Thursday, June 30, 2011

स्कूल। नई किताबें। नई ड्रेस। दोस्त। नए टीचर। याद हैं।

मेघा का एक मैसेज आया है। मेघा यानि डॉ मेघा वाजपेयी। वे लुधियाना में टीचर है। मेघा हमारी बुआ की बेटी हैं। लेकिन हम दोनों कालेज एक साथ गए। लिहाजा दोस्त भी हैं। उसने लिखा है। इन्हीं दिनों को याद करिए। जब कुछ साल पहले कुछ नया सा होता था। स्कूल खुलते थे। नया बस्ता। नयी किताबें। उनके पन्नों से आती खुशबू। नए विषय। नए टीचर। नई क्लास। और नई जगह। पुराने दोस्तों से मिलना। बाहर बारिश। हर तरफ हरियाली। और मौसम के बारे में शब्दों में नहीं कहा जा सकता। आंखे बंद करिए। और उस समय को याद करिए।
मेघा का मैसेज पढ़ा। और मैंने सच को जीना चाहा। आंखे बंद कर ली। और स्कूल के दिन याद किए। बाप रे कितना उत्साह था। स्कूल के पहले दिन का। स्कूल खुलने के कई दिन पहले से ही। किताबें खरीदने की जिद करने लगता था। उन्हें खरीद कर। उन पर जिल्द दादा चड़ाते थे। उस पर नाम के लिए स्टीकर भी वे ही लगाते थे। और उन पर नाम भी वे ही लिखते। उनकी लिखाई। जैसे छपाई हो। और अपनी कॉपी किताब पर दादा की लिखाई वैसी ही लगती है। जैसे किसी भगवान ने ओम लिख दिया हो। किसी पुराण या वेद पर।
ड्रेस खरीदना। उसे सिलाना। नए जूते और मोजे।तो अलग ही मजा देते थे। मजा आता था। नया बैग और टिफिन खरीदने में। नई स्टाइल की पानी की बोतल हर साल खोजते थे। हां और पेंसिल बाक्स भी तो था। हम लोगों की स्कूल में चौथी तक पेंसिल से लिखना होता था। जब हम चौथी पास हुए। तो पेन की खूशी थी। यहां तक की हम 30 अप्रैल को रिजल्ट के साथ ही पेन खरीद लाए थे। और पूरी गर्मी की छुट्टियां। पेन जमा करते ही निकली। कभी बुआ कभी चाचा से। तो कभी हर घर आने वाले मेहमान से। यकीन मानिए। जुलाई में मेरे बस्तें में कई पेन थे। प्राईमरी से मिडिल स्कूल की बिल्डिंग में जाना भी एक नई मजेदार बात थी।
हमारी जिंदगी में क्लास बढ़ती गई। और हम बस्ते। किताबें। टीचर। दोस्त। बदलते और बढ़ाते गए। लेकिन कुछ हर साल छुटता भी गया। पहले दादा स्कूल छोड़ने जाते थे। फिर हम बस में जाने लगे। और देखते ही देखते मोटरसाईकिल की रेस लगाने लगे। वो शक्कर के साथ पराठे। दादी का टिफिन बदलता गया। हमें स्कूल के समोसे। और चाकलेट अच्ची लगने लगी। और फिर हमें कैंटीन का मसाला डोसा। और उत्पम अच्छा लगने लगा। पानी की बोतल हाथ से छूट गई और कोल्ड ड्रिंक साथी हो गई। दोस्तों से बात सिर्फ होमवर्क तक सीमित नहीं थी। अब जिंदगी पर भी बतियाने लगे।
आज की जिंदगी में भागते भागते जब कभी बैठ जाते हैं। थक कर। तो पुराने दिन याद आते हैं। और याद आती हैं वे बहुत सारी पुरानी बातें।जो वक्त के साथ साथ पीली होती जाती है। मेघा के मैसेज से लगा कि एक बार फिर अपनी पुरानी स्कूल जाकर देखूं। शायद कुछ चीजें पहले जैसी हीं होगी। लेकिन मैं उसका क्या करूंगा। जिसकी वजह से मुझे स्कूल अच्छा लगता था।

