Monday, May 31, 2010

उधार की कार में शादी। क्या आप ने भी कभी कुछ उधार लिया ?

हमें एक शादी में जाना था। जगह हमारे घर से दूर थी। रात को बारह बजे के बाद ही लौटना था। अपने पास पुराने जमाने की मोटर साइकिल है। शादियों में जाना हो तो दो पहिए पर कई दिक्कतें होती है। हालांकि अपन कभी भी अच्छे कपड़ों के लिए नहीं जाने जाते। सो हमें यह दिक्कत नहीं है। कि दिल्ली का प्रदूषण हमारी सफेद शर्ट का रंग ही बदल देगा। लेकिन महिलाओं को साड़ी पहनकर बैठने में दिक्कत होती है। वह भी शादी वाली । बालों की भी परेशानी होती है। अगर आपकी पत्नी बालों को खुला रखकर शादी में जाना चाहती है तो। इसके अलावा दिल्ली में हो रही लूट भी एक परेशानी है। नकली जेवर भी लोग लूट ले लाए। इसका टेंशन नहीं है। लेकिन जान असली है। उसका भी खतरा है। आधी रात को आना हजार तरह की दूसरी शंकाओं को भी जन्म देता है। सो अपन ने एक दोस्त से कार उधार मांगी। और शादी में गए।
क्या किसी चीज को उधार लेना। हमारी परेशानी है। या फिर मानसिकता। मैं देर रात तक सोचता रहा। कई बार मजबूरी भी हो सकती है। लेकिन अपनी सुविधाओं के लिए उधारी। ये बात कुछ समझ में नहीं आती। अस्पताल जाना हो। रात को आटो न मिलता हो। तो कार मांगना समझ में आता है। लेकिन शादी के लिए कार। बात कुछ अटपटी सी लगती है। जिस तरह से जब भी दिल्ली में क्रिक्रेट का मैच होता है। या फिर संगीत का कोई कार्यक्रम। मैं पहले से डर जाता हूं। कि अब हमारे जानने वाले पास के लिए फोन करेगें। उसी तरह मेरे पड़ोसी भी शादियों का सीजन आते ही। अपनी कार को लेकर परेशान हो जाते है।
हमारे एक दोस्त है। भरत। उनका कहना है कि हम कई बार ऐसे लोगों से बेवजह संबंध बनाते हैं। जिनके पास कार होती है। उन्हें नमस्कार करते है। कभी कभार चाय नाश्ता पर भी बुलाते है। हमें यह बात क्यों नहीं समझ में आती कि इमरजेंसी में हम टैक्सी स्टेंड से भी कार मंगा सकते हैं। हमने वेवजह अपना समय सिर्फ कार के लिए जाया किया। हमारी जिंदगी में उधारी की महत्वपूर्ण भूमिका है। राशन उधार। रोज मर्रा के तमाम काम उधार। जरूरत पढ़ने पर पैसे उधार। शादी में जाना हो तो कार उधार। बीमारी में थर्मस उधार। कोई खाना खाने आए तो बाजू वाले से बर्तन उधार। मुझे लगता है। उधार एक सबसे बड़ा झूठ है। जो हम अपने आप से बोलते है। और एक ऐसा पानी का तालाब। जिसे देखकर हम रेगिस्तान में भागते है। हमें हर वो चीज जो मुफ्त में मिलती है। हम उसके पीछे भागने लगते है। जिंदगी में अब कई बार लगता है कि कई चीजें जो हमनें उधार ली थी। उनके बिना भी काम चल सकता था। जैसे कल मैं शायद बिना कार के भी शादी में जा सकता था। क्या आपकों भी लगता है कि उधारी के बिना ज्यादा बेहतर तरीके से जिया जा सकता है। हमें बताइएगा जरूर।

Sunday, May 30, 2010

शाम बीमार हुए। रात मर गए। सुबह उठे। चल दिए। जी रहे हैं लोग।

शाम बीमार हुए। रात मर गए। सुबह उठे। चल दिए। जी रहे हैं लोग। यह शेर। हमने करीब बीस साल पहले सुना था। जब हम कालेज में थे। कविताएं लिखते। और खूब सुनते-सुनाते थे। आपसे सच कहूंगा। उस समय मुझे यह समझ में ही नहीं आया था। मैंने न ऐसी जिंदगी देखी थी। और न दिल्ली । हम जब दिल्ली आए। और नौकरी करने लगे। फिर टेलीविजन की नौकरी करने लगे। अब इस महानगर की जिंदगी का हम हिस्सा बन गए हैं। अब हमें कुछ कुछ ये शेर समझमें आने लगा है। किस तरह से सुबह उठकर हम चल देते है। पूरे दिन का पता ही नहीं चलता। आधी रात को घर आते है। लगभग बीमार। और बिस्तर पर मरे हुए आदमी की तरह सो जाते है। और सुबह उठकर। फिर चल देते हैं।
आप भी मेरी ही तरह शायद जिंदा होंगे। अगर आप दिल्ली में हैं। या ऐसे ही किसी शहर में। ये शहर हमें दो जून की रोटी तो देते है। लेकिन इसकी कीमत आपको नहीं लगता कि कुछ ज्यादा ही वसूल लेते हैं। आपके परिवार में कोई शादी है तो लगभग मेहमान की तरह पहुंच पाते हैं। अगर किसी दूर के रिश्तेदार की शादी है तो टाल देते है। हमारी जिंदगियों से छोटी छोटी खुशियां कहीं गायब नहीं हो गई है।मुझे याद नहीं कि पिछले कितने सालों से मैंने किसी का मन भर के जन्मदिन या फिर किसी की शादी की सालगिरह मनाई हो। बिना किसी तनाव के फिल्म देखी हो। या फिर कहीं बाहर जाकर लंबें समय तक फुर्सत से बैंठे हों। कुछ आप ही बताइए। कहां से खोज कर लाऊ। जिंदगी में फुर्सत के रात दिन।

Saturday, May 29, 2010

लड़की से अकेले में क्या बातें करते हैं लड़के ? क्या आपने भी अपनी पत्नी से अकेले में बात की थी ?

