Monday, June 21, 2010

उपनामों की दुनियां। मैंने कहा चौंचे चाचा नमस्ते। वे गुस्साए। पिता झल्लाए।

मैं बचपन से ही पिता के साथ खूब घूमा हूं। उनसे अपनी जमकर दोस्ती रही। उनके साथ घूमना। बाजार में खाना पीना। दोस्तों की तरह बतियाना। आम बात थी। मैं उनके साथ एक दिन चाट खानें जा रहा था। कि पिता के एक बचपन के दोस्त मिल गए। मैंने पूरी सभ्यता दिखातें हुए। उनसे नमस्ते करने की बात सोचीं। और फट से कर भी डाली। इससे पहले की उनके और पिता के बीच कोई संवाद स्थापित हो पाता। मैंने उन्हें देखा। और कह डाला। चौंचे चाचा नमस्ते। मैं सोच रहा था कि वे हल्के से मुस्करा कर मुझे नमस्ते कहेगें। मेरी पढ़ाई लिखाई। स्कूल इन तमाम चीजों के बारे में पूछेंगे। लेकिन उन्होंने हमारी नमस्ते का जवाब तो नहीं दिया। और वे पिता से लगभग लड़ने की मुद्रा में थे। वे चिल्ला रहे थे। पहले तो तुम जिंदगी भर उल्टे सीधे नाम कहते और कहलवाते रहे। अब बच्चों को भी सिखा रहे हों। मुझे अपमानित करवा रहे हों। पिता उन्हें समझाते रहे। कि मेरी नमस्ते में उनकी कोई भूमिका नहीं है। लेकिन वे मानने को तैयार ही नहीं थे। कुछ देर गुस्साएं और फिर चिल्ला कर चले गए। उनके जाने के बाद पिता ने मुझे डाटा। तुम ने चौंचे से चौंचे क्यों कहा। मैंने पूछा तो और क्या कहता।उन्होंने कुछ सोचा। कुछ याद करने की कोशिश की। फिर बताया कि उसका नाम तो सुभाषचंद्र हैं।
उपनामों की दुनिया भी अजीब हैं। एक वह नाम जो हमारे माता पिता रखते हैं। जिसे हम पूरी साज सज्जा के साथ अपनी छाती पर टांक कर घूमते हैं। राशन कार्ड से लेकर वोटर आई कार्ड पर भी वही नाम होता है। लेकिन इस तरह के नाम अक्सर हमारी जुबान पर नहीं होते। और वे नाम जो यू हीं रख दिए जाते हैं। कभी दोस्तों के जरिए तो कभी अपनों के सहारे वे अक्सर चल जाते हैं। पिछले दिनों जब हम घर गए थे। तो एक नौजवान हमारे घर आया। नमस्कार हुई। मैंने बैठने को कहा। सयुंक्त परिवार हैं। तो पूछना पड़ता है। किसको बुलाना है। हमें बेघर हुए तो सालों हो गए। लिहाजा हमसे मिलने तो अब कोई भूला भटका ही आता है। उसने अपना परिचय दिया। लेकिन मुझे याद नहीं आया। उसने फिर बताया कि वह घसीटे लाल का नाती है। और मुझे सब कुछ याद आ गया। उसके दादा अब इस दुनिया में नहीं है। उनका नाम गोवर्धन प्रसाद श्रीवास्तव था। लेकिन वे शायद बचपन में चप्पल घसीट कर चलते थे। सो वे घसीटे हो गए। और वह नाम पिछले करीब 90 सालों से चला आ रहा है। मैंने सुना है। कि उन्होंने अपने घर की नेम प्लेट पर भी ब्रैकिट में लिखवाया था। घसीटे लाल। लोग पता भी बताते है। कि घसीटे के घर के सामने।
हमारे साथ एक महेंद्र जी पढ़ते थे। बातों बातों में उनका नाम पोपट लाल रखा गया। बात में हालत यह हुई कि अगर वो क्लास में न दिखे। तो हमारे टीचर्स भी पूछ लेते थे। और पोपट नहीं आया। वे इस बात को लेकर पिछले 30 सालों से मुझ से नाराज हैं। वे अब हमसे बात नहीं करते। लेकिन सागर में उन्हें आज भी अगर कोई पोपट भाई नमस्कार कह दे। तो वे उससे कुछ नहीं कहते। मुझे जरूर गाली बकते हैं। लेकिन मैं पिछले तीस सालों से उन्हें महेंद्र जी कहता हूं। लेकिन वे मुझे गाली ही बकते है। ये अलग बात है कि लोग उन्हें महेंद्र कम और पोपट के नाम से ज्यादा पहचानतें हैं। क्या आप भी ऐसे कुछ लोगों को जानते हैं। जिनके नाम इस तरह से बिगाड़ कर रखे गए हों। और उनकी एक कहानी भी हो। अगर हो तो हमें जरूर बताइएगा।

