Tuesday, November 29, 2011

दिक्कत संयुक्त परिवार में हैं। बाकी सब ठीक है।

अपन कभी भी जिम्मेदार लोगों की सूची में नहीं रहे। न अपने लिए। न परिवार के लिए। जिम्मेदारी का विचार जीवन की गहरी सोच में पनपता है। एक अहसास और लगातार मंथन से शायद जन्म लेता होगा। मुझ में यह अहसास क्यों और कैसे नहीं आया। मैं नहीं जानता। शायद संयुक्त परिवार ने मुझे हमेशा ही इतना प्यार और दुलार दिया कि जिंदगी कभी कठिन और संघर्ष लगी ही नहीं। न कभी अपने को बड़ा और जिम्मेदार समझ पाया। शायद जीवन की कठिनाइयां भी व्यक्ति को जिम्मेदार और गंभीर बनाती है। लेकिन परिवार के सुरक्षित किले में पले और बड़े हुए। सो जीवन का क्रूर चेहरा देखा ही नहीं। कुछ परिवार और कुछ भगवान के सहारे जिंदगी चलती जाती है। जब बात छोटे भाई की शादी की चलने लगी तब अपन से भी पूछताछ शुरू हई। और जिम्मेदारी की पहली झलक जिंदगी में महसूस की ।
जिंदगी को इस रूप में अपन ने कभी देखा ही नहीं था। अपने एक जानने वाले हैं। उनकी एक बेटी कालेज में पढ़ाती हैं। देखने में हमसे ज्यादा सुंदर। कमाती भी हमसे ज्यादा थी। और पढ़ी लिखी तो थी ही ज्यादा। मतलब उनके पास मुझ से ज्यादा डिग्रियां थी। शायद किताबों की रद्दी अपने घर ज्यादा निकलेगी। वे बताते भी थे कि उनके परिवार में आईएएस और आईपीएस कई लोग हैं। लेकिन इन नौकरियों ने अपन को भी चमकृत नहीं किया। सो कभी जानने की और पूछने की इच्छा भी नहीं हुई। कि कितने हैं और कहां है। बात-चीत होती रही। लेकिन अपन जैसे मूर्ख आदमी को कभी समझ में ही नहीं आया। कि मैं उनकी बेटी के लिए एक अच्छा वर हो सकता हूं। और उनकी लिस्ट में हूं। लेकिन अपना मामला कुछ अलग था। सो शादी उनकी बिटिया से हो नहीं पाई।
बात अचानक फिर शुरू हुई। अबकी बार उनकी दूसरी बिटिया थी। और हमसे छोटा भाई है। वह इन दिनों सागर में ही रहता है। वहीं अपनी रोजी रोटी चलाता है। और अपन से कई गुना ज्यादा कमाता है. उनकी बिटिया दातों की डाक्टर है। लड़किया शायद कस्बाई मानसिकता की वजह से मुझे सभी सम्मानीय लगती है। सुंदरता मुझे उनके चरित्र में दिखती है। काया में नहीं। लड़की पढ़ी लिखी है। परिवार तो अच्छा है ही। और लगता