनकी शादी की तैयारियां जोरों से चल रही हैं। किसी रविवार वे दिखने जाती है। तो कभी लड़का देखने। शायद आपको यह बात विरोधाभासी लगी होगी। हालांकि बात सपाट है। जब लड़का उनकी मम्मी पापा को पसंद आ जाता है। और लड़के को फोटो पंसद आजाती है। तो वह उसे देखने जाती है। और जब ये किसी के माता पिता को पसंद आ जाती है। तो फिर लडका आता है। और ये दिखने जाती है। और आखरी में अकेले में बात करने का वक्त भी दिया जाता है।
मैं पेशे से रिपोर्टर हूं। सो स्वाभाविक है कई विषयों में मुझे जिज्ञासा बनी रहती है। मुझे यह कभी समझ में नहीं आया। शादी से पहले लडके लड़की आपस में क्या बात करते हैं। शायद इसकी एक वजह यह भी हो। कि मुझे अकेले में बात करने का मौका ही नहीं मिला। लिहाजा मैं यह अवसर चूक ही गया। सो अभी भी आंसता है। मुझे यह बात और भी महत्वपूर्ण लगने लगी जबसे मेंरे एक दोस्त ने ऐसे ही एक मौके की डिमांड की। जबकी वे हम सब से कम बोलते हैं। मैं पिछले दस सालों से उनसे और उनकी पत्नी से लगातार पूछतां रहता हू। कि उन्होंने अकेले में क्या बात की थी। वो कौन सी बातें हैं। वे कौन से सवाल है। और कौन से जवाब है। जिनसे व्यक्ति का जीवन तय हो जाता है। कुछ मिनिट में क्या जान लेता है कोई। कौन सी पर्ते हैं जिंदगी की जो लोग खोल लेते है। अपने तो कई ऐसे जानने वाले हैं। जिनका हमारे साथ तीस साल का संबंध है। फिर भी लगता है। कभी कभी ये अजनबी है।
मैंने अपनी सहेली से पूछ ही लिया। मुझे बताओं कि लडके अकेले में क्या बात करते हैं। उसने हंसकर कई बातें बताई। लेकिन मैं गंभीरता से घंटो सोचता रहा। लड़के अक्सर पूछते हैं। तुम जींस पहनती हो। ऊंची हील की चप्पल पहनने में दिक्कत तो नहीं होती। मैं माडर्न किस्म का लड़का हूं। सिगरेट पीता हूं। पार्टियों में शराब भी पीता हूं। तुम्हें दिक्कत तो नहीं होगी। मैं घर में मांसाहार कर सकता हूं। उसका कहना था कि सबके सामने जो जितना भोंदू दिखता हैं। वह अंदर जाकर उतनी ही विचित्र बातें करता है। हर लड़का तो स्वाभीमानी होता है। सभी को गुस्सा आता है।कालेज के समय उन्होंने काफी गुंडागर्दी की है। वे तेज गाड़ी चलाते है। उन्हें मरने से डर भी नहीं लगता। और हां एक बात और। अधिकतर पूछते हैं। कि तुम्हारा कोई boyfriend है या नहीं। हालांकि मेरी एक दोस्त थी। उसकी शादी हो गई। कुछ लोग विवेकानंद से लेकर प्रेमचंद तक की किताबों के बारे में पूछते है। लेकिन मुझे ये बातें सुनकर निराशा ही हुई। मैं सोचता था शायद लोग अपने परिवार के बारे बातें करते होगें। अपनी कमजोरियों के बारे में। लेकिन वह बताती है। कि अकेले में बात करते समय। हर लड़का अपने को सिकंदर से कम नहीं आकतां। और में समझ जाती हूं। कि यह हर मोर्चे पर हारा हुआ आदमी है।
मुझे तो यह मौका मिला नहीं। क्या आपको यह मौका मिला था। सच सच बताइएगा । क्या क्या बातें की थी आपने। क्या उन बातों का कोई मतलब निकला था। क्या पूछा था आपने। क्या बताया था आपने। हमें भी सुनना है।

