Sunday, April 24, 2016

गर्मी के इस मौसम में। कालेज के दिन और तुम बहुत याद आती हो।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों का विजय चौक अड्डा है। हमारे लिेए यह उस पेड़ की तरह है जहां हम हर उड़ान के बाद यहां कुछ देर को आते हीं है। इसकी कई वजह है। हमारी ओवी वैन यहीं खड़ी रहती है। लिहाजा हम अपनी स्टोरी इसी जगह से दफ्तर भेजते है।  हम जो भी काम करके लाते है। उसे यहीं से मोक्ष मिलता है। इसके अलावा तमाम पत्रकार यहीं जमा रहते है। सो गप्प बोनस में। टीवी में कोई भी पत्रकार तोपची नहीं हो सकता। कुछ  न कुछ किसी न किसी से कभी न कभी छूट ही जाता है। सो विजय चौक ऐसी जगह है। कि जब अपने छूटने से अपनी अटकी रहती है। तो यहीं  पर हम लोग अपने किसी साथी से ट्रांसफर ले लेते है। और उसे दफ्तर भेजकर नार्मल हो जाते है। खाना पीना भी यहीं पेड़ के नीचे होता है। इसके अलावा यह हमारे काम के सर्किल के बीच में हैं। लिहाजा किसी भी इमरजैंसी में यहांं से जगह तक पहुंचना सबसे आसान है। सो विजय चौक पर हम लोग सुबह दस बजे आकर खाम ठोक देते है। और आकर  बैठ जाते है।
कुछ काम खास नहीं था। फुर्सत में ही था लगभग। विजय चौक पर आकर बैठ गया। लू के थपेडों से बचने के लिए शायद कुछ लोगों ने  कुछ उपाय कर रखे होगें। सो ठेठ  दोपहरी में कोई साथी दिख भी नहीं रहा था। ना जाने क्यों पेड़ के  नीचे अकेले बैठने की इच्छा हुई। सो किसी योगी की तरह ध्यान जमा लिया। वे उदास सी दिख रही सरकारी इमारतें। अपने में एक अलग तरह का सूनापन लपेटे विजय चौक। जैसे अभी अभी थक कर सुस्ताने के लिए बैठे हों रास्ते। इन सबके बीच से होता हुआ मैं अपनी यूनिवर्सिटी पहुंच गया। इसी तरह का मौसम और बिलकुल ऐसा ही माहौल होता था परीक्षा के  आसपास। इस मौसम में हर किसी के पास जो होता था वही छूटता नजर आता था।. किसी से क्लास छूटती थी। किसा से हाथ छूटता था। किसी का साथ छूटता था। मौसम बेरहम होकर पेड़ों से उनके पत्ते तक ले जाता  था। लेकिन प्रकृति ने हमारे साथ धोखा किया है। जिन पेड़ो से वह पत्ते ले गई थी। उनके पत्ते फल सहित वापस कर दिए। जिस खेत से नमी ले गई। बारिश की पहली बूंद से उनकी शिकायत दूर हो गई। लेकिन प्रकृति जो हमसे छीन कर ले गई। वो आजतक उसने वापस नहीं किया।


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