Tuesday, May 7, 2013

दिल्ली में लोग देखने नहीं आते। सिर्फ संदेश भेजते हैं।

अपनी सात पुस्तों में किसी ने धंधा नहीं किया। लिहाजा अपन धंधेबाजी नही जानते। न जिंदगी में न संबंधों में। यह बात कहना शुरूआत में इसलिए जरूरी था। कि आपको मेरा ब्लाग कहीं घाटे में बर्बाद हुए किसी व्यापारी की दखद घटना जैसा न लगे। धंधेबाज मानसिकता होती है। कर्म नहीं। लिहाजा आपको लग सकता था कि कई बार लोग भले नौकरियां करते है। या फिर समाज सेवा। लेकिन उनकी मानसिकता हमेशा मुनाफा वसूली की होती है। यानि अगर हम यह सोचकर परमात्मा का ध्यान भी करते है कि इश्वर हमें कभी न कभी फायदा देगा। तो वह संत नहीं कारोबारी ही है. यही बात घूम फिर कर संबंधों पर भी आती है। हमें अक्सर लगता है कि हमारे समाज में जितने ज्यादा संबंध होगें। हम उतने मजबूत और सुरक्षित होगें। लेकिन संबंध मजबूत या कमजोर नहीं होते। वे आपके कद पर निर्भर होते हैं। आपकी मजबूती संबंधों को ताकत देती है।
जब दिल्ली की एक बेहद चलने वाली सडक पर अपन जमीन पर गिरे थे। तो सामने अंधेरा सा छा गया था। चार पहिया वाहनों में कुछ जल्दी में जाने वाले लोग दिखे थे। जो हमसे खफा थे। शायद में फुर्ती से नहीं उठकर उनका समय जाया कर रहा था। कुछ समय बाद जब एक पुलिस वाले ने सहारा देकर उठाया जब कहीं उनके माथे की सिलवट ठीक हई और हार्न बजाते हुए मेरे बाजू से ट्रेफ्रिक स्मूथ हो गया।
एक्सीडेंट के समय अपने पर्स में कुछ सौ रूपए और जेब में एक मोबाइल था। जिसमें कुछ दोस्तों के और कुछ खबर देने वाले लोगों के नंबर थे। पहला फोन कौशल को किया। दूसरा दफ्तर में और फिर अस्पताल पहुंच कर कुछ दोस्तों को। और फिर जब मामला तय हो गया कि बिना ऑपरेशन के काम नहीं बनेगा तो घर फोन किया। उस समय घबराहट में कुछ याद नहीं रहा। लेकिन अब कुछ मजेदार बातें याद आ रही है। मैं अस्पताल के रास्ते में था तभी एक खास दोस्त का संदेश आया। आलोक जल्दी स्वस्थ हो। फिर जल्दी ठीक होने के तीन चार संदेश आ गए। मैंने सोचा था कि शायद मेरे दोस्त अस्पताल पहुंचेगें। मुझे देखने। मेरी मदद के लिए। मेरा होसला बढ़ाएगें। मुझ से पैसे की जुगाड़ का पूछेगें। अकेले हो तो अस्पताल में कौन तुम्हारे साथ रुकेगा। खाना घऱ से लाए। या अस्पताल में मिलेगा। चिंता मत करना। हम लोग हैं ना। ऐसी बात करेंगे। लेकिन यह दिल्ली हैं। ऐसा कहां होता। कुछ अपने थे। वे आ गए। उन्होंने वही किया जो सोचा था। बाकियों के संदेश आए। जो अभी तक आ रहे हैं।
दिल्ली में पहली बार अपन इस तरह के हादसे के शिकार हुए। लिहाजा महानगर की इस अदा से भी वाकिफ हुए। अपनी कस्बाई मानसिकता कुछ और समझदार हुई। सागर जैसे शहरों  में अपने न जाने कितने दोस्तों को रोजगार मिल जाता। अस्पताल आना। वहां रुकना। खाना लाना। और गप्पे ठोकना। लेकिन किसी से शिकायत नहीं है। देर रात घर लौटने वालों के पास और अगले दिन सुबह फिर काम पर जाने वालो के लिए आसान नहीं होता है कि किसी को देखने जाना। हां संडे और शनिवार तो पहले ही तय होता है। अचानक कोई रोड हादसे में हड्डी तोड़ ले तो इनकी कहां गलती। कुछ दुखी बैठा था कि जिंदगी के इस विषय में भी अपन फैल हुए। अभी अभी सागर से तीन दोस्तों का फोन आया कि वो लोग एक्सीडेंट की खबर सुनकर दिल्ली आ गए हैं। घर का पता पूछ रहे हैं। चलो जिंदा रहने के लिए इतना काफी है।

