Tuesday, May 7, 2013

दिल्ली में लोग देखने नहीं आते। सिर्फ संदेश भेजते हैं।

अपनी सात पुस्तों में किसी ने धंधा नहीं किया। लिहाजा अपन धंधेबाजी नही जानते। न जिंदगी में न संबंधों में। यह बात कहना शुरूआत में इसलिए जरूरी था। कि आपको मेरा ब्लाग कहीं घाटे में बर्बाद हुए किसी व्यापारी की दखद घटना जैसा न लगे। धंधेबाज मानसिकता होती है। कर्म नहीं। लिहाजा आपको लग सकता था कि कई बार लोग भले नौकरियां करते है। या फिर समाज सेवा। लेकिन उनकी मानसिकता हमेशा मुनाफा वसूली की होती है। यानि अगर हम यह सोचकर परमात्मा का ध्यान भी करते है कि इश्वर हमें कभी न कभी फायदा देगा। तो वह संत नहीं कारोबारी ही है. यही बात घूम फिर कर संबंधों पर भी आती है। हमें अक्सर लगता है कि हमारे समाज में जितने ज्यादा संबंध होगें। हम उतने मजबूत और सुरक्षित होगें। लेकिन संबंध मजबूत या कमजोर नहीं होते। वे आपके कद पर निर्भर होते हैं। आपकी मजबूती संबंधों को ताकत देती है।
जब दिल्ली की एक बेहद चलने वाली सडक पर अपन जमीन पर गिरे थे। तो सामने अंधेरा सा छा गया था। चार पहिया वाहनों में कुछ जल्दी में जाने वाले लोग दिखे थे। जो हमसे खफा थे। शायद में फुर्ती से नहीं उठकर उनका समय जाया कर रहा था। कुछ समय बाद जब एक पुलिस वाले ने सहारा देकर उठाया जब कहीं उनके माथे की सिलवट ठीक हई और हार्न बजाते हुए मेरे बाजू से ट्रेफ्रिक स्मूथ हो गया।
एक्सीडेंट के समय अपने पर्स में कुछ सौ रूपए और जेब में एक मोबाइल था। जिसमें कुछ दोस्तों के और कुछ खबर देने वाले लोगों के नंबर थे। पहला फोन कौशल को किया। दूसरा दफ्तर में और फिर अस्पताल पहुंच कर कुछ दोस्तों को। और फिर जब मामला तय हो गया कि बिना ऑपरेशन के काम नहीं बनेगा तो घर फोन किया। उस समय घबराहट में कुछ याद नहीं रहा। लेकिन अब कुछ मजेदार बातें याद आ रही है। मैं अस्पताल के रास्ते में था तभी एक खास दोस्त का संदेश आया। आलोक जल्दी स्वस्थ हो। फिर जल्दी ठीक होने के तीन चार संदेश आ गए। मैंने सोचा था कि शायद मेरे दोस्त अस्पताल पहुंचेगें। मुझे देखने। मेरी मदद के लिए। मेरा होसला बढ़ाएगें। मुझ से पैसे की जुगाड़ का पूछेगें। अकेले हो तो अस्पताल में कौन तुम्हारे साथ रुकेगा। खाना घऱ से लाए। या अस्पताल में मिलेगा। चिंता मत करना। हम लोग हैं ना। ऐसी बात करेंगे। लेकिन यह दिल्ली हैं। ऐसा कहां होता। कुछ अपने थे। वे आ गए। उन्होंने वही किया जो सोचा था। बाकियों के संदेश आए। जो अभी तक आ रहे हैं।
दिल्ली में पहली बार अपन इस तरह के हादसे के शिकार हुए। लिहाजा महानगर की इस अदा से भी वाकिफ हुए। अपनी कस्बाई मानसिकता कुछ और समझदार हुई। सागर जैसे शहरों  में अपने न जाने कितने दोस्तों को रोजगार मिल जाता। अस्पताल आना। वहां रुकना। खाना लाना। और गप्पे ठोकना। लेकिन किसी से शिकायत नहीं है। देर रात घर लौटने वालों के पास और अगले दिन सुबह फिर काम पर जाने वालो के लिए आसान नहीं होता है कि किसी को देखने जाना। हां संडे और शनिवार तो पहले ही तय होता है। अचानक कोई रोड हादसे में हड्डी तोड़ ले तो इनकी कहां गलती। कुछ दुखी बैठा था कि जिंदगी के इस विषय में भी अपन फैल हुए। अभी अभी सागर से तीन दोस्तों का फोन आया कि वो लोग एक्सीडेंट की खबर सुनकर दिल्ली आ गए हैं। घर का पता पूछ रहे हैं। चलो जिंदा रहने के लिए इतना काफी है।