मेरी एक दोस्त घर जल्दी जाना चाहतीं थी। कल संडे हैं। उन्हें आज ही ब्यूटी पार्लर जाना है। जरूरी। कल उन्हें शादी के लिए एक लड़का देखने जाना है। उनकी शादी की तैयारियां जोरों से चल रही हैं। किसी रविवार वे दिखने जाती है। तो कभी लड़का देखने। शायद आपको यह बात विरोधाभासी लगी होगी। हालांकि बात सपाट है। जब लड़का उनकी मम्मी पापा को पसंद आ जाता है। और लड़के को फोटो पंसद आजाती है। तो वह उसे देखने जाती है। और जब ये किसी के माता पिता को पसंद आ जाती है। तो फिर लडका आता है। और ये दिखने जाती है। और आखरी में अकेले में बात करने का वक्त भी दिया जाता है।
मैं पेशे से रिपोर्टर हूं। सो स्वाभाविक है कई विषयों में मुझे जिज्ञासा बनी रहती है। मुझे यह कभी समझ में नहीं आया। शादी से पहले लडके लड़की आपस में क्या बात करते हैं। शायद इसकी एक वजह यह भी हो। कि मुझे अकेले में बात करने का मौका ही नहीं मिला। लिहाजा मैं यह अवसर चूक ही गया। सो अभी भी आंसता है। मुझे यह बात और भी महत्वपूर्ण लगने लगी जबसे मेंरे एक दोस्त ने ऐसे ही एक मौके की डिमांड की। जबकी वे हम सब से कम बोलते हैं। मैं पिछले दस सालों से उनसे और उनकी पत्नी से लगातार पूछतां रहता हू। कि उन्होंने अकेले में क्या बात की थी। वो कौन सी बातें हैं। वे कौन से सवाल है। और कौन से जवाब है। जिनसे व्यक्ति का जीवन तय हो जाता है। कुछ मिनिट में क्या जान लेता है कोई। कौन सी पर्ते हैं जिंदगी की जो लोग खोल लेते है। अपने तो कई ऐसे जानने वाले हैं। जिनका हमारे साथ तीस साल का संबंध है। फिर भी लगता है। कभी कभी ये अजनबी है।
मैंने अपनी सहेली से पूछ ही लिया। मुझे बताओं कि लडके अकेले में क्या बात करते हैं। उसने हंसकर कई बातें बताई। लेकिन मैं गंभीरता से घंटो सोचता रहा। लड़के अक्सर पूछते हैं। तुम जींस पहनती हो। ऊंची हील की चप्पल पहनने में दिक्कत तो नहीं होती। मैं माडर्न किस्म का लड़का हूं। सिगरेट पीता हूं। पार्टियों में शराब भी पीता हूं। तुम्हें दिक्कत तो नहीं होगी। मैं घर में मांसाहार कर सकता हूं। उसका कहना था कि सबके सामने जो जितना भोंदू दिखता हैं। वह अंदर जाकर उतनी ही विचित्र बातें करता है। हर लड़का तो स्वाभीमानी होता है। सभी को गुस्सा आता है।कालेज के समय उन्होंने काफी गुंडागर्दी की है। वे तेज गाड़ी चलाते है। उन्हें मरने से डर भी नहीं लगता। और हां एक बात और। अधिकतर पूछते हैं। कि तुम्हारा कोई boyfriend है या नहीं। हालांकि मेरी एक दोस्त थी। उसकी शादी हो गई। कुछ लोग विवेकानंद से लेकर प्रेमचंद तक की किताबों के बारे में पूछते है। लेकिन मुझे ये बातें सुनकर निराशा ही हुई। मैं सोचता था शायद लोग अपने परिवार के बारे बातें करते होगें। अपनी कमजोरियों के बारे में। लेकिन वह बताती है। कि अकेले में बात करते समय। हर लड़का अपने को सिकंदर से कम नहीं आकतां। और में समझ जाती हूं। कि यह हर मोर्चे पर हारा हुआ आदमी है।
मुझे तो यह मौका मिला नहीं। क्या आपको यह मौका मिला था। सच सच बताइएगा । क्या क्या बातें की थी आपने। क्या उन बातों का कोई मतलब निकला था। क्या पूछा था आपने। क्या बताया था आपने। हमें भी सुनना है।

Friday, May 28, 2010

सौ रसगुल्ले खाने की शर्त। क्या आपने जीतीं हैं कभी इस तरह की शर्ते।

अपने एक मित्र की शादी थी। जाना जरूरी था। और भोजन भी करना ही था। थोड़ी ना ना करने के बाद अपन भी प्लेट हाथ में लेकर लाइन में लग ही गए। शादियों में खाना भले स्वादिष्ट लगे। लेकिन उसे हासिल करना भी आसान नहीं होता। पहले लाइन में लगना। फिर प्लेट का इंतजार करना। फिर प्लेट लेकर खाने की लाइन में लगना। पूरे समय चौकन्ने रहना। कि आगे वाला शाही पनीर निकालते वक्त अपनी चम्मच तुम्हारी कमीज पर न लगा दे। जो अपनी आदत में शुमार नहीं है। या फिर उन आंटी की प्लेट जिसमें 13 तरह की चीजें रखी हैं। आपको छूती हुई न चली जाएं। फिर अगली बार चांवल के लिए लाइन में लगना। इस तरह से कई बार लाइनों में लगना परेशान सा करता है। लेकिन फिर भी हमनें खाना पूरे संघर्ष के साथ खाया। हमारे यहां पर एक लुटेरों की एक विशेष प्रकार की जाति होती हैं। वे लूटते भी हैं। और मारते भी है। पिटाई करने के पीछे उनका अपना एक तर्क होता है। वे बिना मेहनत के कमाई नहीं करना चाहते। सो इस तरह के भोज में लगता है कि अपन ने भी मेहनत करके खाना खाया है। मुफ्त में नहीं।
खाना खाने के बाद हमारे एक मित्र ने रसगुल्ले खाने की बात कही। हमनें साफ इंकार किया। पहले ही खाना ज्यादा खा चुका हूं। अब और कुछ भी नहीं खा सकता। उन्होंने कहा कि खाना तो वे भी खा चुके हैं। लेकिन रसगुल्ले अभी भी खा सकते है। बात शुरू हुई कितने। उन्होंने कहा शर्त लगाओं। शर्त लगाने वाले हर जगह मिल ही जाते है। किसी ने कहा कि सौ खाकर दिखाओ। और फिर क्या था। वे खाने के लिए जुट गए। पुरे सौ रसगुल्ले खाए। और शर्त जीत गए। इस तरह की शर्ते लगाना और जीतना हमसे कहीं पीछे छूट गया है। आपको याद है कि पिछली शर्त आपने कब और किससे लगाई थी। याद आते हैं कालेज के दिन। जब कितनी तरह की शर्ते होती थी। ज्यादा नंबर लाने की शर्त। पहले कालेज आने की शर्त। किसी लड़की से बात करने की शर्त। किसी को प्रेम का प्रस्ताव देने की शर्त। चलती क्लास रूम में जोर जोर से गाना गाने की शर्त।
जिंदगी भी अजीब चीज है। कितने रंग दिखाती है। किस किस तरह से अपना लोहा मनवाती है। कभी कभी हम शर्त तो जीत जाते है। लेकिन जिंदगी हार जाते है। क्या आपने भी कभी किसी दोस्त से शर्त जीती। या फिर शर्त हारी। हमें बताइएगा। जरूर।

Thursday, May 27, 2010

शादी का कार्ड अब क्यों मजा नहीं देता। क्या आपको भी तनाव देता है ?