Monday, June 14, 2010

क्या हमारी शादियां मीटर होती है। दौलत और शोहरत की।

मैंने शादी का वह कार्ड कई बार देखा। देखने लायक था भी। बहुत सुंदर और बहुत मंहगा। फिर मैंने उसे रद्दी वाली टोकरी में रख दिया। लेकिन उसे टोकरी में से फिर निकाला।उसे मैं शायद अपनी अलमारी में रखना चाहता था। लेकिन पत्नी के डर कर मैं उसे नहीं रख पाया। वह शायद चिल्लाएगी। कि पहले से ही घर में तुम रद्दी का इतना सामान संभाल कर रखे हो। कहीं अखबारों की कटिंग। तो कहीं सर्वे की रिपोर्टस। कई चिट्ठियां जो तुम्हें आई। और कई चिट्ठियां ऐसी जो तुमने लिखी लेकिन डाली आज तक नहीं। कुछ सम्मान में मिले कागज। और भी कुछ इसी तरह की बेतुकी चीजों से तुम घर अपना भरे हों। जबकि पांडे भाभी का घर देखो। कितना साफ और कितना व्यवस्थित। अब शादी के कार्ड रखना मत शुरू कर देना। इन तमाम बातों को सोचकर वापस उसे टोकरी के हवाले ही कर दिया।
प्रफुल्ल जब अपनी बहिन का कार्ड देने आया था। तो मैं ही घर पर था। और कभी कभार की तरह मैंने ही दरवाजा खोला। कार्ड देखा तो सुंदरता की तारीफ कर दी। वह अंदर आया। और उसने पूरे आधें घंटे में बताया कि कार्ड किस तरह से उसने पसंद किया। नौ दिनों तक वह दिल्ली के अलग अलग बाजारों में घूमता रहा। 78 कार्ड के सेंपिल घर लाया। फिर घर में पंचायत हुई। और यह कार्ड पसंद किया गया। फिर भैया मैटर लिखने के लिए हमारे जीजाजी आए थे। झांसी से। उसने गर्व से बताया। वे गर्ल्स स्कूल में प्रिंसिपल हैं। और हिंदी के लेखक भी। उनकी कई किताबें छप कर आई हैं। उन्होंने दो दिन में कार्ड लिखा। भैया वैसे सभी लोग पूछ रहे हैं। कितने का छपा है। अब क्या बताएं। मेहनत का तो कोई मोल है नहीं। लेकिन अगर आप रुपए की बात करें। तो एक कार्ड 22 रुपए 50 पैसा का पड़ा है। उसे और अच्छा लगे सो हमने कार्ड देख कर और तारीफ करनी चाही। और स्वाभाविक रुप से पूछ बैठा कि शादी किस तारीख की है। मैंने कार्ड कई बार पलटा। लेकिन उसमें तारीख थी ही नहीं। शायद जीजाजी झांसी वाले। झांसा खा गए। और तारीख लिखना ही भूल गए थे।
वह चला गया और मैं कुछ देर तक कार्ड के बारे में सोचता रहा। कि अगर समाज बुरा न मानें तो मेरा दोस्त शायद यह विशेष नोट भी लिख देता। कि कार्ड 22 रुपए 50 पैसे का है। इसे झांसी वाले जीजाजी ने लिखा है। क्या हमारी शादियां हमारी दौलत और शोहरत की मीटर बन गई है। क्या शादियां दिखावे का एक जरियां हैं। जहां हम अपना कौशल। अपनी ताकत समाज के सामने पेश करते हैं। शादी का कार्ड एक सूचना है या फिर हमारे बैंक खाते का स्टेटमेंट। जो भी हो। लेकिन वह कार्ड शादी की तारीख की सूचना देने से तो चूक गया। लेकिन अपनी दौलत बखूबी बता गया। अपनी शादी की बात कुछ और थी। उसे निपटाना था। सो इसी तरह कार्ड भी था। सिर्फ छप गया। और लोगों तक सूचना पहुंच गई। आपकी शादी का कार्ड कितने में छपा था। और किसने लिखा था। हमें बताइएगा जरूर।

