Sunday, May 29, 2016

मछलियां सीख जाती है। हम इंसान नहीं सीख पाते। ऐसा क्यों ।

पिछले दिनों एक वीडियो देख रहा था। aquarium  का। अपन  आज तक किसी ऐसे शहर मे गए नहीं। जहां पर इस तरह के  aquarium होते हैं। सुना है पचासों फुट लंबी कांच की टंकियां। उनमें घूमती बड़ी मछलियां। शार्क भी। जहरीले मैंढक। कच्छुए। और न जाने कौन कौन से पानी के जानवर। देखकर विचित्र लगा। लेकिन ये अपनी व्यक्तिगत परेशानी है।aquarium में  मछली देखें। पिंजड़े में पक्षी। या फिर किसी चिड़िया घर में बंदर या शेर। मन उदास हो जाता है। अपन इनका मजा नहीं ले पाते। उनकी कैद उदास करती है। लेकिन इस विशालकाय aquarium को  देखकर मन ये सोचने लगा कि ये बड़ी मछलियां जब सागर में होती है। तब छोटी मछलियों को खाकर या फिर जीव जंतुओं को  खाकर जीवित रहती है। फिर aquarium में ये बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को क्यों  नहीं खाती। कई लोगों से बात की। इंटरनेट खंगाला। कुछ जानकारों  से चर्चा की। फिर दुनिया भर में घूमते फिरते शिव भैया से पूछा। उन्होंने मजेदार बात बताई। बोले इन विशालकाय मछलियों की छोटे से ही कंडीशनिंग होती है। उन्हें इस तरह पाला जाता है। जब वे छोटी होती है। उन्हें तभी एक तय समय में मीट के टुकड़े डाले जाते हैं। और उन्हें उस समय उस तरह के भोजन की आदत हो जाती है। कई जगहो पर तो एक विशेष प्रकार का संगीत भी उस सयम बजाया जाता है। यानि संगीत के बजते ही उन्हें लगता है भोजन का समय हो गया। और फिर वह टुकड़ा जो उन्हें  हर दिन दिया जाता है। वही उन्हें भोजन लगता है। लेकिन आदत तो देखिए सागर में जो चीज उन्हें भोजन लगती है।इस तरह के aquariumमें वह उनके साथ रहते  है।
बात एक aquariumकी नहीं है। बात हमारी सोच की है। क्या समाज की इस हालत के लिए हमारे परिवार दोषी है। या हमारा समाज दोषी है। लोगों को अपराधी बनाने के लिए। क्या हमने उनकी कंडीशनिंग ऐसी कर दी  है। कि वे इस तरह दरिंदे बन  गए है। क्या हमारे  मां-बाप। या हमारे स्कूल। या फिर समाज। सरकारें। समाज की हिंसक सोच की कौन जिम्मेदारी लेगा। हम मछलियों की मानसिकता बदल सकते हैं। लेकिन इंसानों की नहीं. फिर वही  दिल्ली । फिर वही हालात। फिर एक लडकी का अपहरण। हमने इतने सालों में क्या बदला। किसने कोशिश की है।
मुझे लगता है। हमारे  मां-बाप। हमारे परिवारों को अपने बच्चों  को  संस्कारित करने के लिए एक बार फिर से सोचना पड़ेगा। अपने बच्चों  की परवरिश में कहीं हम गलती तो नहीं  कर रहे है। मैं अक्सर सुनाता हूं। बच्चों  को किताबों या बातों से संस्कारित नहीं किया जाता ।उन्हें महसूस कराया जाता है। मुझे पिता बने हुए सालों हो गए। लेकिन सागर जाता हूं। तो स्टेशन पर अब भी कई बार पिता चले आते हैं। एक बार तेज बारिश हो  रही थी। स्टेशन से बाहर निकला तो  आटो किया। और घर जा रहा था। तभी अचानक बारिश में भीगते पिता पर नजर पड़ी। आटो रोका। कुछ समझ में नहीं आया। पूरी तरह झल्ला गया। मैंने कहा। इतनी बारिश मे ंतुम भीगकर आए हो। मैं साथ चलूगां। मैं भी भीग जाउंगा। सामान भी भीग जाएगा। तुम्हारी गाड़ी कहीं रपट जाए वो अलग। मैं आटों से इत्मीनान से आ जाता। न तुम भीगते न हम। न हमारा सामान। लेकिन मुझे लगा वह एक संस्कार था जो उस रात में मुझ तक पहुंचा। अब शायद जीवन में हम उनसे कभी नहीं कह सकते कि दिल्ली में टैक्सी करके घर आजाना।या टैक्सी कर दी है। स्टेशन चले जाना। हमें शायद अपने बच्चों को फिर से प्रेम से करूणा से संस्कारित करना पड़ेगा। जब मछलियां सीख सकती है।  तो हम क्यों नहीं।

Saturday, May 28, 2016

किसी का मकान खाली होता है। मुझे बुरा लगता है। मैं मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार हूं क्या