Friday, May 28, 2010

सौ रसगुल्ले खाने की शर्त। क्या आपने जीतीं हैं कभी इस तरह की शर्ते।

अपने एक मित्र की शादी थी। जाना जरूरी था। और भोजन भी करना ही था। थोड़ी ना ना करने के बाद अपन भी प्लेट हाथ में लेकर लाइन में लग ही गए। शादियों में खाना भले स्वादिष्ट लगे। लेकिन उसे हासिल करना भी आसान नहीं होता। पहले लाइन में लगना। फिर प्लेट का इंतजार करना। फिर प्लेट लेकर खाने की लाइन में लगना। पूरे समय चौकन्ने रहना। कि आगे वाला शाही पनीर निकालते वक्त अपनी चम्मच तुम्हारी कमीज पर न लगा दे। जो अपनी आदत में शुमार नहीं है। या फिर उन आंटी की प्लेट जिसमें 13 तरह की चीजें रखी हैं। आपको छूती हुई न चली जाएं। फिर अगली बार चांवल के लिए लाइन में लगना। इस तरह से कई बार लाइनों में लगना परेशान सा करता है। लेकिन फिर भी हमनें खाना पूरे संघर्ष के साथ खाया। हमारे यहां पर एक लुटेरों की एक विशेष प्रकार की जाति होती हैं। वे लूटते भी हैं। और मारते भी है। पिटाई करने के पीछे उनका अपना एक तर्क होता है। वे बिना मेहनत के कमाई नहीं करना चाहते। सो इस तरह के भोज में लगता है कि अपन ने भी मेहनत करके खाना खाया है। मुफ्त में नहीं।
खाना खाने के बाद हमारे एक मित्र ने रसगुल्ले खाने की बात कही। हमनें साफ इंकार किया। पहले ही खाना ज्यादा खा चुका हूं। अब और कुछ भी नहीं खा सकता। उन्होंने कहा कि खाना तो वे भी खा चुके हैं। लेकिन रसगुल्ले अभी भी खा सकते है। बात शुरू हुई कितने। उन्होंने कहा शर्त लगाओं। शर्त लगाने वाले हर जगह मिल ही जाते है। किसी ने कहा कि सौ खाकर दिखाओ। और फिर क्या था। वे खाने के लिए जुट गए। पुरे सौ रसगुल्ले खाए। और शर्त जीत गए। इस तरह की शर्ते लगाना और जीतना हमसे कहीं पीछे छूट गया है। आपको याद है कि पिछली शर्त आपने कब और किससे लगाई थी। याद आते हैं कालेज के दिन। जब कितनी तरह की शर्ते होती थी। ज्यादा नंबर लाने की शर्त। पहले कालेज आने की शर्त। किसी लड़की से बात करने की शर्त। किसी को प्रेम का प्रस्ताव देने की शर्त। चलती क्लास रूम में जोर जोर से गाना गाने की शर्त।
जिंदगी भी अजीब चीज है। कितने रंग दिखाती है। किस किस तरह से अपना लोहा मनवाती है। कभी कभी हम शर्त तो जीत जाते है। लेकिन जिंदगी हार जाते है। क्या आपने भी कभी किसी दोस्त से शर्त जीती। या फिर शर्त हारी। हमें बताइएगा। जरूर।

Thursday, May 27, 2010

शादी का कार्ड अब क्यों मजा नहीं देता। क्या आपको भी तनाव देता है ?

मेरा ब्लाग पढ़कर। आपको लग सकता है। कितना खराब आदमी है। कितना असमाजिक है। लिखता तो अच्छी बातें हैं। लेकिन हकीकत कुछ और है। लेकिन मेरी कोशिश है। मेरा ब्लाग मेरा आईना बने। जैसा मैं सोचता हूं। वही मैं लिखूं। आपकी प्रतिक्रियाओं से अपना बारें में अंदाजा लगाऊगां। आपके आईने में अपने को देखना चाहता हूं। इसलिए जैसा मैं सोचता हूं। वैसा लिख देता हूं। बिना सही गलत तय किए।
सागर से मित्र का फोन आया था। फिर उसके पिता का पत्र आया। अब बहिन की शादी का कार्ड आया है। पहले किसी दूर दराज के पहचान के व्यक्ति की शादी की सूचना। मजा देती थी। एक नए उत्साह का संचार हो जाता था। शादी की बात आते ही। लगता था दोस्तों के साथ लंबी महफिले। खूब मजा। नाच गाना। अच्छे कपड़े। खूब मस्ती। बहुत सारे लोगों से मुलाकातें। लंबी गप्पे। हंसी मजाक का तो क्या कहना।
छोटे शहरों में शादियां ठेकों से नहीं होती। दोस्तों और अपनो की दम पर होती है। सो काम भी सब मिलकर ही करते हैं। कार्ड बांटने से लेकर विदाई तक कई काम होते हैं। शादियों के कार्ड बांटना भी एक गजब का काम है। उसे बांटने की भी विज्ञान है। अपने एक दोस्त तो एक दिन में कई सौं कार्ड बांटने का हुनर रखते थे। और अपन शुरू से ही इस काम में बदनाम रहे। जिसे कार्ड देने गए वहीं बैठ गए। चाय पीने को बैठे और गप्पे शुरू। शादी अपनी देरी से हुई। सो जिसका कार्ड भी देने जाते। बात यहीं से शुरू होती। अपनी शादी का कार्ड लेकर कब आओगे। कुछ मित्र कार्ड तालाब या कुएं के हवाले करने के लिए भी बदनाम थे। अगर किसी मोहल्ले का कोई खास आदमी नही आया। तो अंदाजा लग जाता था। कि कार्ड उस इलाके में पहुंचे ही नहीं। लेकिन क्या फायदा। शादी तो हो चुकी। अब सिर्फ शिकवे शिकाएतें ही बचते थे।
शादी के लिए अच्छे कपड़े का चुनाव करना। शाम से ही तैयार होना। इंतजाम में जुटे रहना। हर शादी में कितना ही होमवर्क कर लिजिए। कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। सो दोस्त के नाते उसे कम से कम परेशानी में निपटाना। रात रात भर जागना। खूब मेहनत और खूब मजा। लेकिन अब शादी का निमंत्रण। तनाव देता है। बात छुट्टी से शुरू होती है। फिर टिकिट। तैयारी। माफिक तोहफा। यानि लगता है जैसे हम अपना कोई कर्तव्य निभाने जा रहे हों। वक्त बदला है। या हम बदल रहे है। समझ में नहीं आता। क्या आपको शादियों में जाना अभी भी मजा देता है। या मेरी तरह तनाव। सच सच बताइएगा।