Sunday, June 13, 2010

रुमाल न मां ने बचपन में कमीज में टांका। न जवानी में पत्नी ने दिया।

महानगर की ये फैशन है। संडे है तो खाना बाहर खाना है। साथ में पत्नी को फिल्म भी दिखाना है। न फिल्म का अच्छा होना जरूरी है। और न खाने का स्वादिष्ट होना। यह सिर्फ छुट्टी की एक परंपरा है। जो आपकों हर संडे निभानी है। यह आपको बताना जरूरी है। कि आप अपनी फैमली के लिए भी समय देते है। क्वालिटी टाईम परिवार के साथ गुजारते हैं। क्वालिटी टाइम मुझे समझ में आज तक नहीं आया। इसका मतबल क्या होता है। क्यों कि परिवार के साथ गुजारा गया हर टाइम मुझे क्वालिटी टाइम ही लगता है। जैसे दादी को बोर होना। मूड नहीं होना समझ में नहीं आता। वे कहतीं हैं ऐसा कभी नहीं हुआ कि खाना बनाने के लिए हमारा मूड न हो।या फिर घर के कामों से हम बोर हो जाएं। ऐसा कभी भी हमारे साथ पिछले साठ सालों में नहीं हुआ। सो अपन भी संडे को पत्नी को लेकर खाना खाने बाहर गए। साथ में एक दोस्त भी थे। उन्हें भी संडे मनाना था। खाना खाकर उठे। तो मुझे हाथ साफ करने थे। लेकिन मेरे पास रुमाल नहीं था। ये बात सामान्य सी थी। जो मेंरे साथ पिछेल 30 सालों से घटित होने वाली घटना है। लेकिन दोस्त की बीबी को यह बात अजीब सी लगी कि मैं रुमाल लेकर नहीं चलता।
मुझे बचपन में अपनी क्लास याद है। हमारे साथी अपनी कमीज पर रुमाल टकवा कर आते थे।उनकी पढ़ी लिखी मम्मी सेफ्टी पिन से शर्ट पर उनका रुमाल लगा देती थी। और वे दिन भर अपना हाथ अपनी कमीज से ही साफ करते थे। या फिर पेंट से। लेकिन उस रुमाल को कभी मैंने इस्तेमाल होते या फिर गंदा होते नहीं देखा। फिर क्या वह सिर्फ फैशन थी। या उन मम्मी का अपना कॉम्पलैक्स दिखाने का एक तरीका था। हमें तैयार करती थी दादी। लेकिन उन्होंने हमें कभी भी इस तरह का रुमाल कमीज पर टांक कर नहीं दिया। रुमाल को लेकर अपनी कुछ किस्मत ही खराब रहीं। स्कूल के जमाने से ही प्रेम करना अपन ने शुरू कर दिया था। लेकिन आजतक किसी भी प्रेमिका ने अपना नाम लिखकर मुझे रुमाल नहीं दिया। हांलाकि हमारे साथी प्रेमी अक्सर बिना किसी वजह के रुमाल निकालते और खोलते रहते थे। जिस पर पान के पत्ते की तरह दिल बना रहता था। उसे भेदता तीर। और प्रेमिका के नाम का पहला अक्षर। और हम लोग समझ जाते थे। इसी हफ्ते इकरार हुआ है। क्योंकि अक्सर रुमाल पर नाम पहला उपहार होता है। जैसे प्रेमिकाएं टिफिन में सबसे पहले हलुआ बनाकर लाती है। शादी हुई तो पत्नी भी वैसी नहीं मिली। रुमाल वाली। जो रुमाल में परफ्यूम डालकर हर सुबह दफ्तर जाते वक्त दे। शायद वह फिल्में भी कम देखती हैं। और टीवी सीरियल भी लिहाजा इन कामों में पीछे ही हैं।
रुमाल के भी कई इस्तेमाल होते हैं। हाथ साफ करना तो एक है ही। कई लोग तो दिल्ली में गाड़ी चलाने से पहले पूरे तैयार होते है। रुमाल निकालकर अपना सिऱ ढक लेते हैं। रुमाल बड़ा हो तो सब्जी भी लोग ले आते है। मुझे एक बात और समझ में नहीं आई। महिलाओं को रुमाल की ज्यादा जरूरत होती है। लेकिन लेडीज रुमाल छोटे क्यों होते हैं। उपहार में देने के लिए भी एक आसान चीज तो है हीं। और मुझे अपने दोस्त की पत्नी को देखकर लगा कि सभ्य दिखने के लिए भी रुमाल का जेब में होना जरूरी है। आप इस्तेमाल करे या न करें। वो अलग बात है। क्या आप भी रुमाल रखते है। या मेरी तरह शहर के तौर तरीकों से अभी भी अनजान है। मुझे बताइएगा जरूर।

Saturday, June 12, 2010

हमनें कफन भी लिया है। तो जिंदगी देकर

खबर कुछ अटपटी थी। जल्दी लिखकर भी देनी थी। प्राइम टाइम में जानी थी। उसे जल्दी जल्दी टाईप कर रहा था। फिर भी script में जो संगीत बनता है। वह लय नहीं थी। सो मैं कुछ देर के लिए रुक ही गया। मैंने देखा मेरे एक साथी रजनीगंधा चोरी से खा रहे हैं। साथ में तुलसी मिलाकर। आज कल यह चलन में हैं। रजनीगंधा पान मसाला। और उसमें तुलसी जर्दा मिलाकर। मुझे लगा मैं भी दो चार दाने खा ही लूं। शायद लिखने में और ज्यादा मजा आए। मैं अपना काम छोड़कर उनके पास गया। मैंने कहा दो चार दाने हमें भी दे दे यार। वे बहुत ही सीधे और सज्जन आदमी है। हम कई सालों से एक साथ काम कर रहे हैं। हम कई बार एक दूसरे के काम आए हैं। लिहाजा उनके जवाब का इंतजार किए बगैर ही। हमने हाथ फैला दिया। लेकिन वे बोले भैया माफ करना। मैं नशे का सामान किसी को नहीं देता। मुझे अजीब लगा। लेकिन मैंने पूछा क्यों। वे बोले सौ बार देगें। तो आप कुछ भी नहीं कहेंगे। लेकिन एक बार मना कर देगें। तो आप बुरा मान जाएगें। लिहाजा सौ बार का क्यों इंतजार करना। आप आज ही बुरा मान जाइए। मैं चुप रहा। अपनी स्टोरी लिखने लगा। उसे जल्दी से बनाकर दे भी दिया। फिर कुछ देर बाहर निकला। और दस पैकेट खरीद कर लाया। रजनीगंधा पान मसाला के। और साथ में दस पैकेट तुलसी जर्दी के भी। उसके लिए।उसे धन्यवाद दिया। और कहा कि तुमने बात तो लाखों की कहीं। लेकिन मैं फिलहाल इतना ही दे सकता हूं।
मदद हो या फिर उधारी। इसकी मानसिकता भी गजब की है। शायद फ्रायड भी इसे आसानी से नहीं समझ पाता। अगर उसने कोशिश की होती। तो भी नहीं जान पाता। मैंने कई लोगों को देखा है। कि वे कुछ भी नशा करते हैं। और दिन रात इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं। कि कहीं से मुफ्त में जुगाड़ हो जाए। मैंने कई दोस्तों से पूछा भी। उनका गजब का मनोविज्ञान है। वे कहते हैं। हम नशे में पैसे बर्बाद नहीं करते। तो हमनें पूछा कि फिर करते ही क्यों हो। मैंने देखा है एक शराब की पार्टी के लिए। लोग किस तरह जुगाड़ में रहते हैं। एक सिगरेट या फिर मुफ्त में एक कप चाय भी उनके लिए उपलब्धि होती है। मैंरे एक दोस्त है। उनका नाम ही हम लोग जुगाड़ चंद रखे हैं। वे जुगाड़ करने में माफिर है। और हर चीज की जुगाड़ करते हैं। कभी शराब की। तो कभी नॉन वेज की । तो कभी अंडा करी की। कभी मुफ्त पास की। साल के शुरूआत मे कैलेंडर या डायरी की। और वे अक्सर सफल भी हो जाते हैं।
हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में हर चीज की कीमत अदा करना क्यों नहीं चाहते। हम मुफ्त में चीजें क्यों चाहिए। हमें जुगाड़ क्यों करनी है। हमें इमानदार नेता चाहिए। लेकिन खुद राजनीति में आने से परहेज करते हैं। हमें कर्मठ और संवेदनशील सरकार चाहिए। लेकिन वोट डालने नहीं जाते। हमें सजग और बेहतर मीडिया चाहिए। लेकिन अखबार वो खरीदेंगे। जिसमें रद्दी ज्यादा हो या फिर लड़कियों की तस्वीरें ज्यादा हों। हमें सच चाहिए। लेकिन उसकी कीमत अदा नहीं करेंगे। हमें हर चीज जुगाड़ से चाहिए। कीमत पर नहीं। मुझे नदीम का एक शेर यादा आ गया। हो सकता हैं थोड़ा गलत भी हो। हमें मुफ्त में कुछ भी लेने की आदत नहीं हैं नदीम। हमने कफन भी लिया है तो जिदंगी देकर।