आप मझे बीमार कह सकते है। मनोवैज्ञानिक रूप से। या फिऱ पागल। सनकी। या अपनी सुविधा से कुछ और। लेकिन मैं झूंठ क्यों बोलूं। जब भी कभी मुझे घर के नीचे सामान से भरा जा रहा ट्रक खड़ा दिखता है। मुझे बुरा लगता है। किसी का मकान खाली होता। मुझे अच्छा नहीं लगता। यह बात किसी से कहूंगा तो मुझे मूरख कहेगा। (यह शब्द शिव भैया मेरे लिए अक्सर इस्तेमाल करते हैं। ) लेकिन आप को बता सकता हूं। दफ्तर से लौटा तो घर के नीचे एक ट्रक खडा था। सामान भरा जा रहा था। किस का सामान था पता नही। किस का मकान खाली हो रहा था पता नही। बस कोई जो अब तक हमारे साथ रहता था। अब जा रहा हैं। मन यही सोचकर उदास हो गया। उपर आया तो पत्नी ने पूछा मूड क्यों खराब है। फिर किसी से झगड़ा करके आए हो क्या। मैंने सिऱ पर हाथ फेरा वो समझ गई। बोली हां पता है तुम्हारे ऊपर सिंग नहीं लगे है। लेकिन तूम सिंग वालों से टकराते घूमते हो। मैने मुस्करा कर बात खत्म कर दी।
ऐसा क्यों होता है। किसी का घर खाली हो तो मुझे बुरा लगता है। किसी का घर टूटे तो अपनों की याद आती है। कल रात घर के नीचे एक दादी गर्मी में बैठी थी। मैंन पूछा तो बताया बहू बाजार गई है। दरवाजा बंद करके। सो यही बैठी हूं। बेटा पानी पिला दे। मैं कान्हा को गोद में लेकर आ रहा था। पसीना पसीना। कुछ देर को डर गया लगा क्या कल को कोई ऐसा मेरे साथ भी करेगा। पता नहीं। लेकिन शायद हर दूसरे की परेशानी या हर दूसरे का दुख अपना मान लेता हूं। शायद इसीलिए हर खाली होते घर के सामान के साथ मेरा कुछ हिस्सा भी उसके साथ चला जाता है।

Thursday, May 26, 2016

मोहब्बत की दुनिया में। ये कौन नफरत घोलता है। कल लव मैरिज की थी।और आज ?