है कि संस्कारित भी। बात शुरू हुई। आमदनी से। पढ़ाई लिखाई से। फिर परिवार और गोत्र तक गई। सभी बातें ठीक बैठती नजर आती थी। लेकिन उन्होंने एक बात कई बार पूछी। लड़की को परिवार में ही रहना होगा। मुझे बार बार यह बात समझ में नहीं आई। मैं कहता रहा। परिवार में नहीं तो कहां रहेगी। लेकिन शायद उनका मतलब कुछ और था। वे शायद चाहते थे पूछना। संयुक्त परिवार में रहेगी। या नहीं। कुछ बाते इशारों में ही खत्म हो तो मर्यादा बनी रहती है। अपन समझ गए। और शायद वे भी। बात खत्म हई।
मैं घर आकर सोचता रहा। बहुत देर तक। पत्नी बार बार पूछती रही। किसी से दफ्तर में लडके आए हो क्या। मैंने कहा नहीं। फिर किसी खबर पर किसी नेता से बहस करके तो नहीं आ गए। तुम्हें एफडीआई से क्या करना। ब़ड़े स्टोर खुलने जा रहे हैं तो खुलने दो। जब सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ साथ इन नेताओं को चिंता नहीं हैं। तो तुम क्यों परेशान हो रहे हों। लेकिन में एफडीआई पर नहीं सयुंक्त परिवार पर सोच रहा था। आखिर क्या खराबी हैं सयुक्त परिवार में ? और क्या फायदा अकेले रहने में ? तुम शायद अपने हिसाब से कपड़े पहन सकते हो। वह तो मेरी पत्नी भी जींस से लेकर स्कर्ट तक पहनती है। लेकिन दादी के सामने नजर का लिहाज होता है। अकेले रहते हो तो शायद अपने हिसाब से खाना खाते हो। सो अपने घऱ में चाइनीज से लेकर इटेलियन तक सभी आता है। जिंदगी अपने हिसाब से जीते हो। शायद तुम जब सोना चाहते हो सो लेते हो। जब घूमने जाना चाहते हो चले जाते हों। लेकिन परिवार में एक मर्यादा रहती है। जिसका आपको पालन करना होता है। लेकिन वे सारे कष्ट और परेशानियां जो आप अकेले झेलते हो। संयुक्त परिवार में पता हीं नहीं चलता। सुंयक्त परिवार में रहने वाले लोगों के तलाक भी कम होते है। और शायद झगड़े भी। लेकिन जिंदगी के दो पहलू। हर आदमी अपनी तरफ से देखता है। सुंयक्त परिवार एक अहसास है। जिसे जिया जा सकता है। समझाया नहीं जा सकता है। सो अपन ने उन्हें तर्क नहीं दिया। सिर्फ उठकर चले आए। चलो कहीं और जाकर एक ऐसी लड़की खोजेगें। जिसके मन के दायरे में सिर्फ पति नहीं। पूरा परिवार रहता हो। आपको पता हो तो बताइएगा।