Thursday, June 10, 2010

वे फोन काटते नहीं। खीज में चिल्लाते भी नहीं। कहते हैं हमें अपनो का चेहरा याद आता है।

डॉ शिव चौधरी। आपने यह नाम मेरे ब्लाग में कई बार पढ़ा होगा। और आगे भी पढ़ते रहेंगे। मैं जिन लोगों से सबसे ज्यादा प्रभावित हूं। उनमें डॉ शिव चौधरी भी एक हैं। वे एम्स के उम्दा कार्डियक सर्जन है। और वह धमनी जो हमारा खून दिल से दिमाग में ले जाती है। वे उसके विशेषज्ञ है। यह उनका हुनर है कि अगर किसी के दिल से उसका खून दिमाग की तरफ न जाता हो तो वे उस धमनी को चुस्त दुरुस्त कर देते हैं। शायद उसे आयोटा कहते हैं। वे इस काम के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। और शायद यही एक वजह है कि उनके विचार भी दिल से ही दिमाग की तरफ जाते हैं। वे सोचने का काम भी दिल से ही करते है। वे व्यस्त इतने रहते हैं। कि अगर आप कुछ ज्यादा देर उनके पास बैठना चाहें तो आपको खुद ही अपराधबोध होने लगेगा। हम जिंदा है और साथ में नौकरी करते हैं। लेकिन वे शायद सर्जरी करते है। और साथ में जीवित भी है। यानि उनका अपने मरीजों के लिए हर मिनिट समर्पित रहता है। लेकिन मुझे हैरत हुई जब मैने देखा कि विभिन्न स्कीमों के लिए आया हर फोन वे लगभग पूरा सुन लेते है। न चिल्लाते हैं। न खीजते हैं। और हमारी तरह यह कहकर फोन काटतें भी नहीं कि मीटिंग में हूं। मुझे हैरत हुई। मैंने पूछ ही लिया। वे बोले परेशान में भी कई बार हो जाता हूं। लेकिन फोन कांटने से पहले मुझे अपनों के चेहरे याद आते हैं। न जानें कौन टार्गेंट लेकर फोन बजाता होगा। स्कीम समझाने की जुगत में होगा। हो सकता है कि कल हमारे परिवार को भी कोई बच्चा किसी स्कीम के लिए फोन करता घूमें।
हमारी रोज मर्रा की जिंदगी में हमें इतने फोन सुनने पड़ते हैं। कि फोन सुनने से एक अलग तरह की एलर्जी सी हो गई है। ऐसे समय में बिना काम का एक भी फोन सुनना हमारें धैर्य की परीक्षा होती है। और खासकर ऐसे फोन जो हमारी मजाक बनाते हों। जैसे सर क्या आप होंडा सिटी कार का ट्रायल लेना चाहेंगे। ऐसे समय में जब हम बड़ी मुश्किल से अपना दो पहिया वाहन चला पातें हों। जवाब दिया नहीं। वह फिर पूंछती हैं। सर अभी आपके पास कौन सी कार है। कहा कोई भी नहीं। तो कौन सी लेना चाहेंगे।क्या जबाव देता । और मैंने फोन काट दिया। कुछ देर बार फिर फोन आता है। सर हमनें सेविंग प्लान लांच किया। इतना अच्छा प्लान पहली बार आया है। आपकों 50 हजार रुपए साल देना होगा। मैंने कहा.. नहीं चाहिए। वह बोली सर जिंदगी का क्या भरोसा। ले लीजिए। मैं उसे कैसे समझाता कि दिल्ली की 14 साल की नौकरी में अपने पास 50 हजार रुपए जमा नहीं हो पाए। तो हर साल 50 हजार कैसे देंगे। मैंने फिर फोन काट दिया। मीटिंग में था। सही की। फिर फोन आया। फाइव स्टार होटल की सदस्यता के लिए। मैं खीज गया। मैंने कहा कि आप लोंगों को नंबर कौन देता है। आपको पता नहीं मैं जरूरी मीटिंग में हूं। और में दस मिनिट तक चिल्लाता ही रहा। बाद में पता चला कि उसने न जाने कब फोन काट दिया था।
यह गुस्सा मेरा उसके ऊपर था। या अपने आप के ऊपर। घर हर रोज 11 बजे के बाद पहुंचता हूं। संडे को आलस्य और थकान घऱ से निकलने नहीं देता। कभी कभार होटल से खाना मंगाता हूं। या फिर किसी सस्ते होटल में जाकर खाना खा लेता हूं। ऐसी हालत में कोई बार बार यह समझाएं की आप 9 हजार 900 रुपए में पंच तारा होटल की सदस्या ले लीजिए। इससे आपको कई फायदे होंगे। बात तो वह लड़की सही कह रही थी। लेकिन शायद आदमी गलत था। हमें अभी भी समझ में नहीं आया। मेरा यह गुस्सा उस लड़की पर था। या अपने आप पर । क्या आपके पास भी इस तरह के फोन आते हैं।तो आप क्या करते हैं। सुनते हैं। शिव भैया की तरह। या काट देते हैं। खीजकर मेरी तरह। बताइएगा जरूर।