Monday, May 6, 2013

आपकी दुआ चाहिए। बच तो गया। पर हड्डियां टूट गई।

कौशल मेरा एक्सीडेंट हो गया। लगता है मेरे पैर की हड्डियां टूट गई। मुझे डर लग रहा है। समझ में नहीं आ रहा क्या करूं। बहुत दर्द हो रहा है। कौशल यानि डॉ कौशलकांत मिश्रा। वे पहले एम्स में थे। और छात्र आंदोलन के समय से उनसे अपनी दोस्ती हुई। अब तो वे किसी भाई से कम नहीं है।। इन दिनों दिल्ली के नामी डाक्टर है। हड्डी के। बहुत सधी हुई आवाज सामने से आई। तुम अस्पताल पहुंचों। मैं आ रहा हूं। घबराना बंद करो। और किसी को बताने की जरूरत नहीं है। ठीक है। अच्छा एक बात और बताओ कि क्या हड्डियां तुम्हें द्खि रही है। क्या खून ज्यादा बह रहा है। मैंने कहा नहीं। यानि यह बात शायद तय हो गई कि अपनी हड्डिया शरीर में हैं। और फिर अस्पताल चला गया। मुझे अभी सिर्फ इतना ही याद है। एक्सीडेंट कैसे हुआ। किस तरह हुआ। किसकी गलती थी। मुझे कुछ याद नहीं।
अस्पताल पहुंचे। एक्सरे हुआ। पता चला कि एक पैर की दो हड्डियां टूट गई है। एक हड्डी एक जगह से। दूसरी दो जगह से। कौशल ने आकर कहा ऑपरेशन करना होगा। अब बाबू कुछ दिन तक बिना सहारे के नहीं चल पाओगे। अपनी घबराहट और बड़ गई। भागदौ़ड़ की आदत है। अब कैसे काम चलेगा। फिर ऑपरेशन हुआ। अब घर आगए हैं। कल फिर पट्टी होगी। इसके बाद आगे का इलाज तय होगा। फिलहाल दर्द के साथ साथ घबराहट हो रही है। कि इतना समय कैसे कटेगा। बिना घूमे फिरे। अपने हर काम के लिए किसी अपने को आवाज देनी पड़ेगी। ये मुसीबत कैसी खत्म होगी।
आज १४ साल पुरानी एक बात याद आई। उन दिनों अपन जनसत्ता में थे। अपना दफ्तर आईटीओ पर था। नई नई मोटर साइकिल खऱीदी थी। नया नया प्रेम भी था। सो नई मोटर साईकिल पर प्रेमिका को बैठा कर घूमने के मजा ही कुछ और था।अपन मोटर साइकिल तो खरीद लाए थे। लेकिन हैलमेट नहीं खरीदा था। सो आईटीओ के पास ही एक छोटा सा चक्कर लगाने निकल पड़े। और कुछ दूर आगे ही पुलिस वाले ने रोक लिया। इंडियन एक्सप्रेस की भपकी दी। कहा इंडियन एक्सप्रेस में रिपोर्टर है। वह चुप रहा। लेकिन अपने सिपाही से बोला कि साले का एक्सीडेंट हो जाएगा तो कहेगा यमराज से कि इंडियन एक्सप्रेस से हैं। अपन वापस गए। उन दिनों सौ रूपए का चालान होता था। उससे मांफी मांगी। सौ रूपए दिए। और गाड़ी खड़ी दी। ऑटो से जाकर हैलमेट खरीद कर लाए। और फिर गाड़ी चलाई। आज जब अपन मोटरसाईकिल चलाना छोड़ रहे है तो वो ट्रैफ्रिक  पुलिस वाला याद आ रहा है। यह बात बुरा समय नहीं जानता कि अपन अब सहारा समय में विशेष संवाददाता है। न प्रकृति इस बात से डरती है कि पत्रकार से पंगा मत लो। फिलहाल तो अपन ठीक है। लेकिन दुआ करिए कि जल्दी ठीक हो जाउँ। मुझे भांगते फिरने की आदत है।एक जगह अच्छा नहीं लगेगा। ।