मेरा ब्लाग पढ़कर। आपको लग सकता है। कितना खराब आदमी है। कितना असमाजिक है। लिखता तो अच्छी बातें हैं। लेकिन हकीकत कुछ और है। लेकिन मेरी कोशिश है। मेरा ब्लाग मेरा आईना बने। जैसा मैं सोचता हूं। वही मैं लिखूं। आपकी प्रतिक्रियाओं से अपना बारें में अंदाजा लगाऊगां। आपके आईने में अपने को देखना चाहता हूं। इसलिए जैसा मैं सोचता हूं। वैसा लिख देता हूं। बिना सही गलत तय किए।
सागर से मित्र का फोन आया था। फिर उसके पिता का पत्र आया। अब बहिन की शादी का कार्ड आया है। पहले किसी दूर दराज के पहचान के व्यक्ति की शादी की सूचना। मजा देती थी। एक नए उत्साह का संचार हो जाता था। शादी की बात आते ही। लगता था दोस्तों के साथ लंबी महफिले। खूब मजा। नाच गाना। अच्छे कपड़े। खूब मस्ती। बहुत सारे लोगों से मुलाकातें। लंबी गप्पे। हंसी मजाक का तो क्या कहना।
छोटे शहरों में शादियां ठेकों से नहीं होती। दोस्तों और अपनो की दम पर होती है। सो काम भी सब मिलकर ही करते हैं। कार्ड बांटने से लेकर विदाई तक कई काम होते हैं। शादियों के कार्ड बांटना भी एक गजब का काम है। उसे बांटने की भी विज्ञान है। अपने एक दोस्त तो एक दिन में कई सौं कार्ड बांटने का हुनर रखते थे। और अपन शुरू से ही इस काम में बदनाम रहे। जिसे कार्ड देने गए वहीं बैठ गए। चाय पीने को बैठे और गप्पे शुरू। शादी अपनी देरी से हुई। सो जिसका कार्ड भी देने जाते। बात यहीं से शुरू होती। अपनी शादी का कार्ड लेकर कब आओगे। कुछ मित्र कार्ड तालाब या कुएं के हवाले करने के लिए भी बदनाम थे। अगर किसी मोहल्ले का कोई खास आदमी नही आया। तो अंदाजा लग जाता था। कि कार्ड उस इलाके में पहुंचे ही नहीं। लेकिन क्या फायदा। शादी तो हो चुकी। अब सिर्फ शिकवे शिकाएतें ही बचते थे।
शादी के लिए अच्छे कपड़े का चुनाव करना। शाम से ही तैयार होना। इंतजाम में जुटे रहना। हर शादी में कितना ही होमवर्क कर लिजिए। कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। सो दोस्त के नाते उसे कम से कम परेशानी में निपटाना। रात रात भर जागना। खूब मेहनत और खूब मजा। लेकिन अब शादी का निमंत्रण। तनाव देता है। बात छुट्टी से शुरू होती है। फिर टिकिट। तैयारी। माफिक तोहफा। यानि लगता है जैसे हम अपना कोई कर्तव्य निभाने जा रहे हों। वक्त बदला है। या हम बदल रहे है। समझ में नहीं आता। क्या आपको शादियों में जाना अभी भी मजा देता है। या मेरी तरह तनाव। सच सच बताइएगा।

Wednesday, May 26, 2010

क्या आप भी फंसे है कभी हड़तालियों के बीच।

खबर करवानी थी। हड़ताल पर। इस बार एयर इंडिया के कर्मचारी स्ट्राई पर थे। सो हमने रिपोर्टर भेज कर खबर पर नजर गड़ा ली। आपको शायद हैरत होगी। कि कितने तरह के लोग थे। कितने लोगों की परेशानियां। किसी की परीक्षा। तो किसी की शादी। किसी की नौकरी का मामला। तो कहीं बीमारी। जितने लोगों से हम बात करते गए। परेशानियां उतने तरह की सुनते गए। किसी के रिश्तेदार का देहांत हो गया है। वो उसे आखरी बार देखना चाहता है। लेकिन वह नहीं जा पाता। एयर इंडिया के कर्मचारी हड़ताल पर हैं। ऐसे कई किस्से थे। इन लोगों को समझ में नहीं आ रहा था। कि वे अपनी किस गलती कि कीमत चुका रहे हैं। इस हड़ताल के लिए वे कहां दोषी है।
लोकतंत्र में हड़ताल आम बात है। एक आसान तरीका हैं। लोगों को ध्यान अपनी परेशानी की तरफ खींचने का। लेकिन हम अपनी बात इस तरह से कहके किसको नुक्सान पहुंचाते हैं। किसकी कीमत पर हम अपनी बात पहुंचा रहे हैं। पिछले दिनों हम पानी पर जाम लगा रहे लोगों की खबर कर रहे थे। तभी एक आटो में एक बुजुर्ग महिला हाथ जोड़कर उतरी की जाम खुलवा दीजिए। उसकी बेटी को अस्पताल जाना है। इस तरह की परेशानियां अब आम बात होती जा रही है। हमें यह समझना होगा कि गलती किसकी है। और हम सजा किस को दे रहे हैं। लोकतंत्र में हर आदमी को अपनी आवाज उठाने की इजाजत होनी चाहिए। लेकिन किसी दूसरे और कमजोर की आवाज दबाकर नहीं। क्या कहते हैं आप। विरोध का क्या यह तरीका ठीक है। या फिर हमें अपनी बात कहने को कोई और तरीका भी खोजना चाहिए।

Tuesday, May 25, 2010

भस्मासुरों को खत्म करने के लिए अब हमें ही विष्णु बनना होगा।

हम अपनी पीठ खुद नहीं थपथपा रहे हैं। और न हीं अपने मुंह मियां मिठ्ठु बनना चाहते हैं। हम मीडिया के पक्ष में कसीदे भी कसना नहीं चाहते। हम ऐसा भी नहीं मानते कि मीडिया ने रुचिका के मामले में कोई बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। हम तो सिर्फ इतना कहते हैं कि हमने सिर्फ इंसाफ के लिए संघर्ष करते उन लोगों के कांधे पर हाथ रखा है। और धीरे से कहा कि तुम्हारी लड़ाई में और भी लोग हैं। जो तुम्हारे साथ है। हमनें उन नसों में ताकत फूंकी है। जो कभी कमजोर हुई। कभी निराश। हमनें सिर्फ इतना जताया है कि कोई भी कितना ही ताकतवर क्यों न हो। अपने किए की सजा पाता है। बात सिर्फ संघर्ष करने की है। पूरी ईमानदारी से कोशिश करने की है। और लड़ने के लिए एक जज्जबा चाहिए।
समाज की बनावट ने न जाने कैसे राठौर जैसे भस्मासुर पैदा कर दिए हैं। जो अब हमी को अपना शिकार बनाने के लिए तैयार है। आज न केवल वह परिवार सलाम के काबिल है। बल्कि रुचिका की सहेली आराधना और उसका परिवार भी। जिन्होंने इतना लंबा संघर्ष किया। यह बात मानकर चलिए कि राठौर जैसे भस्मासुरों को खत्म करने के लिए आपको खुद ही विष्णु बनना पड़ेगा।