Wednesday, June 9, 2010

वे मिलने पर नमस्कार नहीं करते। चुगली करते हैं। कई बार झूठी भी।

डॉ मनोज सिंह। हम प्रेम में उन्हें टाईगर सिंह कहते हैं। एम्स में शायद ही ऐसा कोई डाक्टर हो जो उन्हें न जानता हो। या फिर शायद ही ऐसा कोई हो जिसे उन्होंने गालियां न बकी हों। पूरी दिल्ली में वे ही शायद ऐसे हैं। जों हमें भी गालियां ही बकते हैं। और अगर वे गालियां न बकें। तो मानलो या तो वे परेशान है। या फिर किसी संकट में। वे कैंसर की स्लाइड और हाथ की लकीर एक ही आंख से देख लेते हैं। pathology पर बात हो या फिर गालिब पर वे एक ही तरह से करते हैं। उनके कमरे में चना...और कॉफी...चाय का सामान हर समय होता है। हर किसी के लिए। वे पत्रकारों में भी काफी लोकप्रिय हैं। हम लोग उनसे मिलने जाते रहते हैं। मैं पिछले दिनों उनके साथ आ रहा था। कि एक डाक्टर साबह मिले ।उन्होंने नमस्कार नहीं किया। सिर्फ बताया कि एक व्यक्ति उनकी किस तरह से बुराई कर रहा था। टाईगर सिंह हंस दिए और चल दिए। उन्होंने कहा कि यह डाक्टर कभी भी हाय हैलो नहीं करता। जब भी मिलेगा। चुगली ही करेगा। या फिर किसी की बुराई।
इस मानसिकता से पीड़ित हमने कई लोगों को देखा है। वे कभी भी किसी भी व्यक्ति की अच्छी बात नहीं कर सकते हैं। हर व्यक्ति में बुराई निकाल ही लेगें। और चुगली करना शायद यह एक मानसिक बीमारी है। कुछ लोग इस दवा को रोज खाते हैं। दफ्तरों में यह बीमारी महामारी की तरह फैली हुई है। अपने अफसर के करीब जाने के लिए यह सबसे आसान और फुर्ती का तरीका है। अफसर को यह बात समझ में आजाती है। कि फलां व्यक्ति अगर उसके पास खबर ला रहा है। तो यह तय हो गया है कि चुगली करने वाला उसका खास आदमी है। लेकिन यह बात क्यों नहीं पूछी जाती है। कि जब मेरी बुराई हो रही थी। तो तुम चुप क्यों थे। तुमने इसका प्रतिकार वहीं क्यों नहीं किया। वे लोग जो हमारे शुभ चिंतक बनते हैं। और हमसे चुगंलियां करते हैं। उनसे यह बात जरूरी पूछी जानी चाहिए। हमारे बुंदेलखंड में कहते हैं। कि अगर वेवजह तुम्हें खांसी चलने लगे तो समझों कोई बीमारी आने वाली है। और कोई व्यक्ति अगर तुम्हारी अचानक खुशामद करने लगे। तो समझों तुम्हारे साथ कोई धोखा होने वाला है। क्या आप भी ऐसे लोगों को जानते हैं जिनका काम ही चुगली करना है। या फिर किसी न किसी की बुराई करना।