गांव  की चौपाल में बैठी महिलाएं उनसे नफरत करती थी। धीमी आवाज में उन्हें हमेशा भला-बुरा कहती हैं। उन्हें बदतमीज और बेशर्म भी अक्सर कहा जाता रहा है। लेकिन मुझे वे दोनों बहुत अच्छे लगते हैं। एक दम ठेठ प्रेमी। जो अभी कुछ महीनों पहले शादी करके आए है। जिनके उपर जेठ दोपहरी में भी सावन बरसता है। वे जहां से भी गुजरते हैं मोहब्बत की आबोहवा अपने साथ बहाकर ले जाते हैं। प्रीत की खुशबू से उनके होने का अहसास होता है। बस वे परवाह नहीं करते दकियानुसी रिवाजों की। झूठी बासी औपचारिकताओं को नहीं निभाते। सम्मान देते है। बस क्लास टीचर की तरह तुम्हारी मौजूदगी उन्हें परेशान नहीं करती। सिर्फ यही उनका गुनाह है। जो कुंठित समाज को अखरता है। वे शाम को सज संवर कर घूमने निकलते हैं। पहली बारिश में भीगते हैं। हां खाली सड़क पर हाथ पकड़कर चलते है। आइसक्रीम एक ही लेते है। साथ साथ खाते हैं। दूसरी फिर लेकर वहीं खाने लगते है। बच्चों की तरह। उनकी ये मासूमियत मुझे कान्हा जैसी लगती है। शायद इसीलिए भी वे दोनों मुझे अच्छे लगते है।
मुझे उसकी नौकरी का पता नहीं। लेकिन वो आधी-रात को कहीं से लौटती है। और उसका पति प्रेमियों की तरह घर के नीचे  हीइंतजार करता रहता है। गर्मी में कई बार ठंडे पानी की बोटल भी साथ लिए रहता है। कई बार वे लोग नीचे से आईसक्रमी खाने चले जाते है। पूरे अल्हड़पन और मासूमियत के साथ बतियाते हंसते घूमते रहते है। मुझे उनको देखकर ताजगी का अहसास होता है। चलो इस दुनिया में  कोई तो खुश है इतना कि जो बाहर भी मजा बांट सकता है। वर्ना लोग तो सिर्फ दुख ही दुख बांट  रहे है। रात को अक्सर बालकनी में उसी समय कभी चाय पीता रहता था। कभी कुछ पढ़कर घूमता रहता हूं। तो कभी किसी अाहट पर यू हीं बाहर हवा खोरी करने लगता हूं। और उसी बीच उन्हें मेें देख लेता था।
कल करीब एक बजे रात एक किताब पढ़ रहा था। कुछ आंधी सी थी। कुछ तेज हवा। मौसम मजेदार सो अपन बाहर बालकनी पर टहल रहे थे। एक कार आकर रुकी। वह लड़की भी उत्तरी। बड़ी जद्दोजहद के बाद उसने अपना बैग उतारा। ड्राइवर पूरी बेशर्मी के साथ देखता रहा। उसने मदद की कोई पेशकस तक नहीं की। मुझे लगा इस बैग को लेकर वह पांच मंजिल कैसे चढ़ाएगी। सो मैं ही उतर  गया। वह न करना चाहती थी। लेकिन काम असंभव सा था। सो कुछ संकोच के साथ हां कर दिया। मैंने सीधा पूछ ही लिया। वो कहां है। वो चुप रही। मैंने सोचा शायद गलत सवाल था। मैंने चुपचाप बैग उसके घर पर रखा। और नीचे उतर आया। इसके पहले  सिर्फ इतना ही संबंध था कि कान्हा उसे बुआ बुलाता था। उसके पति को उसी ने सिखा दिया था। फूफा। सो वह उसे फूफा कहता है।
फिर अचानक दो तीन दिन बाद मकान खाली हो रहा था। मैंने फिर पूछा क्या हुआ। वह चुप रही। फिर न जाने क्यों वो मेरे पास आकर बैठ गयी। उसने कहना शुरू किया भैया हम दोनों मद्रास में  एक साथ काम करते थे। प्यार हो गया। हम लोग अलग अलग जाती के थे। सो घर वाले माने नहीं। रोज रोज की धमकियों से तंग आकर हम लोग दिल्ली  आ गए। हम मजे में थे। सिर्फ इसका नशा हमें परेशान करता था। हम मना करते रहे। ये झूठ बोलता रहा। बात सीमा से उपर हो गई। हम अलग अलग हो गए। वो मुम्बइ चला गया। मेरी नौकरी कोलकाता में लग गई ैहै। में जा रही हूं। कान्हा को बहुत सारी चॉकलेट वो देकर जाने लगी। मैंने कहा तुम्हारे पास एक मिठास है। बहुत अंदर। कुए की तरह जो सबको मीठा पानी देते है।अपनी मिठास खोना नहीं। उसे बनाए रखना। और अपना अंहकार त्यागकर कुछ दिनों बाद फिर सोचना। शायद कोई रास्ता दिखे।
रात के एक बजे हैं। वो आइसक्रीम वाला शायद अपनी दुकान उनके इंतजार में खोले होगा। मुझे बालकनी पर टहलते हुए लगा कि जाकर उससे कह दूं। वे लोग घर छोड़कर चले गए है। अब तुम्हारे पास इतनी रात गए कोई इठलाता हुआ नहीं आएगा। न जोन कौन है जो प्रेम की इस दुनिया में नफरत घोलता है। 

Sunday, May 22, 2016

अभी तक तो हम खुद गोद में हैं। कान्हा को कैसे उतार दे।

कान्हा मंडे और संडे के बीच का अंतर सीख गए हैं। वे मंडे को ही सुबह सुबह आ जाते हैं। रिहर्सल करने के लिए। पापा आज मंडे है। फिर पूरा हफ्ता गिनते है। सेटरडे कहते कहते पूरी आंख चमक जाती है। और आखरी में कूंदकर कहते हैं। फिर आएगा संडे। और लंबी लिस्ट सुनाते हैं। पहले रेबिट को कैरिट खिलाएगें। डियर को ब्रैड। पीकॉक को दानेें। डक को आटे की गोलियां। फिर चलेगें। शनि मंदिर। रास्ते में जगन्नाथ मंदिर भी मिलेगा। और आखरी में खाएगें आइस्क्रीम। मॉल में। उनके इस कार्यक्रम में कोई फेरबदल करना पाप लगता है। लिहाजा वो जो कहते है। सो अपन करते चलते है। आज उन्हें गोद में लेकर घूम रहे थे। डियर पार्क में। एक दोस्त मिल गए। कहने लगे बेटे को तुमने सिर पर बैठा रखा है। मैंने कहा सही कहा तुमने। कहने लगे इसे कम से कम गोद से तो उतार दो। मैंने कहा मैं खुद ही अपने मां-बाप। दादी। बुआ। सबकी गोद में  बैठा हूं। इसे कैसे उतार दूं।

