Wednesday, September 29, 2010

न जाने कौन सी मुलाकात आखरी हो।

अभी कुछ देर पहले सागर से आशीष ज्योतिषी का एसएमएस आया। आशुतोष तिवारी की मां शांत हो गई। कुछ दिन पहले ही इसी तरह का एसएमएस आशीष द्दिवेदी का सागर से आया था। दीपक दुबे के पिताजी का देहांत हो गया। इन दोनों घटनाओँ में एक समानता थी। मैं कुछ दिन पहले ही इनसे मिलकर आया था। रक्षाबंधन पर सागर गया था। आशुतोष के घर गया।मां से मिला। वे हमेशा से ही मूंगफली की बर्फी बनाती और हम लोगों को खिलाती थी। मुझे बेहद पसंद थी। आशुतोष के घर जाने का यह लालच हमेशा से था। मैं इस बार भी गया। वे बीमार थी। पहचान गई। और बात मूंगफली की बर्फी की भी हुई। उन्होंने वायदा किया कि अगले बार आओगे। तो जरूर खिलाउंगी। बे बीमार थी। शायद हमें बहला रही थीं। जैसे कोई मां बच्चों को बहलाती हो जब वे चांद के जिद करते हैं। लेकिन वे अपना वायदा इतनी जल्दी तोड़ देगी। मुझे यकीन नहीं आ रहा।
दीपक दुबे की साथी प्रकाशन। सागर के कटरा बाजार में है। यानि दिल्ली के कनाट प्लेस में। हम लोग बचपन से ही साथी प्रकाशन जाते। दीपक दुबे से किताबे उधार लेते। और किश्त किश्त पैसे चुकाते। दीपक की दुकान के आस पास समोसे से लेकर चाय पान तक तमाम चीजें आसानी से मुहैया हो जाती है। सो अपने मजे थे। इस बार भी सागर गए। दीपक के साथ समोसे खाए। चाय पान भी किया। उनके पिताजी से मुलाकात हुई। उन्होंने कहा कि रात को आए हो। किसी दिन जल्दी आना। बात करना है तुमसे। और फिर हम जल्दी न जा पाए। और दिल्ली लौट आए। फिर उनके जाने की खबर आ गई।
आप न दीपक दुबे को जानते है। और न आशुतोष तिवारी को। न उनके माता पिता को। फिर भी ये ब्लाग में क्यों लिख रहा हूं। इन घटनाओं को महशूस करने के बाद। एक अलग तरह का डर बैठ गया है। ये बात अचानक मेरे मन में डर की तरह बैठ गई। हमें ये जिंदगी में पता ही नहीं होता कि किस व्यक्ति से आखरी मुलाकात हो रही है। या फिर कौन सी मुलाकात अंतिम हो। हम अपनी बेतुकी जिंदगी में इतने व्यस्त होते जा रहे है। कि हम हर समय जल्दी में हैं। जल्दी किस बात की है। पता नहीं। जाना कहां हैं पता नहीं है। लेकिन एक रफ्तार है। बस उसके हिसाब से भागते जा रहे है। अब तो लगता है दूसरों की बात अलग है। हमारी अपनी ही अपने आप से मुलाकात कब हुई थी। पता नहीं। अब वक्त मिले तो विस्तार से अपने से मिलूंगा। और कुछ याद करूगां। अपनी बाते भी। आप की आखरी मुलाकात अपने आप से कब हई थी बताईएगा।

Wednesday, September 22, 2010

न अपने घर विराजे गणपति न विसर्जन हुआ।

अपन दादी से अभी भी झूठ बोलते रहते है। कई साल का अनुभव जो है। उनसे झूठ बोलने का। पता नहीं वे भी समझती है या नहीं। गणेश चतुर्थी से एक दिन पहले ही उन्होंने सब कुछ बता दिया था। कल गणेश चतुर्थी है। गणपति बब्बा को घर में बिठा लेना। पूजा करना और उनसे सद-बुद्धि मांगना। हर बार की तरह इस बार भी हमने कहा जैसा आप कहती जाती है। वैसा ही हम करते जाते हैं। आज भी उन्होंने कहा कि जाकर किसी मंदिर में गणपति रख आना। नदी पर मत जाना। पैर छूकर विसर्जन कर देना। उनसे सबके लिए कल्याण और अच्छा स्वास्थ्य मांगना। मैंने कहा जी। अभी घर पहुंचा तो फोन करके बता दिया। सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा आपने कहा था। दोनों समय आरती की। लड्डू का प्रसाद चढ़ाया। खूब पूजा पाठ उनकी सेवा की। और प्रार्थना हर रोज की। सद-बुद्धि के लिए।
सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठी अपनी बुजुर्ग दादी को मैं क्यों दुखी करूं। सच बोलकर। सो झूठ बोलना अच्छा लगा। सुबह से रात कब हो जाती है। खबर खोजते और बनाते बनाते पता ही नहीं चलता। ऐसे में ये कहां मुमकिन था। बाजार जाकर गणपति बब्बा की मूर्ति खोजना। उसे घर लाकर बैठाना। उनकी पूजा समय से करना। हर रोज आरती करना। और फिर पूरे नियम कायदे से उनका विसर्जन करना। हमारी जिंदगी से हर वो चीज दूर होती जा रही है। जिसे हम टाल सकते है। टालने को तो हम फ्यूज ट्यूबलाइट बदलना भी कई दिन तक टालते रहते है। सो गणपति बब्बा भी इस साल टाल ही दिए।
शायद आपको भी याद होगा। जब हम और आप बच्चे थे। गणपति को घर में बिठालना। उनकी झांकी बनाना। फिर प्रसाद का इंतजाम। और दूसरे कार्यक्रम। कितना मजा देते थे। लेकिन धीरे धीरे हम जिंदगी और फिर परिवार और अब नौकरी में ऐसे फंस गए कि सब तीज त्योहार भूल ही गए। अब तो सिर्फ खबरों से पता चलता है कि आज गणपति विसर्जन था। या फिर देवी विसर्जन। मुझे एक बात समझ में नहीं आती। दादी कहती है। कि तुम लोगों की वजह से त्योहार है। और मुझे दिल्ली में लगता है कि त्योहार की रौनक ही बुजुर्ग होते है। उन्हीं ही आखों में त्योहार पलता है। पनपता है। और उन्हीं की झुर्रियों में रुकता है। बरसता है। अगर हम से त्योहार होता तो हम अकेले और उदास न होते ।मेरे त्योहार तो दादी की कहीं किसी झुर्री में रुके हुए हैं। सागर जाउंगा तभी उनके साथ मनाउँगा। उन्हीं के साथ बैठकर गणपति से सद-बुद्धि मांगूगां। आज तो अपन ने झूठ बोल दिया। वे शायद चैन से सो भी गई होगीं। आपने क्या किया अपने गणपति का हमें बताइएगा जरूर।