Monday, May 24, 2010

अशांत मन और तनाव में शांत होकर बैठ जाए। बुद्द की एक अच्छी कहानी है।

मैंने आज बुद्ध की एक कहानी पढ़ी। बुद्ध आनंद के साथ जा रहे थे। उन्होंने एक नाला पार किया। करीब आधा किलोमीटर आगे जाने के बाद उन्होंने आनंद से कहा कि मुझे प्यास लगी है। तुम जाकर पानी ले आओ। आनंद को याद था। कि आधे किलोमीटर पहले ही एक साफ पानी का नाला था। उसका पानी एक दम साफ चमक रहा था। आनंद भाग कर गया। लेकिन उसने देखा कि उस नाले से कई बैलगाड़ियां होकर निकली है। और पानी एकदम गंदा हो गया है। आनंद ने बुद्ध से जाकर कहा। नाले का पानी गंदा हो गया है। मैं पास से पानी लेकर आता हूं। यहां करीब ही एक नदी बहती है। बुद्ध ने कहा नहीं। मुझे इसी नाले का पानी पीना है। आनंद को हैरत हुई। लेकिन वह वापस गया। उसने देखा पानी अभी भी गंदा है।वह वापस लौट कर आया। बोला वह पानी नहीं पिया जा सकता। लेकिन बुद्ध शायद उसे कुछ सिखा रहे थे। उन्होंने कहा कि जाओं और इंतजार करों पानी के साफ होने का। मैं वहीं पानी पीयूंगा। आनंद वापस कुछ देर बैठा रहा। उसने देखा कि गंदगी साफ हो गई है। कुछ चीजें नीचे बैठ गई है। कुछ बह गई है। आनंद पानी लेकर वापस आ गया। बुद्ध ने पूछा। आनंद कहीं तुम्हारी इच्छा पानी में कूद कर उसे साफ करने की तो नहीं हुई। आनंद ने कहा कई बार हुई। और मैं कूदकर साफ भी करने की कोशिश करता रहा। लेकिन हर बार पानी और गंदा हो जाता था।बुद्ध शायद यही उसे बताना चाह रहे थे।
कथा पढ़कर मुझे लगा। जिंदगी में कई बार हम जब अशांत होते हैं। परेशानी में होते हैं। या तनाव में होते हैं। तो हम बिना सोचे समझे। उसे सुलझाने के लिए कूद पड़ते है। आनंद की तरह। और अपने को और उलझा लेते है। शायद हमें भी विपरीत समय में शांत होकर बैठ जाना चाहिए। परेशानी हमारी अपने आप बैठ जाएगी। आपके साथ क्या कभी ऐसा हुआ है। कि आपने अपनी परेशानी सुलझाने के लिए कोशिश की हो और ज्यादा उलझ गई हो। अपने अनुभव हमें बताइएगा।

Sunday, May 23, 2010

साहब के अच्छे बच्चे प्लेट चाटते मिले। मॉम ने कहा था बच्चे चाय नहीं पीते।

इलेक्ट्रानिक मीडिया में पत्रकार होने के चलते समय का अभाव रहता है। हम अच्छे पतियों की तरह शाम सात बजे घर नहीं आ सकते। न हीं कुर्ता पायजामा पहन कर पत्नी के साथ खाना खाने के बाद टहलने निकल सकते हैं। न शर्माजी के घर उनकी शादी की सालगिरह पर जा पाते हैं। और न हीं खरे साहब के बच्चे के जन्मदिन पर। कभी किसी की शादी में पहुंचे भी तो टेंट वाला सामान समेटता हुआ मिला। यानि अपना किसी के घर आना जाना मुश्किल ही होता है। लेकिन फिर भी कुछ दोस्त इतने गुस्सा हो जाते हैं कि उन्हें मनाना ही पड़ता है। अपने सागर के ही एक दोस्त हैं। वे केंद्रीय सरकार के एक मंत्रालय में अफसर है। और उनकी पत्नी दिल्ली की ही हैं। वे रहती तो घऱ में हीं है। लेकिन देखने वाले को वे अफसर लगती है। और मेंरे दोस्त उनके दफ्तर में क्लर्क।
गुस्सा। ताना। अनबन। ये सब कई महीनों से चल रहा था। हम रविवार के दिन उनके घर चाय के समय पहुंच ही गए। वे सरकारी अफसर हैं। सो वैसी ही उनकी चाय थी। हम लॉन मैं बैठे। वहीं चाय आई। चाय के साथ बिस्किट भी। और गप्पें शुरू हुई। चाय हमें और हमारी पत्नी को आई। साथ में उन्हें और उनकी पत्नी को भी। हम घर से सीखकर आए हैं। इज्जत में बड़े पहले। खाने पीने में बच्चे पहले। सो चाय हमने सबसे पहले उठाकर उनके दोनों बच्चों को दे दी। हमारी अफसर भाभी ने चाय के कप प्लेट लगभग उनके हाथ से छीन लिए। हमारी तरफ भी कुछ गुस्से में देखीं। मानो कह रही हों।एक तो बुंदेलखंड का आदमी। फिर पत्रकार । हर लिहाज से इंफिरियर। और फिर उन्होंने बताया कि अच्छे बच्चे चाय नहीं पीते। उन्हें मुआवजे के रुप में उन्होंने एक एक बिस्किट थमा दिया। हमें लगा कि हमारे परिवार ने हम खूब चाय पीने दी। शायद यही वजह है कि हम कलम घसीटी कर रहे हैं। अफसर नहीं बन पाए। गप्पे चलती रही। हम चलने को हुए। तो भाभी को लगा कि अभी घर तो बचा ही हुआ है। सो हम उनके फूल और बागवानी भी देखने गए। जब हम वापस आ रहे थे। तो हमने देखा कि उनके दोनों बच्चें हमारी चाय की झूठी प्लेट चाट रहे हैं। हमे लगा कि कह दें। भाभी इन्हें बुरे बच्चों की तरह चाय पीने दीजिए। नहीं तो ये अच्छे बच्चे बनकर बाद में इस तरह के काम करेंगे।
बात चाय पीने की या मेहमान की झूठी प्लेट चांटने की नहीं है। बात उस विचार की है। जो आप अपनी ताकत से दबाते हैं। हर वह इच्छा जो बिना जायज वजह के दबाई जाती है। अक्सर कुंठा बन जाती है। और विकृत रुप में बाहर निकलती है। हमनें सुना है कि एक बार फ्रायड अपने परिवार के साथ एक पार्क में घूमने गए थे। अचानक उनका बच्चा गायब हो गया। फ्रायड ने अपनी पत्नी से पूछा कि तुमने उसे कहीं जाने को मना किया था। उन्होंने बताया कि पानी के पास। उन्होंने कहां वह वहीं कहीं होगा। और वहीं मिला भी। पानी के ही पास। हम बच्चों को जिस चीज के लिए ताकत के बल पर रोकतें है। वह उनकी इच्छा की अभिव्यक्ति को कुंठित करता है। हमें उनकी इच्छा को एक संयमित और बेहतर रास्ता देना चाहिए। बजाए इस तरह दबाने के। आपके अनुभव क्या हैं हमें बताइएगा।

Saturday, May 22, 2010

पत्नी ऐसी हो कि घर आने की इच्छा हो। क्या सोचते हैं आप ?