Wednesday, May 1, 2013

मन के हारे- हार है। मन के जीते -जीत।

लोग बताते हैं। तिब्बत में ल्हासा युनिवर्सिटी में छात्रों को कुछ अलग तरह की शिक्षा दी जाती थी। उसमें  विद्यार्थियों को एक विशेष प्रकार का योग भी सिखाया जाता था। इस योग का ल्हासा यूनिवर्सिटी में नियमित प्रयोग चलता था। और इस विशेष प्रकार के योग प्रशिक्षण में छात्रों का पास होना जरूरी था। वह था हीट-योग। इस अजीब तरह के योग में शरीर में मन के जरिए गर्मी पैदा की जाने की प्रक्रिया सिखाई जाती थी। इसके चलते कड़ाके की ठंड में जब बाहर बर्फ पड़ रही हों। ऐसे में भी वे अपने मन के जरिए शरीर में इतनी गर्मी पैदा कर लेते थे कि शरीर से पसीना चूने लगे। बात यहां तक नहीं हैं। परीक्षा के दौरान इन छात्रों को ठंडी रात में किसी नदी के किनारे बिना वस्त्रों के खड़ा कर दिया जाता था। और पास में पेंट कमीज और उनका कोट गीला करके रख दिया जाता था। जो छात्र जितने ज्यादा कपड़े अपने शरीर की गर्मी से सुखा लेता था उसे उतने ज्यादा नंबर मिल जाते थे। सुना है कि कई बार कई नास्तिक किस्म के डाक्टरों ने कई प्रयोग किए इन छात्रों के साथ। लेकिन उनका विज्ञान हर बार हार गया।  वे भी इस बात को विवश हुए मानने के लिए कि मन अगर ठान ले तो ठंड में पसीना चू संकता है।
एक घटना और है। महाभारत में अर्जुन कहता है माधव मेरा शरीर इतना कमजोर हो रहा है कि मुझे खड़े होने में भी परेशानी हो रही हैं यहां तक कि गांडीव भी मेरे हाथ से गिर रहा है। इतना बलशाली अर्जुन खड़ा भी नहीं रह पा रहा है। वजह साफ है कि उसका मन दुविधा में है। उसका पूरा मसल्स पावर छू हो जाता है। क्योंकि ताकत संकल्प से आती है। और मन की दुविधा संकल्प को खत्म करती है। सो बलशाली अर्जुन भी इस तरह से निर्बल होकर रथ के पीछे जाकर बैठ जाता है। मैं पूरे यकीन से जानता हूं कि ये दोनों घटनाएँ आपको पहले से ही पता होगीं। और इससे भी ज्यादा घटनाएँ इस तरह की आप जानते हैं. फिर भी इन्हें लिखने का मन हुआ। शायद मैं इन्हें अलग तरह से देख रहा था।
रोज मर्री की जिंदगी में हम ऐसा अक्सर सोचते हैं कि हमारा शरीर साथ नहीं दे रहा। लेकिन वास्तव में शरीर की जगह हमारा मन साथ नहीं होता। और मन के साथ न होने की वजह है हमारे द्वंद्व। हमारी दुविधा। हमारी बैचेनी। हमारी खंड खंड हुई मन की स्थिति। संघर्ष करने से पहले ही हमारा मन सिर्फ हालात देखकर हार जाता है। मैने सुना है कि जब व्यक्ति अंधेरे में होता है  तो डरने की बजाय जोर जोर से सीटियां बजाने लगता है। और कायर आदमी अक्सर लड़ाई में जोर जोर से चिल्लाता है। डरपोक व्यक्ति अपनी बहादुरी की झूठी कहानियां अक्सर बनाकर सुनाता है। आप सभी समझ गए होंगे कि अपन डिप्रेशन में हैं। और इससे बाहर निकलने के लिए इस तरह की किस्से कहानियों का सहारा ले रहे है। लेकिन यह सच है। मैं इसे अनुभव करता हूं। कि हार या जीत पहले मन में ही पैदा होती है। बाद में वह जमीन पर उतरती है। चलो जीत का प्रयोग करके देखते हैं.। आप लोग हमारे साथ है न।

Tuesday, April 30, 2013

तीस अप्रैल को रिजल्ट का तनाव आपको याद हैं।

मैंने सुना है। सेंट थेरेसा एक ईसाई संत हुई हैं। एक बार उन्होंने पूरे गांव में एलान कर दिया। मैं एक बहुत बड़ा चर्च बनाने जा रही हूं। मेरे पास काफी पैसे जमा हो गए हैं। लोगों को हैरत हुई। थेरेसा को उन्होंने कल शाम को भी भीख मांगते देखा था। लिहाजा एक रात में इतने पैसे कहां से आ गए। सभी हैरत में थे।  गांव पूरा जमा हो गया। गांव के मुखिया ने पूछा कि तुम्हारे पास कितने पैसे हैं और कहां से आ गए। कथा कहती है कि थेरेसा ने अपना भिक्षा पात्र दिखाया। उसमें तीन पैसे थे। लोगों ने कहा चर्च के लिए पैसे कहां हैं। उसने कहा कि तीन पैसे हैं ना। सभी ने उसका मजाक बनाया कि तीन पैसे में चर्च बना रही है। उस संत ने कहा कि हम तीन शक्तियां है। तीन पैसे और हम। इसके अलावा एक तीसरी शक्ति  भी है। लोगों ने कहा कि तीसरी कहां है उसने कहा कि परमात्मा। इस तीसरी शक्ति को लोगों ने अनुभव किया या नहीं पता नहीं। लेकिन परमात्मा को हम रिजल्ट के पहले जरूर अनुभव करते थे।
आजकल स्कूलों में रिजल्ट की तारीख तय नहीं  होती। अपने हिसाब से आता रहता है। लेकिन हमारे जमाने में परीक्षा अप्रैल में होती थी। और रिजल्ट तीस अप्रैल को आता था। इन दिनों अपने एक मित्र हैं वे किताबें बैचने का धंधा करते है। वे बताते थे कि परीक्षा खत्म होने और रिजल्ट आने के बीच सबसे ज्यादा अगर कुछ बिकता है तो वह हनुमान चालीसा था। वे जिनके पैपर बिगड़ गए हैं। वे तो भगवान की शरण में होते ही थे। और वे जो दुविधा में हैं। उनका भरोसा भगवान पर कुछ ज्यादा ही होता था। इन्हीं दिनो नवरात्री भी आती थी। हमारे जितने भी पढ़ने लिखने में कमजोर साथी थे। सबके सब नौ दिन का व्रत पूरी लगन से करते थे। इतना ही नहीं देवी से यह भी कह देते थे कि अगर अच्छे नंबर से पास हुए तो अगले साल और भी बेहतर तरीके से उपवास किया जाएगा। मंगलवार को आरती हनुमान जी के मंदिर में खूब धूमधाम से होती थी। शंकर जी को जल अर्पित भी इन्हीं दिनों खूब होता था।
तीस अप्रैल तक सभी धार्मिक काम किए जाते थे। ताकि भगवान पूरा इंसाफ करें। लेकिन शायद भगवान की भी अपनी मजबूरियां होती होगीं। सभी कहां  अच्छे नंबर ला पाते थे। क्लास में पहला दूसरा नंबर तो वे लड़किया ले जाती थी जिनके पिता या तो सेना में कर्नल होते ते। या फिर सागर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर। कुछ डाक्टर इंजीनियर भी थे जिनके बच्चों को भगवान अच्छे नंबर दिला देता था। रिजल्ट लेकर लौटन के बाद हनुमान जी किसी पक्षपात करने वाले दुश्मन से कम नहीं लगते थे। भगवान की आरतियां फिर सूनी हो जाती थी। हां हम में से कुछ उसी दिन जाकर अगले साल कि किताबें जरूर खरीद लाते थे। उसी रात ब्राउन पैपर से कवर भी हो जाती थी। और अगले साल देख लेगें।  यह ख्याल मन में आता था। लगभग वैसे ही जैसे नागपंचमी का हारा पहलवान अगले ही दिन नया लंगोट सिलाता है। लेकिन रिजल्ट के साथ कुछ दोस्त भी छूट जाते थे। जिनके पिता का तबादला हो जाता था। और कहकर तो जाते थे कि मिलते रहेगें। लेकिन जो छूट गया वो कहां मिलता है। कुछ चेहरों को आज भी मन तलाशता है। आज तीस अप्रैल है। पुराने रिजल्ट और दोस्त दोनों याद आ रहे हैं।