Wednesday, June 29, 2011

लगड़े कक्कू और 25 पैसे के सिक्के एक साथ गए।

आपको यह पूरी तरह फिल्मी लगेगा। मुझे भी लग रहा है। हो सकता है आपको लगे बनाया हुआ झूठ है। अच्छा ब्लाग लिखने के लिए। मुझे भी शंका हो रही है। लेकिन यकीन मानिए। मैं झूठ न लिखूंगा। न कहूंगा। क्योंकि ब्लाग मेरी रोजी रोटी नहीं है। मेरी ईबादत है। शब्दों की पूजा है। और हर रोज लिखूं। इसीलिए यह जरूरी भी नहीं है। क्योंकि ये दोंनों बातें जिस तरह एक साथ घटी यकीन ही नहीं होता। लगता है क्या ये मुमकिन है। या फिर एक युग का अंत इसी तरह होता है।
सागर से विनीत का फोन था। हालचाल पूछने के लिए। लंबी बात मौसम से लेकर। राजनीति तक। क्लास की लड़कियों से लेकर। टीचर्स तक। फिर उसने अचानक कहा। आलोक तुम्हें लगड़ा कक्कू याद है। आज वे चले गए। हम अपने दोस्त के पिता के लिए शमशान गए थे। वहां उनका परिवार भी था। आज सुबह वे चले गए। इच्छा तो हुई कह दे। कक्कू एक समोसा दे दो। लाल चटनी डालकर। शायद तुम होते तो इस तरह की नौटंकी कर ही देते। पत्रकार जो हो। तुम्हारा भरोसा नहीं। कहो तुम बाजार से कुछ समोसे लाकर उनके साथ विदा कर देते है। हम लोग यही बात कर रहे थे। अगर आलोक सागर में होता तो कुछ नौटंकी आज शमशान में जरूर होती। अच्छा हुआ। तुम नहीं थे।
हमें याद है। जब हम सागर में सैंट जौसेफ कान्वेंट में पढ़ते थे। उस समय लगड़े कक्कू समोसा बैचते थे। चार आने का समोसा। उनके पास प्लास्टिक की एक डलिया थी। समोसे उसी में रहते थे। साथ में प्लास्टिक की बोतल। उसमें होती थी लाल चटनी। कक्कू की डलिया में से हम बड़ा समोसा खोजते। और उसी को कई बार पूरा तो कई बार आधा आधा बांट कर खाते थे। हां समोसे के बीच में वे ही एक खाई बना देते थे। और उसमें लाल चटनी भी भर देते थे। पानी पीने का मत मांगना। साफ साफ कह देते थे। और साथ में लिए है वो। कक्कू कहते थे वो किसी इमरजेंसी के लिए है। यानि किसी को मिर्च लग जाए।या फिर खांसी आ जाए। तो बच्चा क्या करेगा। तुम लोगों को नहीं देगें। कई बार हम दो दोस्त मिलकर दस दस पैसे चंदा कर लेते। और फिर कक्कू को धर्म संकट में डालते। लेकिन वे बात समझ जाते। दोनों दोस्त चंदा करके आए है। और 25 पैसे का समोसा 20 पैसे में ही दे देते। और हां ज्यादतर वे आखरी समोसे के पैसे नहीं लेते थे। वो किस्मत थी।
आज दफ्तर से फोन आया कि 25 पैसे का सिक्का का अब कल से बंद हो जाएगा। सो स्टोरी करना है। मैं स्टोरी को प्लान कर ही रहा था तभी सागर बात हुई। और मैं अचानक सन्न रह गया। हमारी जिंदगी से 25 पैसे का सिक्का जाना और लगड़े कक्कू का मरना एक साथ हुआ। लगा जैसे एक युग का अंत हो गया। अब न हमारी जिंदगी मे 25 पैसे का सिक्का है।और न 25 पैसे में समोसा देने वाले लगड़े कक्कू। मेरे दोस्त यकीनन मजाक बनाते। लेकिन में अगर सागर में होता तो उनके पैर छूने के साथ साथ एक 25 पैसे का सिक्का जरूर विदा कर देता। हर चीज से हम कुछ न कुछ खोते है। आपने भी कुछ न कुछ 25 पैसे के सिक्के के साथ खोया होगा। कंजूसी मत करिएगा। हमें भी बताइए।