Wednesday, May 26, 2010

क्या आप भी फंसे है कभी हड़तालियों के बीच।

खबर करवानी थी। हड़ताल पर। इस बार एयर इंडिया के कर्मचारी स्ट्राई पर थे। सो हमने रिपोर्टर भेज कर खबर पर नजर गड़ा ली। आपको शायद हैरत होगी। कि कितने तरह के लोग थे। कितने लोगों की परेशानियां। किसी की परीक्षा। तो किसी की शादी। किसी की नौकरी का मामला। तो कहीं बीमारी। जितने लोगों से हम बात करते गए। परेशानियां उतने तरह की सुनते गए। किसी के रिश्तेदार का देहांत हो गया है। वो उसे आखरी बार देखना चाहता है। लेकिन वह नहीं जा पाता। एयर इंडिया के कर्मचारी हड़ताल पर हैं। ऐसे कई किस्से थे। इन लोगों को समझ में नहीं आ रहा था। कि वे अपनी किस गलती कि कीमत चुका रहे हैं। इस हड़ताल के लिए वे कहां दोषी है।
लोकतंत्र में हड़ताल आम बात है। एक आसान तरीका हैं। लोगों को ध्यान अपनी परेशानी की तरफ खींचने का। लेकिन हम अपनी बात इस तरह से कहके किसको नुक्सान पहुंचाते हैं। किसकी कीमत पर हम अपनी बात पहुंचा रहे हैं। पिछले दिनों हम पानी पर जाम लगा रहे लोगों की खबर कर रहे थे। तभी एक आटो में एक बुजुर्ग महिला हाथ जोड़कर उतरी की जाम खुलवा दीजिए। उसकी बेटी को अस्पताल जाना है। इस तरह की परेशानियां अब आम बात होती जा रही है। हमें यह समझना होगा कि गलती किसकी है। और हम सजा किस को दे रहे हैं। लोकतंत्र में हर आदमी को अपनी आवाज उठाने की इजाजत होनी चाहिए। लेकिन किसी दूसरे और कमजोर की आवाज दबाकर नहीं। क्या कहते हैं आप। विरोध का क्या यह तरीका ठीक है। या फिर हमें अपनी बात कहने को कोई और तरीका भी खोजना चाहिए।

Tuesday, May 25, 2010

भस्मासुरों को खत्म करने के लिए अब हमें ही विष्णु बनना होगा।

हम अपनी पीठ खुद नहीं थपथपा रहे हैं। और न हीं अपने मुंह मियां मिठ्ठु बनना चाहते हैं। हम मीडिया के पक्ष में कसीदे भी कसना नहीं चाहते। हम ऐसा भी नहीं मानते कि मीडिया ने रुचिका के मामले में कोई बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। हम तो सिर्फ इतना कहते हैं कि हमने सिर्फ इंसाफ के लिए संघर्ष करते उन लोगों के कांधे पर हाथ रखा है। और धीरे से कहा कि तुम्हारी लड़ाई में और भी लोग हैं। जो तुम्हारे साथ है। हमनें उन नसों में ताकत फूंकी है। जो कभी कमजोर हुई। कभी निराश। हमनें सिर्फ इतना जताया है कि कोई भी कितना ही ताकतवर क्यों न हो। अपने किए की सजा पाता है। बात सिर्फ संघर्ष करने की है। पूरी ईमानदारी से कोशिश करने की है। और लड़ने के लिए एक जज्जबा चाहिए।
समाज की बनावट ने न जाने कैसे राठौर जैसे भस्मासुर पैदा कर दिए हैं। जो अब हमी को अपना शिकार बनाने के लिए तैयार है। आज न केवल वह परिवार सलाम के काबिल है। बल्कि रुचिका की सहेली आराधना और उसका परिवार भी। जिन्होंने इतना लंबा संघर्ष किया। यह बात मानकर चलिए कि राठौर जैसे भस्मासुरों को खत्म करने के लिए आपको खुद ही विष्णु बनना पड़ेगा।

Monday, May 24, 2010

अशांत मन और तनाव में शांत होकर बैठ जाए। बुद्द की एक अच्छी कहानी है।

मैंने आज बुद्ध की एक कहानी पढ़ी। बुद्ध आनंद के साथ जा रहे थे। उन्होंने एक नाला पार किया। करीब आधा किलोमीटर आगे जाने के बाद उन्होंने आनंद से कहा कि मुझे प्यास लगी है। तुम जाकर पानी ले आओ। आनंद को याद था। कि आधे किलोमीटर पहले ही एक साफ पानी का नाला था। उसका पानी एक दम साफ चमक रहा था। आनंद भाग कर गया। लेकिन उसने देखा कि उस नाले से कई बैलगाड़ियां होकर निकली है। और पानी एकदम गंदा हो गया है। आनंद ने बुद्ध से जाकर कहा। नाले का पानी गंदा हो गया है। मैं पास से पानी लेकर आता हूं। यहां करीब ही एक नदी बहती है। बुद्ध ने कहा नहीं। मुझे इसी नाले का पानी पीना है। आनंद को हैरत हुई। लेकिन वह वापस गया। उसने देखा पानी अभी भी गंदा है।वह वापस लौट कर आया। बोला वह पानी नहीं पिया जा सकता। लेकिन बुद्ध शायद उसे कुछ सिखा रहे थे। उन्होंने कहा कि जाओं और इंतजार करों पानी के साफ होने का। मैं वहीं पानी पीयूंगा। आनंद वापस कुछ देर बैठा रहा। उसने देखा कि गंदगी साफ हो गई है। कुछ चीजें नीचे बैठ गई है। कुछ बह गई है। आनंद पानी लेकर वापस आ गया। बुद्ध ने पूछा। आनंद कहीं तुम्हारी इच्छा पानी में कूद कर उसे साफ करने की तो नहीं हुई। आनंद ने कहा कई बार हुई। और मैं कूदकर साफ भी करने की कोशिश करता रहा। लेकिन हर बार पानी और गंदा हो जाता था।बुद्ध शायद यही उसे बताना चाह रहे थे।
कथा पढ़कर मुझे लगा। जिंदगी में कई बार हम जब अशांत होते हैं। परेशानी में होते हैं। या तनाव में होते हैं। तो हम बिना सोचे समझे। उसे सुलझाने के लिए कूद पड़ते है। आनंद की तरह। और अपने को और उलझा लेते है। शायद हमें भी विपरीत समय में शांत होकर बैठ जाना चाहिए। परेशानी हमारी अपने आप बैठ जाएगी। आपके साथ क्या कभी ऐसा हुआ है। कि आपने अपनी परेशानी सुलझाने के लिए कोशिश की हो और ज्यादा उलझ गई हो। अपने अनुभव हमें बताइएगा।

