Sunday, May 8, 2016

सयुक्त परिवारों में मां भगवान की तरह होती है। दिखती कहीं नहीं। होती है हर कहीं।

मेरे अपने लोग मुझ पर यह आरोप शब्द बदल-बदल कर लगाते है। उनका आरोप कम है। शायद मुझ से शिकायत ज्यादा है। वे अक्सर कहते है। तु्म्हारी बातों में दादी। तुम्हारी कविताओं में दादी। अब तुम्हारे ब्लाग में दादी। तुम्हारे जीवन में मां इतने पीछे क्यों है। दादी इतने आगे क्यों है। जिन्होंने सयुक्त परिवार नहीं  जिया। उन्हें इसका व्याकरण समझ में नहीं आएगा। यहां कोई कम या ज्यादा या फिर आगे या पीछे नहीं होता। सब कुछ संयुक्त होता है। बच्चें भी और बुजुर्ग भी।  सयुक्त परिवराों में सबकी भूमिका सबके रिश्ते अलग अलग होते है। जिन्होंने इस गंगा में नहाया है वे ही इस पानी के बहाव को समझ सकते हैं। करीब चवालीस साल बाद भी मैं इस तरह के परिवारों की संस्कृति का पंडित या जानकार हूं यह कहना मूर्खता होगी। सयुक्त परिवारों की विज्ञान क्या है। ये चलते कैसे है । यह समझना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि एक परिवार मे कम से एक आदमी की पहचान खत्म होती है। उसे बीज बनकर मिट्टी में अंदर दबना होता है। मेरे परिवार में यह काम मेरी मां ने किया।

संयुक्त परिवारों में मां की भूमिका अलग तरह की होती है। आप उसकी भूमिका महसूस कर सकते हैं। लेकिन आप उसे देख नहीं पाते । लिहाजा आपकी यादों में उसकी भौतिक मौजूदगी कम ही रहती है।  बीमार है तो आपका सिर गोदी में रखकर मां नहीं बैठेगी। वह खिचड़ी भी अपने हाथ से नहीं खिलाएगी। लेकिन किचिन में बनाएगी वो। उसकी जिम्मेदारी अपने बच्चों  पर शुरू होकर उन पर ही खत्म हो ऐसा नहीं होता। खुशी या दुख भी पहले पहल उस तक नहीं पहुंचते। दादा-दादी से शुरू होकर उस तक रिसते हैं। तुमसे संबंधित फैसलों पर मां का एेकाधिकार भी नहीं होता। वह उसका हिस्सा हो यह भी जरूरी नहीं। 

 सुबह तड़के उठकर टिफिन बनाती है। लेकिन पैरेंट्स टीचर्स मीटिंग में वह नहीं जाती। जिन कपड़ो को पहनकर तुम इतराते हों। उन्हें वह धुलती है। प्रेस भी करती है। लेकिन ड्राइंग रूम में तुम्हारे दोस्तों से नहीं मिलती। हां चाय नास्ता उसी के दम से होता है। लेकिन वो कहीं नहीं होती। हां जब दिल्ली आता हूं। तो वो कहीं नहीं दिखती। सिर्फ किचिन में भीड़ में पीछे। दो आखों से आसुओं की धार दिखती है। उन्हें पहचानेगा कौन पता नहीं। हां दुनिया ठीक कहती है। मेरी जिंदगी की गप्पों में मां नहीं है। लेकिन मैं जानता हूं। उसकी जिंदगी के हर पल में मेरा ख्याल है।
सयुक्त परिवारों में अपने अधिकारों का मां ओछा दिखावा नहीं करती। वह अपने बच्चों को भी परिवार में बांट कर चलती है। हम दिल्ली से जब भी सागर जाते है। उस आधी रात को सबसे आखरी में वहीं मिलती है। हां उठ पहली ही आवाज पर जाती है। लेकिन चुपचाप सबके लिए चाय बनाती रहती है। मैं भी आखरी में उसके पैर छूता हूं। जाते वक्त भी और आते वक्त भी। हां ट्रेन में टिफिन खोलकर जब खाना खाता हूं। तब उसकी मौजूदगी समझ में आती है। सब्जी वाला बताता है। हफ्ते भर पहले से ही वह मेरी पसंद की सब्जी मंगा कर रख लेती है। हां कहती नहीं। जताती नहीं। सिर्फ अहसास करा देती है। अपनी चाहत का। अब ऐसी मां को केसे हेप्पी मदर्स डे बोलू। हां भगवान से सिर्फ प्रार्थना करता हूं। उसे खुश रखना। स्वस्थ्य रखना।

No comments:

Post a Comment