Sunday, May 15, 2016

तुम्हारे नाम पर किताब इश्यू थी। सो वापस नहीं की।

तुम तो इमानदारी का ढोल पीटते रहते हो। हर वक्त। फिर लाइब्रेरी की यह पुस्तक वापस क्यों नहीं की। और इसे सूटकेस में क्यों रखे हो। अलमारी में क्यों नहीं। इसे कभी पढ़ते तो हो नहीं। सिर्फ जिल्द बदलते रहते हो। इसे कपड़े में लपेट कर गीता की तरह क्यों रखे हो। पत्नी के एक सवाल में। हजार बातें छुपी थी। इमानदारी पर तंज था। तो कोई पुरानी चोरी पकड़ने का आत्मविश्वास। नई बात जानने की हुमक। और न जाने क्या क्या। मैंने कहा कि यह किताब किसी अपने के खाते से इश्यू थी। सो वापस नहीं की। खंडर महलों में भी कुछ पत्थर। कुछ टूटी दीवालों के हिस्से बचे रहते हैं। जिनसे खत्म हुई चीजें भी अपनी पहचान बताती रहती है। मरी हुए रिश्तें भी जिंदा बने रहते है।
जिंदगी में अपन ने दो ही काम समय से किए। कालेज टाइम से पहले जाना और रोज लाइब्रेरी जाना। हालांकि लाइब्रेरी के अंदर नहीं जाता था। अपनी कोर्स की किताब लाइब्रेरी के बाहर ही मिल जाती थी। उसी की आंखों में ढाई आखर पढ़ लिया करते थे। और पंडित हो गए। बीए में दो और एम ए में चार किताबें एक छात्र को मिलती थी। लेकिन अपने कार्ड पर हमेशा ही दोस्तों का कब्जा रहा। या फिर साहित्य की किताबें उन पर निकलती और जमा होती रही। अंग्रजी से एम ए कर रहा था।लेकिन हिंदी साहित्य की अच्छी किताबें हमेशा रजिस्टर में अपने नाम पर ही लिखी रहीं। और जब जरूरत पड़ी तो न कार्ड था और न समय। फिर किसी ने किताब खोजी और अपने कार्ड पर इश्यू कराकर दे दी। लेकिन वह किताब आज तक पढ़ी नहीं। सिर्फ उसकी पूजा करता रहता हूं। और जिल्द बदल देता हूं। कोई राजदार मिल गया तो कह दूगा कि इसे मेरे साथ जाना है। आखरी वक्त याद रखना.।

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