Monday, April 29, 2013

न कोर्स की किताबें पढ़ी। न काम के लोगों से संबंध बनाए।

पिछले कुछ महीनों से अपन डिप्रेशन में हैं। न वजह पता। न इलाज। शायद छोटूलाल पिछले साल इन्हीं दिनों बीमार हुए थे। वे १५ दिन तक एम्स में दाखिल रहे। और अपन तभी से बीमार है। एक अजीब से चिंता और मन में निराशा छा गई है। आत्मविश्वास भी लगातार कम हुआ है। वे गप्पे जो अपन खूब ठोकते थे। आजकल चुप से रहते हैं। इसी दौर में पढ़ना लिखना भी बंद हुआ। महीनों से ब्लाग ही नहीं लिखा था। आप जैसे लोगों ने उत्साह बढ़ाया सो फिर से लिखने की कोशिश कर रहा हूं। जिंदगी में सफल लोगों के क्रिया कलाप ही अलग तरीके के होते हैं। और अपन जैसे निक्कमों की जिंदगी अलग ही तरह से चलती है। जिंदगी में वो किया जो अच्छा लगा। जिसमें मजा आया। जो भला लगा। जिंदगी हाथ में कैलकुलेटर लेकर नहीं काट पाया। शायद अब डर लगता है।
बचपन में जिन दिनों अपनी उम्र के लोग बच्चों वाली कहानियां पढ़ते थे। आप से झूठ नहीं बोलूगां। उन दिनों पिता के साथ साथ अपन को भी शरतचंद , प्रेमचंद और निराला भाने लगे थे। बहुत कम उम्र में ही देवदास, निराला का साहित्य, आवारा मसीहा, कफन, पूस की रात, जैसी कई कहानियां और उपन्यास पढ़ लिए थे। बचपन से ही किताबें वे पढ़ी जो अच्छी लगी। यह सोचा ही नहीं कि जो पढ़ रहे हैं। वह जिंदगी में कितना और क्या काम आएगा। और  जिंदगी का यही तरीका अब तक चल रहा है। बात उन दिनों की है कि जब अपन अंग्रेजी से एम ए कर रहे थे। सुबह ड्रामा का पेपर था। और कुछ नोट्स खोज रहे थे। तभी अलमारी में अमृता प्रीतम की रसीदी टिकिट मिल गई। यह सोचकर कि कुछ पेज पढ़ कर किताब रख देगें। मूड भी अच्छा हो जाएगा। और दो दो करके सुबह पौने छह बजे तक पूरी किताब ही पढ़ ली। और नहा धोकर ड्रामा का पेपर देने चले गए। यह बात जब एक बार दिल्ली में अमृता प्रीतम को सुनाई तो उन्होंने कहा था कि मुझे नहीं पता कि रसीदी टिकिट का कोई पाठक इस तरह का भी मिलेगा। अगर तुम सच बोल रहे हो तो मेरा लिखना सफल हो गया।
इसी तरह अपन ने कभी मैनुअल भी नहीं पढ़े।  कोशिश जरूर की थी पिछले दिनों। नया फोन खरीद कर लाया तो उसकी साथ मिलने वाली ६४ पन्नों की एक गाइड भी मिली। इसे कैसे इस्तेमाल करे। यह सोचकर की इसे पढ़कर अपन भी जान-पाड़ें बनेगें। उसे बिस्तर के पास रख लिया। यह सोचकर कि जिंदगी में अब कुछ काम का भी पढ़ा जाए। लेकिन उन्हीं दिनों लाओत्से साहब मिल गए। फिर क्या था। करीब चार हजार पन्ने अपन ने पढ़े । लेकिन वे काम के ६४ पन्ने आज तक नहीं पढ़ पाए। आज जब बिस्तर की धूल साफ कर रहे थे। तो वह काम की किताब बिना पढ़े ही फैंक दी। इसी तरह जिंदगी में अपन ने संबंध तो खूब बनाए। या कहिए बन गए। लेकिन काम के लोगों से नहीं बन पाए। किसी अड्डे पर बैठकर जिन लोगों के साथ गप्प करने में मजा आया। बस उन्हीं के साथ रिश्ते बनते गए। ये कभी सोचा ही नहीं। कि कुछ काम के लोगों से भी संबंध बनाए जाए। भले कुछ रिश्तें दिल से नहीं मेहनत से बनें। सो आज जिंदगी की कसोटी पर अपन खरे नहीं उतरते। आप क्या सोचते हैं बताइएगा।