उनके जाने के बाद मुझे लगा कि अपनी परवरिश का असर अापके बच्चों  पर पड़ता है। जिस तरह से आपको पाला गया है। उसी तरह अाप अपने बच्चों  को पालते हैं। जैसे बचपन में  मुझे चाट बहुत पसंद दी। चाट खाकर बीमार होना भी स्वाभाविक सी बात थी। लेकिन मेरे पिता ने मुझे कभी भी चाट के लिए ललकने नहीं दिया। न अपन ने कभी चटे की तरह चाट के ठेला को देखा। न किसी को चाट खाते देखकर मन ललचाया। खूब चाट खाई छक के। और आज ये हालत है कि सालों से मैंने गोल गप्पे नहीं खाए। कल ही केबिनेट मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने बुलाया था।  पार्टी में। लेकिन मैंने वहां भी गोल-गप्पे या आलू टिक्की नहीं खाई। सो उसी तरह से जाने अनजाने में कान्हा के साथ भी मैं वहीं व्यवहार करता हूं। उसे आइस्क्रीम बहुत पसंद है। और आइसक्रीम खाने के  बाद खांसी आना तय है। लेकिन आइसक्रीम देखकर उसकी आंखें चमकती है। और फिर वह कमजोर कड़ी पर चोट करता है। मेरी  तरफ देखता है। मैं हर बार उसकी मदद करता हूं। फिर वह खांसता है। तो चुपचाप मेरे हाथ से दवाई भी पी लेता है।

आज के आधुनिक  तौर तरीके मेरे मां-बाप शायद सागर में नहीं जानते थे। लेकिन जो भी कुछ थोड़ा बहुत जानते थे। उन्होंने मुझ पर नहीं थोपा। सो अपना विकास प्राकृतिक हुआ। अगर जीवन में बहुत कुछ नहीं कर पाए। या सफलता के झंडे नहीं गाड़ पाए। इसके लिए अपनी परवरिश नहीं शायद कुंडली दोषी है। इसी तरह मुझे  लगता है कि मेरा बेटा भी जैसा भी हो प्राकृतिक हो। उसे किसी प्रकार की कोई कुंठा न हो। मुझे सिर्फ इतना ही करना है। ताकि में कह सकूं। जैसे मेंरे परिवार ने मुझे पाला था। वैसा मैंने कान्हा को पाल दिया। हां दादी चिंता बहुत करती थी। सो् अपन  कान्हा की चिंता करते हैं.। वह अभी से  हंसता है। कहता है पापा आप डरते बहुत हो। मैं भी कभी दादी से .यही कहता था  कि आप डरती बहुत हो।  क्यों कि उन्होंने कभी अपन को देर रात फिल्म देखने नहीं जाने दिया। न कभी ऐसी जगह पिकनिक जाने  दिया जहां  नदी या गहरा पानी हो। देर होेने पर दरवाजे पर खड़ी रहती थी। पिता ने कहा था कि कोई भी नशा करो पहली बार मेरे साथ करना। सो अपन कभी हिम्मत ही नही  कर पाए। पिता ने अपन से दोस्ती की सो अपन कान्हा के  दोस्त  हो गए। और हां अभी भी दादी फोन करके कहती रहती है। कि गर्मी है। बाहर निकलो तो खूब सारा पानी पी लेना। कुछ दिन पहले  तक ठंड को लेकिर चिंतित रहती थी। वह मुझे अभी तक गोद में बैठाए हैं। मैं कान्हाको अपनी गोद से कैसे उतार दूं। 

कृष्ण की तरह हैं। कौशल। सिर्फ मुुसीबत में आते हैं।

बोलो क्या काम हैं ? फोन की घंटी खत्म होते ही दूसरी तरफ से आवाज आती है। बस यू हीं याद आई तो फोन कर लिया। वह फिर बोला। काम है तो जल्दी बताओ। कहा नहीं। बस हालचाल पूछने को फोन किया था। हमें औपचारिकता में फोन मत किया करो। हमारे पास और भी काम है। रखूं फोन। मैंने कहा अरे सनो तो। वह फिर कुछ खिसयाकर बोला। अरे यार तुम्हें गप मारनी है। तो तुम्हारे पास बहुत लोग है। मुझे क्यों फोन कर रहे हो। फोन पर झल्लाहट सीधी कान तक सुनाई दे रही थी। रखता हूं। कुछ काम हो तो बताना। इस बेहद बदतमीज दोस्त का नाम कौशल कांत मिश्रा है। कौशल इस समय दिल्ली के नामचीन हड्डी के डाक्टर है। वे पहले एम्स में थे। आजकल दिल्ली के एक महंगी और अत्याधुनिक अस्पताल में अपना परचम लहरा रहे है। 
कौशल जैसे दोस्त भगवान का आशीर्वाद है। जो वो खुश होकर किसी किसी को दे देता है। इस बद-दिमाग आदमी से दोस्ती करीब एक दशक पहले हुई थी। उन दिनों अपन हैल्थ बीट के रिपोर्टर थे। और कौशल डाक्टरों के नेता। एंटी रिजर्वेशन की कमान संभाले घूमते थे। अपन को काम का जुनून था। और कौशल को अपने मिशन का। दोस्ती हो गई। वक्त के साथ संबंध गहराते गए। जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की बाइट के लिए अपन जा रहे थे। और एक्सीडेंट हुआ। चार हड्डी टूट गई। दर्द से रोते हुए फोन किया। उधर से कौशल की आवाज आई। हिम्मत रखो। मैं दस मिनिट में पहुंचता हूं। कौशल छह मिनिट में ही आ गया। फिर इलाज हुआ। आजकल अपन कान्हा के साथ फुटबाल भी खेल लेते हैं। 
कान्हा जब 50 दिन के थे। तब वे बीमार हो गए। एम्स दिखाने गए थे। बात फौरन भर्ती की हुई। फुग्गे में से हवा निकलते सुना था। देखा था। अपने शरीर से वैसे ही हवा निकल गई। कौशल पूरी रात अपने साथ थे। हिम्मत दी। वो अलग। जब कान्हा पैदा हुआ। उस रात कौशल दरी पर उसी एम्स के गलियारे में सोए थे। जहां उनकी तूती बोलती थी। आज भी कोई काम आ जाए। तो उनकी याद आती है। कौशल कृष्ण है। सिर्फ मुसीबत के समय आते है। औपचारिकता में फोन करो तो झल्लाते हैं। मेरे पास ऐसे कई जानने वाले है। जो परेशानी में छोड़कर चले गए। कौशल इकलौते है। जो परेशानी में आते है।