Sunday, May 23, 2010

साहब के अच्छे बच्चे प्लेट चाटते मिले। मॉम ने कहा था बच्चे चाय नहीं पीते।

इलेक्ट्रानिक मीडिया में पत्रकार होने के चलते समय का अभाव रहता है। हम अच्छे पतियों की तरह शाम सात बजे घर नहीं आ सकते। न हीं कुर्ता पायजामा पहन कर पत्नी के साथ खाना खाने के बाद टहलने निकल सकते हैं। न शर्माजी के घर उनकी शादी की सालगिरह पर जा पाते हैं। और न हीं खरे साहब के बच्चे के जन्मदिन पर। कभी किसी की शादी में पहुंचे भी तो टेंट वाला सामान समेटता हुआ मिला। यानि अपना किसी के घर आना जाना मुश्किल ही होता है। लेकिन फिर भी कुछ दोस्त इतने गुस्सा हो जाते हैं कि उन्हें मनाना ही पड़ता है। अपने सागर के ही एक दोस्त हैं। वे केंद्रीय सरकार के एक मंत्रालय में अफसर है। और उनकी पत्नी दिल्ली की ही हैं। वे रहती तो घऱ में हीं है। लेकिन देखने वाले को वे अफसर लगती है। और मेंरे दोस्त उनके दफ्तर में क्लर्क।
गुस्सा। ताना। अनबन। ये सब कई महीनों से चल रहा था। हम रविवार के दिन उनके घर चाय के समय पहुंच ही गए। वे सरकारी अफसर हैं। सो वैसी ही उनकी चाय थी। हम लॉन मैं बैठे। वहीं चाय आई। चाय के साथ बिस्किट भी। और गप्पें शुरू हुई। चाय हमें और हमारी पत्नी को आई। साथ में उन्हें और उनकी पत्नी को भी। हम घर से सीखकर आए हैं। इज्जत में बड़े पहले। खाने पीने में बच्चे पहले। सो चाय हमने सबसे पहले उठाकर उनके दोनों बच्चों को दे दी। हमारी अफसर भाभी ने चाय के कप प्लेट लगभग उनके हाथ से छीन लिए। हमारी तरफ भी कुछ गुस्से में देखीं। मानो कह रही हों।एक तो बुंदेलखंड का आदमी। फिर पत्रकार । हर लिहाज से इंफिरियर। और फिर उन्होंने बताया कि अच्छे बच्चे चाय नहीं पीते। उन्हें मुआवजे के रुप में उन्होंने एक एक बिस्किट थमा दिया। हमें लगा कि हमारे परिवार ने हम खूब चाय पीने दी। शायद यही वजह है कि हम कलम घसीटी कर रहे हैं। अफसर नहीं बन पाए। गप्पे चलती रही। हम चलने को हुए। तो भाभी को लगा कि अभी घर तो बचा ही हुआ है। सो हम उनके फूल और बागवानी भी देखने गए। जब हम वापस आ रहे थे। तो हमने देखा कि उनके दोनों बच्चें हमारी चाय की झूठी प्लेट चाट रहे हैं। हमे लगा कि कह दें। भाभी इन्हें बुरे बच्चों की तरह चाय पीने दीजिए। नहीं तो ये अच्छे बच्चे बनकर बाद में इस तरह के काम करेंगे।
बात चाय पीने की या मेहमान की झूठी प्लेट चांटने की नहीं है। बात उस विचार की है। जो आप अपनी ताकत से दबाते हैं। हर वह इच्छा जो बिना जायज वजह के दबाई जाती है। अक्सर कुंठा बन जाती है। और विकृत रुप में बाहर निकलती है। हमनें सुना है कि एक बार फ्रायड अपने परिवार के साथ एक पार्क में घूमने गए थे। अचानक उनका बच्चा गायब हो गया। फ्रायड ने अपनी पत्नी से पूछा कि तुमने उसे कहीं जाने को मना किया था। उन्होंने बताया कि पानी के पास। उन्होंने कहां वह वहीं कहीं होगा। और वहीं मिला भी। पानी के ही पास। हम बच्चों को जिस चीज के लिए ताकत के बल पर रोकतें है। वह उनकी इच्छा की अभिव्यक्ति को कुंठित करता है। हमें उनकी इच्छा को एक संयमित और बेहतर रास्ता देना चाहिए। बजाए इस तरह दबाने के। आपके अनुभव क्या हैं हमें बताइएगा।

Saturday, May 22, 2010

पत्नी ऐसी हो कि घर आने की इच्छा हो। क्या सोचते हैं आप ?

