Thursday, December 1, 2011

एक कप कॉफी पर । अब भी हो रहा है बहुत कुछ।

खेतान भाई साहब का फोन आया। कॉफी पियोगे। उन्हें मेरी आवाज से मेरा जवाब का अंदाजा लगा गया। उन्होंने कहा। थक गए हो तो रहने दो। पत्नि के साथ कहीं जाना है तो भी रहने दो। मेरी यू हीं इच्छा हुई सो मैंने फोन कर दिया। ठंड में रात को निकलना मुश्किल होता है। चलो फिर कभी मिलेगें। आज एड्स डे था। सो अपन सुबह से ही खबर जुटाने में लग गए थे। काम खत्म करके घर पहुंचे। थकान तो थी ही। मजेदार ठंड भी लग रही थी। आवाज इस तरह से राज जाहिर कर देती है। या वे डाक्टरी करते हैं। इसलिए समझ गए मुझे पता नहीं। खेतान भाई साहब हों या शिव भैया। इन लोगों के पास वक्त कम होता है। और अपन को इनके साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता है। सो आलस्य पर अपना लालच हावी रहा और फट से अपन तैयार हो गए। हमने पूछा कहां पिएगें। कॉफी। उन्होंने कहा। बरिस्ता में। कम ही इतनी फुर्ती आती है। लेकिन उठकर चल दिए।
आईआईटी के सामने बरिस्ता है। जाकर अपन बैठ गए। भाईसाहब किसी भी कोने में नहीं दिखे। सो चुपचाप जाकर पीछे की तरफ बैठ गए। शादी हुए इतने साल हो गए। लेकिन कोने में बैठने की आदत अभी गई नहीं है। लगा पहुंच कर बार बार फोन करना ठीक नहीं है। वे जाम में फंस गए होगें। आते ही होगें। चुपचाप बैठकर इंतजार करना ही ठीक लगा। हमारे ठीक बाजू में एक स्मार्ट लड़का और सुंदर सी लड़की बैठी थी।आपके पास करने को जब कोई काम न हो। तो चारों तरफ ध्यान जाना स्वाभाविक है। सो कई युगल पर जाकर नजर रुकी। किसी को अपन बदतमीज टाइप के आदमी न लगें। सो शराफत का दिखावा करके। चुपचाप फोन पर नेट से खेलने लगा। फिर भी आजू-बाजू की आवाज तो आती ही है। बार बार वह लड़का अपनी सहेली से एक कप कॉफी और पीने की जिद कर रहा था। वो शायद समझ रही थी। समझाने लगी। अपन तीन तीन कॉफी पी चुके है। मैं पांच मिनिट और रुक जाती हूं। कॉफी का मत कहो। लेकिन वह एक कप और पीना चाहता था। मुझे अपनी याद आई। और वे तमाम कॉफी जो मैंने पी। और पिलाई सब याद आ गई। यह बात वे दोनों जानते थे। और मैं भी। कॉफी किसी को नहीं पीनी है। सवाल कुछ देर और रोकने का है। एक कप कॉफी का मतलब होता है करीब करीब २० मिनिट। अपनी प्रेमिका को बीस मिनिट रोकने के लिए एक कॉफी की जिद करनी पड़ती है। लेकिन उन प्रेम के दिनों में बीस मीनिट ऐसे निकलते है जैसे क्या बताऊ। बस निकल जाते हैं।
भाई साहब कुछ देर में आ ही गए। हालाकि बाद में पता चला कि वे हमसे पहले ही पहुंच गए थे। अपनी लॉटरी खुली। कुछ देर में एम्स से शिव भैया भी उठा लिए गए। गाड़ी भेजकर। फिर क्या था। जैसे ईट पर ईट रखी जाती है। वैसे ही हमारी गप्पे होने लगी। और मजे की इमारत बनने लगी। लेकिन आज गप्पों के अम्बिएंस में जो ताजगी और युवा पन था। अपन वहीं अटके रहे। जिंदगी में चलते चलते हम जिन रास्तों से आगे निकल जाते् है। हमें लगता है शायद वे खत्म हो गए होगें। सिर्फ हमारे जमाने में ही गुलाब लाल रंग के खिलते थे। हमारे दिनों में ही बेहतरीन कार्ड छपते थे। सबसे अच्छी गजलें जगजीत सिंह ने और गुलाम अली ने उसी समय गाई जब अपन प्रेम में थे। आज जाने की जिद न करों। अपने ही दिनों में था। बरिस्ता में कॉफी सिर्फ उन्हीं दिनों अच्छी थी। बुक फेयर में मजा उन्हीं सालों में था। फरवरी का मौसम सिर्फ उन्हीं सालों में आता था। लेकिन आज जाकर लगा कि नहीं बरिस्ता में कॉफी अभी भी मिलती है। और कोई आज भी है। जो अपनी प्रेमिका को एक कॉफी और पिलाने के लिए जिद कर रहा है। बीस मिनिट का समय आज भी किसी के लिए युगों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। आज भी किसी के लिए इस युग का सबसे सुंदर संगीत रचा जा रहा है। आज भी किसी के लिए गुलाब खूबसूरत है। और उतने ही लाल हैं जितने कभी अपने लिए थे। क्या लगता है आपको हमें बताइएगा जरूर।

Tuesday, November 29, 2011

दिक्कत संयुक्त परिवार में हैं। बाकी सब ठीक है।

अपन कभी भी जिम्मेदार लोगों की सूची में नहीं रहे। न अपने लिए। न परिवार के लिए। जिम्मेदारी का विचार जीवन की गहरी सोच में पनपता है। एक अहसास और लगातार मंथन से शायद जन्म लेता होगा। मुझ में यह अहसास क्यों और कैसे नहीं आया। मैं नहीं जानता। शायद संयुक्त परिवार ने मुझे हमेशा ही इतना प्यार और दुलार दिया कि जिंदगी कभी कठिन और संघर्ष लगी ही नहीं। न कभी अपने को बड़ा और जिम्मेदार समझ पाया। शायद जीवन की कठिनाइयां भी व्यक्ति को जिम्मेदार और गंभीर बनाती है। लेकिन परिवार के सुरक्षित किले में पले और बड़े हुए। सो जीवन का क्रूर चेहरा देखा ही नहीं। कुछ परिवार और कुछ भगवान के सहारे जिंदगी चलती जाती है। जब बात छोटे भाई की शादी की चलने लगी तब अपन से भी पूछताछ शुरू हई। और जिम्मेदारी की पहली झलक जिंदगी में महसूस की ।
जिंदगी को इस रूप में अपन ने कभी देखा ही नहीं था। अपने एक जानने वाले हैं। उनकी एक बेटी कालेज में पढ़ाती हैं। देखने में हमसे ज्यादा सुंदर। कमाती भी हमसे ज्यादा थी। और पढ़ी लिखी तो थी ही ज्यादा। मतलब उनके पास मुझ से ज्यादा डिग्रियां थी। शायद किताबों की रद्दी अपने घर ज्यादा निकलेगी। वे बताते भी थे कि उनके परिवार में आईएएस और आईपीएस कई लोग हैं। लेकिन इन नौकरियों ने अपन को भी चमकृत नहीं किया। सो कभी जानने की और पूछने की इच्छा भी नहीं हुई। कि कितने हैं और कहां है। बात-चीत होती रही। लेकिन अपन जैसे मूर्ख आदमी को कभी समझ में ही नहीं आया। कि मैं उनकी बेटी के लिए एक अच्छा वर हो सकता हूं। और उनकी लिस्ट में हूं। लेकिन अपना मामला कुछ अलग था। सो शादी उनकी बिटिया से हो नहीं पाई।
बात अचानक फिर शुरू हुई। अबकी बार उनकी दूसरी बिटिया थी। और हमसे छोटा भाई है। वह इन दिनों सागर में ही रहता है। वहीं अपनी रोजी रोटी चलाता है। और अपन से कई गुना ज्यादा कमाता है. उनकी बिटिया दातों की डाक्टर है। लड़किया शायद कस्बाई मानसिकता की वजह से मुझे सभी सम्मानीय लगती है। सुंदरता मुझे उनके चरित्र में दिखती है। काया में नहीं। लड़की पढ़ी लिखी है। परिवार तो अच्छा है ही। और लगता है कि संस्कारित भी। बात शुरू हुई। आमदनी से। पढ़ाई लिखाई से। फिर परिवार और गोत्र तक गई। सभी बातें ठीक बैठती नजर आती थी। लेकिन उन्होंने एक बात कई बार पूछी। लड़की को परिवार में ही रहना होगा। मुझे बार बार यह बात समझ में नहीं आई। मैं कहता रहा। परिवार में नहीं तो कहां रहेगी। लेकिन शायद उनका मतलब कुछ और था। वे शायद चाहते थे पूछना। संयुक्त परिवार में रहेगी। या नहीं। कुछ बाते इशारों में ही खत्म हो तो मर्यादा बनी रहती है। अपन समझ गए। और शायद वे भी। बात खत्म हई।
मैं घर आकर सोचता रहा। बहुत देर तक। पत्नी बार बार पूछती रही। किसी से दफ्तर में लडके आए हो क्या। मैंने कहा नहीं। फिर किसी खबर पर किसी नेता से बहस करके तो नहीं आ गए। तुम्हें एफडीआई से क्या करना। ब़ड़े स्टोर खुलने जा रहे हैं तो खुलने दो। जब सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ साथ इन नेताओं को चिंता नहीं हैं। तो तुम क्यों परेशान हो रहे हों। लेकिन में एफडीआई पर नहीं सयुंक्त परिवार पर सोच रहा था। आखिर क्या खराबी हैं सयुक्त परिवार में ? और क्या फायदा अकेले रहने में ? तुम शायद अपने हिसाब से कपड़े पहन सकते हो। वह तो मेरी पत्नी भी जींस से लेकर स्कर्ट तक पहनती है। लेकिन दादी के सामने नजर का लिहाज होता है। अकेले रहते हो तो शायद अपने हिसाब से खाना खाते हो। सो अपने घऱ में चाइनीज से लेकर इटेलियन तक सभी आता है। जिंदगी अपने हिसाब से जीते हो। शायद तुम जब सोना चाहते हो सो लेते हो। जब घूमने जाना चाहते हो चले जाते हों। लेकिन परिवार में एक मर्यादा रहती है। जिसका आपको पालन करना होता है। लेकिन वे सारे कष्ट और परेशानियां जो आप अकेले झेलते हो। संयुक्त परिवार में पता हीं नहीं चलता। सुंयक्त परिवार में रहने वाले लोगों के तलाक भी कम होते है। और शायद झगड़े भी। लेकिन जिंदगी के दो पहलू। हर आदमी अपनी तरफ से देखता है। सुंयक्त परिवार एक अहसास है। जिसे जिया जा सकता है। समझाया नहीं जा सकता है। सो अपन ने उन्हें तर्क नहीं दिया। सिर्फ उठकर चले आए। चलो कहीं और जाकर एक ऐसी लड़की खोजेगें। जिसके मन के दायरे में सिर्फ पति नहीं। पूरा परिवार रहता हो। आपको पता हो तो बताइएगा।

Monday, November 28, 2011

लगा उनके आंसू पोंछू। और पैरों पर सिर रख दूं।

एम्स में अंगदान पर एक कार्यक्रम था। केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री को आना था। सो अपनी ड्यूटी कार्यक्रम को कवर करने की थी। मंत्री महोयद आए नहीं। लेकिन फिर भी मन हुआ कि कार्यक्रम में कुछ देर बैठे । भाषण थे। कुछ औपचारिकताएं थी। सरकारी कार्यक्रम की तरह। अब तक २२ साल की पत्रकारिता में कई हजार कार्यक्रम कवर किए होगें। लेकिन न तो अपन को कभी फूलों पर किए जाना वाला खर्च समझ में आया। और न हीं स्वागत भाषण का औचित्य। न कभी धन्यवाद ज्ञापन जरूरी लगा। और हर कार्यक्रम में ये दोनों काम ऐसे लोगों को दिए जाते हैं। जिनके हिस्से में और कुछ नहीं होता। लिहाजा वे खूब समय लगाकर अपना औचित्य बताते हैं। सो अपन बैठे बैठे कुछ खीज भी रहे थे। पर उस कार्यक्रम में ऐसे लोगों का सम्मान भी था जिन्होंने अपने निकट के लोगों का अंगदान किया है। और कई जाने बचाई है।
हम जैसे पत्रकारों को कुछ ४०---५० सवाल रटे हुए हैं। जो एक दिन में कई बार पूछतें है। आप लोग भी अब टीवी पत्रकारों की मजाक उड़ाने के लिए उन्हीं सवालों की नकल करते हैं। जैसे आपको कैसा लग रहा है ? इस विषय पर आपका क्या कहना है ? आपका रिएक्शन क्या है ? आप क्या सोचते है ? आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली ? भविष्य में आप क्या चाहते हैं। ? और इस तरह के अन्य सवाल। लिहाजा उन बुजर्ग के सामने अपन ने भी माइक लगा दिया। और पीछे से किसी साथी की आवाज आई आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली ? आपने क्या सोचकर यह कदम उठाया ? वे सर झुकाकर खड़े थे। जब उन्होंने सर उठाया तो वे एक पिता थे। उनकी आँखे बताती थी। जैसे उन्हें सब कुछ सामने दिख रहा हो। अभी भी
उन्होंने बोलना शुरू किया। कुछ समझ में नहीं आता। न कोई फैसला लेता है। न दिमाग काम करता है। जब आपने अपने ३२ साल के बेटे को आधे घंटे पहले हंसते बोलते सुना हो। मोटर साइकिल चलाकर निकलते हुए घर से देखा हो। और कुछ देर बाद फोन आता है। यह मोबाइल किसका है। और आप इसके कौन है। एक हादसे में यह व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गया है। अस्पताल पहुंचने पर पता लगता है आपका बेटा गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ है। घायल कर गया है। लेकिन उस समय इस तरह के फैसले लेना आसान नहीं होता। लेकिन शायद भगवान ने मेरी तरफ से फैसला लिया। और मैंने अपने बेटे के ओर्गंस दान कर दिए। अब शायद उसकी जगह कई लोग जिंदा होंगे। लेकिन यह सच है कि ऐसे समय में जब आपसे इस प्रकृति ने सबसे मूल्यवान चीज छीन ली हो। ऐसे समय में भी दुनिया का ध्यान रखना। समाज की चिंता करना। किसी इंसान की बूते की बात नहीं हैं। वे सही कहते हैं। यह फैसला उन्होंने नहीं लिया होगा। उनके अंदर बैठे किसी फरिश्ते ने ही लिया होगा।
वे इतना ही बोल पाए। वे मानों किसी मानवीय सागर में बर्फ की तरह पिघल कर एक हो गए। और मैं वहीं किसी चट्टान की तरह खड़ा रहा। न हिल पाया। न कुछ कर पाया। मेरा मन किया। बार बार किया। कि इनकी आँखों से आंसू पोछं दूं। और इनके पैर पर अपना सिर रख दूं। लेकिन लोकलाज से हम कितने डरते हैं। इसका आभास होता रहता है। लगा जैसे हंसी का पात्र बन जाउंगा। अपनी इस जटिल दुनिया में किसी के पैर छूना भी अब आसान नहीं है। लगा कुछ लोग हंस देंगे। कुछ कहेंगें। अच्छा नाटक करता है। कुछ और भी बातें होगी। लेकिन हो सकता है कि इन बातों को मैं सहन कर भी लेता। लेकिन एक पवित्र माहौल को मैं खराब नहीं करना चाहता था। सो चुपचाप रहा।