Wednesday, May 18, 2016

कछुआ से अच्छा गुरू कौन हो सकता है।

कान्हा पेंटिग सीखने जाते है। पहले दिन में भी उनके साथ गया। सिखाने वाले टीचर ने पूछा कौन सा जानवर पैंट करना है। कान्हा ने कछुआ चुना। शायद वह बड़े आकार का था। या ज्यादा रंगीन था। खाने ज्यादा थे। रंग भरने के लिए। वजह तो कान्हा ही जानता होगा। लेकिन मैंने सोचा कि जिंदगी हो या पेंटिंग कछुआ से अच्छा गुरू कौन हो सकता है। बचपन की कहानियों में हमने सीखा है। अगर व्यक्ति लगातार चलता रहे। तो वह खरगोश यानि ज्याद क्षमताओं वाले व्यक्ति को भी हरा सकता है। हमने यह भी सीखा कि महत्वपूर्ण जीवन में क्षमताएं नहीं है। न भगवान की दी हुई शक्तियां है बल्कि आप की उद्देश्य के प्रति निष्ठा और उस पर लगातार काम करना ही सफल जीवन का निचोड़ है। कछुआ लंबी उम्र जीता है। उसकी एक और विशेषता है। वह अपना विकास लगातार करता रहता है। हमें उससे यह भी सीखना होगा।

Sunday, May 15, 2016

तुम्हारे नाम पर किताब इश्यू थी। सो वापस नहीं की।

तुम तो इमानदारी का ढोल पीटते रहते हो। हर वक्त। फिर लाइब्रेरी की यह पुस्तक वापस क्यों नहीं की। और इसे सूटकेस में क्यों रखे हो। अलमारी में क्यों नहीं। इसे कभी पढ़ते तो हो नहीं। सिर्फ जिल्द बदलते रहते हो। इसे कपड़े में लपेट कर गीता की तरह क्यों रखे हो। पत्नी के एक सवाल में। हजार बातें छुपी थी। इमानदारी पर तंज था। तो कोई पुरानी चोरी पकड़ने का आत्मविश्वास। नई बात जानने की हुमक। और न जाने क्या क्या। मैंने कहा कि यह किताब किसी अपने के खाते से इश्यू थी। सो वापस नहीं की। खंडर महलों में भी कुछ पत्थर। कुछ टूटी दीवालों के हिस्से बचे रहते हैं। जिनसे खत्म हुई चीजें भी अपनी पहचान बताती रहती है। मरी हुए रिश्तें भी जिंदा बने रहते है।
जिंदगी में अपन ने दो ही काम समय से किए। कालेज टाइम से पहले जाना और रोज लाइब्रेरी जाना। हालांकि लाइब्रेरी के अंदर नहीं जाता था। अपनी कोर्स की किताब लाइब्रेरी के बाहर ही मिल जाती थी। उसी की आंखों में ढाई आखर पढ़ लिया करते थे। और पंडित हो गए। बीए में दो और एम ए में चार किताबें एक छात्र को मिलती थी। लेकिन अपने कार्ड पर हमेशा ही दोस्तों का कब्जा रहा। या फिर साहित्य की किताबें उन पर निकलती और जमा होती रही। अंग्रजी से एम ए कर रहा था।लेकिन हिंदी साहित्य की अच्छी किताबें हमेशा रजिस्टर में अपने नाम पर ही लिखी रहीं। और जब जरूरत पड़ी तो न कार्ड था और न समय। फिर किसी ने किताब खोजी और अपने कार्ड पर इश्यू कराकर दे दी। लेकिन वह किताब आज तक पढ़ी नहीं। सिर्फ उसकी पूजा करता रहता हूं। और जिल्द बदल देता हूं। कोई राजदार मिल गया तो कह दूगा कि इसे मेरे साथ जाना है। आखरी वक्त याद रखना.।

Saturday, May 14, 2016

पापा हमनें एबीसीडी सीख ली है। अब हम स्कूल नहीं जाएगें। हमारी नौकली लगवा दो। हम आफिस जाएगें.