Tuesday, June 28, 2011

मंजिल नहीं है। पैसा और यश। ये पीछे पीछे आते हैं।

डॉ विनोद खेतान ने अचानक कहा। पैसा और यश मंजिल नहीं है। ये by-product हैं। डॉ विनोद खेतान जाने माने नाम है। आप लोगों ने कभी न कभी उनके बारे में सुना होगा। वे एम्स में डाक्टर और स्किन की दुनिया में एक बड़ा नाम है। वैसे वे साहित्यकार भी बड़े है। और गुलजार को तो हमनें उनकी समझ से ही समझा। वर्ना वे हमारी दुनिया में सिर्फ एक फिल्मी गीतकार ही रह जाते। डॉ खेतान के साथ बैठकर गप्पें ठोकने में मजा आता है। हालांकि एम्स के डाक्टरों के पास समय कम होता है। फिर भी जैसे सचिन गेंद चार रन के लिए मार ही देता है। हम लोग भी स्पेश खोज ही लेते हैं। उन्होंने ये बात कही। और मैं वैसे ही रुक गया जैसे खिचड़ी में कभी कभार कंकड़ आजाता है। और हम रुक जाते हैं। वे और भी बाते करते रहे। लेकिन मैं वहीं थम गया। फिर वहां से हुमसा नहीं। हम लोग और भी बातें करते रहे। लेकिन इसके बाद का मुझे याद नहीं।
क्या ये मुमकिन है। क्या ये सच है। क्या ये हो सकता है। मेरे सवाल खत्म ही नहीं होते। कि हम यश और पैसा दोनों ही भूल जाए। इन्हें कमाना हमारा मकसद न रहे। इनके प्रति हमारी तिसना न हो। फिर हमे क्या चाहिए। हम क्या कमाना चाहते है। मैं बात को कठिन नहीं करना चाहता। न हीं कोई फलसफा शुरू कर रहा हूं। बौद्धिक आतंकवाद भी फैलाना नहीं चाहता। लेकिन बात रुक जाती है। क्या हमें सिर्फ कर्म करना है। क्या हमें अपने जुनून को ही अपनी मंजिल समझना है। क्या हम वो करें जो हमें अच्छा लगता है। क्या ये मुमकिन है कि कोई अमिताभ बच्चन से कहे की तुम दीवार फिल्म से अपना हटा लो और जो चाहो वो कीमत ले लो। क्या कोई सचिन से कहे कि तुम विश्व कप मत चूमों। और जो कीमत चाहिए। वो ले लो। मेरे वतन के लोगों गीत गाकर क्या मिला लता मंगेशकर को। जो मिला क्या उसे धन या फिर कोई यश तौल सकता है। क्या हमें कुछ अपनी संतुष्टि के लिए भी करना चाहिए। और क्या हम ऐसा कुछ कर पा रहे हैं। जिसको करने से हमें मजा आए।
हम धंधेबाज हो गए। अपने ही लिए। हमने दुकान खोल ली। हम खुद ही बिक रहे हैं। सामान बनकर। हमें दुनिया में पैसा चाहिए। ताकि हम सुख से जी सकें। हमें यश चाहिए। ताकि हम सुख से मर सकें।
डॉ खेतान की बात सुनकर मुझे अपना हर काम करते हुए डर लगता है। कभी यश तो कभी पैसा दिखता है। जिंदगी समझ में नहीं आती। कभी कभी हम इतना झूठ बोलते है। कि सच बोलने की आदत छूट जाती है। और झूठ ही सच लगने लगता है। शायद हमारी जिंदगी के साथ यही हो रहा है। मुझे पता नहीं कि इन आंखों से मैं दुनिया फिर से देख पाउंगा या नहीं लेकिन नई आंखे अच्छी है। क्या आप भी ऐसा कोई काम कर रहे है। जो यश और धन के लिए न हो। अगर कर रहे हों।तो हमें बताइएगा जरूर।

