Wednesday, November 17, 2010

Tuesday, November 16, 2010

गरीबी ही अपने आप में हादसा है।

आप क्या कर लोगे ? दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का।उनके सांसद बेटे संदीप दीक्षित का। दिल्ली के महापौर का। पुलिस आयुक्त या फिर दिल्ली के उपराज्यपाल का। एमसीडी के कमिश्नर का। मैं यही सोचता रहा। उस मलवे के पास खड़े होकर। जहां पर कुछ सरकारी किस्म के लोग मलवा हटा रहे थे। पुलिस के कुछ आला अफसर दूर से ही गतिविधियों को देख रहे थे। इस खबर पर अपन नहीं थे। लेकिन फिर भी मन नहीं माना देखने चले ही गए। कुछ दोस्तों ने कहा भी कहां अंदर चले जा रहे हो। वहां बदबू बहुत है। लेकिन मन नहीं माना और कूदतें फांदते पहुंच ही गए। उस जगह पर जहां बच्चों की किलकारियां चीख में बदल गई। लोगों की जिंदगियां मौत का तमाशा बन गई। और देखते ही देखते वह जगह जहां लोग जिंदगी की उम्मीद लेकर रहते है। जिसे हम घर कहते हैं। कैसे वह जगह शमशानघाट से भी ज्यादा खतरनाक लगने लगती है। मैंने देखा। कुछ आंसू मेरी आँखों से छलके। कोई इसे नाटक न समझे सो अपन चुपचाप अँधेरे में किनारे हुए और बाहर आ गए।
बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। कि कोई हादसा हो गया। और लोग मर गए। बात उस बेईमानी के धंधे की है। जो राजधानी में फल फूल रहा है। इसमें पुलिस से लेकर सरकारी नुमाइंदे तक शामिल है। यह बात क्या हमारी मुख्यमंत्री या एमसीडी के महापौर नहीं जानते। अगर नहीं जानते तो उन्हें शासन करने का क्या हक है। मुझे समझ में नहीं आता। लोकतंत्र की किताब मे लिखी इबारतें सोने की तरह चमकती है। लेकिन हकीकत की दुनिया में वे कहां चली जाती है। पता ही नहीं चलता। एक हादसा हुआ है। जहां से लगातार लाशें निकलती जा रही है। उस इलाके की जनता का प्रतिनिधित्व करने वालों को नींद कैसे आ सकती मुझे यह भी समझ में नहीं आया।
मैं पूरी घटना को कभी पत्रकार बनकर तो कभी आम आदमी की तरह जगह बदल बदल कर देखता रहा। और सोचता रहा। क्या हम कुछ भी नहीं कर पाएगें। इन बेइमान लोगों का। क्या कल फिर यही लोग अपने दफ्तरों में जाकर फिर कुर्सियां तोड़ेगे। फाइलों पर दस्तखत करेगें। क्या इन लोगों कि जिंदगिया यू ही बेकार थी। जो चली गई। क्या इसकी कीमत कोई नहीं चुकाएगा। मैंने सुना है जब बहुत बातें करनी हो तो कुछ भी नहीं कहा जाता। आज यही हालत मेरे साथ है। मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूं। लेकिन आज लिख नहीं पा रहा। पर यह जरूर है। हमारे देश में गरीबी ही सबसे बड़ा हादसा है। जो हमारे साथ हर रोज घटता है। कभी नाम बदलकर। कभी चेहरा बदलकर। कभी हम दब कर मर जाते हैं। तो कभी हम बिना दवाई के।हमारी जिंदगी खत्म हो जाती है।कभी तेज रफ्तार की बस आकर कुचल देती है। तो कभी कोई रहीसजादे नशे में हमारे ऊपर से गाड़ी चलाकर ले जाते है। आप को क्या लगता है कि हमारी जिंदगी इतनी सस्ती क्यों है। क्यों कोई जिम्मेदार ठहराया जाएगा। इन मौतों के लिए। या यह सिर्फ एक खबर बन कर रह जाएगी। लिखिएगा जरूर।