एम्स के कुछ डाक्टरों के साथ मैं खाना खा रहा था। बात दिल के आपरेशन पर चल रही थी। दिल के रास्ते बात प्रेमिका और पत्नी तक आ पहुंची। मैंरे एक दोस्त ने अपनी दास्तान सुनाते हुए कहा। कि 25 साल पहले जब मेरी प्रेमिका ने पूछा कि पत्नी कैसी होनी चाहिए। तो मैंने कोई फलसफा नहीं दिया। न ही कोई लिस्ट थमाई। मैंने सिर्फ इतना कहा कि पत्नी ऐसी होनी चाहिए कि घर आने की इच्छा हो। और उसके बाद 25 साल हो गए। जैसे ही वक्त मिलता है। फट से घर चला जाता हूं। मैंने इस बात का न आपरेशन किया। न उन्होंने।
मैंने कबीर की एक बहुत ही मीठी कथा सुनी है। मुझे वह बहुत कीमती लगती है। मैंने सुना है। एक व्यक्ति कबीर के पास पहुंचा। उसने कहा कि उलझन में हूं। समझ में नहीं आता। शादी करूं य न करूं। आप ही कुछ बताइये। कबीर जेठ दोपहरी में बैठकर अपना कुछ काम हर रोज की तरह कर रहे थे। उन्होंने पत्नी को आवाज लगाई। शाम इतनी ढल गई। रात हो चली है। तुमने अभी तक दिया नहीं जलाया। पत्नी ने कहा माफ करना भूल गई। और वह कुछ देर में दिया लेकर आ गई। अतिथि अवाक था। कबीर ने समझाया कि तुम्हारें पास कोई ऐसी महिला हो जो तुम पर इतना यकीन कर सकें। तो शादी कर लो।
एक आखरी बात। हम जिस क्षेत्र में काम करते हैं। वह ग्लैमर का फील्ड है। हमारे साथ बेहद स्मार्ट। सुंदर। और पढ़ी-लिखी लड़किया काम करती है। बातूनी लोगों के साथ लड़कियां अक्सर जल्दी घुल मिल जाती है। सो अपन को इसका फायदा रहा। अपनी भी कइयों से अच्छी खासी दोस्ती रही। इनमें से किसी भी एक लड़की से शादी करना आसान था। फिर क्या था। मोबाइल में कई लड़कियों की फोटों खींची। दादी से बात करने पहुच गए।उन्होंने कई बातें बताई। लेकिन आखरी में कहने लगीं। बेटा अगर कोई इंसान अपने नाप की चप्पल पहनता है तो चल पाता है। वर्ना पूरा सफर संभल के ही चलने में ही निकल जाता हैं। उसी तरह पत्नी अपने स्तर की खोज। शायद वे जानती थी। मैं एक साधारण सा रिपोर्टर हूं।
बात इसकी नहीं है कि तुम्हारी पत्नी कैसी हो। और कैसी हैं। पत्नी जिंदगी में इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि उसका सीधा असर तुम्हारी जिंदगी पर पड़ता है। वह तुम्हें संत बना सकती है। और भ्रष्ट भी । तुम्हारी सोच पर उसका सीधा असर होता है। लिहाजा जीवन में पत्नी कैसी हो । इससे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। कि तुम्हारे सोच और तुम्हारी गति में सहायक हो। आप क्या कहते हैं। हमें बताईएगा। जरूर।

Friday, May 21, 2010

बाबूजी कुछ देर को आप ही आदमी बनजाओं। मेरी प्यास से जान जा रही है।

क्या हम आदमी है ? या आदमी के नाम पर कुछ और। क्या हमारे अंदर का वह तत्व जिसे हम इंसान कहते हैं। मर गया है। या रोज भागते भागते हम एड़ियों के साथ साथ हमारी आत्मा भी घिस गई है। इतने शोर गुल में वह भी हमारी तरह बहरी होती जा रही है। जो अब बाहरी आवाजें सुनती ही नहीं। अब क्या हम सिर्फ नाम और नाम के साथ ओहदे बचे हैं। हजारों प्रश्न वो आदमी एक साथ पूछ गया। और मैंरे पास कोई जवाब नहीं। आप भी सोचिएगा। और जवाब मिले। तो हमसें भी सांझा की जिएगा।
रेडीमेड कपड़ों की एक दुकान। सेठ के डीलडोल से लगता है। पक्का लाला होगा। कई लोग वयस्त हैं। किसी मेंमसाहब को साड़ी दिखाने में। या फिर किसी बाबू को पेंट दिखाने में। शादी की समय है। इससे ज्यादा कपड़े और कब बिकेगें। दुकानदार को भी चांदी कांटनी है। ज्यादा से ज्यादा। आखिरकार चांदी की खनक। इंसानियत से आजकल शायद ज्यादा होती है। बाहर धूप अंगारे बरसाती है। शायद जेठ का महीना होगा। घड़ी घड़ी गला सूखता है। महानगरों में पैसे वालों के लिए तो ठंडा पानी पैक्ड मिलता है। और गरीबों के लिए पानी खोजना पड़ता है। ऐसे ततुरी वाली दोपहरी मैं। वह अधेड़ उम्र का आदमी। ग्राहक था या अनजाना मैं नहीं जानता। वह सीधा सेठ से ही बोला बाबूजी प्यास लगी है। पानी पीना है। बाबूजी ने एक नाम को आवाज लगाई। पता चला वह दुकान के बाहर है। सेठ बोला। रुको आदमी बुलाया है। प्यास धनात्मक नहीं बड़ती। गुणात्मक बड़ती है। कुछ मिनिट बाद वह फिर बोला। बाबूजी प्यास लगी है। सेठ ने फिर कहा। ठहरो आदमी बुलाया है। आ रहा है। लेकिन प्यास तो मानों गले से होती हुई। ओठों पर आकर डेरा ही डाल लेती है। वह और विन्रम होकर बोला। बाबूजी प्यास जोर से लगी है। सेठ ने फिर कहा। कहा न आदमी नहीं है। आदमी को बुलाया है। वह कुछ देर चुप रहा। और फिर बोला। ..बाबूजी.............. कुछ देर के लिए ही आप ही आदमी बन जाइए।.............................. हमें पानी पिला दिजिए। हमारी जान जा रही है।
बात हम से नहीं वास्ता रखती है। लेकिन यह सवाल हमारे सामने हैं। क्या हम इतने आदमी भी नहीं बचे हैं कि हम किसी प्यासे के लिए पानी पिला सकें। हम किन चीजों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैं एक अच्छा रिपोर्टर बन जाँउ। आप शायद एक अच्छा डाक्टर या फिर वकील या कारोबारी बनना चाहते हैं। यही हमारे संघर्ष हैं। क्या हम एक अच्छा इंसान बनने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। क्या किसी प्यासे आदमी को पानी पिलाने के लिए हमें भी किसी आदमी की जरूरत है। या हम खुद भी आदमी बचे हैं। अपने को टटोलिएगा। और हमें बताइएगा। इमानदारी से।