Sunday, November 27, 2011

क्या आपका संडे भी छोटा होता है।

दफ्तर से फोन आया था। कल क्या स्टोरी करोगे। और हमें समझ में आया कि संडे खत्म हो गया। न दोस्तों के साथ अड्डेबाजी कर पाया। न फिल्म देखी। न पत्नी के साथ बाहर जाकर डिनर किया। न वे किताबें पढ़ पाया। जो बुक फेयर से लाया हूं। महीनों पहले। न उन लोगों के घर जा पाया। जिनके घर शादी के बाद से ही जाना तय है। और हर संडे आगे खिसकता जा रहा है। न सरोजिनी नगर बाजार गया। जहां अपनी हैसियत के लोग पत्नि के साथ जाकर अक्सर मौसम के हिसाब से कपड़े खरीदते हैं। पत्नियां मोलभाव करती है। अपना काम सिर्फ थैले उठाकर घूमना होता है। न ही मालवीय नगर जाकर वो चाट और गोलपप्पे पत्नी को खिला पाया। जिनकी उसे अक्सर याद आती है। फिर भी छुट्टी का दिन निकल गया।
सोमवार सुबह जब आलस्य के साथ नींद खुलती है। और अखबार लेकर अपनी बीट की खबरें खोजता हूं। कहीं कुछ हमसे छूट तो नहीं गया। कहीं कुछ आज बड़ी खबर तो नहीं बनने वाली है। तभी पहला ख्याल मन में आता है। संडे को छह दिन और बचे हैं। और फिर हर रोज संडे के लिए लिस्ट बनाता रहता हूं। और लिस्ट हफ्ते भर बनती रहती है। हालांकि हर बार मेरी पत्नी की लिस्ट मुझ से लंबी होती है। ये अलग बात है कि वह लिस्ट शादी के बाद कभी पूरी तरह से पूरी नहीं हो पाई। कभी कहता हूं। संडे का दिन छोटा होता है। कभी लगता है। दफ्तर अपना भी पांच दिन खुलना चाहिए। और छुट्टी दो दिन की होनी चाहिए। और अपने सरकारी दोस्तों की दो दिन की छुट्टी देखकर मन दूर से ललचाता भी है। फिर किसी दार्शनिक की तरह सोचता हूं। कि छुट्टी कभी किसी का मन नहीं भर पाती। जैसी कितना भी सूद मिले। महाजन को कम ही लगता है।
आप पूछ सकते है। कि जब तुम कुछ कर ही नहीं पाए। तो फिर संडे गुजरा कैसे। मुझे तो अपने ३९ सालों का पता नहीं चल पाया। कि कुछ किया ही नहीं। और इतने साल निकल गए। बात संडे की तो छोड़ ही दीजिए। देर से सोकर उठा। आराम से चाय पी। अखबार की वे खबरे भी पढ़ी जिनसे अपना सरोकार नहीं था। बालकनी पर खड़े होकर दूसरी चाय पी। वो मोहल्ला जिसमें रहते हैं। उसे सरसरी नजर से देखा। सब्जी खरीदी। किराने की दुकान पर गया। नहाया। खाना खाया। फिर सो गया। कुछ लोग घर आ गए। उनके साथ चाय पी। जिंदगी की परेशानियों के बारे में कुछ फलसफे कहे। वे फोन सुने आराम से। जिनसे हफ्ते भर कहा। कि मैं मीटिंग में हूं। आपको कॉल बैक करता हूं। और कर नहीं पाया। शाम को घर के नीचे गया। कुछ जरूरी सामान लाना था। लौटकर आया। तभी फोन आ गया। और कल की स्टोरी खोजने लगा। अपना संडे खत्म हुआ।
लेकिन अगली बार। खूब सारी किताबें पढ़ूंगा। दादी से देर तक फोन पर बात करूंगा। पत्नी को शाम को चाट खिलाने ले जाउंगा। रात को बाहर डिनर भी करूंगा। सरोजिनी नगर मार्केट जाकर अपने लिए स्वैटर खरीदूंगा। हो सका तो महेंद्र या गंगेश के घर खाना खाने जाऊंगा। या फिर अनिल या आशीष के घर हो आउँगा। वक्त मिला तो पत्नी के साथ बाड़ीगार्ड या फिर दबंग नहीं तो सिंघम कोई न कोई फिल्म देखूंगा। या फिर शिव भैया के साथ जाकर कोई ऐतिहासिक जगह घूम कर आउँगा। अगले संडे बहुत काम करना है। अपना रैक जमाना हैं। किताबों को सलीके से रखना है। गीजर ठीक करवाना है। और........ बस इतना बता दीजिए। कि अगला संडे इतना छोटा तो नहीं होगा। जितना आज वाला था। आप क्या करते हैं संडे को बताइएगा।

Friday, November 25, 2011

हर दिन सुबह कहता था। आज शाम को कह दिया रामराम

नीरज का फोन आया। आलोक जी बाबा चले गए। शाम को अंतिम संस्कार होगा। अपनी नौकरी ऐसी है कि बीच में भाग नहीं सकते। दूसरों की तरह। सो चुपचाप रह गए। फिर जब काम पूरा हो गया। सो भाग कर शमशान पहुंचे। जलती हुई लकड़ियों के बीच बाबा को अंतिम बार देखा। प्रणाम किया। और आखरी बार बार रामराम कहा। आंख बंद कर कुछ देर चुप चाप खड़ा रहा। जानता था कि अब की बार वे जवाब नहीं देगे.। अपने आंसुओँ को कोई नाटक या दिखावा न समझे। सो चुपचाप पौंछ कर किनारे हो गया। और घर आ गया।
जनसत्ता के दिनों से ही अपन खिड़की गांव में रहते हैं। मोहल्ला बदला ही नहीं। सिर्फ घर बदलता रहा। शादी के बाद दो कमरे के घर से दो बेडरूम वाले घर में आना पड़ा। नीरज अपने पुराने दोस्त थे। शतरंज और कैरम साथ खेलते थे। सो उनका मकान अपन ने ले लिया। नीरज के घऱ में आए तो उनके बाबा से अपनापा हो गया। उन्हीं दिनों अपने दादा चले गए थे। मैं नीरज के दादा में अपने दादा खोजने लगा। उनकी कई आदतें अपनी देखी हुई सी लगती। वे रोज सुबह तीन बजे उठ जाते। टहलते रहते। जब से हमनें सुबह उठकर घूमना शूरू किया। वे खुश होते। मैं जब भी राम राम करता। पूरी ताकत के साथ जवाब देते राम राम भाई साहब। सुबह उठना चाहिए। आप अच्छा काम करते हो। जब कभी नौकरी से देरी से आता ।तब तक उनकी आधी रात हो चुकती। वे अक्सर कहते ये कौन सा काम करते हो। आधी रात तक नौकरी करते हों। वे शाम सात बजे तक सो जाते थे। हां कभी कभार उनकी नींद खुलती और अपनी मोटरसाइकिल नहीं दिखती तो जरूर पूछते। मैं अभी तक आया क्यों नहीं।
शमशान के उन कुछ मिनिट में मानों कितने साल आंखों के सामने से निकल गए। कोई अपनी पत्नी को कह रहा था कि गीज़र ऑन कर दो। मैं घर पहुंचने वाला हूं। हां तैयार हो जाओ। मेरी नीली कमीज निकाल दो। आकर फिर चलते हैं। और उसकी दुनियादारी के फोन ने अपनी आँखे खोल दी। लोग कहते हैं कि पहले शमशान में लोगों को लगता था कि दुनिया कितनी बेमानी है। एक दिन सभी का ऐसा होना है। और बाहर निकलते ही कुछ देर बाद वह सामान्य होने लगता था। लेकिन मैं देख रहा हूं। कि हमारी व्यस्तताओं ने हमसे यह मौका भी छीन लिया। इस जगह पर आकर हम कुछ देर को अकेले हो जाते थे। यह स्थान हमें सोचने पर मजबूर करता था। अब तो शमशान घाट पर भी फोन सुनने ही पडते हैं। और कालर ट्यून पर बजते गाने कजरारे कजरारे वीभत्स लगते हैं। आदमी हर किसी घटना में अपने स्वार्थ को देखता है। मुझे भी लगता है। कि कल सुबह कैसे ऊठूंगा। किससे राम राम कहूंगा। और देर से आऊंगा तो कौन पूछेगा। कि कैसी नौकरी करते हो। आधी रात तक कहां रहते हों। हमेशा उनसे सुबह कहता था। आज शाम को कह आया। बाबा राम राम।

Sunday, November 6, 2011

जिंदगी पलट कर देख रहा हूं। देखिए क्या होता हैं।

आपको यकीन शायद नहीं होगा। लेकिन मैं इन दिनों चार बजे उठ रहा हूं। यानि जितने बजे सोता था। उतने बजे उठ रहा हूं। अचानक ख्याल आया। जिंदगी चालीस के आसपास घूम रही हैं। अपन इस जन्म में कुछ कर नहीं पाए। लगा शायद कुछ तरीका ही गलत था। चल ही गलत रास्ते रहे थे। या फिर जिंदगी जी ही उल्टे तरीके से रहे थे। और कुछ तो अपने बस में था नहीं। सोचा चलो दिन की शुरूआत का तरीका बदल कर देखते हैं।
हर समय का अपना एक अलग समाज होता है। और हर समय का अपना एक अलग महत्व होता है। अपना घर सागर में तीनबत्ती पर है। यानि दिल्ली में कनाट प्लेस ।घर बाजार में है। बाजार की रौनक और भीड़ से घर कभी अछूता नहीं रहा। इसके साथ ही दादा फिर पिता चाचा हम और अब सुनते हैं छोटे दोनों भाई भी समाजिक हैं। यानि किसी न किसी तरह समाज के हर तबके से अपना रिश्ता रहा। दिल्ली में बैठकर कई चीजें आपको अतिश्योक्ति लग सकती हैं। लेकिन आज भी घर में अड्डा बाजी सुबह तक चलती रहती है। आपको लगभग पूरी रात अपने घर पर लोग बतियाते चाय पीते मिलेंगे। घर में कैरियर बनाने का माहौल नहीं था। न हीं महत्वकाक्षां थी। पनप ही नहीं पाई। हां पढ़ाई लिखाई का माहौल खूब था। कबीर से मिल्टन तक और कृष्ण से बर्टैंड रसैल तक। टैगौर से अमृता प्रीतम तक। फरीद से दादू तक। सभी तरह की किताबें खूब पढ़ी। और घर में आते जाते लोगों से बातें भी खूब सुनी। पिता की अड्डेबाजी रात में शुरू होती थी। वही अपनी स्कूल बनी। और जिंदगी का मजा आने लगा।
अपन को भी जिंदगी रात दस बजे के बाद अच्छी लगने लगी। जगदीश शर्मा से नाटकों पर और भरत खरे से कबीर से लेकर आज की दुनिया तक गप्पे रात में ही मजा देती थी। शैलेंद्र सराफ हों या सतीश नायक रात को चैतन्य होते थे। फिर कविता लिखने का शौक ऐसा लगा कि रात होतें ही कविता का जन्म होता। वह पनपती और बिटिया की तरह जवान होती। आशीष चौबे आशूतोष तिवारी आशीष ज्योतिषी गप्पों पर गप्पे करते जाते हैं। और रात निकल जाती है। दिल्ली आए तो घर की याद आती थी।और नींद नहीं आती थी। सो किताबें पढ़ते पढते सुबह हो जाती। अब नया शौक लग गया। ब्लाग लिखने का। फेस बुक और इंटरनेट ने जिंदगी ही बदल दी। अब किताबों की जगह टीवी और नेट ने ले ली। देर से सोना। देर से उठना। देर रात तक गप्प करना। अब फोन पर। अपनी जिंदगी का हिस्सा बन गया।
अब जिंदगी अचानक पलट रहा हूं। समाज भी अपना बदल रहा है। कभी तीन तो कभी चार बजे सोता था। अब नया प्रयोग कर रहा हूं। उतने बजे उठ रहा हूं। दस बजे सोता हूं तो अजीब सा लगता है। सुबह उठकर कई लोगों के मिस कॉल देखता हूं। गाली गलौज वाले मैसेज भी देखता हूं। जिन्हें लगता हैं। मैंने फोन नहीं उठाया। वे अपना गुस्सा भेज देते हैं। लेकिन इतने साल बाद पता लग रहा है। कि भगवान ने सुबह कितनी सुंदर बनाई हैं। मौसम किस तरह से तराशा है। वे लोग जिनके चेहरों पर चमक होती है। जिंदगी जिनके खाते में सफलता लिखती हैं। वे अक्सर सुबह सुबह दिखते हैं। लालच में उठने लगा हूं। देखिए कब तक उठ पाता हूं। सुबह की सर्दी और लिहाफ का लालच। दोनों मजेदार है। आप कब सोते हैं और कब उठते हैं। बताना जरूर।