Tuesday, June 8, 2010

मैने कहा अंकल जी 40 नंबर कहां होगा। वे बोले अपने बाप से पूछो।

इलेक्ट्रानिक मीडिया की एक और विशेषता है। आप से फोन करके कभी भी कहा जा सकता है। यह एक नाम है। इनका घर का पता यह है। इनसे बाइट लानी है। आपको उनका घर पता करना है। उनसे बात करनी है। फिर कैमरे पर उनकी बाइट लेनी है। मैं अपनी खबर करने में जुटा था। कि अचानक दफ्तर से फोन आया। बाइट लेकर जल्दी आओ। मुझे नाम और पता लिखा दिया गया। मैंने पता देखा और चल दिया। लेकिन अजीब कालोनी थी। वहां 10 नंबर के बाद 11 नहीं आता था 15 नंबर और फिर सीधा 27 नंबर दिखा। घर का मकान नंबर किससे पूछे समझ में ही नहीं आ रहा था। दो तीन लोगों को ट्राई किया। बात बनी नहीं। पूरी कालोनी में घूम लिया। मकान मिला ही नहीं। फिर जब बाहर निकलने लगा था तो एक किराने की दूकान थी। जो कालोनी के शुरू होते ही थी। पहला मकान और उनकी पहली दुकान। मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया था। मैंने अंकल जी को नमस्कार किया। और पूछा। अंकल जी। 40 नंबर का मकान कहां पड़ेगा। वे गुस्से से आग बबूला हो गए। उन्होंने कहा अंधे हो क्या। मैने कहा नहीं। तो बाहर नहीं देखा क्या लिखा है। बाहर एक बोर्ड था। जिस पर लिखा था। इस दुकान पर पता पूछना सख्त मना है। मैने अंकल जी से माफी मांगी। फिर कहा कि अब पूछ ही लिया है। तो पता बता दीजिए। लेकिन वे फिर गुस्से में बोले जाओ। अपने बाप से पूछो। अंकल जी की यह स्टाइल देखकर मुझे मजा आ गया। और मैं कार से उतरकर उनके पास चला गया।
मैंने कहा कि अँकल जी आपके पास सबसे ठंडी कोल्ड ड्रिंक कौन सी है। उन्होंने बताया कि दो फ्रिज खराब है। सिर्फ एक ही चलता है। देखता हूं। फिर वे कोक निकालकर लाए। मैंने पूछा कि आप गिलास भी बेचते है। वे बोले हां। तुम्हे मतलब। मैंने कहा मुझे तीन खरीदने हैं। फुटकर तीन रुपए हैं। मैंने कहा हैं। उन्होंने तीन गिलास थमा दिए। मैंने कोक तीन ग्लास में डाला। एक मैं पीने लगा। एक हमारे साथी कैमरा मेन। और तीसरा मैंने कहा कि अंकल जी आप गुस्से में है। एक गिलास आप भी पी लीजिए। वे बोले मजाक करते हों। मैने माफी मांग कर कहा। मुझे अच्छा लगेगा। और गिलास रखकर मैं बाहर निकल आया। मैने एक घूंठ ही पिया था... कि कोरियर वाला आकर रुका। अंकल जी .....जोर से चिल्लाया। तिवारी की मकान कौन सा है। अंकल जी सारे ग्राहक छोड़कर उसे गरियाने लगे। वे अपनी गालियां पूरी नहीं कर पाए थे। कि एक पीजा वाला आ गया। बोला दादा जी हुनमान जी का मंदिर कहां है। दादी जी चुप रहे। तभी फिर एक और व्यक्ति आ गया। यहां पर कोई फोन की दुकान है। मैं पूरा मामला समझ गया। कि कालोनी की शुरूआत में अंकल जी की पहली दुकान है। हर भटके हुए आदमी को एक वे ही सहारा देते हैं। लिहाजा हर आदमी उनके पास रुकता है।
मैंने अंकल जी की परेशानी समझी। कुछ देर उनसे बतियाता रहा। उन्होंने अपने दुख दर्द सुनाए। किस तरह से वे किसी को गली दिखाने दुकान से बाहर निकले। और ग्राहक गल्ले में से पैसे ले गया। वे पता बताने में अक्सर अपना हिसाब भूल जाते हैं। 50 के नोट में 80 रुपए वापस कर देते हैं। बाद में बेटा बहू चिल्लाते हैं। मुझे अंकलजी की परेशानी सुनकर अपने एक पप्पू भैया याद आ गए। वे भी हमारे घर के पास किराने की दुकान चलाते हैं। उनका फोन आया कि भैया हम थाने में हैं। आ जाइए। मैं थाने पहुंचा तो पता चला कि वे दोपहरी में गर्मी से तंग आकर सोने गए थे। दुकान बंद करके। लेकिन ठीक दो बजे घंटी पर घंटी बज रही थी। वे बाहर निकले तो कोरियर वाला चिठ्ठी लेकर उनसे पता पूछने को खड़ा था। भैया ने उसे दो तीन चाटें मार दिए। और उसकी चिठ्ठियां फाड़ दी। सो पुलिस में शिकायत हो गई। हालांकि मैं भैया को थाने से छुटा लाया लेकिन मुझे इस परेशानी का पहली बार पता चला। पता बताने की। मैने दादाजी से फिर मांफी मांगी और कहा। आपने मुझसे कहा कि अपने बाप से पूछो। 40 नंबर का मकान कहां है। मैं आपकी जगह होता तो कहता अपने दादा से पूछो। 40 नंबर का मकान कहां है। गुस्से में दादा जी भूल गए थे। कि 40 नंबर का मकान उन्हीं का हैं। और मैं उन्हीं के बेटे से मिलने गया था। पता पूछने और बताने के आपके क्या अनुभव हैं। हमें बताइएगा जरूर।