Sunday, April 28, 2013

बचत करो। नहीं तो परेशानी में फंसोगे। धमकाकर गए भैया

मैंने सुना है। एक रेल में पंडित जी यात्रा कर रहे थे। समय काटने के लिए हम अक्सर लोगों से सफर में दोस्ती कर लेते हैं। लोगों ने बातचीत में पूछा कि पंडित जी आप क्या काम करते हैं। उन्होंने बताया हाथ देखकर। कुंडली देखकर। या फिर कथा करके जिंदगी चलती है। मुफ्त में सलाह के अलावा हर चीज व्यक्ति को कीमती लगती है। यात्रियों को लगा कि मुफ्त  में हाथ दिखाने का मौका हैं। फायदा उठा लेते है।  पंडित जी को लगा कि समय  कट जाएगा। उन्होंने अपनी सीट के आसपास बैठे तमाम यात्रियों के हाथ देखे। दो चार हाथ देखने के बाद उन्होंने कुछ जल्दी दिखाई। अपने आसपास बैठे डिब्बें में दूसरे यात्रियों के हाथ भी उन्होंने  तेजी से देखने शुरू किए। और पंडित जी पसीना पसीना हो गए। अगला स्टेशन जैसे ही आया। पंडित जी फौरन अपनी यात्रा बीच में ही छोडकर उतर गए। हुआ ये था कि पंडित जी ने जितने भी यात्रियों के हाथ देखे थे उन सब की जीवन रेखा खत्म थी। उनको लगा इस रेल में यात्रा करना ठीक नहीं है। इनके साथ अपन भी निपट सकते हैं। कथा आगे कहती है कि कुछ देर बाद रेल एक हादसे में पुल  से नीचे गिर गई। और पंडित की जान बची सो उन्होंने लाखो पाए।
पंडित जी की तरह रतन भैया भी कोलकाता से आए थे। हर बार की तरह उन्होंने मुझ से फिर से पूछना शुरू किया कि कुछ पैसा बचा रहे हों। हमने हर बार की तरह कहां नहीं। वे शांत रहे। मेंने सोचा अब दूसरे लोगों की तरह वे मुझ से पूछेगें। कि सरकार पांच साल चलेगी या नहीं। राहुल गांधी क्या कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी का क्या लगता है। क्या कोयला घोटाला में प्रधानमंत्री फंसेगे। संसद चलेगी या नहीं। इसी तरह के सवाल लोग अपन से पूछते रहते हैं। लेकिन वे नाराज होकर पूछने लगें। कोई जीवन बीमा कराया है। मेंने कहा नहीं। मेडिकल इंश्योरेंस। मैं चुप रहा। वे और नाराज हुए। बोले चलो ये अच्छा है कि पुलिस के डर से गाडि़यों का बीमा करा लेते हो। नहीं तो तुम्हारी गाड़िया बिना बीमा के ही रहें। मैं चुप रहा। उन्हें कैसे बताता कि अपनी मोटर साइकिल का बीमा सालों पहले खत्म हो गया है। लेकिन एक मुश्त रकम ही नहीं जुटती कि बीमा करा लें। और वे शायद पंडित जी की तरह हालात समझ कर चुप हो गए।
कभी कभी अक्सर ऐसा होता है कि जिंदगी समझ में नहीं आती। सिर्फ चलती चली जाती है। हम सभी जानते है कि हर आदमी के पास भविष्य के लिए कुछ न कुछ रकम होनी चाहिए। लेकिन अगर रोजमर्रा के खर्चों से कुछ बचे तब तो। इमानदारी का भी अपना एक नशा होता है। उस नशे में मजे के साथ साथ एक अंहकार भी चलता है.। जो खूब मजा देता है। अपन को भी इमानदारी के ये लत लगी है। जो मजा देती है। और गप्प मारते समय भरोसा भी। जिन लोगों में अपना उठना बैठना है। वे सभी जानते हैं कि कलम सालों से घसीटने के बाद उसका कभी गलत इस्तेमाल अपन से नहीं हो पाया। हालांकि अब लोग अलग अलग तरह से सलाह भी देते रहते है। जैसे इमानदारी अब सिर्फ शेखचिल्लियों और आलसियों के लिए ढाल बन गई है। लेकिन अपन क्या करें। अपन को वेतन में जो नोट मिलते हैं। उन पर गांधीबाबा की फोटो बनी रहती है। उनसे जिंदगी का खर्च तो चलता है। लेकिन कुछ बच नहीं पाता। रतना भैया हमें डाटकर वापस कोलकाता चले गए हैं। यह कहकर कि मेहनत करो। इमानदारी से कुछ ऐसा काम करो कि कम से कम हर रोज छोटू लाल के लिए सौ रुपए जमा करों। पता नहीं कहां से होगा। पर हमने सुना है। जो लोग गांठ बांधकर नहीं चलते। न मांगकर खाते हैं। उनके पीछे भगवान घूमता है कि ये लोग कहीं भूखे न सो जाए। सो अपन को उस पर यकीन है। ठीक समझ रहा हूं ना। बताइगा जरूर।