मंजिल नहीं है। पैसा और यश। ये पीछे पीछे आते हैं।

Sunday, June 26, 2011

काम के लोगों से अपना क्या काम

अपने एक भैया विदेश जा रहे थे। उनकी गैरमौजूदगी में उनके परिवार की जिम्मेदारी अपनी होगी। ये हमने माना। लिहाजा हमने अपना कार्ड घर में दिया। और कहा इसमें मेरा नंबर है। कोई काम हो तो फोन करिएगा। लेकिन मन ही मन संकोच हो रहा था। कि अपन हैं किस काम के। जिस तरह समाज का चलन और काम का स्वभाव बदल रहा है। किसी भी तरफ से देख लीजिए। अपन किसी काम के आदमी नहीं है। इस दौरान भैया आ गए। और उन्होंने कहा तुम चिंता मत करो। तुम्हारा नंबर मेरे पास है। और मेरे फोन में वे ही नंबर है जो काम के आदमी नहीं है। और काम के आदमी अपने किस काम के। मैंने अपने ब्लाग में उनका नाम इसीलिए नहीं लिखा। कि हो सकता है कि आपको लगे कि मैं अपने किसी रिश्तेदार को हीरो बनाना चाहता हूं। क्यों कि आज की दुनिया में ऐसा कौन आदमी है जो काम के लोगों के लिए यह कह सकता है।
बात भैया की नहीं है। बात काम के लोगों की है। और काम की है। मैं पत्रकार दिल्ली में कई सालों से हूं। लेकिन मैं आज भी काम का आदमी नहीं बन पाया। यह बात मेरे दोस्त, मेरे रिश्तेदार और जाननेवाले कहते रहते है। मैं आज भी दिल्ली के किसी स्कूल में एडमीशन नहीं करवा सकता। किसी की एफआईआर थाने में अगर लिखी गई है। तो में उसमें धाराएं नहीं बदलवा सकता। मुफ्त में पास क्रिक्रेट मैच के टिकिट नहीं ला सकता। ट्रांस्फर और ठेका तो दूर की बात है। मेरे कई जानने वाले मुझसे अक्सर पूछते है। कि इतने सालों से तुम दिल्ली में कर क्या रहे हो। जनसत्ता और फिर अब सहारा। तुम कुछ कर ही नहीं पाए। मैं कहता हूं। दिल्ली खबरें करने आया था। सो कर रहा हूं। और क्या करना था। वे लोग चुप हो जाते हैं। और मेरी तरफ टकटकी बांधकर देखते रहते हैं।
मुझे ये बात आजतक समझ में ही नहीं आई। काम का आदमी कौन है। और कैसे बना जाता है। काम कराने वाला आदमी। क्या लोगों को इसकी कीमत नहीं चुकानी पड़ती। क्या उन्हें इस कीमत का अंदाजा नहीं होता। क्या आज भी मैं कार बंगला पत्रकारिता से नहीं खरीद पाया। तो क्या ये निक्कमापन है। क्या किसी का एडमीशन कराना या फिर कोई सरकारी ठेका दिलाना ही पुरूषार्थ है। मुझे पता नहीं। अब तो मुझे ये भी समझ मे नहीं आता कि इस इल्जाम पर खुश हो जाऊं या दुखी। चलो लेकिन इस दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी है। जो ऐसे लोगों के फोन नंबर अपने पास रखते है। जो काम के नहीं है। इतना ही काफी है। अपन को दिल्ली में रहने के लिए। और इसी रास्ते पर चलने के लिए। क्या आप भी निक्कमों के फोन नंबर रखते है। तो मेरा नंबर है.......शायद आपके पास होगा ।