Monday, June 7, 2010

घरों पर नाम थे। नामों के साथ ओहदे थे।

पिछले दिनों मुझे एक अफसर की बाइट लेनी थी। बाइट यानि प्रतिक्रिया। छुट्टी का दिन था। सो कुछ गुजारिश करके उनके घर ही चला गया। घर पहली बार गया था। सो पता खोजना पड़ा। इस चक्कर में कई घऱों के आगे लगी नेम प्लेट्स भी पढ़ता गया। मैंने इतनी मजेदार नेम प्लेट तो कभी पढ़ी ही नहीं थी। घर के दरवाजे एक दम पुते हुए थे। और साफ भी थे। काले दरवाजें पर सफेद रंग से लिखा था। राजेंद्र प्रसाद खरे। मोहल्ले के प्रतिष्ठित व्यक्ति। उसके नीचे लिखा था। रिटायर्ड सरकारी अफसर।
मुझे इस नेम प्लेट को देखकर कई यादें ताजा हो गई। मुझे याद है। सालों पहले मेरे मोहल्ले में एक सज्जन वकालत करते थे। उनके नाम के आगे लिखा। नाम था...........। वकालत की डिग्री। और फिर लिखा था। .....सिर्फ उलझे हुए मामलों के लिए ही मिले।........और वे अक्सर खाली बैठे रहते थे। हम लोगों को एक सुविधा थी। उनके पास एक दफ्तर था। बैठने को कुछ कुर्सियां। पंखा भी था। हमें और क्या चाहिए था। सो हम लोगों को जब भी फुर्सत मिलती थी। हम अपना डेरा जमा लेते थे। वकील साहब को फायदा था। जो चाय और पान हम लोग अपने लिए मंगाते। वे उसके हिस्सेदार होते थे।सो उनका भी काम चलता रहता था।और अपना भी। उन्हीं वकील साहब के एक बड़े भाई भी थे। वे अपनी नेम प्लेट पर पूरी डिग्रियां डिवीजन सहित लिखे थे। उनका नाम........ग्यारहवीं फर्स्ट क्लास.......बीए सेकेंड क्लास। एमए......सेकेंड क्लास....पीएचडी चल रही है।
हमारे घर के पास एक जैन परिवार रहता है। परिवार संयुक्त रहा होगा। अब अलग अलग मंजिल पर अलग परिवार रहते हैं। ग्राउंड फ्लोर पर सबके नेम प्लेट थे।और हर नेम प्लेट के आगे घंटी लगी थी। और लिखा था। घंटी ध्यान से बजाए। आप जिस परिवार से मिलने आए हैं। कृपया उसी परिवार की घंटी बजाए। उसी परिवार की एक नेम प्लेट के आगे लिखा था। हम लोग दोपहर में आराम करते हैं। कृपया घंटी न बजाए। दिल्ली में मेंरे एक दोस्त हैं। उनके घर के आगे अक्सर लिखा रहता है। कृपया दूध लेने के लिए घंटी का इस्तेमाल न करें। दूध फट गया है। कभी लिखा रहता है। दूध बिक चुका है। कालेज के दिनों में हम लोग अक्सर रात रात भर पढते थे। नींद आए तो घूमने निकल जाते थे। घूमते घूमते एक दिन एक घर पर नजर पड़ी तो लिखा था। कुत्तों से सावधान। मेरे एक मित्र कहीं से रंग उधार लाए। और नीचे लिखकर आए।क्या इस घर में सिर्फ पुरूष रहते हैं। बाद में वह सूचना हटा दी गई। और चावला जी ने अपने पिता का नाम लिखकर टांग दिया।
पर दिल्ली जैसे शहरों में जहां पर आदमी की पहचान ही नहीं है। उसे नेम प्लेट से कौन पहचानेगा। हम तो इस भीड़ में यू ही खोते जा रहे हैं। अपनी पहचान।अपना नाम। अपनी नेम प्लेट। क्या आपको याद है कोई मजेदार नेम प्लेट तो हमे लिखिएगा जरूर।

Sunday, June 6, 2010

अगले जन्म में सुबह भी जल्दी उठूंगा। लिस्ट में यह भी शामिल।

सुबह चार बजे उठना था। फिर खबर करने जाना था। मन में लगा। जिस रिपोर्टर को कहूंगा। वही नाराज होगा। मन में ही सही। लगा खुद ही चलते हैं। सो अपना नाम ही लिखवा दिया। बुरी आदतें आसानी से नहीं बदलती। मन ने कई बार सोचा। कि जल्दी सो जांए। लेकिन नींद भी अपनी बात कहां मानती है। सो सोया रात दो बजे ही। लगा जैसे आंख बंद ही हुई थी। कि अलार्म बज गया। चार इतनी जल्दी बज जाते हैं। पता ही नहीं था। उठा और छह बजे घर से निकला।
कितने दिनों बाद सुबह देखी। इतनी मासूम। इतनी निश्छल। किसी छोटे बच्चे की तरह। बिना किसी तनाव के। अपनी ही मस्ती में झूमती हुई। मेंरे घर के नीचे ही पार्क है। सो नीचे उतरते ही। पार्क में टहलने जाते और लौटते लोग मिले। सुबह का समाज ही अलग होता है। राम राम करते लोग। आपस मे रुककर बतियाते लोग। चेहरे पर तनाव नहीं। एक सतुष्टि दमकती है। वे लोग हर रोज सुबह सुबह दफ्तर को भागते हुए दिखते थे। जिनसे सालों का परिचय है। लेकिन फिर भी मुस्कराकर ही काम चलाते हैं। लेकिन आज दादा जी मिले। ...घर ...कामकाज.. पत्नी सबके हालचाल पूछते रहे। खूब मेहनत करो अपने शरीर का ध्यान रखो। कई बातें करके गए। सड़क पर निकला। तो सड़क भी एक दम शांत और अकेली। न पीछे से हार्न बजाते वाहन। न रेड लाईट पर ट्रैफ्रिक जाम। न हुर्र हुर्र करते बाइकर्स। न बीआरटी पर वाहनों की लंबी कतार। दम घोंटू धुंआ भी नहीं। और रास्ते में फोन भी नहीं बजा। कि बार बार रुककर फोन सुनों। अपन शादी के घोड़े की तरह चलते हैं। हर थोड़ी देर में फोन बजता है। सुनने रुकते हैं। फिर चलते है। इस तरह दफ्तर पहुंचते हैं। लेकिन सुबह जल्दी पहुंच गया।
दिन तो रोज की तरह ही निकला। लेकिन सुबह का मजा। दिन भर आता रहा। लगा फिर कुछ चूक गए हैं। अपन ने जिंदगी भर दादा को देखा है। सुबह चार बजते उठते। ...नहाते... ध्यान करते। गायत्री का जाप करते। और फिर घूमने जाते है। कई बार हमारे सोने का समय होता था। और उनके जगने का। लगता था। कि मजा रात को ढावे पर बैठकर गप्पे करने में हैं। वो मजा शायद दादा को नहीं पता। ये तो शाम को दस बजे ही सो जाते है। किस तरह की गप्पे। जहां मोहन राकेश से शुरू हुई। तो कालिदास तक गई। लता मंगेशकर से लेकर अमिताभ बच्चन तक। मोहल्ले के किस्सों से लेकर सचिन की बैटिंग तक। कितनी बातें। कितना रस। और फिर ढाबा पर मिलने वाली चाय।गिलास भर। साथ में कभी फ्राई चावल। या फिर खाने की दूसरी चीजें।
लेकिन आज सुबह देखकर लगा। कि इस सुबह का मजा शायद उन रातों से कहीं ज्यादा है। मजा अंदर का है। बाहर का नहीं। और सुबह अँदर ले जाती है। रात बाहर। सुबह उठकर तुम्हें अकेले भी मजा आता है। लेकिन रात का मजा खुद में नहीं होता। बाहर तलाशना पड़ता है। कभी दोस्तों में कभी गप्पों में। अपने पास एक लिस्ट है। जो काम इस जन्म में नहीं हो पाए। वे अगले जन्म में करने हैं। जैसे समय से पढ़ाई लिखाई करनी है। कालेज पूरी करते ही। सरकारी नौकरी करनी है। समय से शादी करनी है। उल्टी सीधी जिंदगी के फलसफों से दूर रहना है। और अब एक चीज और। अगले जन्म में सुबह सुबह जल्दी उठना है। क्या आपके पास कोई ऐसी लिस्ट है। जिसे अगले जन्म में पूरा करना हो। अगर हो तो हमें बताइएगा।