एम्स के कुछ डाक्टरों के साथ मैं खाना खा रहा था। बात दिल के आपरेशन पर चल रही थी। दिल के रास्ते बात प्रेमिका और पत्नी तक आ पहुंची। मैंरे एक दोस्त ने अपनी दास्तान सुनाते हुए कहा। कि 25 साल पहले जब मेरी प्रेमिका ने पूछा कि पत्नी कैसी होनी चाहिए। तो मैंने कोई फलसफा नहीं दिया। न ही कोई लिस्ट थमाई। मैंने सिर्फ इतना कहा कि पत्नी ऐसी होनी चाहिए कि घर आने की इच्छा हो। और उसके बाद 25 साल हो गए। जैसे ही वक्त मिलता है। फट से घर चला जाता हूं। मैंने इस बात का न आपरेशन किया। न उन्होंने।
मैंने कबीर की एक बहुत ही मीठी कथा सुनी है। मुझे वह बहुत कीमती लगती है। मैंने सुना है। एक व्यक्ति कबीर के पास पहुंचा। उसने कहा कि उलझन में हूं। समझ में नहीं आता। शादी करूं य न करूं। आप ही कुछ बताइये। कबीर जेठ दोपहरी में बैठकर अपना कुछ काम हर रोज की तरह कर रहे थे। उन्होंने पत्नी को आवाज लगाई। शाम इतनी ढल गई। रात हो चली है। तुमने अभी तक दिया नहीं जलाया। पत्नी ने कहा माफ करना भूल गई। और वह कुछ देर में दिया लेकर आ गई। अतिथि अवाक था। कबीर ने समझाया कि तुम्हारें पास कोई ऐसी महिला हो जो तुम पर इतना यकीन कर सकें। तो शादी कर लो।
एक आखरी बात। हम जिस क्षेत्र में काम करते हैं। वह ग्लैमर का फील्ड है। हमारे साथ बेहद स्मार्ट। सुंदर। और पढ़ी-लिखी लड़किया काम करती है। बातूनी लोगों के साथ लड़कियां अक्सर जल्दी घुल मिल जाती है। सो अपन को इसका फायदा रहा। अपनी भी कइयों से अच्छी खासी दोस्ती रही। इनमें से किसी भी एक लड़की से शादी करना आसान था। फिर क्या था। मोबाइल में कई लड़कियों की फोटों खींची। दादी से बात करने पहुच गए।उन्होंने कई बातें बताई। लेकिन आखरी में कहने लगीं। बेटा अगर कोई इंसान अपने नाप की चप्पल पहनता है तो चल पाता है। वर्ना पूरा सफर संभल के ही चलने में ही निकल जाता हैं। उसी तरह पत्नी अपने स्तर की खोज। शायद वे जानती थी। मैं एक साधारण सा रिपोर्टर हूं।
बात इसकी नहीं है कि तुम्हारी पत्नी कैसी हो। और कैसी हैं। पत्नी जिंदगी में इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि उसका सीधा असर तुम्हारी जिंदगी पर पड़ता है। वह तुम्हें संत बना सकती है। और भ्रष्ट भी । तुम्हारी सोच पर उसका सीधा असर होता है। लिहाजा जीवन में पत्नी कैसी हो । इससे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। कि तुम्हारे सोच और तुम्हारी गति में सहायक हो। आप क्या कहते हैं। हमें बताईएगा। जरूर।

Friday, May 21, 2010

बाबूजी कुछ देर को आप ही आदमी बनजाओं। मेरी प्यास से जान जा रही है।

क्या हम आदमी है ? या आदमी के नाम पर कुछ और। क्या हमारे अंदर का वह तत्व जिसे हम इंसान कहते हैं। मर गया है। या रोज भागते भागते हम एड़ियों के साथ साथ हमारी आत्मा भी घिस गई है। इतने शोर गुल में वह भी हमारी तरह बहरी होती जा रही है। जो अब बाहरी आवाजें सुनती ही नहीं। अब क्या हम सिर्फ नाम और नाम के साथ ओहदे बचे हैं। हजारों प्रश्न वो आदमी एक साथ पूछ गया। और मैंरे पास कोई जवाब नहीं। आप भी सोचिएगा। और जवाब मिले। तो हमसें भी सांझा की जिएगा।
रेडीमेड कपड़ों की एक दुकान। सेठ के डीलडोल से लगता है। पक्का लाला होगा। कई लोग वयस्त हैं। किसी मेंमसाहब को साड़ी दिखाने में। या फिर किसी बाबू को पेंट दिखाने में। शादी की समय है। इससे ज्यादा कपड़े और कब बिकेगें। दुकानदार को भी चांदी कांटनी है। ज्यादा से ज्यादा। आखिरकार चांदी की खनक। इंसानियत से आजकल शायद ज्यादा होती है। बाहर धूप अंगारे बरसाती है। शायद जेठ का महीना होगा। घड़ी घड़ी गला सूखता है। महानगरों में पैसे वालों के लिए तो ठंडा पानी पैक्ड मिलता है। और गरीबों के लिए पानी खोजना पड़ता है। ऐसे ततुरी वाली दोपहरी मैं। वह अधेड़ उम्र का आदमी। ग्राहक था या अनजाना मैं नहीं जानता। वह सीधा सेठ से ही बोला बाबूजी प्यास लगी है। पानी पीना है। बाबूजी ने एक नाम को आवाज लगाई। पता चला वह दुकान के बाहर है। सेठ बोला। रुको आदमी बुलाया है। प्यास धनात्मक नहीं बड़ती। गुणात्मक बड़ती है। कुछ मिनिट बाद वह फिर बोला। बाबूजी प्यास लगी है। सेठ ने फिर कहा। ठहरो आदमी बुलाया है। आ रहा है। लेकिन प्यास तो मानों गले से होती हुई। ओठों पर आकर डेरा ही डाल लेती है। वह और विन्रम होकर बोला। बाबूजी प्यास जोर से लगी है। सेठ ने फिर कहा। कहा न आदमी नहीं है। आदमी को बुलाया है। वह कुछ देर चुप रहा। और फिर बोला। ..बाबूजी.............. कुछ देर के लिए ही आप ही आदमी बन जाइए।.............................. हमें पानी पिला दिजिए। हमारी जान जा रही है।
बात हम से नहीं वास्ता रखती है। लेकिन यह सवाल हमारे सामने हैं। क्या हम इतने आदमी भी नहीं बचे हैं कि हम किसी प्यासे के लिए पानी पिला सकें। हम किन चीजों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैं एक अच्छा रिपोर्टर बन जाँउ। आप शायद एक अच्छा डाक्टर या फिर वकील या कारोबारी बनना चाहते हैं। यही हमारे संघर्ष हैं। क्या हम एक अच्छा इंसान बनने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। क्या किसी प्यासे आदमी को पानी पिलाने के लिए हमें भी किसी आदमी की जरूरत है। या हम खुद भी आदमी बचे हैं। अपने को टटोलिएगा। और हमें बताइएगा। इमानदारी से।