Thursday, May 20, 2010

उसने मुझे बीमारी में दस हजार का खाना खिलाया। समाज उसे वैश्या कहता है। और आप ?

हमारी जान पहचाना थी। जब धीरे धीरे दोस्ती हुई। तो उसने पुराने राजा रानियों की तरह दो बातें कहीं। कभी मुझे संत की तरह प्रवचन मत देना। और कभी पत्रकार की तरह मेरा अतीत न पूछना। न मैं रामायण का दशरथ था। और न महाभारत का भरत। फिर भी मैंने कभी भी अपनी मर्यादा नहीं लांघी। अपना कद ऊंचा करके उसे कभी छोटा नहीं किया। और कभी उसको शर्मिंदा करने की कोशिश भी नहीं की।
मैं करीब 13 साल पहले जनसत्ता में रिपोर्टर बनकर आया था। आप जानते ही हैं। पत्रकारिता में सूत्र होने चाहिए। यानि आपकी जान पहचान हो तभी आप जल्दी सफल हो सकते हैं। लेकिन हम तो दिल्ली में एक ही व्यक्ति को पहचानते थे। हमारी एक दीदी कलेक्टर बनने की तैयारी कर रही थी। सो वे अपने मकान मालिक के अलावा किसी को न जानती थी। जब हमने खबरें खोजना शुरू किया। तो हमारे एक बडे भाई ने हमें सलाह दी। कि सैक्स की खबरे लोग ज्यादा पढ़ते हैं। और रिपोर्टर का नाम भी लोगों की जुबान पर आ जाता है। इसके अलावा दलालों पर खबर करों। इस तरह की खबरें भी लोकप्रिय होती है। जैसे किसी नेता का झूठा राशनकार्ड बनवा दो। किसी का गलत मृत्यू प्रमाण पत्र। किसी अंधे या अपाहिज व्यक्ति का ड्राइविंग लाइसेंस। सो इस तरह की खबरों में अपन जुट गए।
हमने हाई प्रोफाइल कालगर्ल्स पर खबरें खोजना शुरू किया। और हमारी सुनैना से दोस्ती हो गई। वह फर्राटे से अंग्रेजी बोलती थी। स्टिक से चाईनीज खाना खाती थी। बला की सुंदर। लंबी वाली गोल्ड फ्लेक पीती थी। और ओल्ड मंक रम पीती थी। मध्यप्रदेश के सागर जैसे शहर से आए किसी भी व्यक्ति के लिए यह सब किसी हिंदी फिल्म के पात्र से कम न था।
खबरें बदलने लगी। हमें बीट मिल गई। और कुछ लोगों से जान पहचान भी हो गई। फिर भी कभी कभार हम फोन पर बात कर लेते थे। उसने कहा नहीं लेकिन मुझे लगता बातचीत से और भावनाओं से लगता था कि वह मध्यप्रदेश की है। या फिर उसी तरह के किसी प्रांत की। एक बार आधी रात को फोन आया। हालचाल पूछने के लिए। मैंने हालचाल तो ठीक बताए। लेकिन उसे आवाज ठीक नहीं लगी। मैने कहा हां। कुछ बुखार हैं। मैं घर जाने के लिए आईटीओ पर खड़ा हूं। आटो नहीं मिलता। न बस ही दिखती हैं। उसने कहा तुम बीमार हो । वहीं रुको। मैं तुम्हें घर छोड़ देती हूं। मुझे ये बात साधारण ही लगी। जैसे कोई दोस्त मदद करता हो। वह कुछ ही देर में अपनी कार लेकर मुझे आईटीओ लेने पहुंच गई। उसके साथ एक व्यक्ति और था। वह जो उसका रात भर के लिए ग्राहक था। ये बात उसको बेहद गुस्सा दिला रही थी। कि वह मुझे अब घर तक छोड़ने जाएगी। लेकिन शायद उनके बीच जो भी समझौता हुआ हो। वह मान गया। मैं कार में बैठा। और घर की तरफ बड़ा। अचानक उसने पूछा। तुमने खाना खाया। मैंने कहा नहीं। मैं ढावे पर जाकर खा लूंगा। वह बोली अभी खुला होगा। जवाब हम दोनों जानते थे। मैंने कहा घर में बिस्किट भी होगें। वह बोली दवा खानी हैं। खाना अच्छे से खालों और हौजखास के पास एक व्यक्ति पराठें बनाता है। शायद अभी भी बनाता होगा। मैंने बहुत दिन से देखा नहीं। कार उसने वहीं रोक दी। इस पर ग्राहक भैया तो आग बबूला हो गए। उन्होंने उसे गालियां बंकना ही शुरू कर दिया। मेरे बारे में पूछने लगे। ये तुम्हारा भाई है। पिता है। चाचा हैं। मामा है कौन है। सुनैना ने कहा कि दोस्त है। उसने कहा कि दोस्त है तो इसी के साथ जा। वह बोली ठीक है। उसने उसे अपने पर्स से निकाल कर दस हजार रुपए वापस कर दिए। और वह चला गया।
मैं चुप था। क्या कहूं। मुझे खाना नहीं खाना है। तुम उसके साथ चली जाओं। उसकी बदतमीजी में देखता रहा। उसे पीटता। मुझे कुछ समझ में नहीं आया। वह भी कार से उतर आई। बोली मैंने भी सुबह से कुछ नही खाया है। आलोक मैं जानती हूं। भूखे रहो तो रात मे नींद नहीं आती। और बीमारी में तो उल्टी भी आती है। पेट भी गैरों की तरह व्यवहार करता है। हमनें खाना खाया। और एक क्रोसिन भी। वह मुझे घर उतार कर वापस चली गई। तबियत के बारे में कुछ दिन तक फोन करती रही। लेकिन मैं आज भी सोचता हूं। कि तेरह साल पहले दस हजार की कीमत आज के 25 हजार के करीब तो होगी। क्या मैं अपने किसी भी दोस्त के लिए 25 हजार रुपए का खाना खिला सकता हूं। इमानदारी से कहता हूं। नहीं। वो जो शरीर बैचती है। वह वैश्या है। हम जो इमान बैचते हैं। रिश्ते। संबंध। भावनाओं को इस चमकीले बाजार में बेचते हैं। हम कौन है। आप बताइये न ? ?

