Wednesday, April 20, 2016

नसेनी को टिकाने के लिए दीवाल मत खोजो। हम आपस में ही कैंची बना लेते हैं।

सुबह सुबह मेरे एक भैया का फोन आया। पूछा क्या हाल चाल है। सवाल का जबाव देते देेत थक सा गया हूं। कह दो ठीक-ठाक हैं । तो प्रश्न पूछने वालों को क्या फर्क पड़ता है। कह दो यार परेशान है। तो वह कह देता है। अरे यार हम भी परेशान है। वक्त ही ऐसा कुछ चल रहा है। हर कोई परेशान है। इस तरह बात को खत्म ही कर देता है। और अपने काम की बात करने लगता है। जिसके लिए उसने फोन किया था। मैंने इस बार कुछ जबाव बदल दिया। कहा कि खाई में हूं। सहारे के लिए दिवाल भी नहीं मिलती। जिसके सहारे अपनी नसेनी टिका सकूं। और इस खाई से बाहर आ जाउं। उनका जबाव सुनकर मजा आ गया। कहने लगे । परेशानी में दीवाल नहीं मिलती। न सीड़ी टिकाने के लिए। न छत डालने के लिए। हम भी परेशान है। और तुम भी। चलो कैचीं नसेनी बना लेते है। और बाहर निकलते है। मुझे थोड़ी देर बाद बात समझ मेंं आई। और फिर लगा कि  परेशानी में वही मददगार होता है। जो खुद भी परेशान हो। उनकी बात  जम गई।
उम्र में बड़े है। इसलिए भी भैया कहता हूं। बातें भी अच्छी अच्छी करते हैं। लेकिन संबंध दोस्ताना है। वे भोपाल के बड़े कारोबारी है। लेकिन कई बार वक्त न जाने किस चाल से चलता है। उसे समझना मुश्लिक होता है। सो वे भी कुछ दिनों से परेशान  हैं। लगातार कारोबार में घाटा। फिर उनकी फैक्ट्री में एक बड़ी आग। सो वे भी कुछ अपने जैसे ही हो गए हैं। बुंदेलखंड में एक कहावत है। दुखिया ने दुख कउ। सुखिया ने  हंस दउ। मानवीय मनोविज्ञान पर  शायद ही इतनी अच्छी बात कही गई हो। हम अक्सर अपना  दुख उन्हें सुनाने जाते है। जिन्हें इसके व्याकरण से वास्ता ही नहीं होता। न वे यह भाषा समझते है। न ही इसमें कही गई बात। लिहाजा वे इसका जबाव अपनी भाषा में ही देते है। जिसके पैर में  कभी बिमाई नहीं फटी। वह दुसरे का दुख नहीं समझ सकता। सो मुझे लगा कि परेशानी में हमेशा उनका सहारा ही तको। जो तुम्हारी तरह ही परेशान है। वे ही मददगार साबित होगें। उऩ्हीं के सहारे अपनी नसेनी टिकाउं। कैसीं बना लो। और बाहर निकल आओ।

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