Monday, October 3, 2011

अपन जमीन पर बरगद नहीं। बालकनी पर लटकती बेल हैं।

हम और शिव भैया। सुबह सुबह पार्क में मार्निगं वॉक की खानापूरी कर रहे थे। तभी अचानक उनके घर से फोन आया। घर जल्दी चले आना। कुल देवी की पूजा है। दीपावली हो या होली। शिव भैया अस्पताल टाइम से ही जाते है। उनके मरीज प्रेम को घरवालों ने अपना हिस्सा मान लिया। लिहाजा अब घर की तमाम गतिविधियां उनके हिसाब से एडजिस्ट की जाती है। इसलिए तमाम तरह की पूजा भी उनके अस्पताल जाने से पहले ही कर ली जाती है। उनके बुलावे पर मुझे भी याद आया कि आज अष्टमी है। कुल देवी की पूजा। और अपनी आँखे भर आई। मैं चुप चाप रहा। और घर आकर लिखने बैठ गया।
कुल देवी की पूजा के कई अर्थ है। इसका जितना धार्मिक महत्व है। उससे कहीं ज्यादा सांस्कृतिक महत्व है। मुझे बचपन से ही कुल देवी की पूजा दीपावली या दूसरी पूजाओं से ज्यादा अच्छी लगती रही। एक समय था। जब हम इतने समझदार नहीं हुए थे। और घर के नियम कायदे मानते थे। अब तो घर वालों को भी अपन प्रक्टिकल होने की सलाह देते है। और दादी भी अनमनें ढंग से अपने कुतर्क मान लेती है। कुल देवी की पूजा घर का मुखिया करता है। सो जब तक दादा जिंदा थे। वे ही करते थे। और अपन भी कोशिश करते थे। किसी न किसी तरह इसमें शामिल होने की। उनके जाने के बाद मुझे पूरी पूजा ही अधूरी लगने लगी। और कुल देवी की पूजा में कुछ कमी से खलने लगी। मेरे सामने जो इसका तिलिस्म था वो टूटने लगा। हांलाकि कुल तो हमेशा स्थिर ही रहता है। दादा चले गए। और उस पूजा में अब अनिता आ गई है। अपनी शादी जो हो गई।
कुल देवी की पूजा को बड़ी साफ सफाई और नियम कायदों से साथ किया जाता है। इस पूजा को घर की लड़किया नहीं देखती। वे दूसरे कुल की है। जहां शादी होकर जाँएगी। वह उनका कुल होगा। कुल देवी की पूजा पर पूरा कुल जमा होता है। और हमें समझ में आता है। कि जीवन में परिवार की सीमा सिर्फ माता पिता तक ही नहीं है। उनके अपने भी आपके अपने है। और हमारी संकीर्ण सोच को विस्तार देता है। लिहाजा कुल का साथ आना। नए मायनों को भी जन्म देता है। यह पूजा हमारे बीच बंधे धागे को और मजबूत करती चलती है। संयुक्त परिवार के विचार को इस तरह की पूजा मजबूत करती हैं। परिवार में आया हर नया सदस्य। कुल का हिस्सा होता जाता है। और अपने को परिवार का हिस्सा मानने लगता है। और शायद यह विचार भी मन में आता है कि हम इन तमाम लोगों के लिए जिम्मेदार भी है।
मैं जानता हूं। कि आज पूजा में दादी को मेरी जगह खाली लगेगी। मेरी कमी खलेगी। और मुझे डेढ़ करोड़ की दिल्ली में अकेले पन का अहसास हो रहा है। लगता है। जैसे हम किसी आंगन में या किसी जमीन में पनपे हुए बरगद नहीं है। न हमारी कोई जमीन है। और न हीं कोई संस्कृति। न कोई कुल। न कोई पूजा। हां मालवीय नगर की तीसरी मंजिल से लटकती हुई एक सुंदर बेल की मनोदशा अपनी लगती है। जिसे मेरी पत्नी ने घर की बालकनी पर लटका दिया है। ठीक इसी तरह से अपन भी कुल और शहर छोड़कर यहां चले आए हैं। और हवा में लटक गए है। हमारे यहां होने का किस को क्या फायदा है पता नहीं। सिर्फ सुंदरता की कीमत है। किसी भी दिन झाड़ पोछ कऱ अलग कर दिए जाएंगे। हम जानते है। कि बालकनी पर लटकती बेल न किसी को छाया देती है। और न ही फल। उनमें लकड़ी भी नहीं होती। वे सिर्फ एक झूठी ऊंचाई का अहसास करती रहती है। लेकिन हकीकत हम जानते हैं। और शायद आप भी।