Monday, October 3, 2011

अपन जमीन पर बरगद नहीं। बालकनी पर लटकती बेल हैं।

हम और शिव भैया। सुबह सुबह पार्क में मार्निगं वॉक की खानापूरी कर रहे थे। तभी अचानक उनके घर से फोन आया। घर जल्दी चले आना। कुल देवी की पूजा है। दीपावली हो या होली। शिव भैया अस्पताल टाइम से ही जाते है। उनके मरीज प्रेम को घरवालों ने अपना हिस्सा मान लिया। लिहाजा अब घर की तमाम गतिविधियां उनके हिसाब से एडजिस्ट की जाती है। इसलिए तमाम तरह की पूजा भी उनके अस्पताल जाने से पहले ही कर ली जाती है। उनके बुलावे पर मुझे भी याद आया कि आज अष्टमी है। कुल देवी की पूजा। और अपनी आँखे भर आई। मैं चुप चाप रहा। और घर आकर लिखने बैठ गया।
कुल देवी की पूजा के कई अर्थ है। इसका जितना धार्मिक महत्व है। उससे कहीं ज्यादा सांस्कृतिक महत्व है। मुझे बचपन से ही कुल देवी की पूजा दीपावली या दूसरी पूजाओं से ज्यादा अच्छी लगती रही। एक समय था। जब हम इतने समझदार नहीं हुए थे। और घर के नियम कायदे मानते थे। अब तो घर वालों को भी अपन प्रक्टिकल होने की सलाह देते है। और दादी भी अनमनें ढंग से अपने कुतर्क मान लेती है। कुल देवी की पूजा घर का मुखिया करता है। सो जब तक दादा जिंदा थे। वे ही करते थे। और अपन भी कोशिश करते थे। किसी न किसी तरह इसमें शामिल होने की। उनके जाने के बाद मुझे पूरी पूजा ही अधूरी लगने लगी। और कुल देवी की पूजा में कुछ कमी से खलने लगी। मेरे सामने जो इसका तिलिस्म था वो टूटने लगा। हांलाकि कुल तो हमेशा स्थिर ही रहता है। दादा चले गए। और उस पूजा में अब अनिता आ गई है। अपनी शादी जो हो गई।
कुल देवी की पूजा को बड़ी साफ सफाई और नियम कायदों से साथ किया जाता है। इस पूजा को घर की लड़किया नहीं देखती। वे दूसरे कुल की है। जहां शादी होकर जाँएगी। वह उनका कुल होगा। कुल देवी की पूजा पर पूरा कुल जमा होता है। और हमें समझ में आता है। कि जीवन में परिवार की सीमा सिर्फ माता पिता तक ही नहीं है। उनके अपने भी आपके अपने है। और हमारी संकीर्ण सोच को विस्तार देता है। लिहाजा कुल का साथ आना। नए मायनों को भी जन्म देता है। यह पूजा हमारे बीच बंधे धागे को और मजबूत करती चलती है। संयुक्त परिवार के विचार को इस तरह की पूजा मजबूत करती हैं। परिवार में आया हर नया सदस्य। कुल का हिस्सा होता जाता है। और अपने को परिवार का हिस्सा मानने लगता है। और शायद यह विचार भी मन में आता है कि हम इन तमाम लोगों के लिए जिम्मेदार भी है।
मैं जानता हूं। कि आज पूजा में दादी को मेरी जगह खाली लगेगी। मेरी कमी खलेगी। और मुझे डेढ़ करोड़ की दिल्ली में अकेले पन का अहसास हो रहा है। लगता है। जैसे हम किसी आंगन में या किसी जमीन में पनपे हुए बरगद नहीं है। न हमारी कोई जमीन है। और न हीं कोई संस्कृति। न कोई कुल। न कोई पूजा। हां मालवीय नगर की तीसरी मंजिल से लटकती हुई एक सुंदर बेल की मनोदशा अपनी लगती है। जिसे मेरी पत्नी ने घर की बालकनी पर लटका दिया है। ठीक इसी तरह से अपन भी कुल और शहर छोड़कर यहां चले आए हैं। और हवा में लटक गए है। हमारे यहां होने का किस को क्या फायदा है पता नहीं। सिर्फ सुंदरता की कीमत है। किसी भी दिन झाड़ पोछ कऱ अलग कर दिए जाएंगे। हम जानते है। कि बालकनी पर लटकती बेल न किसी को छाया देती है। और न ही फल। उनमें लकड़ी भी नहीं होती। वे सिर्फ एक झूठी ऊंचाई का अहसास करती रहती है। लेकिन हकीकत हम जानते हैं। और शायद आप भी।

Thursday, September 29, 2011

दादी का फोन आया। मूंगफली आ गई। तुम कब आओगे।

पिछले कई महीनों से मैं बहाना बना रहा था। जब देशी मूंगफली मिलने लगेगी। तब आउंगा। पिताजी इस फसल की पहली मूंगफली लाए थे। घऱ के लोग बताते हैं।दादी ने मूंगफली खाई बाद में। पहले फोन किया। में चिंदबरम और प्रणव मुखर्जी के मेल मिलाप पर नजर रखे था। तभी नार्थ ब्लाक में फोन बजा। और दादी की आवाज आई। सागर में देशी मूंगफली मिलने लगी है। घर भी आ गई है। तुम छुट्टी की बात कर लो। और आजाओ। और हां। इस बार ज्यादा दिन की छुट्टी लेकर आना। तुम्हारा आना पता ही नहीं चलता है.....इतना कहकर उन्होंने फोन रख दिया। वे पिछले कुछ सालों में खबर की urgency भले न समझी हों। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया की व्यस्तता समझ गई है।
कुछ लोग कहते हैं। बंगाली रसगुल्ला खाना है तो कोलकत्ता चलो। बड़ा पाव के लिए मुम्बई चलो। मथुरा में चाट का मजा है। तो आगरा में पेठा। और पत्नी कहती है कि इलाहाबाद में अमरूद अच्छे मिलते हैं। लेकिन जो मजा अपन को सागर में मूंगफली खाने में आया। वो और कहीं नहीं मिला। बात स्वाद की नहीं। मजे की है। सागर की मूगंफली। मूंगफला कहलाती है। उनमें एक अलग तरह की नमी रहती है। जो स्वाद को और ज्यादा बढ़ाती है। पूरे साल में यह देशी मूंगफली सिर्फ कुछ दिनों के लिए ही मिलती है। मूंगफली तो पूरे शहर में एक जैसी ही मिलती हैं। लेकिन जो दुकानदार अच्छी चटनी बनाता है। दुकान उसी की चलती है। मूंगफली का महत्व मैंने जनसत्ता में समझा। मैं उन दिनों सुधीर चाचा से पत्रकारिता की एबीसीडी सीख रहा था। सागर जाते समय में मैंने पूछा । आपको कुछ लाना है क्या। वे बोले मूंगफलां। और मैं उन्हें ले आया। उन्होंने छुट्टी लेकर उन्हें भूंजा। और खाया।
मूंगफलां खाने का मजा। सागर में ही है। अपन ने दिल्ली लाकर और भूंज कर देख लिया। बात बनी नहीं। फिर मुझे लगा जैसे चाय स्वाद की बात नहीं होती। आप जिसके साथ बैठकर पीते है। मजा उसका साथ देता है। यही बात सागर की है। दोस्तों के साथ कितने बार हमने घंटों मूंगफलां खाया। उन्हीं ठेलों पर कबीर से लेकर शेक्शपीयर और पिकासो से लेकर खलील जिब्रान तक पर गप्पे ठोकी। अल्ला रख्खा का तबला और रविशंकर जी की सितार इन्हीं ठेलों पर चर्चा में घुली और और हम मूंगफलां के साथ खा गए।
दिल्ली जैसे महानगर में जहां हर मिनिट की कीमत होती है। वहां पर कोई ठेले पर घंटों खडे़ होकर मूंगफलां खाने की सोच भी नहीं सकता। लेकिन सागर में यह आम बात है। एक बार में सिर्फ कुछ लोगों को ही मिल पाती। फिर करीब आधा घंटा इंतजार करना पडता है। अपनी बारी का। इस तरह से कई बार घंटों मूंगफलां खाई। इस बार देखो क्या होता है। पिछले कई सालों से सागर सही वक्त पर नहीं पहुंच पाया। और इन्हें खा नहीं पाया। अगर सागर इस बार गए और मूंगफलां आते रहे। तो खाकर आंएगे। अगर आपको फुर्सत हो तो हमारे साथ चलिएगा। macdonalds और domminos से ज्यादा मजा आएगा। हमारे शहर में मूंगफलां के ठेलों पर। साथ में हरी चटनी। और ढेरों गप्पे।

Wednesday, September 28, 2011

सागर में धूम। दिल्ली में सन्नाटा

सोचा था। सुबह जल्दी उठेगें। नहा कर। पूजा करेगें। मंदिर भी जाएँगे। नवरात्र जो आरंभ हो रहे हैं। लेकिन कल रात दिल्ली में एक हादसा हो गया। एक इमारत गिर गई। कई लोगों की जान गई। कई जख्मी हुए। अपनी ड्यूटी लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल के बाहर थी। सो देर रात तक घायलों की स्थिति और मरने वालों की संख्या पर खबर भेजते रहे। देर रात घर लौटे। मन परेशान था। मौत जब भी करीब से देखों। दहला देती है। जिंदगी के तमाम मायने बेमानी लगने लगते है। सच को इस तरह करीब देखकर मन बैचेन होने लगता है। हमारी झूठी जिंदगी के महल ताश के पत्तें की तरह गिरने लगते है। तड़के तक सोचता रहा। सो नींद देर से लगी। उठा भी देर से। लिहाजा कुछ भी नहीं कर पाया। सिर्फ दादी को फोन किया। और जिस अंदाज में होटल से खाना मंगाते हैं। या पीज्जा का आर्डर देते है। कहा आशीर्वाद दे दो। दिन शुरू कर रहा हूं।
अपने सागर में नवरात्र की शुरूआत का मजा पहले से ही आने लगता था। काली जी बैंठेगी। पंडाल बनेगा। प्रतियोगिताएं होगी। हां और भाषण प्रतियोगिता जिसे में ही जीतता था। नौटंकी से लेकर रामलीला तक बस मजा ही मजा था। काली का तिगड्डे पर बैठना मानो किसी मेला जैसी रौनक का बिखरना हो। काली की मूर्ति का चुनाव करना। मूर्ति को कई तरीके से सजाना। अपने मोहल्ले की काली का पंडाल सबसे खूबसूरत हो इस पर दिमाग लगाना। नए नए प्रयोग करना। सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाना। कोशिश करना की एक दिन कवि सम्मेलन भी हो। ताकि मोहल्ले में अपनी धाक बरकरार रहे। और इस तरह पूरा महीना किस तरह निकल जाता था। पता ही नहीं चलता था।
हो सकता है आप लोगों ने शेर नाच न देखा हो। हमारे शहर में कुछ लोग मन्नत मांगते है। कुछ लोग शोकिया शेर बनते है। वे पूरी तरह शेर के रंग में डूब जाते है। उसी तरह अपने शरीर को पोतते हैं। और हर पंडाल पर जाकर शेर की तरह नाचते हैं। नांचने की यह विधा एक दम अलग तरह की है। और इसके अलावा फिर सप्तमी को रामदल निकलता है। इसमें अखाड़े निकलते हैं। अपने अपने उस्तादों के साथ। पूरी तरह सजे हुए लोग। अखाड़े के पूरे हथियारों के साथ। और फिर आता है दशहरा। जिस दिन काली निकलती है। हमारे यहां रावण दहन इतनी बड़ी घटना नहीं होती। हां काली का निकलना पूरी रात चलता है। उस रात शहर में घूमने में कई तरह का मजा आता है। एक तो आपको वे दोस्त भी मिल जाएँगे। जिन्हें आपने सालों से देखा ही न हों। उनके साथ गप्पे। चाय पर चाय और पान। दशहरा का मजा कई गुना करता है।
दिल्ली में पता ही नहीं चलता। न नवरात्र का । न काली के बैठने का मजा आता है। कुछ देर पहले घर लौटा हूं। दादी से बात हई। उन्होंने बताया आज तो पूरा दिन बाजों की आवाज सुनते ही निकला। और मौहल्ले की काली बैठ गई रौनक पहले जैसी नहीं हैं। लेकिन अच्छा लग रहा है। मोहल्ले में काली कमेटी का अध्यक्ष नामवर आदमी बनता था। बात साफ थी। जिसका चरित्र साफ सुथरा और इमानदारी वाला हो। मोहल्ले में जिसकी इज्जत हो। हां उसे आरती करने मिलती थी। और वह पूरे पंडाल का महाराजा होता था। मुझे बचपन में कई बार लगा। मैं बड़ा होकर। काली कमेटी का अध्यक्ष बनूंगा। और हर साल बनता ही रहूंगा। लेकिन वक्त ने मुझे अध्यक्ष भी नहीं बनने दिया। और मोहल्ला ही छुटवा दिया। अब दिल्ली में न काली कमेटी है। और न परकोटा मोहल्ला। मैं किसका अध्यक्ष बनूं।