Monday, May 6, 2013

आपकी दुआ चाहिए। बच तो गया। पर हड्डियां टूट गई।

कौशल मेरा एक्सीडेंट हो गया। लगता है मेरे पैर की हड्डियां टूट गई। मुझे डर लग रहा है। समझ में नहीं आ रहा क्या करूं। बहुत दर्द हो रहा है। कौशल यानि डॉ कौशलकांत मिश्रा। वे पहले एम्स में थे। और छात्र आंदोलन के समय से उनसे अपनी दोस्ती हुई। अब तो वे किसी भाई से कम नहीं है।। इन दिनों दिल्ली के नामी डाक्टर है। हड्डी के। बहुत सधी हुई आवाज सामने से आई। तुम अस्पताल पहुंचों। मैं आ रहा हूं। घबराना बंद करो। और किसी को बताने की जरूरत नहीं है। ठीक है। अच्छा एक बात और बताओ कि क्या हड्डियां तुम्हें द्खि रही है। क्या खून ज्यादा बह रहा है। मैंने कहा नहीं। यानि यह बात शायद तय हो गई कि अपनी हड्डिया शरीर में हैं। और फिर अस्पताल चला गया। मुझे अभी सिर्फ इतना ही याद है। एक्सीडेंट कैसे हुआ। किस तरह हुआ। किसकी गलती थी। मुझे कुछ याद नहीं।
अस्पताल पहुंचे। एक्सरे हुआ। पता चला कि एक पैर की दो हड्डियां टूट गई है। एक हड्डी एक जगह से। दूसरी दो जगह से। कौशल ने आकर कहा ऑपरेशन करना होगा। अब बाबू कुछ दिन तक बिना सहारे के नहीं चल पाओगे। अपनी घबराहट और बड़ गई। भागदौ़ड़ की आदत है। अब कैसे काम चलेगा। फिर ऑपरेशन हुआ। अब घर आगए हैं। कल फिर पट्टी होगी। इसके बाद आगे का इलाज तय होगा। फिलहाल दर्द के साथ साथ घबराहट हो रही है। कि इतना समय कैसे कटेगा। बिना घूमे फिरे। अपने हर काम के लिए किसी अपने को आवाज देनी पड़ेगी। ये मुसीबत कैसी खत्म होगी।
आज १४ साल पुरानी एक बात याद आई। उन दिनों अपन जनसत्ता में थे। अपना दफ्तर आईटीओ पर था। नई नई मोटर साइकिल खऱीदी थी। नया नया प्रेम भी था। सो नई मोटर साईकिल पर प्रेमिका को बैठा कर घूमने के मजा ही कुछ और था।अपन मोटर साइकिल तो खरीद लाए थे। लेकिन हैलमेट नहीं खरीदा था। सो आईटीओ के पास ही एक छोटा सा चक्कर लगाने निकल पड़े। और कुछ दूर आगे ही पुलिस वाले ने रोक लिया। इंडियन एक्सप्रेस की भपकी दी। कहा इंडियन एक्सप्रेस में रिपोर्टर है। वह चुप रहा। लेकिन अपने सिपाही से बोला कि साले का एक्सीडेंट हो जाएगा तो कहेगा यमराज से कि इंडियन एक्सप्रेस से हैं। अपन वापस गए। उन दिनों सौ रूपए का चालान होता था। उससे मांफी मांगी। सौ रूपए दिए। और गाड़ी खड़ी दी। ऑटो से जाकर हैलमेट खरीद कर लाए। और फिर गाड़ी चलाई। आज जब अपन मोटरसाईकिल चलाना छोड़ रहे है तो वो ट्रैफ्रिक  पुलिस वाला याद आ रहा है। यह बात बुरा समय नहीं जानता कि अपन अब सहारा समय में विशेष संवाददाता है। न प्रकृति इस बात से डरती है कि पत्रकार से पंगा मत लो। फिलहाल तो अपन ठीक है। लेकिन दुआ करिए कि जल्दी ठीक हो जाउँ। मुझे भांगते फिरने की आदत है।एक जगह अच्छा नहीं लगेगा। ।