Saturday, June 25, 2011

दादी ने भेजी है बारिश। हम खूब भीगे। आप भी भीगिए।

दादी ने मेरा ब्लाग सुना। अब पढ़ने में उन्हें दिक्कत होती है। फोन किया। आवाज कुछ बैठ सी गई थी। शायद हमारी बेवसी पर दुखी थी। फिर भी हंसने लगी। कहा हम पढ़े लिखे नहीं है। तुम लोग मोटी मोटी किताबें पढ़ते हो। पढ़े लिखे लोगों में उठते बैठते हो। फिर भी बेटा। खुशबू मिट्टी की हो या फिर प्रेम की न भेजी जाती है। न मंगाई जाती है। महशूस की जाती है। और महशूस करने की ताकत व्यक्ति की अपनी होती है। तुम हमसे जितना ज्यादा प्यार करोगें। तुम्हें हम उतने नजदीक लगेंगे। गौर से महशूस करो। तुझे दिल्ली में भी सागर की मिट्टी की खुशबू आएगी। और रही बात बारिश की।उसे हम भेज रहे है। और मुझे फोन पर लगा। उनकी चेहरे की झुर्रियां खिल गई। दादी ने हमारे साथ बदमाशी की है। मैंने कहा इंतजार करूगां।
गोंडवाना एक्सप्रेस निजामुद्दीन स्टेशन पर सात बजकर 25 मिनिट पर आकर रुकती है। उसी ट्रैन से हमारी बहिन दिल्ली पहुंची। आप को यकीन हो न हों। मेरे माथे पर पहली बूंद स्टेशन के बाहर करीब सात बजे पड़ी। और में खुशी में डूब गया। पत्नी से कहा तुम अंदर जाओ प्लेटफार्म पर। हम दादी का सामान लेले। वह बोली पहले ट्रैन तो आजाए। पागल शायद सोचती थी की दादी का सामान पौचम्मा के बैग में होगा। मैं आसमान की तरफ देखा और खड़ा होकर भीगने लगा। मुझे पता ही नहीं चला। कि पानी के बूंदों के साथ साथ मेंरें आंसू भी आंखों से बहने लगा। रोने की वजह नहीं पता। लेकिन मैं खूब भीगा भी और रोया भी।
दिल्ली आए अब तो कितने साल हो गए। लेकिन घर का सामान मैंन कभी अकेले इस्तेमाल नहीं किया। जब दोस्तों के साथ रहते थे। तो कभी न लड्डू न आचार छुपकर खाए। न जलेबी न बर्फी। छुपाकर रखी। हमेंशा ही मिल बांट कर खाता रहा। अब तो ऐसी स्थिति है कि मैं जब भी सागर जाता हूं। मैंरे शुभचिंतक पहले ही लिस्ट दादी को फोन पर लिखवा देते हैं। जब बैग के वजन पर में गुस्सा होता हूं। तब मां बताती है। कि दादी ने ये सामान लोगों के लिए रखा है। किसी के लिए आचार। किसी के लिए लड्डू। किसी ने जलेबी मंगाई। तो किसी ने पापड़। एक डिब्बी में हींग है। उस पर भी किसी का नाम है। कुछ चीजें बनी हुई है। कुछ सामान बनने का है। और जब हम दिल्ली पहुंचते तो मेरे साथी। मेरा बैग खोलते ।चोरों की तरह हिसाब करने बैठ जाते। अगली बार दादी से कहना सामान ज्यादा भेजें। फिर सुधार करते । तुम क्या कहोंगे। हम खुद ही कह देगें।
आज जब निजामुद्दीन स्टेशन पर मैं भीग रहा था। तो मैंने अपने साथ कुछ और भी लोगों को भीगते हुए देखा। लगा जैसा दादी की जलेबी में लोगों को बांट कर खा रहा हूं। यह बारिश मेरे लिए नहीं। उन सबके लिए आई है। जिन्होंने मंगाई है। सौ मैं खूब भीगां। आप तक भी मैं भेज रहा हूं। खूब भीगिए। और अपनो को भिगाइएँ। आप जो भी कहें। लेकिन मैं आपकी बात सुनूगां ही नहीं। मानसून। मौसम विभाग। विज्ञान। भाप। बादल। सब झूठे हैं। सिर्फ इतना सच है कि जिस तरह से दादी मेरे लिए जलेबी भेजती है। उसी तरह उसने बारिश भेजी है। में भीग रहा हूं. .....