Sunday, September 25, 2011

कब तक पंजों के बल पर खड़े रहेंगे हम।

आप चाहे तो आशीष देवलिया को गालियां दे सकते हैं। उनका नंबर है ....९८७१०१७३७० । अगर आपको मेरा ब्लाग बुरा लगता है तो। अगर अच्छा लगता है। तो उन्हें बधाई दीजिए। अपन कंप्यूटर की तकनीक को लेकर पूरी तरह से अपढ़ है। अपना कंप्यूटर खराब हो गया। उसमें वाइरस आ गया। और मेरा हिंदी फोंट खराब हो गया। उसे वापस लाने की कोशिश की। लेकिन हुआ नहीं। अपन समझ गए। अपने कूबत में नहीं है। फिर आशीष से कहा और उन्होंने कोशिश करके। इसे चालू किया। और फिर से हम अब ब्लाग लिखना शुरू कर रहे हैं।
जो समय निकल जाता है। उसे याद करना। उसे लिखना कुछ अजीब सा मन में खिचाव पैदा करता है। लगता है। कि हमने अपने समय का इस्तेमाल ठीक तरीके से नहीं किया। वह यू हीं जाया हो गया। आप लोगों से महीनों बाद बातचीत हो रही है। कभी मैं बीमार रहा। तो कभी कंप्यूटर। कभी फोन गुम गया। तो कभी फोंट ही गुम हो गए। हां इन दिनों कुछ नई किताबें जरूर पढ़ी।
एक विचारक की बात मुझे बहुत अच्छी लगी। कि तुम ज्यादा देर तक पंजे के बल नहीं खड़े रह सकते। मैं यह बात पढ़ कर घंटों सोचता रहा। हम तो अपनी जिंदगी में पंजों के बल ही खड़े रहने की कोशिश करते रहते हैं। पूरा समय इसी में निकलता है। कि जो हम नहीं है। उसे हम बार बार जताना चाहते हैं। अपनी ऊंचाई से ज्यादा दिखना चाहते है। हम किसे धोखा दे रहे हैं। अपनी झूठी उंचाई से । अपने आप को । या फिर दूसरों को । लेकिन धोखे की उम्र इतनी छोटी होती है। कि हमें सिर्फ दुख ही मिलता है उससे।
आज अपने एक बहुत पुराने दोस्त नोएडा से आए थे। नवरात्री में उनकी बहिन को लोग देखने आने वाले है। वे मेरी पत्नी के कुछ जेवर उधार चाहते थे। मना करते या उन्हें फलसफा सुनाते तो वे शायद बुरा मान जाते। लगा कह दूं। कि जिंदगी का इतना बड़ा रिश्ता तुम तय करने जा रहे हो। वो भी झूठ की बुनियाद पर। यह कैसे और कितने दिन चल पाएगा। लेकिन हिम्मत नहीं हुई कहने की। हम क्यों बार बार पंजों पर खड़े होना चाहते हैं। पता नहीं। लेकिन में तो शायद अभी भी पंजे पर ही खड़ा हूं। आशीर्वाद दीजिए। कि वापस अपने पैरों पर आ सकूं।। हो सकता है कुछ बोना हो जाउं।लेकिन सच्चाई तो वही है। क्या कहते है।

Friday, July 15, 2011

गुरूपूर्णिमा पर अवस्थी सर, सुधीर सर से लेकर रज्जाक चाचा तक सभी याद आते हैं।

अपन बुखार में हैं। लिखने की हिम्मत नहीं है। और कूबत भी नहीं। फिर भी जिद करके टेबिल पर बैठ ही गया। लगा गुरूपूर्णिमा है। कुछ तो लिखूं। हालांकि किसी गुरू को अच्छा लगता है। जब उसका शिष्य उचाइंयों पर पहुंचे। अपन किसी भी गुरू को गुरूदक्षणा नहीं दे पाए। गुरू की सबसे बड़ी दक्षणा होती है उसके शिष्य की कामयाबी। यह सुख तो किसी भी गुरू को अपन दे नहीं पाए। पछतावा भी है। और शर्म भी। फिर भी बेशर्मी से लिखने बैठ गया।
स्कूल। कालेज। पत्रकारिता। और फिर जिंदगी। ये अपने रूप बदलते गए। और हर मोड़ पर मुझे नए नए गुरू मिलते गए। जो वर्तमान जिंदगी की कठिनाइयां कम करते गए। व समझाते गए। और मैं आगे चलता गया। यह बात अलग है कि जो जिंदगी में कर्म करना चाहिए था। वो हमसे न हुआ। और हम जिंदगी के रास्तों पर पिछड़ते चले गए। अपने तमाम गुरू हमसे खुश है। लेकिन मेरी असफलता उन्हें दुखी करती होगी। वे शायद सोचते थे। मैं जिंदगी में ऐसा कुछ करू। जो उनकी शिक्षा को सार्थक करें। मैं कुछ दुनिया को ऐसा दे जाऊं। जो मेरी पढ़ाई लिखाई का अर्थ बने। लेकिन अपन ऐसा कुछ भी नया और रचनात्मक नहीं कर पाए। और जिंदगी को कलम घसीटकर काटने लगे।
अवस्थी सर ने मनोविज्ञान सिखाया। सुधीर सर ने पत्रकारिता। रज्जाक चाचा ने जिंदगी। रज्जाक चाचा का यह कहना कि जिंदगी में तीन चीजें साफ रखना। शरीर। लिबास। और नियत। सुनने में लगता है। आसान है। लेकिन सद नहीं पाता। बीच बीच में गिर ही जाता हूं। सुधीर चाचा का हाथ पकड़कर ही अपन जनसत्ता में घुसे। और आज भी पत्रकारिता में जो भी कर पाते हैं। उनका महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने ही समझाया। लिखना और पढ़ना। और हां दादा की एक बात। जो अपने आप में गुरू है। जिंदगी में जो बो दोगे। वहीं काटोगे। संभल कर रहना। प्रकृति तुम्हारे सारे कर्म तुम्हें लौटाती है। बहुत सी बातें है। ब्लाग में नहीं लिखी जा सकती। इतनी जल्दी। फिर भी मुझे अपने तमाम गुरू याद है। आपको भी होगें। हे भगवान मेरे तमाम गुरूओं को अगले जन्म में सामार्थ्य शिष्य जरूर देना। जो उनका नाम रोशन कर सकें।

Thursday, July 14, 2011

धोखा हजार का नोट देता है। पचास पैसे का सिक्का नहीं।

शिव भैया अपने एक दोस्त को बाहर तक भेजने आए थे। वह अपने पन में हमसे मिला। हाथ मिलाया। मुस्कराया। हालचाल पूछे। और चला गया। मैं कैसे कह देता कि तुम्हें पहचाना नहीं। अपने पन का एक मान होता है। उसे रखना ही चाहिए। जब वह चला गया। तो मैंने भैया से पूछा। कि चेहरा पहचान लिया था। नाम याद नहीं आया। उन्होंने बताया। उसका नाम अभय कुमार है। वह इंडियन इस्टिट्यूट आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में अस्सिटेंट प्रोफेसर है। लेकिन अभय इतने सरल। इतने सज्जन और इतने सीधे साधे हैं। कि उनके बारे में समझ पाना थोड़ा मुश्किल हुआ। लेकिन शिव भैया ने तपाक से कहा। और में पूरी बात समझ गया। वे बोले। आदमी धोखा हमेशा हजार के नोट से खाता है। पचास पैसे के सिक्के से नहीं। नोट वही नकली निकलता है। और कई बार तो उस समय जब उसकी जरूरत सबसे ज्यादा होती है। पचास पैसा का सिक्का ठोस होता है। और न कभी धोखा देता है। न नकली होता है। यह बात सुनकर मैं अपनी जिंदगी के कई पन्ने पलटने लगा। और मुझे याद आता गया। पुराना अनुभव। जिंदगी में कितनी बार हमने धोखा हजार के नोट से खाया है। वैसे आपने भी खाया ही होगा। हमारी फितरत है कि हम हमेशा सिर्फ बाहरी आवरण पर भरोसा करते हैं। हमने स्कूल में फिर कालेज में, शहर में और अब रोज मर्रा की जिंदगी मे देखा है। आम आदमी ऐसे लोगों के आसपास मडराता रहता है। जिसे वह अमीर या ताकतवर मानता है। आदमी को हमेशा लगता है कि अमीर आदमी से दोस्ती रखो। वक्त पर काम आयगा। मुझे याद है कालोनी में एक सज्जन ने कार खरीदी। उसके बाद उनके मिजाज ही बदल गए। लोग उनसे इसलिए सलाम करते कि कभी न कभी उनकी कार लोगों के काम आएगी। और उन्होंने लोगों से सलाम तो दूर बात करना और उन्हें देखना भी कम कर दिया। उन्हें डर था कि कभी न कभी कोई न कोई कार मांगने जरूर आएगा। कुछ लोगों ने उन्हें आजमाया भी। तो कभी बैटरी डाउन थी। तो कभी इंजन मे काम था। वह कार कभी किसी के काम आते मैंने तो नहीं देखी।
अक्सर मैं देखता हूं। लोग नेताओँ। विधायकों और मंत्रियों के आसपास लगातार रहना चाहते हैं। सबको लगता है कि संबंध बने रहे तो अच्छा है । वक्त रहते काम आएगें। और शायद यही वजह है कि संबध बनाने के चक्कर मैं हम अपना स्वाभिमान कब खो देते हैं। पता नहीं चलता। और चापलूसी की सीमा में हम कब पहुंच जाते है। याद नहीं रहता। लेकिन अगर हम यह बात याद रखें। तो शायद जिंदगी बदलेगी। हजार के नोट पर यकीन मत करों। जो ठोस है वही साथी है। चाहे वह पचास पैसे का सिक्का हो। या अभय हो।

Wednesday, July 13, 2011

क्या हम भी इसी तरह मर जाएगें। किसी रोज। बेवजह

मैं बातूनी आदमी हूं। खूब बोलता हूं। लिहाजा बोलने में कभी भी दिक्कत नहीं होती। न झिझक। न शर्म। और बोलने में डर भी नहीं लगता। लेकिन आज कुछ देर तक मैं चुप बैठा रहा। बोल ही नहीं पाउँ। मेरे आसपास बैठे लोगों को लगता रहा। कि मैं नाटक कर रहा हूं। मेरी सिर्फ आंखे भर आती थी। मैं आंसू पीता। पोंछता। फिर कुछ सोंचने लगता। फिर चुप हो जाता ।और इस तरह मैं बहुत देऱ तक चुपचाप बैठा रहा। शायद खौफ में था। फिर कई सारे लोग एक साथ चिल्लाएं। चिंदबरम निकल रहा है। और हम अपना माइक लेकर पीछे पीछे भागे। पर गाड़ी 19 सफदरजंग से निकल कर चली गई। और मैं वापस होश में आया।
अपन कांग्रेस दफ्तर में थे। जब अपने boss का फोन आया। मुम्बई में ब्लास्ट हो गए हैं। तुम गृह मंत्री के घर चले जाओँ। और जो जरूरी था। उन्होंने मुझे फोन पर समझाया। मैं सरपट भागता हुआ। उनके घर के बाहर जम गया। हम जानते थे। वे कुछ बोलेगें नहीं। पहले जाकर अपने अफसरों से हालात समझेंगे। फिर कुछ कहेंगे। सतर्कता के साथ। जिन लोगों को हम नहीं जानते उनके लिए आंसू बहुत मुश्किल से निकलते हैं। लेकिन यह दुख शायद उनके लिए नहीं था। यह डर भी शायद उनके लिए नहीं था। आप से झूठ बोलने की कोई वजह नहीं है। ये डर ये दुख। अपने लिए था। मैं शायद यही सोच रहा था कि क्या हम भी इसी तरह किसी भी रोज मार दिए जाएंगे। बेवजह । क्या हमारी जिंदगी की कोई कीमत नहीं। कोई महत्व नहीं। हम सिर्फ आज शाम तक इसलिए जिंदा हैं क्यों की किसी ने हमें मारने की जरूरत नहीं समझी।
आखिर क्या दोष है। उन लोगों का जो अपनी जिदंगी के रोज मर्रा के संघर्ष करने में व्यस्त है। और इन्हीं संघर्षों के दौरान मार दिए जाते हैं। कुछ सिरफिरे लोग आते है। हमें रेत के घरों की तरह ढहा देते है। और हमारे पास रह जाते हैं। सिर्फ कुछ बयान। जांच के भरोसे। प्रधानमंत्री की संयम की अपील। मुख्यमंत्री की मुआवजे की घोषणा। और अस्पतालों में मरीज। जो मुआवजें को भटकेगें। सालों। विपक्ष के आरोप। और हम जैसे पत्रकारों की कुछ खबरें।
हो सकता है। मैं कुछ डरा हुआ हूं। इसलिए इस तरह की बातें लिख रहा हूं आप को क्या लगता है। कि क्या हल है इस तरह के हादसों को टालने का। हम इस लिए जीएँ कि हम कुछ सार्थक। कुछ रचनात्मक करना चाहते। इस लिए नहीं कि हम अभी तक आतंकवादियों की आँखों में खटके नहीं है।