कान्हा को अपनी तरफ आते देखकर मैंने खीजकर कहा। कुछ जोर से भी कहा। अभी हम कहानी नहीं सुनाएगें। कान्हा जैसे विलोमार्थी शब्द लिख रहा हो। उसने उतने ही प्यार से कहा। मुस्कराते हुए धीरे से कहा। पापा कहानी नहीं सुनना है। एक बात बतानी है। मुझे राहत मिली। मैंने कहा सुनाओं। कान्हा ने बहुत इत्मीनान के साथ बात शुरू की। पापा हमने नई स्कूल में एबीसीडी सीख ली है.। अब हम आफिस जाएगें। हमारी नौकरी लगवा दो।हम स्कूल नहीं जाएगें। कुछ देर बाद उन्होंने दूसरा रास्ता सुझाया। या फिर आइसक्रीम की दुकान खोल लेते है। सब बच्चों को देते जाएगें। हम भी खा लिया करेंगे। अब मंडे से स्कूल नहीं जाएगें।

Wednesday, May 11, 2016

शिक्षकों की ड्यूटी जूते-चप्पल संभालने में लगा दी। बेशर्मी की हद है कलेक्टर साहब।

सुबह सुबह मूड खराब हो गया। मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में शिक्षकों की ड्यूटी जूते -चप्पल संभालने की लिए लगा दी। ड्यूटी लगाई वहां के लाट साहब खंडवा के डीएम महेश अग्रवाल ने। कुछ खबरें पढ़ कर दुखी हो जाते है। तो कुछ को पढ़ कर मूड ही खराब हो जाता है। मैंने सुना है स्टालिन अपनी जिंदगी में सिर्फ एक व्यक्ति को बाहर तक भेजने आया था। जब उसके प्राइमरी स्कूल के टीचर उससे मिलने पहुंचे। वहां गुरू ही परमेश्वर है।। ऐसा उनकी संस्कृति में नहीं है। लेकिन फिर भी तानाशाह होने के बाद भी हमसे ज्यादा वे गुरू का सम्मान जानते है। और बेशर्मी की हद तो देखिए कि डीएम साहब कहते है कि शिक्षकों ने सेवा की इच्छा जताई थी। इस आदेश को वापस तो ले लिया गया। लेकिन इस मानसिकता का आप क्या करोगे। जो हमारे समाज में एेसे डीएम पैदा कर रही है। मुझे इस बात को लेकर शर्म आई कि मैं मध्य प्रदेश में जन्मा हू। जहां पर लाट साहब शिक्षकों की ड्यूटी जूते चप्पल स्टेंड पर लगाते हैं। वे नेता। वे संगठन। वे पत्रकार। वे समाजिक संस्थाएं चुप रहेंगी मैं जानता हूं। आखिर लाट साहब से कौन बुराई लेगा।वह भी उन गरीब गुरूओं के लिए।

Monday, May 9, 2016

दोस्तों का हुजुम। ताली पर ताली। आपस में गाली। ठहाके। कहां गए सब।

संसद की स्टोरी करके मेट्रों से घर आ रहा था। स्टेशन पर गाड़ी रुकी। तो लड़कों का हुजुम गेट पर देखकर लगा। काफी भीड़ है। लगा दिल्ली में दस बजे रात में भी इतनी भीड़ न जाने कहां  से आ जाती है। मन में कुछ झुंझलाहट सी हुई। लेकिन फिर समझ में आया। भीड़ नहीं है। दोस्तों का हुजुम है। मुश्किल से अंदर घुस पाया। अंदर ज्यादा गुंजाइश नहीं  थी। सो थोड़ा आगे जाकर खड़ा हो गया। उन लड़को की वजह से हर चढ़ने वाले को परेशानी हो रही थी। और उतरने वाले को भी। हालांकि जो लड़किया थी या परिवार वाले थे वे गेट बदलकर उतर रहे  थे। उनका शोर। कुछ अपशब्द। एक दूसरे के साथ धक्का मुक्की। कुल मिला कर डिब्बे के यात्रियों को परेशानी थी। पत्रकार की हनक जो अपन में है। लगा उतरकर सीआईएसएफ वालों को बोलू। और इन लोगों की अकल ठिकाने लगे।
सोच ही रहा था कि उनके ठहाके ने ध्यान बंटाया। करीब दस बारह दोस्त किसी पार्टी से लौट रहे थे। पूरे मजे में। बात बात पर ठहाका। बात बात पर ताली। पूरी जिंदगी उन पर बरस रही थी। कुछ उनकी मजाक अपने कानों में  भी पड़ी। मजा आ गया। वे लोग किस तरह से  अपने एक दोस्त को तैयार करके ले गए थे कि वह आज  ( नाम सुन नहीं पाया। या फिर  समझ में नहीं आया ) उससे अपने दिल की बात कह ही देगा। उसे उन लोगों  ने हजार मौके मुहैया कराए। लेकिन वो भोदूं वापस खाली हाथ लौट रहा था। अचानक उसी लड़की का फोन भी आ गया। वो शायद समझ गई थी। फिर क्या था। क्या धूम मचाई उन्होनें। ्अपने उस दोस्त को गोदी में लेकर वे लोग शायद एक स्टेशन पहले ही उतर गए। आईसक्रीम की पार्टी करने। मन ने हजार बार कहा। इन लोगों  से कहूं। कुछ देर के लिए हमें भी अपने साथ करलो। हमें भी तुम्हारे बराबर मजा करना है। लेकिन अपनी दिल की बात उस लड़के की तरह में भी नहीं  कह पाया। चुपचाप मीडिल क्लास के पप्पू के पापा की तरह अपना बैग थामे मालवीय नगर मेट्रों स्टेशन पर उतर कर घर आ गया। 