Thursday, April 25, 2013

किसी के मुंह से निवाला छीन लो। आंखों से खुशियां मत छीनना

पिताजी का फोन अभी अभी आया था। अपन ने साफ साफ कहा कि हम सागर नहीं आ सकते। अपन में हिम्मत ही नहीं है। छोटू लाल को सागर से दिल्ली लाने की। आप शायद भूल गए होगें। पिछली एक मार्च को छोटू लाल हुए थे। वे अब एक साल से ज्यादा के हो गए हैं। और इन दिनों वे हमारी और अपनी दादी के पास सागर में हैं। अपना परिवार कुछ ज्यादा ही भावनात्मक हैं। और वहीं से ऐसे संस्कार मिले। लेकिन फिर भी भगवान न जानें कहां से कुछ ऐसी ताकत हर बार देता था कि काम चल जाता था। लेकिन इस बार कोई सहारा नहीं दिखता। सो अपनी हिम्मत जबाव दे गई। सागर से आने में अब भी परेशानी होती है। १६ साल के बाद भी। लेकिन परेशानी इतनी ज्यादा हो जाएगी। शायद कभी सोचा भी नहीं था। दादी ने अपन से भी खूब मोह किया है। लेकिन छोटू लाल के लिए तो शायद वे पगला ही गई है।
छोटू लाल पिछले साल कुछ दिनों के लिए सागर गए थे। छह महीनें से भी ज्यादा दिन बाद लौटें। दोस्तों ने मजाक करना शुरू कर दिया था कि आलोक के बेटे का दादी ने अपहरण कर लिया है। इस बार भी वे अपना पहला जन्मदिन सागर में मनाने गए थे। सो अभी तक वहीं है। हर रात दादी की आवाज में खनक कम हो रही है। पहले कहा कि होली तो होने दो। फिर कुल देवी की पूजा का सहारा था। अब वे कोई नया मुनासिब बहाना नहीं खोज पा रही है। कभी कहती हैं। दिल्ली में गर्मी हैं। तो कभी कहती है। दिल्ली बच्चों के लिए ठीक नहीं है। तो कभी कहती हैं। बच्चा दिल्ली में अकेला कैसा रहेगा। दिल्ली का माहौल ही खराब है। आज इतने सालों में उन्होंने पहली बार कहा कि दिल्ली छोडकर कहीं नजदीक क्यों नहीं आ जाते। उनके तमाम तर्क एक ही बात कहते है कि उनका पंती कुछ दिन और उनके पास रहे।
छोटू लाल की हर बात पर वे इतना खुश होती है। उसका हर शब्द उन्हें साहित्य लगता है। हर नई बात नया जीवन लगता है। रोज रात को वे करीब आधा घंटा उसके दिन भर की दिनचर्या मजे से सुनाती है। हर वो नई चीज जो पिछले २४ घंटों में हुई है। उसे वे पूरा मजा लेकर सुनाती है। सयुक्त परिवार के विशेषताओं में ऱिश्तों के नाम भी अलग होतें है। पूरा परिवार दादी से जिज्जी कहता है। सो छोटू लाल भी जिज्जी कहना सीख गए हैं। और बात बात में जिज्जी कहते हैं। हर कोई घर के बाहर जब भी जाता है दादी से कहकर जाता है। सो वे भी जब भी घूमने जाते है। गोदी में चड़ते ही दादी से कहते है। आरय । अष्टमी के दिन वे घुटने के बल गए और दादी के पैर छू लिए। और दादी बहुत देर तक रोती रही। शायद उन्हें लगा होगा कि कुल के संस्कार सही जगह और सहा मात्रा में जाने लगे हैं।
अब अपन को यहां से जिंदगी समझ में नहीं आती। क्या करे। कैसे करें। दादी ही कहती थी कि कहावत है कि किसी के मुंह से निवाला भले छीन लो लेकिन किसी की आँखों से खुशियां मत छीनना। आंखों में पनपती खुशियां व्यक्ति के भविष्य का आधार बनती हैं। अपन तो दिल्ली में सुबह से शाम तक खबर के चक्कर में भागते फिरते हैं। सो अपन छोटू लाल से रात को ही मिलते हैं। सागर में उन्हें पिताजी के अलावा दर्जनों लोग घुमाने वाले हैं। इतने ही लोग उनसे गप्प करने वाले हैं। लगता है कि कहां बेचारे को सागर से उठाकर दिल्ली के ड्राइंग रूम में ले आउं। जैसे किसी मछली को एक्वेरियम में लोग रख लेते हैं। अपना दिमाग काम नहीं करता। आप ही बताओ क्या करू और कैसे करू। लिखना जरूर।