Monday, November 15, 2010

दोस्त से मदद मांगना मुश्किल होता है।

गॉडफादर। यह फिल्म आपने देखी होगी। या फिर हो सकता है उपन्यास भी पढ़ा हो। मारिया पूजो का। आज कुछ ऐसी घटना घटी। कि यह उपन्यास याद आ गया। उपन्यास का नायक डॉन वीटो कारलोन एक जगह कहता है। दोस्त से मदद मांगना कठिन होता है। व्यक्ति बहुत हार थक कर ही। मदद मांगने जाता है। लिहाजा ऐसे समय सावधानी पूर्वक मदद करनी चाहिए। और ऐसे समय दोस्त को इस तरह मदद करनी चाहिए कि उसे लगे भी न कि उसकी मदद हुई है। मेरे एक हैड़ थे। उनका नाम लिखकर उनसे नजदीकी का डिंडोंरा पीटना नहीं चाहता। लेकिन वे कहते थे। कि मदद करते समय व्यक्ति को और भी नम्र हो जाना चाहिए। वर्ना मदद अहसान लगती है। जिसे लेना और भी कठिन हो जाता है।
जिंदगी में अक्सर ऐसा होता है कि हम अपने साथियों के साथ साथ चलते रहते है। लेकिन जिंदगी के मीटर कुछ और होते है। वह कभी किसी को तो कभी किसी को अपने हिसाब से नांपती तौलती रहती है। उसके तराजू में कौन भारी हो जाए। और कौन बौना रह जाए। कहना मुश्किल है। लेकिन जो लोग जिंदगी की दौड़ में आगे निकल जाते है। कायदे से उन्हें और भी ज्यादा नम्र और आत्मीय हो जाना चाहिए। लेकिन ये लोग अक्सर अक्खड़ और बदमिजाज हो जाते है। वे शायद बताना चाहते है। कि वे इसलिए आगे हैं क्योंकि वे काबिल है। लेकिन क्या जिंदगी में तरक्की सिर्फ काबिल लोगों को मिलती है। क्या जिंदगी की गणित में सिर्फ हुनर ही जीतता है। ऐसा नहीं है। मंजिल के रास्ते कई तरह के होते है। कई जगहों से होकर गुजरते हैं। लिहाजा हो सकता है कि कई बार व्यक्ति सिर्फ भाग्यशाली था और वह कुछ कदम आगे चल गया।लेकिन जिंदगी सिर्फ कुछ सालों का या कुद पदों का खेल नहीं है। जिंदगी तो पूरी की पूरी नापी जाती है। लिहाजा इसका फैसला अभी करना कि कौन कितना आगे और कौन कितना पीछे है। यह मूर्खता ही होगी।
अपन भी जिंदगी में कई लोगों के साथ चले। लेकिन अपनी चाल कुछ मस्ती वाली है। लिहाजा आराम से टहलते हुए चलते है। न किसी का पीछे करने की इच्छा। न किसी से आगे जाने की कवायद। सो तिक्कड़म। जोड़ घटाना कभी सीखा ही नहीं। जो अपन से आगे निकल गए। वे कभी पीछे मुड़कर देखते है। तो अपन भी सलाम कर लेते है। लेकिन सांस फूलाकर उनके पीछे भागते नहीं। न कभी दम लगाकर उनके पीछे पीछे चलने की कोशिश की। पीछे पीछे चलने में भी एक अलग तरह का मजा है। सबको आगे जाते देखते रहिए। और खुद आराम से चलते रहिए। लेकिन अगर आपकी इच्छा आगे जाने की न हो तो। अगर आप इच्छा रख कर भी आगे नहीं जा पाते है। तो फिर आप अपनी कर्महीनता को दर्शन बना रहे है।
जिंदगी में हमारे लिए सबसे कठिन होता है उनसे मदद मांगना जो कभी आपके साथ थे। मदद मांगते समय यह बात तो मन मे रहती ही है। कि हम साथ थे। लेकिन आज हम पीछे हो गए। इस भाव के बाद भी जरूरत मजबूर करती है। कि आप अपने दोस्तों से मदद मांगे। आपके भी कई दोस्त होगें। जिन्हें जिंदगी ने आपसे ज्यादा दिया होगा। सही बताइए। उनसे जलन होती है। या उन्हें देखकर अच्छा लगता है। और आपके भी कई ऐसे दोस्त होगें। जिन्हें आपसे कम मिला है। आपके क्या अनुभव है मदद मांगने के या दोस्तों की मदद करने के। हमें बताइएगा जरूर

