Friday, December 3, 2010

अपने आप में ही कितने मस्त हो गए हैं हम।

अपने घर के नजदीक तक मेट्रो आ गई है। सो जब कभी पीठ में दर्द होता है। या फिर थकान होती है। तो मेट्रो एक सहारा होती है। और मोटरसाइकिल इतनी दूर चलाने से बच जाते है। सुबह सुबह जल्दी जाना था। इंडिया गेट पर विकलांगता दिवस कवर करने की जिम्मेदारी अपन को दी गई थी। सो मेट्रो के जरिए जल्दी पहुंच जाएगे। ऐसा सोचा, और मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में अगर सीट मिल जाए। तो आपको भी लगेगा कि पब्लिक ट्रांस्पोर्ट कितना सस्ता और आसान है। सीट हमें ही नहीं सभी को मिल रही थी। अपनी बाजू वाली सीट पर आकर एक चमकीला, समझदार और आधुनिक किस्म का युवक बैठ गया। उसने मेरी तरफ हेय भरी नजरों से देखा और फोन निकालकर उसमें कुछ तार लगा दिए। तार कान में चले गए। और जो भी अंदर बज रहा हो। वह झूमने लगा। अगला स्टेशन हौज खास है। दरवाजें दाई तरफ खुलेगें। कृपया सावधानी से उतरें। अपने लिए यही सूचना मनोरंजन का साधन थी। सो अपन ऐसी सूचनाएं सुनने लगे।
मेरे बाजू में बैठे उस युवक के करीब एक बुजुर्ग बैठे थे। वे सूचनाएं सुनने की बजाए। उससे बार बार कुछ न कुछ पूछते रहते। वह बेचारा गुस्से में पूरे तार निकालता। उनकी बात सुनता और फिर ना कहकर आंखें बंद कर लेता। और अपने तार कान में वापस रख लेता। मुझे कुछ देर बाद समझ में आया। वे बुजुर्ग उससे स्टेशन पूछ रहे थे। और वह संगीत में मस्त था। मैं उन्हें बताने लगा। और जब आईएनए का स्टेशन आया तो मैं सहारा देकर उन्हें दरवाजे तक छोड़ आया। कुछ स्टेशन निकल जाने के बाद उसने अबकी बार मुझसे ही पूछा आईएनए स्टेशन। मैंने कहा कि वह तो तीन स्टेशन पहले ही निकल गया। उसने अंग्रेजी की एक गाली दी। मुझे समझ में नहीं आया। वो मेरे लिए थी। या अपने संगीत के लिए । या फिर उस मेट्रो स्टेशन के लिए जो चुपचाप आई और चली गई। इसे बताया भी नहीं।
बात सिर्फ यह नहीं है कि हम अपने में इतने मस्त हैं कि किसी दूसरे के लिए हमारे पास वक्त ही नहीं है। बात उस मस्ती की भी है। जो हमें अपने से ही दूर किए जा रही है। यह मस्ती है या नशा। या फिर सिर्फ दिखावा। कि हमें यही ना पता चले कि हमें जाना कहां है। हमारे लिए महत्वपूर्ण मंजिल है या रास्ते का मजां। जिंदगी भी तो हम इसी तरह जिए जा रहे है। हमें पता ही न चले अपने लक्ष्य का हम सिर्फ एक दिखावे में उलझते जाएं। हम बेहतर है। हम आधुनिक है। हम जिंदगी का सलीका जानते है। सिर्फ इतना ही समझाने के लिए हम अपना वक्त जाया कर रहे है। क्या हम इस तरह की आधुनिकता का दिखावा किए बगैर जी सकते है। मैं न संगीत का दुश्मन हूं। न उस यंत्र का जो हमें कान में संगीत सुनाता है। और हम झूमने लगते है। हम सिर्फ चिंता में है उस बात को लेकर कि हम संगीत के चक्कर में अपना स्टेशन ही भूल रहे है। आप क्या कहते हैं। मुझे लिखिएगा जरूर।