Tuesday, July 12, 2011

टेक्नालॉजी क्या हमें अपनों से दूर कर रही है।

सुबह उठता हूं। कंप्यूटर चालू करता हूं। नेट के जरिए सारे ई पेपर देखता हूं। अपनी बीट की तमाम खबरें खंगालता हूं। और फिर फोन पर मीटिंग शुरू होती है। इसके बाद खबर करने की तैयारी। और घर से निकलता हूं। इस बीच तमाम google-alerts खोल खोल कर पढ़ता रहता हूं। कहीं कोई खबर बन तो नहीं रही हैं। कहीं कोई खबर अपन से छूट तो नहीं रही है। लिहाजा कई बेव साइट्स खोलता रहता हूं। इस बीच अपने साथी रिपोटर्स को फोन के जरिए टटोलता रहता हूं। जब भी मौका मिलता है कहीं भी टीवी देखने का फायदा उठा ही लेता हूं। फोन पर हर एसएमएस। हर मेल। ध्यान से देखता रहता हूं। खबर बनाई। और फिर घर लौट आए। नहाता बाद में हूं। पहले तमाम चैनल्स देखता हूं। फिर रात में मेल चेक करता हूं। और हां अब ब्लाग लिख रहा हूं। इस बीच फेस बुक पर भी कुछ न कुछ करता रहता हूं। अब इस बीच कहां समय हैं। किसी के लिए। वो पत्नी हो या मां। दादी हो या कोई दोस्त।
टेक्नालॉजी ने हमें धोखा दिया है। कहा तो ये गया था। कि इससे हमारी जिंदगी आसान होगी। जिंदगी सुविधाजनक होगी। लेकिन हुआ उल्टा। हम खाली होने की वजाए। इसमें उलझते चले गए। दफ्तर अब घर पर भी आता है। lap-top की शक्ल में। कंप्यूटर बंद ही नहीं होता। फोन बाथरूम में लेकर भी जाना पड़ता है। एसी के चलते दरवाजें बंद करके सोते है। अब सोते सोते किसी से बातचीत नहीं होती। हां कोई फोन बाहर से आजाए। तो बात अलग है। अब पत्नी के उठाने से पहले ही फोन का अलार्म बज जाता है। कई बार अपना तो कई बार उसका। अपना पहले बजे तो कोई बात नहीं। उसका पहले बजे तो गुस्सा आता है।
आप को खूब याद होगा। जब किसी का जन्मदिन होता था। तो हम कभी चिट्ठी लिखते थे। तो कभी ग्रीटिंग कार्ड भेजते थे। फिर फोन भी कर लेते थे।अब एसएमएस कर देते हैं। वो शुभकामनाएँ रेडीमेड फोन में लिखी आती है। उन्हें सिर्फ हम भेज देते है। अब हम अपनों से मिलने नहीं जाते। हां फेसबुक पर चैट कर लेते है। अब तो अपनों की याद भी किसी कंपनी की मुलाजिम हो गई है। जो सिर्फ संडे की संडे आती है। क्या इस नई दुनिया के चलन ने हमसे सब कुछ छीन लिया है। रिश्ते। सुख। अपनापन। मजा। और थमा दिया है। एक नई टेक्नालॉजी का झुनझुना। जो हम अब छोड़ भी नहीं सकते। और रखते हैं। तो जिंदगी का मजा जाता है। अब आप ही बताइए। इसने हमें अपनों से दूर किया है। या करीब लाई है। अपनी बात हम बताइएगा जरूर।

Monday, July 11, 2011

क्या गिफ्ट दी थी आपने पहली बार किसी अपने को।

कुलू का बेटेम फोन आया। घर से कोई भी फोन सुबह नौ बजे से रात ग्यारह बजे के बीच नहीं आता। आता है। तो नंबर देखकर ही मैं नर्वस हो जाता हूं। फोन आन करने और सुनने के बीच का समय भी बुरा गुजरता है। फोन उठाया और जल्दी से बोला। बोल। क्या हुआ। वह हंसने लगा। बोला परेशान मत होइए। कोई खास बात नहीं। तो फिर फोन क्यों किया। मैं दादी को चैन लाया हूं। इसीलिए। लेकिन वे कहती हैं। कि चूंचूं की चैन का मजा कुछ और था। हालांकि दोनों उपहारों में जमीन आसमान का अंतर है। कीमत में और समय में।
हमें जिंदगी में कई बार कितनी जल्दी रहती है। कि माफिक वक्त का इंतजार ही नहीं होता। उन दिनों हम पढ़ते थे। स्कूल में। मन में आया। और हमने चूंचूं एडवर्टाइजर्स खोल ली। संबंध अपने थे ही। काम भी मिलने लगा। भाग्य से एक चुनाव भी आ गया। कुछ रुपए भी कमा लिए। फिर क्या था। अपन उद्योगपति हो गए। दादी को ले गए। और एक सोने की चैन खरीद लाए। जिंदगी में उसके बाद कई लोगों को गिफ्ट दिए। लेकिन वह न पहले जैसा उत्साह मिला। न गिफ्ट देने की अंदर हूक उठी। बस कभी औपचारिकता में तो कभी परंपरा निभाने के लिए। तो कभी धंधेबाज की तरह व्यवहार लौटाने के लिए। लेकिन गिफ्ट देनें में जो एक मजा आता है। वह जाता रहा। वजह समझ में नहीं आती।
मुझे ऐसा लगता है कि किसी को प्रेम करने की अपनी intensity कम हो गई है। प्रेम करने के लिए एक ताकत और उत्साह के साथ साथ जो एक उतावला पन होना चाहिए। वो नहीं बचा। मैं पिछले कुछ सालों से जितना तनाव में रहता हूं। मुझे उतना ही बच्चा होने की इच्छा होने लगती है। मुझे फिर से कोई वो हुनर सिखा दे। जब किसी को कुछ देने में उतना ही मजा आए।जितना सालों पहले दादी को चैन देते वक्त आया था। आपने भी किसी अपने को कभी न कभी कुछ गिफ्ट दी होगी। क्या थी गिफ्ट। और किसे दी थी। हमें जरूर बताइए। और क्या आपको अभी भी कुछ देने में मजा आ रहा है। तो ये हुनर हमें भी सिखाइए।

Sunday, July 10, 2011

चंदा करके जन्मदिन मनाना। आपने भी किया होगा।

हमने कहा तो था। पर सागर नहीं जा पाए। 11 जुलाई का वायदा था। जीबू से। बहुत पहले ही कह दिया था। इस बार तुम्हारा जन्मदिन साथ मनाएँगे। उसे कई तरह के सपने भी दिखाए थे। होटल में चलेगें। तुम्हारे दोस्तों को ले चलेगें। पार्टी करेंगे। मजा आएगा। लेकिन ये हो नहीं पाया। एक गुनहगार की तरह कहा। रिजर्वेशन कैंसिल करा रहा हूं। फिर आउंगा। औज 12 बजते ही फोन किया। हैपी बर्थडे कहा। पूछा जन्मदिन मन रहा है। बोला हां। केक लाए थे।बोला, मुंह में हैं। इसके आगे न मैं पूछ सका। न वो बताने के मूड में था। बात खत्म हो गई।
जीबू हमारे सबसे छोटे भाई हैं। इस साल वे पांचवी में पहुंच गए है। उन्हें जन्मदिन मनाने का बहुत पहले से शौक है। जन्मदिन किसी का भी हो। वे मनाते जरूर हैं। अपनी बहिन से लेकर दादी तक। सबका जन्मदिन उनके लिए त्यौहार की तरह होता है। होली। दशहरा। गणपति या फिर जैसे मंदिर बनाने के लिए लोग उत्साहित होकर बंदी लेकर घूमने लगते हैं। जीबू भी उसी तरह हफ्ते भर पहले से ही चंदा उगाहने लगते है। हर किसी के पास जाकर बताते हैं। कि अमुख आदमी का जन्मदिन है। बताना नहीं। चंदा चाहिए। लेकिन एक दिन में वे कई बार चंदा मांगते है। कई बार एक घंटा में तीन बार भी मांग लेते है। देने वाला नाराज होकर चिल्लाने लगता है। और घर को पता चल जाता है। किसी का जन्मदिन आने वाला है। और चंदा शुरू है।
अनुभव आदमी को जिंदगी कैसे सिखाता है। ये जीबू से जानिए। पहले वे मैन्यू बनाते थे। केक। चिप्स। कोल्ड ड्रिंक। और गिफ्त। फिर चंदा शुरू होता था। लेकिन कई बार चंदा कम पड़ जाता था। सो फिर दुबारा चंदा की प्रकिया शूरू करनी पड़ती थी। अब सुना है कि चंदा का तरीका बदल गया। अब पहले चंदा होता है। फिर मैन्यू बनता है। और हां एक फुग्गा जरूर आता है। जिसमें चमकनी कागज भरे होते है। और उसे वे खूद ही फोड़ते है। जैसे चंदा करने वाला भगवान की पहली पूजा खुद ही करता है। लेकिन जीबू उदास थे। कहते थे। कि उनका जन्मदिन शायद ठीक तरीके से मनाया नहीं जा रहा है। बात साफ थी। कहीं चंदे की सुगबुगाहट नहीं थी। सो उन्हें शंका थी। लेकिन बात कुछ बनती गई। और जन्मदिन मन गया।
बात सिर्फ जीबू के जन्मदिन की नहीं है। न ही चंदे की है। लेकिन हम जो अपने अंदर एक सन्नाटा देखते हैं। महसूश कर रहे है। वह खालीपन है। हमारे अंदर का। हम खाली हो रहे है। हमारे अंदर न कोई रिश्ता बचा है। न ही कोई खुशी की दरार। हम दूसरों की खुशी में खुश हो नहीं सकते। हमारे पास अपनी बची नहीं। शायद यही अकेलापन जो हमें दुखी और निराश करता जा रहा है। बचपन में आपने और हमने भी इसी तरह खुशियां इकठ्ठी की थी। जब हम मजे में थे। अब समझदार हो गए हैं। पर दुखी है। चलो जीबू की तरह एक बार किसी का जन्मदिन मनाते हैं। चंदा करते है। आपके हिस्से का चंदा में आपको बता दूंगा। भेज दीजिएगा। जन्मदिन किसी न किसी का मना ही लेगें।

Sunday, July 3, 2011

कमजोर दिल के लोग समाचार न देखें।

अपने घर का टीवी बंद नहीं होता। जब तक घर पर रहता हूं। देखना ही पढ़ता है। कई बार घर पर नहीं हूं तब भी टीवी चलता रहता है। पत्नी को आदत हो गई है। समाचार के आवाज की। हो सकता है उसे भ्रम बना रहता हो। कि मैं घर पर हूं। इसके साथ ही हर घंटे हर चैनल को बदलकर हेडलाइंस सुनता रहता हूं। किस के हाथ क्या लग गया। कहीं खबर बड़ी न हो जाए। या फिर इस पर भी नजर रखनी पड़ती है। कि कोई खबर अपन से छूट तो नहीं गई। सो समाचार चैनलों को खंगालता रहता हूं। छुट्टी के दिन भी।
संडे था। अपनी एक छोटी बहिन बबली के घर खाना खाने गया था। वैसे अपन समाज में काफी बदनाम है। लोगों के घर न जाने के लिए। कुछ दिन में शादी को तीन साल हो जाएंगे। और अब तक दिल्ली में सिर्फ तीन लोगों के घर ही खाना खाने जा पाया हूं। सो लौटते में देर हो गई। आया और फटाफट चैनल बदलने लगा। खबरें खोजने लगा। हेंडलाइंस सुनने के लिए परेशान था। समय हुआ। और खबरें शुरू हुई। 13 साल के लड़कों को गोली मारी। उसका अपराध था कि पेड़ पर चढ़ा था फल खाने के लिए। एक अस्पताल से गर्भवती महिला को बाहर धकेला। अस्पताल के बाहर बच्चे को जन्म दिया। लखीमपुर में पुलिस वाले ने ही मारा है बच्ची को। इसके बाद पटना पुलिस ने बेरहमी से घसीटा युवक को। दिल्ली के एक इलाके में लाश मिली 12 दिन बाद। नरेला में मां ने बेटी को जहर दिया। खुद फांसी लगाई। रायबरेली में 22 साल की महिला के साथ सामूहिक बलात्कार। और अपन ने टीवी बंद कर दिया।
टीवी बंद करके मैं सोचता रहा कि इतनी हिंसा देश को कहां ले जा रही है। हमारी संवेदनशीलता को क्या हो रहा है। क्या हम ये तमाम चीजें टीवी पर न देखें न दिखाएं। शुतुरमुर्ग की तरफ अपना सिर रेत में छुपा ले। या फिर टीवी बंद करके गालियां दें। कभी मीडिया को कभी सरकार को। करें क्या। कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन यह जरूर है कि अगर इसी तरह से हमारे देश में ये हरकतें होती रही। तो तय मानिए। हमें लिखना होगा। कमजोर दिल वाले लोग समाचार न देखें।