Wednesday, May 19, 2010

बाबूजी हमारी जिंदगी की कीमत क्या सिर्फ पांच रूपए हैं। मैं चुप रहा। जवाब आप दीजिए।

आज एक अलग तरह के आदमी से मुलाकात हुई। वो अपनी कहानी सुनाता रहा। और मैं पिघलता गया। पहले मैं सतर्क हुआ। फिर मैं एक टक होकर उसे सुनता रहा। वह कभी मुस्कराता। कभी हैरत में मुझे देखकर चुप हो जाता। और अपनी बात कहता रहा। और मैं सुनते सुनते बाद में सिर्फ एक मांस का लौथरा बचा।
मुलाकात हुई। सामान्य परिचय से पता चला कि वह हमारे मध्यप्रदेश का है। फिर क्या था। अपन शुरू हो गए। क्या काम करते हो। घर में कौन कौन है। दिल्ली कैसे आना हुआ। मैं क्या मदद कर सकता हूं। उसने सीधे कहा कि बाबूजी। मौत का खेल खेलता हूं। वो भी पांच रूपए में। आप लोगों को वो भी मंहगा लगता है। मैंने कहा समझा नहीं। उसने बताया बाबूजी प्रदर्शनियां लगती है। उनमें हम मौत का कुंआ बनाते हैं। प्रदर्शनी में एक अस्थायी कुआं बनाया जाता है। उसके पास एक सीड़ी बनाई जाती है। जो करीब सौ फुट की होती है। उस पर मैं चड़ता हूं। अपने विशेष प्रकार के कपड़ों पर आग लगा लेता हूं। नीचे पानी में पेट्रौल डालकर आग लगाई जाती है। और फिर मैं उपर से कूंदता हू। हर रोज अपनी जिंदगी दांव पर लगाता हूं। इसका टिकिट होता हैं। पांच रूपए। वो भी लोगों को मंहगा लगता है।
मैंने बात सुनी। पहली प्रतिक्रिया जताई। कोई अच्छा काम क्यों नहीं कर लेते। वह बोला इस काम में गंदगी क्या है। मैंने कहा मेरा मतलब है सुरक्षित काम। वह बोला आप सुरक्षित हैं क्या। मैंने कहा कि हर रोज तो नहीं मरता। उसने कहा कि मरता तो मैं भी रोज नही हूं। मैं खीज गया। तो फिर तुम्हे दिक्कत क्या है। वो बोला कि लोगों को मरकर दिखाता हूं। और कई बार मारा भी जाता हूं। लेकिन इस खेल की कीमत लोगों को पांच रुपए भी मंहगी लगती है। और लड़की नांचे। तो लोग पांच हजार भी लुटा देते हैं।
बात तो उसने कई बताई। लेकिन कई बातें मुझे पिघला कर चली गई। वह बोला हम कोई भी काम कल पर नहीं छोड़ते। जो खाना है। जो लाना है। जो देना है। जो आजमाना है। हम सभी कुछ आज ही कर लेते हैं। बच्चें को अगर खिलौना दिलाना है। तो हम कल पर नहीं छोड़ते। हमारे परिवार में इस समय तीन विधवाएं हैं। मां । चाची। और छोटी चाची। तीनों लोग कुएं पर मरे। अब मैं घर का खर्च चलाता हूं। लेकिन अब परिवार की तरफ से कुछ निश्चिंत हूं। मेरा छोटा भाई भी कूंदने लगा है। हम दो भाई हैं। लगता हैं किसी रोज मुझे कुछ हो गया। तो अब परेशानी नहीं होगी। छोटा भाई परिवार संभाल लेगा। मैंने पूछा तुम लोगों से शादी करता कौन हैं। उसाका जवाब किसी हैरत से कम नहीं था। बोला मैनें भी प्रेम विवाह किया है। और मैंरे छोटे भाई ने भी। लेकिन वो जाते जाते कह गया कि बाबूजी मेरे पिता मैरे सामने ही कुआं पर गिरकर मरे थे। मैं वो भूल गया। लेकिन जाते हुए एक लोग लुगाई ने कहा था कि आज के पैसे वसूल हो गए। वो हमें याद है। बाबूजी हमारी जिंदगी की कीमत क्या सिर्फ पांच रुपए हैं। मैं चुप था। जवाब आप दीजिए।

Tuesday, May 18, 2010

उम्र छुपाने के लिए छल कपट प्रपंच। आप भी करते है क्या ?