Thursday, May 20, 2010

उसने मुझे बीमारी में दस हजार का खाना खिलाया। समाज उसे वैश्या कहता है। और आप ?

हमारी जान पहचाना थी। जब धीरे धीरे दोस्ती हुई। तो उसने पुराने राजा रानियों की तरह दो बातें कहीं। कभी मुझे संत की तरह प्रवचन मत देना। और कभी पत्रकार की तरह मेरा अतीत न पूछना। न मैं रामायण का दशरथ था। और न महाभारत का भरत। फिर भी मैंने कभी भी अपनी मर्यादा नहीं लांघी। अपना कद ऊंचा करके उसे कभी छोटा नहीं किया। और कभी उसको शर्मिंदा करने की कोशिश भी नहीं की।
मैं करीब 13 साल पहले जनसत्ता में रिपोर्टर बनकर आया था। आप जानते ही हैं। पत्रकारिता में सूत्र होने चाहिए। यानि आपकी जान पहचान हो तभी आप जल्दी सफल हो सकते हैं। लेकिन हम तो दिल्ली में एक ही व्यक्ति को पहचानते थे। हमारी एक दीदी कलेक्टर बनने की तैयारी कर रही थी। सो वे अपने मकान मालिक के अलावा किसी को न जानती थी। जब हमने खबरें खोजना शुरू किया। तो हमारे एक बडे भाई ने हमें सलाह दी। कि सैक्स की खबरे लोग ज्यादा पढ़ते हैं। और रिपोर्टर का नाम भी लोगों की जुबान पर आ जाता है। इसके अलावा दलालों पर खबर करों। इस तरह की खबरें भी लोकप्रिय होती है। जैसे किसी नेता का झूठा राशनकार्ड बनवा दो। किसी का गलत मृत्यू प्रमाण पत्र। किसी अंधे या अपाहिज व्यक्ति का ड्राइविंग लाइसेंस। सो इस तरह की खबरों में अपन जुट गए।
हमने हाई प्रोफाइल कालगर्ल्स पर खबरें खोजना शुरू किया। और हमारी सुनैना से दोस्ती हो गई। वह फर्राटे से अंग्रेजी बोलती थी। स्टिक से चाईनीज खाना खाती थी। बला की सुंदर। लंबी वाली गोल्ड फ्लेक पीती थी। और ओल्ड मंक रम पीती थी। मध्यप्रदेश के सागर जैसे शहर से आए किसी भी व्यक्ति के लिए यह सब किसी हिंदी फिल्म के पात्र से कम न था।
खबरें बदलने लगी। हमें बीट मिल गई। और कुछ लोगों से जान पहचान भी हो गई। फिर भी कभी कभार हम फोन पर बात कर लेते थे। उसने कहा नहीं लेकिन मुझे लगता बातचीत से और भावनाओं से लगता था कि वह मध्यप्रदेश की है। या फिर उसी तरह के किसी प्रांत की। एक बार आधी रात को फोन आया। हालचाल पूछने के लिए। मैंने हालचाल तो ठीक बताए। लेकिन उसे आवाज ठीक नहीं लगी। मैने कहा हां। कुछ बुखार हैं। मैं घर जाने के लिए आईटीओ पर खड़ा हूं। आटो नहीं मिलता। न बस ही दिखती हैं। उसने कहा तुम बीमार हो । वहीं रुको। मैं तुम्हें घर छोड़ देती हूं। मुझे ये बात साधारण ही लगी। जैसे कोई दोस्त मदद करता हो। वह कुछ ही देर में अपनी कार लेकर मुझे आईटीओ लेने पहुंच गई। उसके साथ एक व्यक्ति और था। वह जो उसका रात भर के लिए ग्राहक था। ये बात उसको बेहद गुस्सा दिला रही थी। कि वह मुझे अब घर तक छोड़ने जाएगी। लेकिन शायद उनके बीच जो भी समझौता हुआ हो। वह मान गया। मैं कार में बैठा। और घर की तरफ बड़ा। अचानक उसने पूछा। तुमने खाना खाया। मैंने कहा नहीं। मैं ढावे पर जाकर खा लूंगा। वह बोली अभी खुला होगा। जवाब हम दोनों जानते थे। मैंने कहा घर में बिस्किट भी होगें। वह बोली दवा खानी हैं। खाना अच्छे से खालों और हौजखास के पास एक व्यक्ति पराठें बनाता है। शायद अभी भी बनाता होगा। मैंने बहुत दिन से देखा नहीं। कार उसने वहीं रोक दी। इस पर ग्राहक भैया तो आग बबूला हो गए। उन्होंने उसे गालियां बंकना ही शुरू कर दिया। मेरे बारे में पूछने लगे। ये तुम्हारा भाई है। पिता है। चाचा हैं। मामा है कौन है। सुनैना ने कहा कि दोस्त है। उसने कहा कि दोस्त है तो इसी के साथ जा। वह बोली ठीक है। उसने उसे अपने पर्स से निकाल कर दस हजार रुपए वापस कर दिए। और वह चला गया।
मैं चुप था। क्या कहूं। मुझे खाना नहीं खाना है। तुम उसके साथ चली जाओं। उसकी बदतमीजी में देखता रहा। उसे पीटता। मुझे कुछ समझ में नहीं आया। वह भी कार से उतर आई। बोली मैंने भी सुबह से कुछ नही खाया है। आलोक मैं जानती हूं। भूखे रहो तो रात मे नींद नहीं आती। और बीमारी में तो उल्टी भी आती है। पेट भी गैरों की तरह व्यवहार करता है। हमनें खाना खाया। और एक क्रोसिन भी। वह मुझे घर उतार कर वापस चली गई। तबियत के बारे में कुछ दिन तक फोन करती रही। लेकिन मैं आज भी सोचता हूं। कि तेरह साल पहले दस हजार की कीमत आज के 25 हजार के करीब तो होगी। क्या मैं अपने किसी भी दोस्त के लिए 25 हजार रुपए का खाना खिला सकता हूं। इमानदारी से कहता हूं। नहीं। वो जो शरीर बैचती है। वह वैश्या है। हम जो इमान बैचते हैं। रिश्ते। संबंध। भावनाओं को इस चमकीले बाजार में बेचते हैं। हम कौन है। आप बताइये न ? ?