Wednesday, May 1, 2013

मन के हारे- हार है। मन के जीते -जीत।

लोग बताते हैं। तिब्बत में ल्हासा युनिवर्सिटी में छात्रों को कुछ अलग तरह की शिक्षा दी जाती थी। उसमें  विद्यार्थियों को एक विशेष प्रकार का योग भी सिखाया जाता था। इस योग का ल्हासा यूनिवर्सिटी में नियमित प्रयोग चलता था। और इस विशेष प्रकार के योग प्रशिक्षण में छात्रों का पास होना जरूरी था। वह था हीट-योग। इस अजीब तरह के योग में शरीर में मन के जरिए गर्मी पैदा की जाने की प्रक्रिया सिखाई जाती थी। इसके चलते कड़ाके की ठंड में जब बाहर बर्फ पड़ रही हों। ऐसे में भी वे अपने मन के जरिए शरीर में इतनी गर्मी पैदा कर लेते थे कि शरीर से पसीना चूने लगे। बात यहां तक नहीं हैं। परीक्षा के दौरान इन छात्रों को ठंडी रात में किसी नदी के किनारे बिना वस्त्रों के खड़ा कर दिया जाता था। और पास में पेंट कमीज और उनका कोट गीला करके रख दिया जाता था। जो छात्र जितने ज्यादा कपड़े अपने शरीर की गर्मी से सुखा लेता था उसे उतने ज्यादा नंबर मिल जाते थे। सुना है कि कई बार कई नास्तिक किस्म के डाक्टरों ने कई प्रयोग किए इन छात्रों के साथ। लेकिन उनका विज्ञान हर बार हार गया।  वे भी इस बात को विवश हुए मानने के लिए कि मन अगर ठान ले तो ठंड में पसीना चू संकता है।
एक घटना और है। महाभारत में अर्जुन कहता है माधव मेरा शरीर इतना कमजोर हो रहा है कि मुझे खड़े होने में भी परेशानी हो रही हैं यहां तक कि गांडीव भी मेरे हाथ से गिर रहा है। इतना बलशाली अर्जुन खड़ा भी नहीं रह पा रहा है। वजह साफ है कि उसका मन दुविधा में है। उसका पूरा मसल्स पावर छू हो जाता है। क्योंकि ताकत संकल्प से आती है। और मन की दुविधा संकल्प को खत्म करती है। सो बलशाली अर्जुन भी इस तरह से निर्बल होकर रथ के पीछे जाकर बैठ जाता है। मैं पूरे यकीन से जानता हूं कि ये दोनों घटनाएँ आपको पहले से ही पता होगीं। और इससे भी ज्यादा घटनाएँ इस तरह की आप जानते हैं. फिर भी इन्हें लिखने का मन हुआ। शायद मैं इन्हें अलग तरह से देख रहा था।
रोज मर्री की जिंदगी में हम ऐसा अक्सर सोचते हैं कि हमारा शरीर साथ नहीं दे रहा। लेकिन वास्तव में शरीर की जगह हमारा मन साथ नहीं होता। और मन के साथ न होने की वजह है हमारे द्वंद्व। हमारी दुविधा। हमारी बैचेनी। हमारी खंड खंड हुई मन की स्थिति। संघर्ष करने से पहले ही हमारा मन सिर्फ हालात देखकर हार जाता है। मैने सुना है कि जब व्यक्ति अंधेरे में होता है  तो डरने की बजाय जोर जोर से सीटियां बजाने लगता है। और कायर आदमी अक्सर लड़ाई में जोर जोर से चिल्लाता है। डरपोक व्यक्ति अपनी बहादुरी की झूठी कहानियां अक्सर बनाकर सुनाता है। आप सभी समझ गए होंगे कि अपन डिप्रेशन में हैं। और इससे बाहर निकलने के लिए इस तरह की किस्से कहानियों का सहारा ले रहे है। लेकिन यह सच है। मैं इसे अनुभव करता हूं। कि हार या जीत पहले मन में ही पैदा होती है। बाद में वह जमीन पर उतरती है। चलो जीत का प्रयोग करके देखते हैं.। आप लोग हमारे साथ है न।