Monday, November 28, 2011

लगा उनके आंसू पोंछू। और पैरों पर सिर रख दूं।

एम्स में अंगदान पर एक कार्यक्रम था। केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री को आना था। सो अपनी ड्यूटी कार्यक्रम को कवर करने की थी। मंत्री महोयद आए नहीं। लेकिन फिर भी मन हुआ कि कार्यक्रम में कुछ देर बैठे । भाषण थे। कुछ औपचारिकताएं थी। सरकारी कार्यक्रम की तरह। अब तक २२ साल की पत्रकारिता में कई हजार कार्यक्रम कवर किए होगें। लेकिन न तो अपन को कभी फूलों पर किए जाना वाला खर्च समझ में आया। और न हीं स्वागत भाषण का औचित्य। न कभी धन्यवाद ज्ञापन जरूरी लगा। और हर कार्यक्रम में ये दोनों काम ऐसे लोगों को दिए जाते हैं। जिनके हिस्से में और कुछ नहीं होता। लिहाजा वे खूब समय लगाकर अपना औचित्य बताते हैं। सो अपन बैठे बैठे कुछ खीज भी रहे थे। पर उस कार्यक्रम में ऐसे लोगों का सम्मान भी था जिन्होंने अपने निकट के लोगों का अंगदान किया है। और कई जाने बचाई है।
हम जैसे पत्रकारों को कुछ ४०---५० सवाल रटे हुए हैं। जो एक दिन में कई बार पूछतें है। आप लोग भी अब टीवी पत्रकारों की मजाक उड़ाने के लिए उन्हीं सवालों की नकल करते हैं। जैसे आपको कैसा लग रहा है ? इस विषय पर आपका क्या कहना है ? आपका रिएक्शन क्या है ? आप क्या सोचते है ? आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली ? भविष्य में आप क्या चाहते हैं। ? और इस तरह के अन्य सवाल। लिहाजा उन बुजर्ग के सामने अपन ने भी माइक लगा दिया। और पीछे से किसी साथी की आवाज आई आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली ? आपने क्या सोचकर यह कदम उठाया ? वे सर झुकाकर खड़े थे। जब उन्होंने सर उठाया तो वे एक पिता थे। उनकी आँखे बताती थी। जैसे उन्हें सब कुछ सामने दिख रहा हो। अभी भी
उन्होंने बोलना शुरू किया। कुछ समझ में नहीं आता। न कोई फैसला लेता है। न दिमाग काम करता है। जब आपने अपने ३२ साल के बेटे को आधे घंटे पहले हंसते बोलते सुना हो। मोटर साइकिल चलाकर निकलते हुए घर से देखा हो। और कुछ देर बाद फोन आता है। यह मोबाइल किसका है। और आप इसके कौन है। एक हादसे में यह व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया है। अस्पताल पहुंचने पर पता लगता है आपका बेटा गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ है। घायल कर गया है। लेकिन उस समय इस तरह के फैसले लेना आसान नहीं होता। लेकिन शायद भगवान ने मेरी तरफ से फैसला लिया। और मैंने अपने बेटे के ओर्गंस दान कर दिए। अब शायद उसकी जगह कई लोग जिंदा होंगे। लेकिन यह सच है कि ऐसे समय में जब आपसे इस प्रकृति ने सबसे मूल्यवान चीज छीन ली हो। ऐसे समय में भी दुनिया का ध्यान रखना। समाज की चिंता करना। किसी इंसान की बूते की बात नहीं हैं। वे सही कहते हैं। यह फैसला उन्होंने नहीं लिया होगा। उनके अंदर बैठे किसी फरिश्ते ने ही लिया होगा।
वे इतना ही बोल पाए। वे मानों किसी मानवीय सागर में बर्फ की तरह पिघल कर एक हो गए। और मैं वहीं किसी चट्टान की तरह खड़ा रहा। न हिल पाया। न कुछ कर पाया। मेरा मन किया। बार बार किया। कि इनकी आँखों से आंसू पोछं दूं। और इनके पैर पर अपना सिर रख दूं। लेकिन लोकलाज से हम कितने डरते हैं। इसका आभास होता रहता है। लगा जैसे हंसी का पात्र बन जाउंगा। अपनी इस जटिल दुनिया में किसी के पैर छूना भी अब आसान नहीं है। लगा कुछ लोग हंस देंगे। कुछ कहेंगें। अच्छा नाटक करता है। कुछ और भी बातें होगी। लेकिन हो सकता है कि इन बातों को मैं सहन कर भी लेता। लेकिन एक पवित्र माहौल को मैं खराब नहीं करना चाहता था। सो चुपचाप रहा।