Wednesday, May 19, 2010

बाबूजी हमारी जिंदगी की कीमत क्या सिर्फ पांच रूपए हैं। मैं चुप रहा। जवाब आप दीजिए।

आज एक अलग तरह के आदमी से मुलाकात हुई। वो अपनी कहानी सुनाता रहा। और मैं पिघलता गया। पहले मैं सतर्क हुआ। फिर मैं एक टक होकर उसे सुनता रहा। वह कभी मुस्कराता। कभी हैरत में मुझे देखकर चुप हो जाता। और अपनी बात कहता रहा। और मैं सुनते सुनते बाद में सिर्फ एक मांस का लौथरा बचा।
मुलाकात हुई। सामान्य परिचय से पता चला कि वह हमारे मध्यप्रदेश का है। फिर क्या था। अपन शुरू हो गए। क्या काम करते हो। घर में कौन कौन है। दिल्ली कैसे आना हुआ। मैं क्या मदद कर सकता हूं। उसने सीधे कहा कि बाबूजी। मौत का खेल खेलता हूं। वो भी पांच रूपए में। आप लोगों को वो भी मंहगा लगता है। मैंने कहा समझा नहीं। उसने बताया बाबूजी प्रदर्शनियां लगती है। उनमें हम मौत का कुंआ बनाते हैं। प्रदर्शनी में एक अस्थायी कुआं बनाया जाता है। उसके पास एक सीड़ी बनाई जाती है। जो करीब सौ फुट की होती है। उस पर मैं चड़ता हूं। अपने विशेष प्रकार के कपड़ों पर आग लगा लेता हूं। नीचे पानी में पेट्रौल डालकर आग लगाई जाती है। और फिर मैं उपर से कूंदता हू। हर रोज अपनी जिंदगी दांव पर लगाता हूं। इसका टिकिट होता हैं। पांच रूपए। वो भी लोगों को मंहगा लगता है।
मैंने बात सुनी। पहली प्रतिक्रिया जताई। कोई अच्छा काम क्यों नहीं कर लेते। वह बोला इस काम में गंदगी क्या है। मैंने कहा मेरा मतलब है सुरक्षित काम। वह बोला आप सुरक्षित हैं क्या। मैंने कहा कि हर रोज तो नहीं मरता। उसने कहा कि मरता तो मैं भी रोज नही हूं। मैं खीज गया। तो फिर तुम्हे दिक्कत क्या है। वो बोला कि लोगों को मरकर दिखाता हूं। और कई बार मारा भी जाता हूं। लेकिन इस खेल की कीमत लोगों को पांच रुपए भी मंहगी लगती है। और लड़की नांचे। तो लोग पांच हजार भी लुटा देते हैं।
बात तो उसने कई बताई। लेकिन कई बातें मुझे पिघला कर चली गई। वह बोला हम कोई भी काम कल पर नहीं छोड़ते। जो खाना है। जो लाना है। जो देना है। जो आजमाना है। हम सभी कुछ आज ही कर लेते हैं। बच्चें को अगर खिलौना दिलाना है। तो हम कल पर नहीं छोड़ते। हमारे परिवार में इस समय तीन विधवाएं हैं। मां । चाची। और छोटी चाची। तीनों लोग कुएं पर मरे। अब मैं घर का खर्च चलाता हूं। लेकिन अब परिवार की तरफ से कुछ निश्चिंत हूं। मेरा छोटा भाई भी कूंदने लगा है। हम दो भाई हैं। लगता हैं किसी रोज मुझे कुछ हो गया। तो अब परेशानी नहीं होगी। छोटा भाई परिवार संभाल लेगा। मैंने पूछा तुम लोगों से शादी करता कौन हैं। उसाका जवाब किसी हैरत से कम नहीं था। बोला मैनें भी प्रेम विवाह किया है। और मैंरे छोटे भाई ने भी। लेकिन वो जाते जाते कह गया कि बाबूजी मेरे पिता मैरे सामने ही कुआं पर गिरकर मरे थे। मैं वो भूल गया। लेकिन जाते हुए एक लोग लुगाई ने कहा था कि आज के पैसे वसूल हो गए। वो हमें याद है। बाबूजी हमारी जिंदगी की कीमत क्या सिर्फ पांच रुपए हैं। मैं चुप था। जवाब आप दीजिए।