Sunday, May 8, 2016

सयुक्त परिवारों में मां भगवान की तरह होती है। दिखती कहीं नहीं। होती है हर कहीं।

मेरे अपने लोग मुझ पर यह आरोप शब्द बदल-बदल कर लगाते है। उनका आरोप कम है। शायद मुझ से शिकायत ज्यादा है। वे अक्सर कहते है। तु्म्हारी बातों में दादी। तुम्हारी कविताओं में दादी। अब तुम्हारे ब्लाग में दादी। तुम्हारे जीवन में मां इतने पीछे क्यों है। दादी इतने आगे क्यों है। जिन्होंने सयुक्त परिवार नहीं  जिया। उन्हें इसका व्याकरण समझ में नहीं आएगा। यहां कोई कम या ज्यादा या फिर आगे या पीछे नहीं होता। सब कुछ संयुक्त होता है। बच्चें भी और बुजुर्ग भी।  सयुक्त परिवराों में सबकी भूमिका सबके रिश्ते अलग अलग होते है। जिन्होंने इस गंगा में नहाया है वे ही इस पानी के बहाव को समझ सकते हैं। करीब चवालीस साल बाद भी मैं इस तरह के परिवारों की संस्कृति का पंडित या जानकार हूं यह कहना मूर्खता होगी। सयुक्त परिवारों की विज्ञान क्या है। ये चलते कैसे है । यह समझना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि एक परिवार मे कम से एक आदमी की पहचान खत्म होती है। उसे बीज बनकर मिट्टी में अंदर दबना होता है। मेरे परिवार में यह काम मेरी मां ने किया।

संयुक्त परिवारों में मां की भूमिका अलग तरह की होती है। आप उसकी भूमिका महसूस कर सकते हैं। लेकिन आप उसे देख नहीं पाते । लिहाजा आपकी यादों में उसकी भौतिक मौजूदगी कम ही रहती है।  बीमार है तो आपका सिर गोदी में रखकर मां नहीं बैठेगी। वह खिचड़ी भी अपने हाथ से नहीं खिलाएगी। लेकिन किचिन में बनाएगी वो। उसकी जिम्मेदारी अपने बच्चों  पर शुरू होकर उन पर ही खत्म हो ऐसा नहीं होता। खुशी या दुख भी पहले पहल उस तक नहीं पहुंचते। दादा-दादी से शुरू होकर उस तक रिसते हैं। तुमसे संबंधित फैसलों पर मां का एेकाधिकार भी नहीं होता। वह उसका हिस्सा हो यह भी जरूरी नहीं। 

 सुबह तड़के उठकर टिफिन बनाती है। लेकिन पैरेंट्स टीचर्स मीटिंग में वह नहीं जाती। जिन कपड़ो को पहनकर तुम इतराते हों। उन्हें वह धुलती है। प्रेस भी करती है। लेकिन ड्राइंग रूम में तुम्हारे दोस्तों से नहीं मिलती। हां चाय नास्ता उसी के दम से होता है। लेकिन वो कहीं नहीं होती। हां जब दिल्ली आता हूं। तो वो कहीं नहीं दिखती। सिर्फ किचिन में भीड़ में पीछे। दो आखों से आसुओं की धार दिखती है। उन्हें पहचानेगा कौन पता नहीं। हां दुनिया ठीक कहती है। मेरी जिंदगी की गप्पों में मां नहीं है। लेकिन मैं जानता हूं। उसकी जिंदगी के हर पल में मेरा ख्याल है।
सयुक्त परिवारों में अपने अधिकारों का मां ओछा दिखावा नहीं करती। वह अपने बच्चों को भी परिवार में बांट कर चलती है। हम दिल्ली से जब भी सागर जाते है। उस आधी रात को सबसे आखरी में वहीं मिलती है। हां उठ पहली ही आवाज पर जाती है। लेकिन चुपचाप सबके लिए चाय बनाती रहती है। मैं भी आखरी में उसके पैर छूता हूं। जाते वक्त भी और आते वक्त भी। हां ट्रेन में टिफिन खोलकर जब खाना खाता हूं। तब उसकी मौजूदगी समझ में आती है। सब्जी वाला बताता है। हफ्ते भर पहले से ही वह मेरी पसंद की सब्जी मंगा कर रख लेती है। हां कहती नहीं। जताती नहीं। सिर्फ अहसास करा देती है। अपनी चाहत का। अब ऐसी मां को केसे हेप्पी मदर्स डे बोलू। हां भगवान से सिर्फ प्रार्थना करता हूं। उसे खुश रखना। स्वस्थ्य रखना।