Sunday, November 27, 2011

क्या आपका संडे भी छोटा होता है।

दफ्तर से फोन आया था। कल क्या स्टोरी करोगे। और हमें समझ में आया कि संडे खत्म हो गया। न दोस्तों के साथ अड्डेबाजी कर पाया। न फिल्म देखी। न पत्नी के साथ बाहर जाकर डिनर किया। न वे किताबें पढ़ पाया। जो बुक फेयर से लाया हूं। महीनों पहले। न उन लोगों के घर जा पाया। जिनके घर शादी के बाद से ही जाना तय है। और हर संडे आगे खिसकता जा रहा है। न सरोजिनी नगर बाजार गया। जहां अपनी हैसियत के लोग पत्नि के साथ जाकर अक्सर मौसम के हिसाब से कपड़े खरीदते हैं। पत्नियां मोलभाव करती है। अपना काम सिर्फ थैले उठाकर घूमना होता है। न ही मालवीय नगर जाकर वो चाट और गोलपप्पे पत्नी को खिला पाया। जिनकी उसे अक्सर याद आती है। फिर भी छुट्टी का दिन निकल गया।
सोमवार सुबह जब आलस्य के साथ नींद खुलती है। और अखबार लेकर अपनी बीट की खबरें खोजता हूं। कहीं कुछ हमसे छूट तो नहीं गया। कहीं कुछ आज बड़ी खबर तो नहीं बनने वाली है। तभी पहला ख्याल मन में आता है। संडे को छह दिन और बचे हैं। और फिर हर रोज संडे के लिए लिस्ट बनाता रहता हूं। और लिस्ट हफ्ते भर बनती रहती है। हालांकि हर बार मेरी पत्नी की लिस्ट मुझ से लंबी होती है। ये अलग बात है कि वह लिस्ट शादी के बाद कभी पूरी तरह से पूरी नहीं हो पाई। कभी कहता हूं। संडे का दिन छोटा होता है। कभी लगता है। दफ्तर अपना भी पांच दिन खुलना चाहिए। और छुट्टी दो दिन की होनी चाहिए। और अपने सरकारी दोस्तों की दो दिन की छुट्टी देखकर मन दूर से ललचाता भी है। फिर किसी दार्शनिक की तरह सोचता हूं। कि छुट्टी कभी किसी का मन नहीं भर पाती। जैसी कितना भी सूद मिले। महाजन को कम ही लगता है।
आप पूछ सकते है। कि जब तुम कुछ कर ही नहीं पाए। तो फिर संडे गुजरा कैसे। मुझे तो अपने ३९ सालों का पता नहीं चल पाया। कि कुछ किया ही नहीं। और इतने साल निकल गए। बात संडे की तो छोड़ ही दीजिए। देर से सोकर उठा। आराम से चाय पी। अखबार की वे खबरे भी पढ़ी जिनसे अपना सरोकार नहीं था। बालकनी पर खड़े होकर दूसरी चाय पी। वो मोहल्ला जिसमें रहते हैं। उसे सरसरी नजर से देखा। सब्जी खरीदी। किराने की दुकान पर गया। नहाया। खाना खाया। फिर सो गया। कुछ लोग घर आ गए। उनके साथ चाय पी। जिंदगी की परेशानियों के बारे में कुछ फलसफे कहे। वे फोन सुने आराम से। जिनसे हफ्ते भर कहा। कि मैं मीटिंग में हूं। आपको कॉल बैक करता हूं। और कर नहीं पाया। शाम को घर के नीचे गया। कुछ जरूरी सामान लाना था। लौटकर आया। तभी फोन आ गया। और कल की स्टोरी खोजने लगा। अपना संडे खत्म हुआ।
लेकिन अगली बार। खूब सारी किताबें पढ़ूंगा। दादी से देर तक फोन पर बात करूंगा। पत्नी को शाम को चाट खिलाने ले जाउंगा। रात को बाहर डिनर भी करूंगा। सरोजिनी नगर मार्केट जाकर अपने लिए स्वैटर खरीदूंगा। हो सका तो महेंद्र या गंगेश के घर खाना खाने जाऊंगा। या फिर अनिल या आशीष के घर हो आउँगा। वक्त मिला तो पत्नी के साथ बाड़ीगार्ड या फिर दबंग नहीं तो सिंघम कोई न कोई फिल्म देखूंगा। या फिर शिव भैया के साथ जाकर कोई ऐतिहासिक जगह घूम कर आउँगा। अगले संडे बहुत काम करना है। अपना रैक जमाना हैं। किताबों को सलीके से रखना है। गीजर ठीक करवाना है। और........ बस इतना बता दीजिए। कि अगला संडे इतना छोटा तो नहीं होगा। जितना आज वाला था। आप क्या करते हैं संडे को बताइएगा।