Sunday, November 14, 2010

रहीस आए थे हमसे रोशनी मांगने। हमने अपना झोपड़ा जला दिया।

आज खबरों का सिलसिला दिन भर चलता रहा। ए राजा का पीछा करते करते दिन पूरा निकल गया। ए राजा चेन्नई से दिल्ली आए। फिर प्रधानमंत्री के घर जाकर इस्तीफा दिया। दिन बदल गया। बारह से ज्यादा बज गए थे। घर वापसी के लिए रेसकोर्स से कोई साधन नहीं दिखा। ड्राइवर से कहा घर छोड़ दो। मेरा यह प्रस्ताव स्वाभाविक रूप से उसे अच्छा नहीं लगा। फिर भी मेरी तरह वह भी नौकरी करता है। सो वह मान गया। मैं जानता था। वह भी दिन भर से मेरी ही तरह भूखा है। हम दोनों में एक फर्क था। मुझे भरोसा था। कि मेरे घर पर पत्नी जाग रही है। और घर पर खाना है। उसकी आंखों में शंका थी। दफ्तर पहुंच कर। पराठें की दुकान खोजनी होगी। रास्तें में हम दोनों एक जगह उतरें। और मेंने उसके साथ एक फुटपाथ पर बैठकर खाना खाया। खाना खत्म हुआ। मेंने उसकी चमकती हुई आंखो में तृप्ती देखी। और वह सिर्फ बोला। भाईसाहब धन्यवाद। बहुत बहुत धन्यवाद।
हम और आप हर रोज ही किसी ने किसी के साथ पैसा खर्च करते रहते हैं। कभी चाय पर तो कभी पान पर। कभी कभार दोस्तों के साथ खाना पर भी। लेकिन हमें शायद यह उम्मीद रहती है। कि कल हमारे लिए ये भी खर्च करेंगे। आज जो हम इनके साथ कर रहे हैं। ये कल लौंटा देंगे। वह न मदद है। न दोस्ती। सिर्फ एक अच्छे किस्म का investment है। या फिर अगर हम कभी कभार त्योहार पर या फिर अपने बुजुर्गों की पुंण्य तिथि पर किसी गरीब को खाना खिला देते हैं। तो वह भी पुण्य की आंकाक्षा को लेकर किया गया एक सौदा है। जो हम अक्सर करते रहते हैं। लेकिन क्या बिना किसी आकांक्षा के बिना किसी सौदा के हम किसी के लिए एक कप चाय भी नहीं पिला पाते। वह शायद घाटा होगा। और हम घाटे के हामी नहीं है।
हम बचपन से ही एक बात देखते आए है। शादियां और दरवाजे पर व्यवहार कि कॉपी। जिसमें हिसाब रहता है। तुम्हारे साथ किसने क्या किया। इसमें लिखा रहता है। मुझे यह बात समझ में नहीं आती। हम अपने परिचितों के साथ वह व्यवहार नहीं करना चाहते। जो हमारी इच्छा है। लेकिन हम वह करना चाहते है। जो उन्होंने हमारे साथ किया है। या फिर हम उनकी हैसियत के हिसाब से हम अपना व्यवहार वापस करते है। छोटे शहरों में किसी भी रहीस आदमी के यहां शादी हो तो गरीब से गरीब आदमी भी ज्यादा से ज्यादा व्यवहार देना चाहता है। लेकिन गरीब मित्र के घर पर शादी पर वह इतनी तकलीफ नहीं लेता। मुझे यह प्रश्न कई बार परेशान करता रहा। कि हमारे संबंध अपनी हैसियत से बनाए जाने चाहिए। या फिर सामने वाले की हैसियत देखकर। हमारे एक दोस्त दिल्ली में है। वे तो कई कदम आगे है। वे कपड़े भी सामने वाले कि हैसियत देखकर पहनते है। जब किसी काबिल दोस्त की शादी होती थी। तो वे सूट पहन कर जाते थे। और उन्हीं दोस्त को मैंने कुर्ता पयजामा पहन कर भी शादियों में जाते देखा है।
हमारी मानसिकता का ये पहलू मुझे कभी समझ में नहीं आया। जिन्हें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है। तुम उनकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते हो। लेकिन जिन्हें तुम्हारी जरूरत है। तुम उनसे हमेशा बचते रहते हो। किसी रहीस को अगर रोशनी की जरूरत है तो तुम अपना झोपड़ा भी जला दोगे। लेकिन गरीब के लिए एक दिया भर तेल देना भी हमें शायद गंवारा नहीं होता। बात साफ है। यह मदद हम गरीब या फिर रहीस की नहीं करते है। यह मदद है हमारी अपनी। इस उम्मीद के साथ कि मदद उसकी करो। जो जरूरत पढ़ने पर लौटा सके। लेकिन मदद या सौदा नहीं है। कारोबार नहीं है। न ही बीमा कि कोई पॉलिसी है। जो वक्त पर काम आएगी। यह तो आत्मा का खेल है। मैंने भी तो 40 रुपए के दो पराठें खिलाकर ब्लाग लिख दिया। आप शायद यही सोच रहे होगें। लेकिन क्या करें। इच्छा हुई सो लिख दिया। हमारे ईश्वर तो आप है। सही या गलत जो भी लगे बताइएगा।