हर बार थका। हारा। और पीछे छूटता गया। लेकिन लगता है इस बार आप लोग मेंरे साथ है।

मैंने जिंदगी में कई बार कई कोशिशें की। लेकिन शायद अपनी किस्मत कुछ अलग है। या फिर फितरत कुछ और ही है। कई बार हारा। कई बार टूटा। और जिंदगी में बहुत कुछ छूटता गया। बहुत कुछ टूटता गया। जिंदगी की कई डोरे थामता गया। और आसमान की तरफ यह सोचकर तकता रहा कि इस डोर के सहारे ही कोई फरिस्ता जिंदगी में आएगा। लेकिन कोई आया नहीं। हर बार अपने हाथ से डोर ही छूटती गई। और टूटी हुई डोर समेटकर जिंदगी में आगे चलते गए। अब इस बार जब ब्लाग की डोर हाथ से छूटने लगी। तो मैंने कोई बहाना या सफाई नहीं सोची। सीधा कह दिया। भाई अपने बस का नहीं है। लेकिन आप लोगों की प्रतिक्रियाओं ने मुझे नया हौंसला दिया है। लगता है कि इस ब्लाग की डोर थामने में आप सब लोग मेरे साथ है। मैं फिर से कोशिश करता हूं। कि लिखता रहूं। आशीर्वाद देते रहिएगा।

Thursday, June 3, 2010

ब्लाग की डोऱ मुझे से छूट रही है।

मैंने पहले ही कहा था। कि कोई काम अपन लगातार कर ही नहीं पाते। अनुशासन की कमी है। और मेहनत की भी। लेकिन ब्लाग अभी तक लिख रहा हूं। लेकिन समय की कमी। थकान। देर से घर आना। समय के प्रबंधन की कमी। मुझे हर रोज लगता है कि कि ब्लाग की डोर अपन से छूट रही है। समय से रोज लिखना अब बंद हो रहा है। कई बार सिर्फ औपचारिकता करके खत्म कर देता हूं। फिर भी शायद आपका प्यार है कि अब तक तो लिख रहा हूं। आप लोग ही कुछ सलाह दीजिए ।कैसे समय का प्रबंधन करते हैं। आप लोग। क्यों हर बार मैं ही पीछे छूट जाता हूं। समय अपनी रफ्तार से हर बार आगे निकल जाता है।

Wednesday, June 2, 2010

आज उलझा हूं। वक्त को सुलझाने में।

सालों पहले सुना था। अब कुछ याद है। कुछ भूल गया हूं। लिहाजा गलत लिखने के लिए मांफी पहले ही मांग रहा हूं। कल मिला वक्त तो जुल्फ तेरी सुलझा दूंगा। आज उलझा हूं। जरा वक्त को सुलझाने में। मैं थोड़ा सा वक्त सुलझा लूं। फिर अच्छे से आप लोगों के साथ आउंगा।

Tuesday, June 1, 2010

मैंने बहुत कुछ खोया गुस्सा होकर। क्या आपको भी जल्दी गुस्सा आता है।

जिंदगी में स्वभाव की क्या भूमिका होती है। कहना साफ साफ मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि स्वभाव की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका है। शायद इसीलिए जिंदगी में हम अदने आदमी बन कर रह गए। हमारा स्वभाव दुनियादारी के हिसाब से ठीक नहीं है। अपनी जिंदगी में गुस्से की वजह से हमनें बहुत कुछ खोया। जल्दी प्रतिक्रिया जता देना हमेशा ही नुक्सान दायक होता है। सही और वाजिब प्रतिक्रिया के लिए भी वक्त होता है। ये तमाम बातें हम जानते है। यह भी जानते हैं कि गुस्से में आदमी के पास विवेक नहीं होता। फिर भी इस पर कैसे काबू पाया जाए। समझ नहीं आता।
क्या आपको भी जल्दी गुस्सा आता है। क्या आपने भी जिंदगी में इस आदत की वजह से बहुत कुछ खोया है। इस पर कैसे काबू पाया जाए। हमें जरूर बताइए।