Friday, November 25, 2011

हर दिन सुबह कहता था। आज शाम को कह दिया रामराम

नीरज का फोन आया। आलोक जी बाबा चले गए। शाम को अंतिम संस्कार होगा। अपनी नौकरी ऐसी है कि बीच में भाग नहीं सकते। दूसरों की तरह। सो चुपचाप रह गए। फिर जब काम पूरा हो गया। सो भाग कर शमशान पहुंचे। जलती हुई लकड़ियों के बीच बाबा को अंतिम बार देखा। प्रणाम किया। और आखरी बार बार रामराम कहा। आंख बंद कर कुछ देर चुप चाप खड़ा रहा। जानता था कि अब की बार वे जवाब नहीं देगे.। अपने आंसुओँ को कोई नाटक या दिखावा न समझे। सो चुपचाप पौंछ कर किनारे हो गया। और घर आ गया।
जनसत्ता के दिनों से ही अपन खिड़की गांव में रहते हैं। मोहल्ला बदला ही नहीं। सिर्फ घर बदलता रहा। शादी के बाद दो कमरे के घर से दो बेडरूम वाले घर में आना पड़ा। नीरज अपने पुराने दोस्त थे। शतरंज और कैरम साथ खेलते थे। सो उनका मकान अपन ने ले लिया। नीरज के घऱ में आए तो उनके बाबा से अपनापा हो गया। उन्हीं दिनों अपने दादा चले गए थे। मैं नीरज के दादा में अपने दादा खोजने लगा। उनकी कई आदतें अपनी देखी हुई सी लगती। वे रोज सुबह तीन बजे उठ जाते। टहलते रहते। जब से हमनें सुबह उठकर घूमना शूरू किया। वे खुश होते। मैं जब भी राम राम करता। पूरी ताकत के साथ जवाब देते राम राम भाई साहब। सुबह उठना चाहिए। आप अच्छा काम करते हो। जब कभी नौकरी से देरी से आता ।तब तक उनकी आधी रात हो चुकती। वे अक्सर कहते ये कौन सा काम करते हो। आधी रात तक नौकरी करते हों। वे शाम सात बजे तक सो जाते थे। हां कभी कभार उनकी नींद खुलती और अपनी मोटरसाइकिल नहीं दिखती तो जरूर पूछते। मैं अभी तक आया क्यों नहीं।
शमशान के उन कुछ मिनिट में मानों कितने साल आंखों के सामने से निकल गए। कोई अपनी पत्नी को कह रहा था कि गीज़र ऑन कर दो। मैं घर पहुंचने वाला हूं। हां तैयार हो जाओ। मेरी नीली कमीज निकाल दो। आकर फिर चलते हैं। और उसकी दुनियादारी के फोन ने अपनी आँखे खोल दी। लोग कहते हैं कि पहले शमशान में लोगों को लगता था कि दुनिया कितनी बेमानी है। एक दिन सभी का ऐसा होना है। और बाहर निकलते ही कुछ देर बाद वह सामान्य होने लगता था। लेकिन मैं देख रहा हूं। कि हमारी व्यस्तताओं ने हमसे यह मौका भी छीन लिया। इस जगह पर आकर हम कुछ देर को अकेले हो जाते थे। यह स्थान हमें सोचने पर मजबूर करता था। अब तो शमशान घाट पर भी फोन सुनने ही पडते हैं। और कालर ट्यून पर बजते गाने कजरारे कजरारे वीभत्स लगते हैं। आदमी हर किसी घटना में अपने स्वार्थ को देखता है। मुझे भी लगता है। कि कल सुबह कैसे ऊठूंगा। किससे राम राम कहूंगा। और देर से आऊंगा तो कौन पूछेगा। कि कैसी नौकरी करते हो। आधी रात तक कहां रहते हों। हमेशा उनसे सुबह कहता था। आज शाम को कह आया। बाबा राम राम।