Tuesday, May 18, 2010

उम्र छुपाने के लिए छल कपट प्रपंच। आप भी करते है क्या ?

हम टीवी में रिपोर्टर हैं। हमें स्मार्ट दिखना चाहिए। और उम्र दराज न लगें। इसकी भी कोशिश करनी चाहिए। सभी हमसे कहते हैं। उम्र भी अजीब खेल खेलती है। हमारे साथ। शरीर भी किश्त किश्त बदलता है। पहले बाल सफेद हुए। सो हमनें काले किए। गंजे हुए। सो बिग लगा लिया। अब मूछें सफेद हो रही है। सो काट ली। शरीर बेडोल हो रहा है। सो घूमना शुरू करना है। अब लगता है। कुछ दिन बाद चश्मे की बारी है। और फिर दांतो की।
हम कालेज में थे। तभी से बाल गिरना शुरू हो गए। दादी जब भी कोई विज्ञापन देखती। तेल का नाम कागज पर लिख लेती। कुछ दिन तक मुझसे कहती रहती। फिर चिल्लाती रहती। और अंत में खुद ही कहीं से मंगा देती। लेकिन कभी कोई काम गंभीरता से किया ही नहीं। सो वक्त पर तेल भी नहीं डाल पाता था। दादी को पूरी उम्मीद थी। कि वक्त पर अगर तेल को दवाई की तरह इस्तेमाल करूं तो बाल नहीं गिरेगें। लेकिन सब कुछ अपनी इच्छा से कहां हो पाता है। वे देखती रही। बाल गिरते गए। मैं दिल्ली चला आया। और भी लापरवाह हो गया। और धीरे धीरे गंजा हो गया। वे मेरे गंजे सिर को देखती तो दुख उनकी आँखो में साफ झलकता था। लेकिन मैं कुछ कर ही नहीं पाया। हालांकि वे मुझसे पूछती रही कि दिल्ली में बिग मिलते हैं। लेकिन मैं सुनता जाता । लेकिन कभी कुछ किया नहीं। फिर एक बार छोटा भाई आया। मुझे बिग पहना कर चला गया। और हम चालीस साल की जगह वापस अपनी उम्र पा आ गए। तीस के दोबारा हो गए।
हम संभल ही पाए थे। कि बाल सफेद होने लगे। नकली चीज तो और भी जल्दी अपना रंग बदलती है। बिग और भी जल्दी सफेद होने लगा। सो अब बाल काले करने भी शूरू कर दिए। एश्वर्या राय़ कहती है। बाल और भी खूबसूरत हो जाते हैं। उनकी बात मानकर उसी कंपनी का रंग रोगन ले आया।बालों पर रंगदारी करने लगा। अब संकट मूछों पर था। हर रोज सफेद सफेद। लोगों ने सलाह दी है। काट लो। अच्छे लगोगे। सोच रहा हूं। काट ही लूं।
हम जिंदगी में किस तरह से अपने आप को बचाए रखना चाहते है। हम क्यों हर कदम पर छल कपट प्रपंच करना चाहते हैं। हम अपनी उम्र किससे छुपा रहे हैं। हम स्मार्ट किसके लिए बनना चाहते है। ये धोखा हम दुनिया को दे रहे हैं। या अपने आप को। हम किसके लिए अपनी सुंदरता बचाकर रखना चाहते हैं। पता नहीं। मुझे समझ में नहीं आता। मेरी नौकरी है। मुझे ये सब करना ही है।
लेकिन मुझे एक बात हमेशा लगती है। कि क्राईस्ट हो या नानक। कबीर हो यां फिर मोहम्मद। इनकी बातें दुनिया में खूब सुनी गई। लेकिन ये लोग आज के मांपढंड में स्मार्ट नहीं थे। क्या महावीर के कपड़े या फिर बुद्ध की सुंदरता कोई देखता था। शायद नहीं। मुझे लगता है जो सच है वो सुना जाएगा। जो फरेब हैं। उसे कौन सुनेगा। और उसकी आयु भी क्या होगी। जरूरी नहीं है। कि टाई लगाकर अच्छे कपड़े पहनकर जो कहा जाएगा।वो सच होगा। क्या आप भी इस तरह का कुछ कर रहे है। अगर हां तो क्यों। और नहीं तो क्यों नहीं। हमें बताइएगा जरूर।