Saturday, November 13, 2010

कद अपना होता है। ऊंचाई नहीं।

मेरे एक बहुत ही प्रिय दोस्त का रात दो बजे फोन आया। वे निराश थे। टूटे हुए। और बेहद दुखी। हमने उन्हें इस रुप में कभी न देखा था। न इस भाषा में उन्हें सुना था। वे लगभग रोने को थे। और बात खत्म करते करते रो ही दिए। वे एक प्रमुख अंग्रेजी चैनल में रिपोर्टर थे। लेकिन अचानक अपने संपादक से अनबन कर बैठे। कल उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। पत्रकारिता अजीब क्षेत्र है। तुम मेहनत करते हो। तिनका तिनका जिंदगी भर जमा करते हो। लेकिन एक झटके में सब कुछ लुट जाता है। तुम्हें पता ही नहीं चलता। और तुम जमीन पर होते है। वो ऊंचाई जिस पर तुम हमेशा अपने को खड़े पाते है। जहां से तुम्हें दुनिया बराबरी की लगती है। और कई लोग बहुत छोटे लगते है। वह ऊंचाई असल में तुम्हारी नहीं होती। तुम्हारे नीचे से जैसे ही उसें खींच लिया जाता हैं। तुम इस जमीनी हकीकत को पचा ही नहीं पाते। और तुम टूटते हो इंच इंच।
बात एक नौकरी जाने की या फिर मिलने की नहीं है। बात है उस झूठे भ्रम की।जो हम पाल कर रखते हैं। और उस रेत की ऊंचाई की ।जिस पर हमें खड़े होकर लगता है। कि यह स्थाई है। हम जिंदगी भर को यहीं डेरा डालकर बैठ गए है। लेकिन असल में वह प्रपंच होता है। झूठ होता है। आदमी का कद उसका होता है। ऊंचाई उसकी नहीं होती है। यह बात हमें समझ में ही नहीं आती। लेकिन इस पहेली को सुलझाना कठिन है। हम कैसे कोशिश करें। कि हमारा कद बढ़े। ऊंचाई नहीं। हम अक्सर जो आसान होता है। उसें पाने में लग जाते हैं। प्रेमचंद हों या फिर निराला। ये लोग किसी नौकरी के या फिर किसी नकली ऊंचाई के मोहताज नहीं थे। इन्होंने अपने कर्म से अपना कद ऊंचा कर लिया था। आज सचिन तेंदुलकर को आप भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बनाए या नहीं। इससे उस प्रतिभाशाली खिलाड़ी को फर्क नहीं पढ़ेगा। न हिं किसी एक फिल्म के हिट होने या फिर फ्लाप होने से अमिताभ बच्चन का कद कम या ज्यादा नहीं होता।
हम अगर जीवन में कुछ स्थाई करना चाहते है। तो हमें ऊंचाई पर कम और अपने कद पर ज्यादा ध्यान देना होगा। हालांकि कहा भी जाता है कि यह सदी उसकी है जिसके पास ज्ञान है। हमें अपना हुनर और ज्ञान बढ़ाना होगा। हमें छुद्र सफलताओं के पीछे भागने के बजाए। कुछ सार्थक करने की बात सोचनी होगी। ऐसा जीवन में क्यों होता है। कि एक चोट में हम पूरे के पूरे टूट जाते हैं। शायद हमारा होम वर्क अधूरा रहता है। या फिर हमने अपने आप को कर्म की और अभ्यास की आग में तपाया ही नहीं ।मैं अपने दोस्त का फोन सुनकर रात भर सो नहीं पाया। काफी दुखी थी। लेकिन यह दुख यह परेशानी उसके लिए नहीं थी। यह अपनी लगती है। फर्क सिर्फ इतना है कि हम उस रेत के टीले पर अभी भी खड़े है। और वह जमीनी हकीकत पर आ गया है। क्या करें अपने कद के साथ समझ में नहीं आता। आप ही कुछ बताइए। जल्दी करिएगा।