Tuesday, April 23, 2013

बच्चों को तालीम मिल रही है। तरबियत नहीं। नतीजा सामने हैं।

बच्चों को इन दिनों तालीम मिल रही है। तरबियत नहीं। और इसके नतीजे सामने हैं। समाज का माहौल खराब हो रहा है। आने वाले दिनों में हालात और भी खराब होगें। इतना कहकर एहतेशाम भाई हुक्का पीने लगे। और बहुत देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे।  खबरों के बीच में जब भी कभी समय मिलता है। और भूख लगी होती है। तो अपन भागकर मंडी हाउस जाते थे। लेकिन मंडी हाउस में अगर एहतेशाम भाई भी मिल जाए। तो मजा दो गुना हो जाता है। उम्र करीब ६५ साल लेकिन हैं जवान। उनकी आभा देखकर उनका सम्मान करने की इच्छा होती है। और व्यवहार देखकर उनसे मोहब्बत करने की। मैंने अपनी जिंदगी में इतने सुंदर कम बुजुर्ग देखे होगें। अपने इलाके के नामवर जमीनदार। गजब के निशांची और शेर शायरी के शौकीन। शायद यही रास्ता हम लोगों को मिलाता है। कहने को तो वे राजनीति भी करते है। लेकिन बात हमेशा अपनेपन की  करते हैं। मैंने कभी उनसे राजनीति की बात की ही नहीं। न उन्होंने मुझ से की। लेकिन मंडी हाउस फुटपाथ पर हुक्का लिए कोई पीता हुआ मिले। और उनके करीब कई लोगों बैठे हों तो समझ लेना एहतेशाम भाई की महफिल शुरू है और लोग जुड़ते जाएगें।
मुझे उनकी बात ने सोचने पर मजबूर किया कि क्या मामला सिर्फ कानून और न्याय व्यवस्था का है। या बात कुछ और भी है। हमारे जमाने में संस्कार देने में परिवार एक अहम भूमिका निभाता था। बल्कि गलती करने पर अगर किसी को सबसे ज्यादा शर्मिंदा करना है तो कह दिया जाता था कि तुम्हारे माता पिता ने तुम्हे यही संस्कार दिए है। मैंने तो अपने शहर की कई दुकानों पर लिखा हुआ भी देखा है कि आपका व्यवहार आपके पारिवारिक संस्कार बताता है। लेकिन महानगरों की भागदौ़ड़ में जब माता पिता को अपने बच्चे पालने के लिए समय नहीं है। उन्हें संस्कारित कब करेंगे। हमारी आने वाले पीड़िया और भी खतरनाक होगीं। हमारे बच्चों को फिल्में या फिर टीवी धारावाहिक संस्कारित कर रहे है। शायद यही वजह है कि वे ज्यादा हिंसक और असंवेदनशील हो रहे हैं।
एकल परिवार का सबसे बड़ा नुकशान शायद यही है। हमारी आने वाली पीड़ी संस्कार विहीन पैदा हो रही है। संयुक्त परिवार बच्चों को कई संस्कार बिना किसी कोशिश के ही दे जाता है। बच्चें बचपन से ही कई चीजें दादा दादी के साथ सीखते हैं। तो कई शिक्षाएं उन्हें कहानियों से भी मिलती थी। चीजें बांटकर खाना हमने किसी किताब में पढ़कर नहीं सीखा। न किसी ने बैत लेकर सिखाया लेकिन यह संस्कार सयुक्त परिवार देता है। आंख का लिहाज। बुजुर्गों का सम्मान इसी स्कूल की देन है। मोहल्ले की हर लडकी बहिन होती है। छोटे से ही बताया गया कि दीदी की जय कर लो। और अपन फट से पैर छू लेते थे। यही आदत सागर से दिल्ली तक बनी रही ।कई बार इस शहर में इस आदत के चलते मजाक का पात्र भी बनें। लेकिन आदतें कहां छूटती है।
परिवार के साथ साथ स्कूल भी बच्चों को संस्कारित करते थे। अपनी स्कूल में नैतिक शिक्षा का पीरियड अलग से होता था। लेकिन आज कल की धंधेबाज स्कूलों में इस तरह की पढ़ाई नहीं होती। शायद इसका फैशन नहीं है। बच्चों को अलग अलग तरह की पार्टी के लिए तो तैयार करते हैं। लेकिन नैतिक शिक्षा के लिए समय की गुंजाइश नहीं है। मुझे लगता है कि स्कूलों को धंधे की तरह चलाने वालों ने शिक्षा के साथ साथ सबसे ज्यादा नक्सान नैतिक मूल्यों का किया है। एक उम्र में किसी भी बच्चें पर शिक्षक का प्रभाव सबसे ज्यादा रहता है। और ऐसे समय में वो जो सिखाता है। जिंदगी की स्लेट पर किसी इबारत की तरह लिखा जाता है। लेकिन अब बच्चों को भी लगता है कि हम इतनी मंहगी फीस दे रहे है। और यह टीचर हमें पढ़ा रहा है। पैसे ले रहा है। क्लास में लेक्चर दे रहा है। सम्मान बीच में कहां से आता है।
सवाल सिर्फ समाज के बिगड़ते माहौल का नही है। बात हमारे परिवार की भी है।  आपको समाज की चिंता भले न हों। लेकिन आपको अपने परिवार की और अपने बच्चों की चिंता तो करनी ही पड़ेगी। उन्हें संस्कारित करने का कोई न कोई जरिया तो खोजना ही होगा। हम टीवी और फिल्मों के भरोसे उन्हें नहीं छोड़ सकते। और हमें भी कोशिश करनी होगी कि हमारा कल हमारे आज से संस्कारित हो। कम से कम इतना इंतजाम तो कर ही दे कि जो हम सीखकर आए हैं। कम से कम वो संस्कार तो अगली  पीडी़ तक पहुंच जाए।