Friday, May 6, 2016

किसान कितनी ही बदमाशी करले लेकिन गेहूं बो कर चना पैदा नहीं कर सकता। यह जिंदगी में भी है।

दादा  की बात चली तो एक बात और याद आ गई। उनकी ये बात मुझे भी बहुत पसंद है दूर से। मैं कोई तोपची नहीं हूं। वर्ना में कहता कि इस बात को मैं हथियार बनाकर जीता हूं। दादा कहते थे कि किसान कितना भी होशियार हो जाए। चाहे कितना उन्नत बीज जमीन में डाल दे। कितना अच्छी ही रसायन इस्तेमाल करे। खूब पानी दे। यानि सारे उपाय करले फिर भी वह यह करिश्मा नहीं कर सकता कि वह गेहूं बो कर चना पैदा कर ले। वे कहते थे और यही बात जिंदगी में भी सही है। जिस तरह से किसान जो भी बीज बोता है। वही काटता है। जीवन में भी हम यह बात अक्सर भूल जाते है कि जो हम करते है। वही हमारे सामने  आता है। लेकिन उलट है। हम बो कुछ भी लेते  है. लेकिन काटते वक्त हम उम्मीद करते है कि हमें वहीं  मिले जो हमारी इच्छा है। लेकिन ये कहां होता है। 

Thursday, May 5, 2016

आनंद ने मार्टिन लूथर की बातें भेजी हैं। पढ़कर मजा आ गया।

आनंद हमारे छोटे भाई है। लेकिन व्यवहारिक बातों में हमसे कई गुना ज्यादा जानते है। जरूरत पढ़ने पर दुनियादारी के मसले पर हम उनसे पूछते रहते है। लेकिन क्या करें। और लोगों की तरह वे भी मुझसे दुखी रहते हैं।अपनी गप्पें देने की आदत। आलसी स्वभाव और खून के साथ नसों में बहता निक्कमापन उन्हें परेशान करता है। आज उनने सागर से  एक अच्छी बात भेजी। मार्टिन लूथर किंग ने कहा है कि अगर तुम उड़ नहीं सकते तो दोड़ो। अगर तुम दोड़ नहीं सकते तो चलो। अगर चल भी नहीं सकते तो रेगों। पर आगे बढ़ते रहो। अपनी सोच और दिशा बदलो। सफलता आपका स्वागत करेंगी । बात अच्छी लगी सो सोचा आप तक पहुंचा दे। संसद की रिपोर्टिंग थका देती। सो इस बात पर गप्प फिर कभी करेंगे।

Monday, May 2, 2016

बुंदेली कहावत है। बाल्टी में रस्सी जरूर बांधना नहीं तो कुए का अपमान होता है।


दादा सीधे साधे सज्जन व्यक्ति थे। वे शब्दों के खिलाड़ी नहीं थे। न गप्पे ठोकना। न बड़ी बड़ी बाते करना। न रोचक बातें सुनाना। शब्दों से जाला बुनना। लोगों को अपने साथ सिर्फ बातें हांककर जोड़ना उन्हें नहीं आता था। लेकिन उनका हथियार मेहनत थी। वे मेहनती थे। गजब के। न जाने क्यों उनका ये गुण अपन तक नहीं पहुंच पाया। लिहाजा मैं ये कहकर बहुत सी बातें नहीं लिख सकता कि मेरे दादा कहते थे। लेकिन आज उनकी एक बात जो उन्हें बहुत पसंद थी मुझे याद आ गई। वे कहते थे कि बरसात में कई बार खेतों की कुइयों में पानी जमीन की सतह ता आ जाता है। तुम चाहो तो पानी सीधे कुएं से भर सकते हों।लेकिन तुम्हारे इस व्यवहार से कुएं का अपमान होता है। इसलिए हमेशा कोशिश करना कि बाल्टी में चाहे आधे हाथ की रस्सी बांधों लेकिन बांधना जरूर। इतना लिहाज हमेशा रखना।