Saturday, July 2, 2011

गरीब की आह से पत्थर पिघलता है। सरकार क्यों नहीं।

मेरी दादी मुझ से कहती रही है। बेटा धोखे से भी किसी गरीब का दिल मत दुखा देना। गरीब की आह से पत्थर पिघल जाता है। मुझे पता है। दादी झूठ नहीं बोलती। मैंने पत्थर को कभी भी पिघलते हुए नहीं देखा। फिर भी भरोसा है। दादी की बात पर। मैं कोशिश करता हूं। किसी का दिल न दुखे।लेकिन आज जब दफ्तर से फोन आया कि मंहगाई पर लाइव करना है। लोगों के साथ। सो अपन ने कुछ लोग जमा किए। और सवाल पर सवाल पूछने लगे। उनके जबाव सुनकर हम हैरत में थे। कि मंहगाई बढ़ती जा रही है। लोग परेशान है। आह निकल रही है। पत्थर पिघलेगें या नहीं। मैं नहीं जानता लेकिन सरकार नहीं पिघलती दिखती।
मैंने सोचा था। आपसे कहा था। मुझे याद भी है कि ब्लाग पर मैं राजनीति नहीं लिखूंगा। क्यों की यह कोई राजनैतिक पटल नहीं है। मेरा और आपका रिश्ता बनाने वाला जरिया है।जहां हम आपके कंधे पर सिर रख कर रो सकेंगे। अपनी बात आप से कह सकेगें। लेकिन मंहगाई का मुद्दा। राजनैतिक नहीं है। हमारी बेवसी का है। हम कुछ नहीं कर पाते। उन प्रणव मुखर्जी का जो इतनी बेशर्मी से पेट्रोल डीजल और गैस मंहगी करते है। फिर कहते हैं। राज्य सरकारें इन्हें सस्ती करें। ये लोग आप और हम से चालाक है। चतुर हैं। लेकिन इन्हें ऐसा क्यों लगता है कि अपन दोनों मूर्ख है। अगर तुम दिल्ली में बैठकर राजनीति कर रहे हो।तो वे क्या राज्यों में बैठकर सेवा कर रहे है। सब्जियां। फल। गैस। डीजल। दूध। और अब दिल्ली में बिजली मंहगी होती जाती है। और सरकारों के पास बहाना है। मैंने एक बार शीला दीक्षित से पूछा था। जब वे पानी मंहगा कर रही थी। उन दिनों हम दिल्ली सरकार देखते थे। हमने पूछा था कि आपकी सरकार किसी लाला की दुकान है। जो घाटा और मुनाफे के लिए चुनी गई है। या फिर जनता की सेवा के लिए। और लोगों को पानी मुहैया कराना हमारी संस्कृति में पुण्य का काम है। धंधे का नहीं। वे चूपचाप मुझे घूर कर चली गई।
ढीठ कपिल सिब्बल का कुछ नहीं कर पाते हैं हम। वे मंहगाई के आंकड़े गिनाते है। क्या करें हम उस मनीष तिवारी का जो एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की मंहगाई पर अभी भी तारीफ किए जा रहे हैं। कहते है। उनकी वजह से ही हमारी अर्थव्यवस्था बची हुई है। लेकिन अगर हम और आप सुख में नहीं हैं।तो हमारी सरकारें क्या बचा रहीं है।
इन तमाम बातों के बाद भी मुझे अपनी दादी पर भरोसा है। वे कहती है । तो गरीब की आह से पत्थर पिघलता ही होगा। और एक न दिन ये तमाम निकक्मे लोग पिघलेंगे। और इनका नाम लेवा भी कोई नहीं होगा। मुझे अपनी बेवसी के लिए रोना है। आपका कंधा चाहिए।

Friday, July 1, 2011

पत्नी की साड़ी और हाफ पैंट

अपन जनसत्ता में नौकरी करने दिल्ली आए थे। दिव्या दीदी उन्हीं दिनों साकेत में रहती थी। वे कलेक्टर होने की तैयारी कर रही थी। सो हम भी साकेत में ही रुक गए। जब से इसी इलाके में ही टिके हैं। पिछले 15 सालों में जिंदगी में कुछ नहीं बदला। सिर्फ जनसत्ता से सहारा में आ गए। पहले डायरी पेंन लेकर घूमते थे। अब कैमरामेन को साथ लेकर घूमते हैं। जब अपन सागर से दिल्ली आए। उन दिनों अनुपम पीवीआर नया खेल था। बुनियादी रूप से यह एक टाकीज है। जिसमें कई सिनेमाहाल एक साथ है। और आसपास खाने पीने की मंहगी दुकाने। यहां पर चाय पान की कीमत दो गुनी से ज्यादा होती है। पार्किंग वाला भी उस समय अंग्रेजी में चेंज मांगता था...।
यह जगह अपने जैसे कस्बाई मानसिकता वाले व्यक्ति के लिए दूसरी दुनिया थी। अंग्रेजी में फर्राटे से बोलती लड़कियां। धुओँ के छल्ले उड़ाती लड़किया।शराब पीकर नांचती लड़किया। शार्ट स्कर्ट उसी समय चले थे। उन्हें पहनकर आत्मविश्ववास के साथ घूमती लड़किया। उन्हें देखकर कई बार लगता था। कि यहां आकर एक नई उपलब्धि हासिल कर ली है। हम भी अपने समाज से एक साथ कई सीड़ी उपर चढ़ गए है। जब कभी छुट्टी होती। या फिर स्टोरी जल्दी फाईल कर देता।तो लौटते में कुछ देर यहां बैठकर चाय पीता। पान के अपन पुराने शौकीन है। और जिस तरह से हम फिल्मों के जरिए विदेश घूम आते हैं। अपने हीरों के जरिए हीरोइन के साथ नच लेते है। वैसे में भी एक चाय और एक पान के साथ इस आधुनिक समाज का हिस्सा हो जाता था।
वक्त तेजी से निकलता है। पिछले 15 साल पता हीं नहीं चले।और वे चलते गए। हम सिर्फ कैंलेंडर बदलते गए। हां इस बीच मेरी शादी भी हो गई। अब कभी कभार जल्दी घर आ जाता हूं। तो थकान के कारण घर से निकले की इच्छा हीं नहीं होती। छुट्टी के दिन वे किताबें जो कई दिनों से इंतजार में होती है। उन्हें पढ़ने बैठ जाता हूं। और कुछ सालों पहले मेरे घर के सामने साउथ दिल्ली के सबसें मंहगे और सबसे सुंदर मॉल भी बन गए। सो पीवीआर जाना और भी कम हो गया।
आज कई महीनों बाद। अपन घर जल्दी आ गए। चाय और पान की पहले जैसी हूक उठी।सो पीवीआर चले गए। अब पत्नी को साथ ले जाना जरूरी लगता है। जैसे मंदिर जाते समय प्रसाद लेकर जाना ही पड़ता है। गुंजाइश हो या न हो। अपन ने भी खानापूरी की। और उसके साथ निकल लिए। अब वहां का माहौल और भी बदल गया। हमनें करीब दो तीन हजार लोगों को फिल्म का टिकिट लेते। खाना खाते। या फिर घूमते देखा। मैं बदलते हुए समाज को देखने में व्यस्त था। लेकिन मैंने देखा कि जहां से भी निकलता हूं। लोग हमारी तरफ जरूर देखते हैं। खासकर लड़कियां। कुछ देर बाद पता चला कि वे मुझे नहीं मेरी पत्नी को घूर रही हैं...और उसे भी क्यों। उसकी साड़ी को। उन्हें शायद अटपटा लग रहा था। और फिर मुझे भी लगने लगा। उस पूरे समाज में एक भी महिला साड़ी पहने नहीं दिख रही थी। हां अब ज्यादातर लड़किया हाफ पैंट पहने थी। कुछ ताई। या फिर एक दो मेरी दादी की उम्र की महिलाए। भी दिखी। वे सलवार सूट पहने थी। मुझे समझ में नहीं आया। हम इनके समाज के नहीं है। या फिर ये हमारे समाज की नहीं है। मैंने पत्नी से कहा कि अगली बार या तो तुम हाफ पैंट पहन कर आना।या फिर घर पर ही चाय पी लेना। पता नहीं उसे क्या ठीक लगेगा। मैं आपको बताउंगा जरूर।

Thursday, June 30, 2011

स्कूल। नई किताबें। नई ड्रेस। दोस्त। नए टीचर। याद हैं।

मेघा का एक मैसेज आया है। मेघा यानि डॉ मेघा वाजपेयी। वे लुधियाना में टीचर है। मेघा हमारी बुआ की बेटी हैं। लेकिन हम दोनों कालेज एक साथ गए। लिहाजा दोस्त भी हैं। उसने लिखा है। इन्हीं दिनों को याद करिए। जब कुछ साल पहले कुछ नया सा होता था। स्कूल खुलते थे। नया बस्ता। नयी किताबें। उनके पन्नों से आती खुशबू। नए विषय। नए टीचर। नई क्लास। और नई जगह। पुराने दोस्तों से मिलना। बाहर बारिश। हर तरफ हरियाली। और मौसम के बारे में शब्दों में नहीं कहा जा सकता। आंखे बंद करिए। और उस समय को याद करिए।
मेघा का मैसेज पढ़ा। और मैंने सच को जीना चाहा। आंखे बंद कर ली। और स्कूल के दिन याद किए। बाप रे कितना उत्साह था। स्कूल के पहले दिन का। स्कूल खुलने के कई दिन पहले से ही। किताबें खरीदने की जिद करने लगता था। उन्हें खरीद कर। उन पर जिल्द दादा चड़ाते थे। उस पर नाम के लिए स्टीकर भी वे ही लगाते थे। और उन पर नाम भी वे ही लिखते। उनकी लिखाई। जैसे छपाई हो। और अपनी कॉपी किताब पर दादा की लिखाई वैसी ही लगती है। जैसे किसी भगवान ने ओम लिख दिया हो। किसी पुराण या वेद पर।
ड्रेस खरीदना। उसे सिलाना। नए जूते और मोजे।तो अलग ही मजा देते थे। मजा आता था। नया बैग और टिफिन खरीदने में। नई स्टाइल की पानी की बोतल हर साल खोजते थे। हां और पेंसिल बाक्स भी तो था। हम लोगों की स्कूल में चौथी तक पेंसिल से लिखना होता था। जब हम चौथी पास हुए। तो पेन की खूशी थी। यहां तक की हम 30 अप्रैल को रिजल्ट के साथ ही पेन खरीद लाए थे। और पूरी गर्मी की छुट्टियां। पेन जमा करते ही निकली। कभी बुआ कभी चाचा से। तो कभी हर घर आने वाले मेहमान से। यकीन मानिए। जुलाई में मेरे बस्तें में कई पेन थे। प्राईमरी से मिडिल स्कूल की बिल्डिंग में जाना भी एक नई मजेदार बात थी।
हमारी जिंदगी में क्लास बढ़ती गई। और हम बस्ते। किताबें। टीचर। दोस्त। बदलते और बढ़ाते गए। लेकिन कुछ हर साल छुटता भी गया। पहले दादा स्कूल छोड़ने जाते थे। फिर हम बस में जाने लगे। और देखते ही देखते मोटरसाईकिल की रेस लगाने लगे। वो शक्कर के साथ पराठे। दादी का टिफिन बदलता गया। हमें स्कूल के समोसे। और चाकलेट अच्ची लगने लगी। और फिर हमें कैंटीन का मसाला डोसा। और उत्पम अच्छा लगने लगा। पानी की बोतल हाथ से छूट गई और कोल्ड ड्रिंक साथी हो गई। दोस्तों से बात सिर्फ होमवर्क तक सीमित नहीं थी। अब जिंदगी पर भी बतियाने लगे।
आज की जिंदगी में भागते भागते जब कभी बैठ जाते हैं। थक कर। तो पुराने दिन याद आते हैं। और याद आती हैं वे बहुत सारी पुरानी बातें।जो वक्त के साथ साथ पीली होती जाती है। मेघा के मैसेज से लगा कि एक बार फिर अपनी पुरानी स्कूल जाकर देखूं। शायद कुछ चीजें पहले जैसी हीं होगी। लेकिन मैं उसका क्या करूंगा। जिसकी वजह से मुझे स्कूल अच्छा लगता था।

Wednesday, June 29, 2011

लगड़े कक्कू और 25 पैसे के सिक्के एक साथ गए।

आपको यह पूरी तरह फिल्मी लगेगा। मुझे भी लग रहा है। हो सकता है आपको लगे बनाया हुआ झूठ है। अच्छा ब्लाग लिखने के लिए। मुझे भी शंका हो रही है। लेकिन यकीन मानिए। मैं झूठ न लिखूंगा। न कहूंगा। क्योंकि ब्लाग मेरी रोजी रोटी नहीं है। मेरी ईबादत है। शब्दों की पूजा है। और हर रोज लिखूं। इसीलिए यह जरूरी भी नहीं है। क्योंकि ये दोंनों बातें जिस तरह एक साथ घटी यकीन ही नहीं होता। लगता है क्या ये मुमकिन है। या फिर एक युग का अंत इसी तरह होता है।
सागर से विनीत का फोन था। हालचाल पूछने के लिए। लंबी बात मौसम से लेकर। राजनीति तक। क्लास की लड़कियों से लेकर। टीचर्स तक। फिर उसने अचानक कहा। आलोक तुम्हें लगड़ा कक्कू याद है। आज वे चले गए। हम अपने दोस्त के पिता के लिए शमशान गए थे। वहां उनका परिवार भी था। आज सुबह वे चले गए। इच्छा तो हुई कह दे। कक्कू एक समोसा दे दो। लाल चटनी डालकर। शायद तुम होते तो इस तरह की नौटंकी कर ही देते। पत्रकार जो हो। तुम्हारा भरोसा नहीं। कहो तुम बाजार से कुछ समोसे लाकर उनके साथ विदा कर देते है। हम लोग यही बात कर रहे थे। अगर आलोक सागर में होता तो कुछ नौटंकी आज शमशान में जरूर होती। अच्छा हुआ। तुम नहीं थे।
हमें याद है। जब हम सागर में सैंट जौसेफ कान्वेंट में पढ़ते थे। उस समय लगड़े कक्कू समोसा बैचते थे। चार आने का समोसा। उनके पास प्लास्टिक की एक डलिया थी। समोसे उसी में रहते थे। साथ में प्लास्टिक की बोतल। उसमें होती थी लाल चटनी। कक्कू की डलिया में से हम बड़ा समोसा खोजते। और उसी को कई बार पूरा तो कई बार आधा आधा बांट कर खाते थे। हां समोसे के बीच में वे ही एक खाई बना देते थे। और उसमें लाल चटनी भी भर देते थे। पानी पीने का मत मांगना। साफ साफ कह देते थे। और साथ में लिए है वो। कक्कू कहते थे वो किसी इमरजेंसी के लिए है। यानि किसी को मिर्च लग जाए।या फिर खांसी आ जाए। तो बच्चा क्या करेगा। तुम लोगों को नहीं देगें। कई बार हम दो दोस्त मिलकर दस दस पैसे चंदा कर लेते। और फिर कक्कू को धर्म संकट में डालते। लेकिन वे बात समझ जाते। दोनों दोस्त चंदा करके आए है। और 25 पैसे का समोसा 20 पैसे में ही दे देते। और हां ज्यादतर वे आखरी समोसे के पैसे नहीं लेते थे। वो किस्मत थी।
आज दफ्तर से फोन आया कि 25 पैसे का सिक्का का अब कल से बंद हो जाएगा। सो स्टोरी करना है। मैं स्टोरी को प्लान कर ही रहा था तभी सागर बात हुई। और मैं अचानक सन्न रह गया। हमारी जिंदगी से 25 पैसे का सिक्का जाना और लगड़े कक्कू का मरना एक साथ हुआ। लगा जैसे एक युग का अंत हो गया। अब न हमारी जिंदगी मे 25 पैसे का सिक्का है।और न 25 पैसे में समोसा देने वाले लगड़े कक्कू। मेरे दोस्त यकीनन मजाक बनाते। लेकिन में अगर सागर में होता तो उनके पैर छूने के साथ साथ एक 25 पैसे का सिक्का जरूर विदा कर देता। हर चीज से हम कुछ न कुछ खोते है। आपने भी कुछ न कुछ 25 पैसे के सिक्के के साथ खोया होगा। कंजूसी मत करिएगा। हमें भी बताइए।