Sunday, April 21, 2013

बात कहने का तरीका, यह भी एक कला है।

शिव भैया महीनों से कह रहे हैं। ब्लाग लिखो। पता नहीं क्या हुआ। लिखने से मन ही उचट गया है। सो जबरदस्ती लिखा नहीं। पिछले दिनों इस बात पर अपनों के बीच गहन चर्चा रही। कि लिखते रहो। आज जब शिव भैया के पास अपन बैठे थे। तभी खैतान भाई साहब ने कहा कि आलोक के पिछले दो दिनों के ब्लाग बहुत अच्छे है। तुमने शायद शिव भैया को नहीं भेजे। अब आज लिखकर तीशिनों भेज देना। अपन जैसे बेशर्म भी शर्मिंदा होते है। मोटी खाल से भी शायद कुछ अंदर जाता है। खैतान भाईसाहब त्वचा के ही डाक्टर है। सो शायद वे मोटी खाल के लोगों से भी निपटना जानते हैं। वे जो दो अच्छे ब्लाग हैं उन्हें भविष्य में कभी लिखूंगा लेकिन आज लिखने बैठ गया।
हमें बचपन से ही सिखाया गया कि बात तो महत्वपूर्ण होती ही है। लेकिन यह भी महत्वपूर्ण होता है कि बात कैसे कही गई। लेकिन जिंदगी की आपाधापी में हम बहुत कुछ भूल गए। शायद यह बात भी। हम सुनते आए है। कि एक पंडित ने राजा की उम्र बताई और कहा कि तु्म्हारे सामने तुम्हारे बेटे भी मर जाएगें। राजा ने नाराज होकर उसकी गर्दन कटवा दी। एक दूसरे पंडित ने बात को अलग तरीके से कहा कि राजा तुम्हारी किस्मत बहुत अच्छी है। तुम अपने बेटे तो ठीक ही है। उनके बेटे भी देखोगे राजा ने उसे इनाम दिया। तो यह बात निश्चित है कि हम बात किस तरह से कहते है। यह उस बात की सफलता पर निर्भर करता है।
संवाद में एक बात और भी महत्वपूर्ण होती है। मौका। अपनी बात को सही तरीके से तो कहना आना ही चाहिए लेकिन उसे सही मौके पर भी कहा जाए। यह बात भी जरूरी है। बिना मौके पर कही गई अच्छी बात भी यू हीं निकल जाती है। यह बात अपन जैसे गप्पी लोगों के लिए कारगर साबित होगी है। क्योंकि अपन इतनी गप्पे ठोकते रहते हैं। कि इस बात का अंदाजा कम ही होता है कि कौन सी बात कब कहनी है। अपने मन में आई और कह दी। उसका आंकलन समाज करता रहेगा। यह अलग बात है कि उन बातों का महत्व कभी समझा जाता है। कभी नहीं। बहुत दिनों बाद लिख रहा हूं। सो अभ्यास खत्म हो गया है। लिहाजा छोटा ही लिख रहा हूं। मैं लिखने का अभ्यास करता हूं। और आप लोग पढ़ने का अभ्यास करिए.