Sunday, November 6, 2011

जिंदगी पलट कर देख रहा हूं। देखिए क्या होता हैं।

आपको यकीन शायद नहीं होगा। लेकिन मैं इन दिनों चार बजे उठ रहा हूं। यानि जितने बजे सोता था। उतने बजे उठ रहा हूं। अचानक ख्याल आया। जिंदगी चालीस के आसपास घूम रही हैं। अपन इस जन्म में कुछ कर नहीं पाए। लगा शायद कुछ तरीका ही गलत था। चल ही गलत रास्ते रहे थे। या फिर जिंदगी जी ही उल्टे तरीके से रहे थे। और कुछ तो अपने बस में था नहीं। सोचा चलो दिन की शुरूआत का तरीका बदल कर देखते हैं।
हर समय का अपना एक अलग समाज होता है। और हर समय का अपना एक अलग महत्व होता है। अपना घर सागर में तीनबत्ती पर है। यानि दिल्ली में कनाट प्लेस ।घर बाजार में है। बाजार की रौनक और भीड़ से घर कभी अछूता नहीं रहा। इसके साथ ही दादा फिर पिता चाचा हम और अब सुनते हैं छोटे दोनों भाई भी समाजिक हैं। यानि किसी न किसी तरह समाज के हर तबके से अपना रिश्ता रहा। दिल्ली में बैठकर कई चीजें आपको अतिश्योक्ति लग सकती हैं। लेकिन आज भी घर में अड्डा बाजी सुबह तक चलती रहती है। आपको लगभग पूरी रात अपने घर पर लोग बतियाते चाय पीते मिलेंगे। घर में कैरियर बनाने का माहौल नहीं था। न हीं महत्वकाक्षां थी। पनप ही नहीं पाई। हां पढ़ाई लिखाई का माहौल खूब था। कबीर से मिल्टन तक और कृष्ण से बर्टैंड रसैल तक। टैगौर से अमृता प्रीतम तक। फरीद से दादू तक। सभी तरह की किताबें खूब पढ़ी। और घर में आते जाते लोगों से बातें भी खूब सुनी। पिता की अड्डेबाजी रात में शुरू होती थी। वही अपनी स्कूल बनी। और जिंदगी का मजा आने लगा।
अपन को भी जिंदगी रात दस बजे के बाद अच्छी लगने लगी। जगदीश शर्मा से नाटकों पर और भरत खरे से कबीर से लेकर आज की दुनिया तक गप्पे रात में ही मजा देती थी। शैलेंद्र सराफ हों या सतीश नायक रात को चैतन्य होते थे। फिर कविता लिखने का शौक ऐसा लगा कि रात होतें ही कविता का जन्म होता। वह पनपती और बिटिया की तरह जवान होती। आशीष चौबे आशूतोष तिवारी आशीष ज्योतिषी गप्पों पर गप्पे करते जाते हैं। और रात निकल जाती है। दिल्ली आए तो घर की याद आती थी।और नींद नहीं आती थी। सो किताबें पढ़ते पढते सुबह हो जाती। अब नया शौक लग गया। ब्लाग लिखने का। फेस बुक और इंटरनेट ने जिंदगी ही बदल दी। अब किताबों की जगह टीवी और नेट ने ले ली। देर से सोना। देर से उठना। देर रात तक गप्प करना। अब फोन पर। अपनी जिंदगी का हिस्सा बन गया।
अब जिंदगी अचानक पलट रहा हूं। समाज भी अपना बदल रहा है। कभी तीन तो कभी चार बजे सोता था। अब नया प्रयोग कर रहा हूं। उतने बजे उठ रहा हूं। दस बजे सोता हूं तो अजीब सा लगता है। सुबह उठकर कई लोगों के मिस कॉल देखता हूं। गाली गलौज वाले मैसेज भी देखता हूं। जिन्हें लगता हैं। मैंने फोन नहीं उठाया। वे अपना गुस्सा भेज देते हैं। लेकिन इतने साल बाद पता लग रहा है। कि भगवान ने सुबह कितनी सुंदर बनाई हैं। मौसम किस तरह से तराशा है। वे लोग जिनके चेहरों पर चमक होती है। जिंदगी जिनके खाते में सफलता लिखती हैं। वे अक्सर सुबह सुबह दिखते हैं। लालच में उठने लगा हूं। देखिए कब तक उठ पाता हूं। सुबह की सर्दी और लिहाफ का लालच। दोनों मजेदार है। आप कब सोते हैं और कब उठते हैं। बताना जरूर।