Tuesday, June 28, 2011

मंजिल नहीं है। पैसा और यश। ये पीछे पीछे आते हैं।

डॉ विनोद खेतान ने अचानक कहा। पैसा और यश मंजिल नहीं है। ये by-product हैं। डॉ विनोद खेतान जाने माने नाम है। आप लोगों ने कभी न कभी उनके बारे में सुना होगा। वे एम्स में डाक्टर और स्किन की दुनिया में एक बड़ा नाम है। वैसे वे साहित्यकार भी बड़े है। और गुलजार को तो हमनें उनकी समझ से ही समझा। वर्ना वे हमारी दुनिया में सिर्फ एक फिल्मी गीतकार ही रह जाते। डॉ खेतान के साथ बैठकर गप्पें ठोकने में मजा आता है। हालांकि एम्स के डाक्टरों के पास समय कम होता है। फिर भी जैसे सचिन गेंद चार रन के लिए मार ही देता है। हम लोग भी स्पेश खोज ही लेते हैं। उन्होंने ये बात कही। और मैं वैसे ही रुक गया जैसे खिचड़ी में कभी कभार कंकड़ आजाता है। और हम रुक जाते हैं। वे और भी बाते करते रहे। लेकिन मैं वहीं थम गया। फिर वहां से हुमसा नहीं। हम लोग और भी बातें करते रहे। लेकिन इसके बाद का मुझे याद नहीं।
क्या ये मुमकिन है। क्या ये सच है। क्या ये हो सकता है। मेरे सवाल खत्म ही नहीं होते। कि हम यश और पैसा दोनों ही भूल जाए। इन्हें कमाना हमारा मकसद न रहे। इनके प्रति हमारी तिसना न हो। फिर हमे क्या चाहिए। हम क्या कमाना चाहते है। मैं बात को कठिन नहीं करना चाहता। न हीं कोई फलसफा शुरू कर रहा हूं। बौद्धिक आतंकवाद भी फैलाना नहीं चाहता। लेकिन बात रुक जाती है। क्या हमें सिर्फ कर्म करना है। क्या हमें अपने जुनून को ही अपनी मंजिल समझना है। क्या हम वो करें जो हमें अच्छा लगता है। क्या ये मुमकिन है कि कोई अमिताभ बच्चन से कहे की तुम दीवार फिल्म से अपना हटा लो और जो चाहो वो कीमत ले लो। क्या कोई सचिन से कहे कि तुम विश्व कप मत चूमों। और जो कीमत चाहिए। वो ले लो। मेरे वतन के लोगों गीत गाकर क्या मिला लता मंगेशकर को। जो मिला क्या उसे धन या फिर कोई यश तौल सकता है। क्या हमें कुछ अपनी संतुष्टि के लिए भी करना चाहिए। और क्या हम ऐसा कुछ कर पा रहे हैं। जिसको करने से हमें मजा आए।
हम धंधेबाज हो गए। अपने ही लिए। हमने दुकान खोल ली। हम खुद ही बिक रहे हैं। सामान बनकर। हमें दुनिया में पैसा चाहिए। ताकि हम सुख से जी सकें। हमें यश चाहिए। ताकि हम सुख से मर सकें।
डॉ खेतान की बात सुनकर मुझे अपना हर काम करते हुए डर लगता है। कभी यश तो कभी पैसा दिखता है। जिंदगी समझ में नहीं आती। कभी कभी हम इतना झूठ बोलते है। कि सच बोलने की आदत छूट जाती है। और झूठ ही सच लगने लगता है। शायद हमारी जिंदगी के साथ यही हो रहा है। मुझे पता नहीं कि इन आंखों से मैं दुनिया फिर से देख पाउंगा या नहीं लेकिन नई आंखे अच्छी है। क्या आप भी ऐसा कोई काम कर रहे है। जो यश और धन के लिए न हो। अगर कर रहे हों।तो हमें बताइएगा जरूर।

मंजिल नहीं है। पैसा और यश। ये पीछे पीछे आते हैं।

Sunday, June 26, 2011

काम के लोगों से अपना क्या काम

अपने एक भैया विदेश जा रहे थे। उनकी गैरमौजूदगी में उनके परिवार की जिम्मेदारी अपनी होगी। ये हमने माना। लिहाजा हमने अपना कार्ड घर में दिया। और कहा इसमें मेरा नंबर है। कोई काम हो तो फोन करिएगा। लेकिन मन ही मन संकोच हो रहा था। कि अपन हैं किस काम के। जिस तरह समाज का चलन और काम का स्वभाव बदल रहा है। किसी भी तरफ से देख लीजिए। अपन किसी काम के आदमी नहीं है। इस दौरान भैया आ गए। और उन्होंने कहा तुम चिंता मत करो। तुम्हारा नंबर मेरे पास है। और मेरे फोन में वे ही नंबर है जो काम के आदमी नहीं है। और काम के आदमी अपने किस काम के। मैंने अपने ब्लाग में उनका नाम इसीलिए नहीं लिखा। कि हो सकता है कि आपको लगे कि मैं अपने किसी रिश्तेदार को हीरो बनाना चाहता हूं। क्यों कि आज की दुनिया में ऐसा कौन आदमी है जो काम के लोगों के लिए यह कह सकता है।
बात भैया की नहीं है। बात काम के लोगों की है। और काम की है। मैं पत्रकार दिल्ली में कई सालों से हूं। लेकिन मैं आज भी काम का आदमी नहीं बन पाया। यह बात मेरे दोस्त, मेरे रिश्तेदार और जाननेवाले कहते रहते है। मैं आज भी दिल्ली के किसी स्कूल में एडमीशन नहीं करवा सकता। किसी की एफआईआर थाने में अगर लिखी गई है। तो में उसमें धाराएं नहीं बदलवा सकता। मुफ्त में पास क्रिक्रेट मैच के टिकिट नहीं ला सकता। ट्रांस्फर और ठेका तो दूर की बात है। मेरे कई जानने वाले मुझसे अक्सर पूछते है। कि इतने सालों से तुम दिल्ली में कर क्या रहे हो। जनसत्ता और फिर अब सहारा। तुम कुछ कर ही नहीं पाए। मैं कहता हूं। दिल्ली खबरें करने आया था। सो कर रहा हूं। और क्या करना था। वे लोग चुप हो जाते हैं। और मेरी तरफ टकटकी बांधकर देखते रहते हैं।
मुझे ये बात आजतक समझ में ही नहीं आई। काम का आदमी कौन है। और कैसे बना जाता है। काम कराने वाला आदमी। क्या लोगों को इसकी कीमत नहीं चुकानी पड़ती। क्या उन्हें इस कीमत का अंदाजा नहीं होता। क्या आज भी मैं कार बंगला पत्रकारिता से नहीं खरीद पाया। तो क्या ये निक्कमापन है। क्या किसी का एडमीशन कराना या फिर कोई सरकारी ठेका दिलाना ही पुरूषार्थ है। मुझे पता नहीं। अब तो मुझे ये भी समझ मे नहीं आता कि इस इल्जाम पर खुश हो जाऊं या दुखी। चलो लेकिन इस दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी है। जो ऐसे लोगों के फोन नंबर अपने पास रखते है। जो काम के नहीं है। इतना ही काफी है। अपन को दिल्ली में रहने के लिए। और इसी रास्ते पर चलने के लिए। क्या आप भी निक्कमों के फोन नंबर रखते है। तो मेरा नंबर है.......शायद आपके पास होगा ।

Saturday, June 25, 2011

दादी ने भेजी है बारिश। हम खूब भीगे। आप भी भीगिए।

दादी ने मेरा ब्लाग सुना। अब पढ़ने में उन्हें दिक्कत होती है। फोन किया। आवाज कुछ बैठ सी गई थी। शायद हमारी बेवसी पर दुखी थी। फिर भी हंसने लगी। कहा हम पढ़े लिखे नहीं है। तुम लोग मोटी मोटी किताबें पढ़ते हो। पढ़े लिखे लोगों में उठते बैठते हो। फिर भी बेटा। खुशबू मिट्टी की हो या फिर प्रेम की न भेजी जाती है। न मंगाई जाती है। महशूस की जाती है। और महशूस करने की ताकत व्यक्ति की अपनी होती है। तुम हमसे जितना ज्यादा प्यार करोगें। तुम्हें हम उतने नजदीक लगेंगे। गौर से महशूस करो। तुझे दिल्ली में भी सागर की मिट्टी की खुशबू आएगी। और रही बात बारिश की।उसे हम भेज रहे है। और मुझे फोन पर लगा। उनकी चेहरे की झुर्रियां खिल गई। दादी ने हमारे साथ बदमाशी की है। मैंने कहा इंतजार करूगां।
गोंडवाना एक्सप्रेस निजामुद्दीन स्टेशन पर सात बजकर 25 मिनिट पर आकर रुकती है। उसी ट्रैन से हमारी बहिन दिल्ली पहुंची। आप को यकीन हो न हों। मेरे माथे पर पहली बूंद स्टेशन के बाहर करीब सात बजे पड़ी। और में खुशी में डूब गया। पत्नी से कहा तुम अंदर जाओ प्लेटफार्म पर। हम दादी का सामान लेले। वह बोली पहले ट्रैन तो आजाए। पागल शायद सोचती थी की दादी का सामान पौचम्मा के बैग में होगा। मैं आसमान की तरफ देखा और खड़ा होकर भीगने लगा। मुझे पता ही नहीं चला। कि पानी के बूंदों के साथ साथ मेंरें आंसू भी आंखों से बहने लगा। रोने की वजह नहीं पता। लेकिन मैं खूब भीगा भी और रोया भी।
दिल्ली आए अब तो कितने साल हो गए। लेकिन घर का सामान मैंन कभी अकेले इस्तेमाल नहीं किया। जब दोस्तों के साथ रहते थे। तो कभी न लड्डू न आचार छुपकर खाए। न जलेबी न बर्फी। छुपाकर रखी। हमेंशा ही मिल बांट कर खाता रहा। अब तो ऐसी स्थिति है कि मैं जब भी सागर जाता हूं। मैंरे शुभचिंतक पहले ही लिस्ट दादी को फोन पर लिखवा देते हैं। जब बैग के वजन पर में गुस्सा होता हूं। तब मां बताती है। कि दादी ने ये सामान लोगों के लिए रखा है। किसी के लिए आचार। किसी के लिए लड्डू। किसी ने जलेबी मंगाई। तो किसी ने पापड़। एक डिब्बी में हींग है। उस पर भी किसी का नाम है। कुछ चीजें बनी हुई है। कुछ सामान बनने का है। और जब हम दिल्ली पहुंचते तो मेरे साथी। मेरा बैग खोलते ।चोरों की तरह हिसाब करने बैठ जाते। अगली बार दादी से कहना सामान ज्यादा भेजें। फिर सुधार करते । तुम क्या कहोंगे। हम खुद ही कह देगें।
आज जब निजामुद्दीन स्टेशन पर मैं भीग रहा था। तो मैंने अपने साथ कुछ और भी लोगों को भीगते हुए देखा। लगा जैसा दादी की जलेबी में लोगों को बांट कर खा रहा हूं। यह बारिश मेरे लिए नहीं। उन सबके लिए आई है। जिन्होंने मंगाई है। सौ मैं खूब भीगां। आप तक भी मैं भेज रहा हूं। खूब भीगिए। और अपनो को भिगाइएँ। आप जो भी कहें। लेकिन मैं आपकी बात सुनूगां ही नहीं। मानसून। मौसम विभाग। विज्ञान। भाप। बादल। सब झूठे हैं। सिर्फ इतना सच है कि जिस तरह से दादी मेरे लिए जलेबी भेजती है। उसी तरह उसने बारिश भेजी है। में भीग रहा हूं. .....