Friday, November 12, 2010

क्या आप कभी मिलते हैं। अपने दादा के दोस्तों से।

कैलाश जोशीजी के पास प्रतिक्रिया लेने गए थे। सुदर्शन सोनिया विवाद पर। बात संघ की निकली और उनके लोगों की। उन्होंने बताया कि गोपाल जी व्यास इन दिनों दिल्ली में हैं। वे छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के सदस्य है। करीब 25 साल पहले उन्हें देखा था। फिर वे इधर उधर घूमते रहे। और अपन दिल्ली आ गए। लेकिन दादा के पास उनके पत्र आते रहे। वे अपने हालचाल भी पूछते थे। सो उनका मकान नंबर पूछकर आज मिलने पहुंच गए। पत्रकार की वेशभूषा में देखकर वे समझ गए। कि प्रतिक्रिया चाहिए। मैंने बताया कि में पत्रकार बन कर नहीं आया हूं। सिर्फ आपसे मिलना चाहता हूं। खूब बातें करी। उन्होंने पुरानी बातेँ। सुनाई। 25 साल बाद भी पूछा। कि अभी भी नई नई किताबें पढ़ने की रुची है या छूट गई। मैं चुप रहा।
मैं दिन भर सोचता रहा। अपने दादा के एक पुराने दोस्त से मिलने गया था। या उस रूप से अपने दादा को देखना चाहता था। उस बुजुर्ग आदमी में शायद मैं अपने बब्बा को खोजता रहा। हम अक्सर बुजुर्ग लोगों में अपने दादा को तलाशते रहते हैं। और जो हिस्सा उनसे मिलता है। हम उसे पूजने लगते हैं। लगता है जैसे इस दुनिया के हर बुजुर्ग में एक हिस्सा मेरे दादा का है। उस हिस्से की तलाश में हर बुजुर्ग को खंगालता रहता हूं। मेरे मकान मालिक हर सुबह चार बजे उठकर बैठ जाते हैं। उनकी यही आदत मुझे मेरे दादा से मिलाती है। और उनके प्रति एक अपनापन लगता है। पिछले दिनों बस में एक बुजुर्ग महिला से मुलाकात हुई। अपन शान से बैठे थे। सफर लंबा था। लेकिन वे बाजू में खड़ी थी। हम खड़े हो गए। और उन्हें बैठा दिया। दो घंटे के सफर में थका नहीं। सिर्फ उन्हें देखता रहा। उस हिस्से को तलाशता रहा। जो उन्हें मेरी दादी के साथ मिलाता हो। पीछे खड़े एक आदमी ने कहा भी आप भले आदमी मालूम होते है। बुजुर्ग की इज्जत करते हैं। मैंने सोचा इसको कैसे बताऊ। यह सीट मैंने अपनी दादी को दी है। इस बुजुर्ग महिला को नहीं।
जब कभी हमारी जिंदगी का एक हिस्सा कट कर हमसे छूट जाता है। उस अधूरे पन को दूर करने के लिए हम कितनी कोशिशें करते हैं। कभी स्वाभाविक तो कभी आर्टीफिशियल ।लेकिन हम कितनी ही खींचतान करें। जो छूट जाता है। वह पूरा नहीं होता। लेकिन मैंने पढ़ा है कि एक लेखक ने लिखा है कि जिन्हें रेगिस्तान में मृगमारीचका नहीं होती। उनकी प्यास में जरूर कुछ कमी रहती है। मेरे दोस्त अक्सर शिकायत करते हैं कि ब्लाग में दादी और दादा से ऊपर उठो। लेकिन न जानें क्यों मैं वापस उन्हीं के पास आ जाता हूं। शायद यह मेरा वो टूटा हुआ हिस्सा है जिसे में अक्सर पूरा करने की कोशिश में लगा रहता हूं। क्या आप भी कभी भागकर जाते हैं। अपने दादा के दोस्तों से मिलने मेरी तरह। कैसे करते हैं जिंदगी के इस टूटे हुए हिस्से को पूरा। हमें लिखिएगा जरूर।