दादी ने भेजी है बारिश। हम खूब भीगे। आप भी भीगिए।

Thursday, June 23, 2011

घर से पहली बारिश वाली मिट्टी की खुशबू ले आना।

भैया हम शुक्रवार को दिल्ली आ रहे हैं। जिज्जी पूछ रही हैं। घर से क्या लाना है। पोच्चमा का फोन आया था। पोच्चमा यानि हमारी छोटी बहिन। और जिज्जी हम कहते हैं। दादी से। सयुंक्त परिवार कुछ रिश्ते ऐसे भी बनाकर देता है। जैसे दादी जिज्जी हो जाती है। और मां भाभी। पिता भैया। मैं कुछ देर चुप रहा। और मैंने न जाने कैसे कह दिया। मुझे खुद याद नहीं। पहली बारिश के बाद जो मिट्टी से खुशबू आती है। वह ले आना। मैं कह कर चुप रहा। वह शायद सुनकर चुप रही। कल दादी न बताया था कि सागर में तीन दिन से खूब पानी गिर रहा है। और अपनी दिल्ली की उमस से गीले हो रहे हैं।
जिंदगी में हमें कई चीजें मिल जाती है। लेकिन वे चीजें जो उनके साथ मिलती है। वे कहीं खो जाती है। किस तरह से जब पहली बारिश होती थी। और उसकी खुशबू से मिट्टी महकती थी। मुझे वो महक आज भी याद है। शायद ही किसी परफ्यूम या फिर किसी इत्र से आई हो। ऐसी खुशबू मुझे याद नहीं। बारिश तो दिल्ली में भी होती है। हो सकता है किन्हीं लोगों को वह खुशबू भी आती हो। अपन को नहीं मिली। अपन तरसते ही हैं। जैसे जिंदगी में नास्ता तो सभी करते है। लेकिन सागर में मूलचंद महाराज की जलेबी और लगड़ा के समोसा। दही अलग से। ये नहीं मिलता। और ये मिल भी जाए। तो भरत खरे। शैलेंद्र सराफ। विवेक पांडे। दीपक दुबे। संजीव कठल। सतीश नायक। शशिकांत डिमोले। कहां से लाओंगे।
अपने सागर में वैसी ही मूंगफली मिलती है। जैसे शिमला में सेव। इलाहाबाद में अमरूद। या फिर उत्तर प्रदेश में आम। वे मूंगफली नहीं मूगफलां कहलाते है। कई किलो मूंगफली हम लोग यूं हीं ठेले पर खड़े होकर खा लेते थे। जगदीश शर्मा के साथ न जाने कितने किलो मूंगफली खाई होगी याद ही नहीं। बात मूंगफली की नहीं होती थी। बात उन गप्पों की है। जो उस ठेले पर शुरू होती थी। गांधी से आंइस्टाइन। अमिताब बच्चन से कबीर। पिकासो से कृष्ण। रजनीश से फरीद और फिर मीरा से श्याम बैनेगल। कौन कहां से आता था। पता ही नहीं चलता था। सिर्फ मूंगफली ही जाने हिसाब। गप्पों का। अपन तो ठोकते चले गए। मैं। झूठ नहीं लिखता। मैं। सच कहता हूं। बरिस्ता या मैक में चाय या कॉफी पीते। अपन को मजा नहीं आता। न अब बे बातें निकलती है। न वे शेर। और न वे कविताएं। वैसा न माहौल मिलता है। और न वैसे दोस्त।
घर से जब भी कोई आता है। खाने का सामान जरूर लाता है। लेकिन बात सिर्फ सामान की कहां है। आचार आम का हो या फिर नींबू का। देशी टमाटर हों या फिर घर के खेत की मूली। परदेश में सिर्फ आचार और सब्जी ही लगते है। स्वाद शहर का होता है। ये तमाम चीजें बेस्वाद लगती है। हां ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली में चारों तरफ भीड़ है। फिर भी दादी जैसा कोई नहीं। जिसकी अगुंलिया पकड़कर आज भी चलने की इच्छा हो। जिसकी झुर्रियों में जिंदगी सुरक्षित लगती हो। जो कह दे खुश रहो तो लगता है कि कोई एलआईसी का प्लान है। जिसका फंड आ ही जाएगा। लेकिन पोच्चमा के पास इतना बढ़ा बैग नहीं है। जो इन सब चीजों को ला सके। मुझे जो जो चाहिए। वह दिल्ली नहीं आ सकता। उसके लिए मुझे सागर ही जाना होगा। कभी वक्त मिले तो आप भी घर हो आइए। अच्छा लगेगा।