दादी ने भेजी है बारिश। हम खूब भीगे। आप भी भीगिए।

Thursday, June 23, 2011

घर से पहली बारिश वाली मिट्टी की खुशबू ले आना।

भैया हम शुक्रवार को दिल्ली आ रहे हैं। जिज्जी पूछ रही हैं। घर से क्या लाना है। पोच्चमा का फोन आया था। पोच्चमा यानि हमारी छोटी बहिन। और जिज्जी हम कहते हैं। दादी से। सयुंक्त परिवार कुछ रिश्ते ऐसे भी बनाकर देता है। जैसे दादी जिज्जी हो जाती है। और मां भाभी। पिता भैया। मैं कुछ देर चुप रहा। और मैंने न जाने कैसे कह दिया। मुझे खुद याद नहीं। पहली बारिश के बाद जो मिट्टी से खुशबू आती है। वह ले आना। मैं कह कर चुप रहा। वह शायद सुनकर चुप रही। कल दादी न बताया था कि सागर में तीन दिन से खूब पानी गिर रहा है। और अपनी दिल्ली की उमस से गीले हो रहे हैं।
जिंदगी में हमें कई चीजें मिल जाती है। लेकिन वे चीजें जो उनके साथ मिलती है। वे कहीं खो जाती है। किस तरह से जब पहली बारिश होती थी। और उसकी खुशबू से मिट्टी महकती थी। मुझे वो महक आज भी याद है। शायद ही किसी परफ्यूम या फिर किसी इत्र से आई हो। ऐसी खुशबू मुझे याद नहीं। बारिश तो दिल्ली में भी होती है। हो सकता है किन्हीं लोगों को वह खुशबू भी आती हो। अपन को नहीं मिली। अपन तरसते ही हैं। जैसे जिंदगी में नास्ता तो सभी करते है। लेकिन सागर में मूलचंद महाराज की जलेबी और लगड़ा के समोसा। दही अलग से। ये नहीं मिलता। और ये मिल भी जाए। तो भरत खरे। शैलेंद्र सराफ। विवेक पांडे। दीपक दुबे। संजीव कठल। सतीश नायक। शशिकांत डिमोले। कहां से लाओंगे।
अपने सागर में वैसी ही मूंगफली मिलती है। जैसे शिमला में सेव। इलाहाबाद में अमरूद। या फिर उत्तर प्रदेश में आम। वे मूंगफली नहीं मूगफलां कहलाते है। कई किलो मूंगफली हम लोग यूं हीं ठेले पर खड़े होकर खा लेते थे। जगदीश शर्मा के साथ न जाने कितने किलो मूंगफली खाई होगी याद ही नहीं। बात मूंगफली की नहीं होती थी। बात उन गप्पों की है। जो उस ठेले पर शुरू होती थी। गांधी से आंइस्टाइन। अमिताब बच्चन से कबीर। पिकासो से कृष्ण। रजनीश से फरीद और फिर मीरा से श्याम बैनेगल। कौन कहां से आता था। पता ही नहीं चलता था। सिर्फ मूंगफली ही जाने हिसाब। गप्पों का। अपन तो ठोकते चले गए। मैं। झूठ नहीं लिखता। मैं। सच कहता हूं। बरिस्ता या मैक में चाय या कॉफी पीते। अपन को मजा नहीं आता। न अब बे बातें निकलती है। न वे शेर। और न वे कविताएं। वैसा न माहौल मिलता है। और न वैसे दोस्त।
घर से जब भी कोई आता है। खाने का सामान जरूर लाता है। लेकिन बात सिर्फ सामान की कहां है। आचार आम का हो या फिर नींबू का। देशी टमाटर हों या फिर घर के खेत की मूली। परदेश में सिर्फ आचार और सब्जी ही लगते है। स्वाद शहर का होता है। ये तमाम चीजें बेस्वाद लगती है। हां ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली में चारों तरफ भीड़ है। फिर भी दादी जैसा कोई नहीं। जिसकी अगुंलिया पकड़कर आज भी चलने की इच्छा हो। जिसकी झुर्रियों में जिंदगी सुरक्षित लगती हो। जो कह दे खुश रहो तो लगता है कि कोई एलआईसी का प्लान है। जिसका फंड आ ही जाएगा। लेकिन पोच्चमा के पास इतना बढ़ा बैग नहीं है। जो इन सब चीजों को ला सके। मुझे जो जो चाहिए। वह दिल्ली नहीं आ सकता। उसके लिए मुझे सागर ही जाना होगा। कभी वक्त मिले तो आप भी घर हो आइए। अच्छा लगेगा।

Wednesday, April 13, 2011

हम भी इस भीड़ में इसी तरह मरेंगे अकेले।

खबर आप सभी ने देखी और सुनी होगी। किस तरह से दो बहनें अकेलेपन का शिकार हुई। न पड़ोसी न मोहल्ला और समाज तो दूर की बात है। बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि एक ऐसे शहर में जहां हर जगह भीड़ है। रहने को जगह नहीं। चलने का इत्मीनान है। सडके जाम में खो गई है। लोग नहीं सिर्फ भीड़ दिखती है। उसी शहर में कोई इतना अकेला हो सकता है। लेकिन बात जब टेलिविजन से निकल कर अपने तक आती है। तो गौर से देखिए। अपने चारों तरफ। हम भी कितने अकेले है। पिछले दिनों सागर गया था। किसी ने पूछा तुम्हारे पड़ोस में कौन रहता है। में चुप रहा है। मैंने कहा पता नहीं। वह हैरत से देखता रहा। और मैं अपने पड़ोसी के बारे में सोचता रहा। हमारे सरोकार इतने अकेले है। सीमित है। कि उन्हें किसी की जरूरत नहीं। हमने अकेलेपन की एक संस्कृति पनपाई है। और अब उसीके नतीजे सामने आने लगे है। हम अपने बाजू वाले से पानी मांगना भी पसंद नहीं करते। हम बाजार से पानी खरीदकर लाना बेहतर समझते है। बात पानी की नहीं। बात रिश्तें की है। हमारे रिश्तें एक गिलास पानी के भी नहीं है। तो हम दुख दर्द बांटने की तो सोच ही नहीं सकते। हम अपने को समाजिक आदमी मानते है। लेकिन जब हमें ही नहीं पता हमारे पड़ोस में कौन रहता है तो आम लोगों की परेशानी हम समझ सकते है। हमारे फैस बुक पर और औरकुट पर हजारों दोस्त हो सकते हैं। लेकिन आसपास नहीं है।। हम भी इतने ही अकेले है। जैसी की वे दो बहनें थी। और आप अपनी बताईए ।

Thursday, April 7, 2011

अकेले चलना। फिर कारवां बन जाना

खबर करते समय तनाव रहता है। सुकुन नहीं। कल अजीब सी बात थी। रात हो गई थी। अन्ना हजारे के कैंप में राम धुन और ईश्वर अल्लाह तेरो नाम भजन कुछ लोग मंच से गा रहे थे। मैं तल्लीन होकर सुनता रहा। कुछ लोग उठकर नांचने लगे। कुछ ताली बजाते रहे। आंदोलन कर रहे इन लोगों में जिद या फिर खीज कहीं दिखाई नहीं देती। मंच पर बैठे अन्ना हजारे भी तनाव में नहीं दिखते। उनके चेहरे पर एक शांती थी। जैसे हमारे घर के बुजुर्ग किसी परेशानी वाली घटना भी चुपचाप सुनते है। मैं उनके चेहरे को देखता रहा। और सोचता रहा। जिंदगी में हमारी घबड़ाहट शायद नतीजों को लेकर ज्यादा है। ऐसा हुआ तो क्या होगा। और अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा। पूरा खेल अपने ऊपर विश्वास का है। जो हमारे पास रहा नहीं। हम सिर्फ एक बाजार का हिस्सा बन गए है। वो कहता है क्रिक्रेट विश्व कप देखो तो हम कहते है जी सर। फिर कहता है आईपीएल देखो तो हम कहते है जी सर। हमारे पास अपना कुछ बचा ही नही। लिहाजा हम भीड़ के आदी हो गए है। जहां भीड़ जाएगी। वहीं हम। हमारे पास अकेले चलने का साहस नही है। लिहाजा सुकुन भी नहीं है। मैं अन्ना हजारे के अनशन को लेकर राजनैतिक बात नहीं करना चाहता। मुझे सिर्फ इतना लगा कि अकेले चलने का साहस जो हमसे पहले कहीं छूट गया है। उसे वापस जाकर खोजना है। फिर शायद जिंदगी पटरी पर लौटे। क्या आपके पास बचा है। अकेले चलने का साहस या मेरी तरह आपने भी खो दिया है।

Wednesday, April 6, 2011

फोन गुमने का मजा

आपको शायद यकीन नहीं होगा। लेकिन पिछले कुछ दिन सुकुन में रहा। मजा भी खूब आया। मेरा मोबाइल फोन फिर गुम हो गया। भारत विश्व चैंपियन बना। और भीड़ में अपना फोन गुम गया।अपन जैसे आदमी के लिए जिसके वेतन का हिसाब पहले बनता है। बाद में वेतन मिलता है। और अपन जैसे अनाड़ी आदमी के लिए भी इसके हिसाब के लिए किसी charted accountant की जरूरत नहीं पड़ती। इस महीने पहले ही टैक्स कट गया। और मोबाइल खो गया। सो हिसाब करना ही नहीं पड़ा। कुछ रुपए बचे थे। सो अपने एक दोस्त की पत्नी बीमार थी। उसे रुपयों की जरूरत थी। अपन ने उसकी मदद कर दी। और घर एटीएम का कार्ड लेकर मजे से लौट आए। सुबह नींद बहुत दिनों बाद खुद ही खुली। किसी के फोन की घंटी से नहीं। सुबह उठते ही वे सवाल नहीं सुने। कहां है भाई साहब। मिलते ही नहीं। कभी घर तो आईए। बहुत दिन हो गए मुलाकात नहीं हुई। और फिर असल बात। आज एक कार्यक्रम कर रहा हूं। जरा देख लीजिएगा। हजारों लोगों का कार्यक्रम है। सभी चैनल वाले आ रहे है। आपको तो आना ही है। बच्चों के एडमीशन के लिए किसी ने पैरवी के लिए भी नहीं कहा। न किसी ने नौकरी के लिए बात कही। न बिजली का बिल कम करवाने के लिए किसी का फोन आया। और हां न कोई बीमार पड़ा। यानि दो तीन दिन सुबह अपनी थी। खुद ही उठते थे। अपनी मर्जी से। बाथरूम से एक बार भी भागकर बाहर नहीं आया। खूब नहाया। ऐसा भी नहीं हुआ कि भागकर कोई मैसेज पढ़ने आया। और उस पर लिखा हो। कि ग्रेटर नोएडा में विला बन रही है। सिर्फ 90 लाख में। खरीदने का आखरी मौका है। किसी भी कंपनी ने कोई प्लान भी बचत के लिए लांच नहीं किया। न ही किसी लाटरी में अपना नाम निकला। जिसका इनाम पाने के लिए पत्नी के साथ जाना जरूरी हो। मुंह में रोटी डालकर खाना खाते समय हंसे भी नहीं। न किसी को जबरन खुश करने के लिए आवाज बदली। न ही कोई नंबर देखकर माथे पर सिलवट आई। लेकिन अब जिंदगी ऐसी हो गई है। कि बिना फोन के काम नहीं चलता। सो अपना सुकुन दुकानदार को दे आया। और फोन खऱीद लाया। और फिर उसी जिंदगी में नया फोन वापस ले आया जहां से गया था। अगली बार फोन गुमने तक फिर उसी जिंदगी का हिस्सा बन गया हूं। चलो आप अपना नंबर भी मुझे भेज देना। इन दिनों मेरे पास किसी का नंबर नहीं है।

Tuesday, April 5, 2011

दादा नहीं हैं तो अपने घर भी नया साल नहीं आया।

अपने लिए लिखना न काम है। और न ही धंधा। लिखने का अनुशासन न कभी था। और न अभी है। लिहाजा महीनों हो गए। कुछ लिखने का मन ही नहीं हुआ। सो लिखा भी नहीं। पिछले कुछ दिनों में फोन पर कई messages आए। नए साल के। तब याद आया कि नया विक्रम संवत शुरू हो गया है। मुझे दो ही साल याद आते थे। एक नया साल जो जनवरी में शुरू होता है। और एक दादा का नया साल। दादा का नया साल। यानि विक्रम संवत। इस दिन अपने दादा सुबह से ही अत्य़ाधिक प्रसन्न और उत्साहित नजर आते थे।उन्हें देखकर लगता था कि पूरा नया साल दादा में उतर आया है। वे हम लोगों को पैसा तो देते ही थे। उनकी एक दिली ख्वाहिश भी रहती थी। घर के ऊपर नया झंडा फहराने की। सो बे सुबह से ही झंडा के लिए जुगत बिठाने लगते। कपड़ा लाते। उसे सिलाते। डंडा खोजते। उसमें पिरोते। और फिर उसे लगाने की व्यवस्था करते। किसी न किसी को तैयार करते। और फिर मकान के ऊपरी हिस्से पर उसे लगवा देते। अपन न विक्रम संवत समझते थे। और न नए साल का मतलब। लेकिन उन दिनों में भी दादा को खुश देखकर त्योहार मना लेते थे। जिंदगी में कुछ त्योहार लोगों से बनते है। और उनके मायने भी उन्हीं से निकलते है। अब अपनी जिंदगी में दादा नहीं है। तो नया साल भी नहीं आया। नया साल न खुशियों की उमंग लाया। न घर पर भगवा ध्वज फहरा। न किसी ने आशीर्वाद दिया और न ही मन प्रफुल्लित हुआ। सिर्फ फोन पर सूचना थी। जैसे किसी ने प्रेस कांफ्रेस में बुलाया हो। ये नया साल भी अपनी जिंदगी से दादा के साथ ही चला गया। क्या कुछ ऐसे त्योहार आपके भी है। जो आपसे विदा हो गए। अगर हों तो हमें बताइएगा जरूर।