हम टीवी में रिपोर्टर हैं। हमें स्मार्ट दिखना चाहिए। और उम्र दराज न लगें। इसकी भी कोशिश करनी चाहिए। सभी हमसे कहते हैं। उम्र भी अजीब खेल खेलती है। हमारे साथ। शरीर भी किश्त किश्त बदलता है। पहले बाल सफेद हुए। सो हमनें काले किए। गंजे हुए। सो बिग लगा लिया। अब मूछें सफेद हो रही है। सो काट ली। शरीर बेडोल हो रहा है। सो घूमना शुरू करना है। अब लगता है। कुछ दिन बाद चश्मे की बारी है। और फिर दांतो की।
हम कालेज में थे। तभी से बाल गिरना शुरू हो गए। दादी जब भी कोई विज्ञापन देखती। तेल का नाम कागज पर लिख लेती। कुछ दिन तक मुझसे कहती रहती। फिर चिल्लाती रहती। और अंत में खुद ही कहीं से मंगा देती। लेकिन कभी कोई काम गंभीरता से किया ही नहीं। सो वक्त पर तेल भी नहीं डाल पाता था। दादी को पूरी उम्मीद थी। कि वक्त पर अगर तेल को दवाई की तरह इस्तेमाल करूं तो बाल नहीं गिरेगें। लेकिन सब कुछ अपनी इच्छा से कहां हो पाता है। वे देखती रही। बाल गिरते गए। मैं दिल्ली चला आया। और भी लापरवाह हो गया। और धीरे धीरे गंजा हो गया। वे मेरे गंजे सिर को देखती तो दुख उनकी आँखो में साफ झलकता था। लेकिन मैं कुछ कर ही नहीं पाया। हालांकि वे मुझसे पूछती रही कि दिल्ली में बिग मिलते हैं। लेकिन मैं सुनता जाता । लेकिन कभी कुछ किया नहीं। फिर एक बार छोटा भाई आया। मुझे बिग पहना कर चला गया। और हम चालीस साल की जगह वापस अपनी उम्र पा आ गए। तीस के दोबारा हो गए।
हम संभल ही पाए थे। कि बाल सफेद होने लगे। नकली चीज तो और भी जल्दी अपना रंग बदलती है। बिग और भी जल्दी सफेद होने लगा। सो अब बाल काले करने भी शूरू कर दिए। एश्वर्या राय़ कहती है। बाल और भी खूबसूरत हो जाते हैं। उनकी बात मानकर उसी कंपनी का रंग रोगन ले आया।बालों पर रंगदारी करने लगा। अब संकट मूछों पर था। हर रोज सफेद सफेद। लोगों ने सलाह दी है। काट लो। अच्छे लगोगे। सोच रहा हूं। काट ही लूं।
हम जिंदगी में किस तरह से अपने आप को बचाए रखना चाहते है। हम क्यों हर कदम पर छल कपट प्रपंच करना चाहते हैं। हम अपनी उम्र किससे छुपा रहे हैं। हम स्मार्ट किसके लिए बनना चाहते है। ये धोखा हम दुनिया को दे रहे हैं। या अपने आप को। हम किसके लिए अपनी सुंदरता बचाकर रखना चाहते हैं। पता नहीं। मुझे समझ में नहीं आता। मेरी नौकरी है। मुझे ये सब करना ही है।
लेकिन मुझे एक बात हमेशा लगती है। कि क्राईस्ट हो या नानक। कबीर हो यां फिर मोहम्मद। इनकी बातें दुनिया में खूब सुनी गई। लेकिन ये लोग आज के मांपढंड में स्मार्ट नहीं थे। क्या महावीर के कपड़े या फिर बुद्ध की सुंदरता कोई देखता था। शायद नहीं। मुझे लगता है जो सच है वो सुना जाएगा। जो फरेब हैं। उसे कौन सुनेगा। और उसकी आयु भी क्या होगी। जरूरी नहीं है। कि टाई लगाकर अच्छे कपड़े पहनकर जो कहा जाएगा।वो सच होगा। क्या आप भी इस तरह का कुछ कर रहे है। अगर हां तो क्यों। और नहीं तो क्यों नहीं। हमें बताइएगा जरूर।

Monday, May 17, 2010

आपका तो एक रुपया पानी में गया। हमारी तो पूरी जवानी पानी में चली गई।

बात उन दिनों की हैं। जब हम सागर में रहते थे। और हमारे चाचा सतना में। गर्मी की छुट्टियों में हमारे जैसे छोटे शहरों में लोग अपने चाचा-बुआ के घर जाते हैं। या फिर मामा-मामी से मिलने नानी के घर। हमारे इलाके में हिल स्टेशन का चलन नहीं है। और न ही बच्चें समर कैंप में जाते हैं। जिन रिश्तों की हम सिर्फ साल भर आहट दूर से ही सुनते रहते हैं। उन्हें करीब से देखने का मौका इन छुट्टियों में ही मिलता है। हम भले जाते तो मई जून में थे। लेकिन मिलने का मजा हमें जनवरी से ही आने लगता था। चिट्ठी पत्री तभी से शुरू हो जाती थी। हां इस बीच परीक्षा भी आती और रिजल्ट भी।
सागर से बस रात को करीब दस बजे निकलती थी। और सतना सुबह सुबह पहुंचा देती थी। रात भर का सफर बस से होता था। वैसे चाय का शौकीन में बचपन से ही हूं। और पिता पान के। और हम दोनों को रात में नींद शूरू से ही कम आती है। सो बस में न वे सोते थे। और न हम। मुझे हर स्टेंड पर चाय पीने में ज्यादा ही मजा आता था। जैसे हर दुकान अलग-अलग तरह की चाय का स्वाद देती है। वैसे ही शहर के बदलते ही चाय का स्वाद भी बदलता है। आप भले न माने लेकिन चाय का स्वाद तो दिन और रात में भी अलग अलग मिलता है। उसी दुकान पर चाय आप दिन में पीयें तो अलग। और रात में उसका स्वाद अलग। लिहाजा अपनी तलब तो बस के सागर निकलते ही शुरू हो गई थी। मेरे साथ एक बात और है। मैंने कभी चाय को मना नहीं किया। और मुझे चाय कभी खराब नहीं लगती। सिर्फ एक बार ऐसा हुआ है। जब हम जनसत्ता में थे। तो हमारे गुरू सुधीर जैन सर भी उतने ही चाय के शौकीन हैं। जितने हम। हम दोंनो कई बार चाय पीने जाते थे। एक बार हमने चाय पी। और सुधीर सर केंटीन वाले के किचिन में चले गए। उन्होंने कहा सिर्फ तुम इतना बताओ की इतनी खराब चाय तुमने बनाई कैसे। इस तरह के मौके एक आध बार ही आए हैं। वर्ना चाय मुझे अच्छी ही लगती है। कई बार ऐसा भी होता है कि आप किसी के घर जाते हैं। तो चाचा या भैया या फिर आपके मित्र चाय बनाने को कहते हैं। और काम कर रहीं चाची या भाभी पूरे बेमन से खराब चाय बनाती है। मुझे वह चाय भी कभी खराब नहीं लगी। पूरी बेशर्मी के साथ में वह आज भी पीता हूं।
बस सागर से चलने के बाद आधी रात को छतरपुर में रुकी। हम चाय पीने फटाफट उतर गए। पिता को चिंता थी। आधी रात । अजनबी शहर। वो भी बस स्टेंड। हालांकि चाय पीने की उनकी भी इच्छा थी। एक ठेला देखकर मुझे रेगिस्तान में पानी मिलने की खुशी का आभास हुआ। और में लपक कर गया। मेंरे पीछे पीछे पिता भी थे। उसने चाय बनाई या बनी हुई थी। उसे ही गर्मी कर दी। मुझे याद नहीं। लेकिन अजीब बात थी। चाय का रंग तो चाय जैसी ही था। लेकिन इतनी बेस्वाद चाय। मैंने कम ही पी थी। मैं फिर भी मजे से पी ही गया। पिता हल्के से नाराज हुए। कहा कितना खराब चाय पिलाई। तुमने। चाय का स्वाद ही नहीं था। गर्म पानी था। हमार एक रूपए पानी में चला गया। चाय वाला भी गजब का था। उसने खराब चाय के लिए कोई सफाई नहीं दी। न ही कोई दलील। पर पूरी अकड़ के साथ बोला। बाबूजी। आपका तो एक रूपए पानी में गया। हमारा सोचिए। हमारी तो पूरी जवानी ही पानी मे चली गई। जब से शादी हुई है। सिर्फ दो रात ही घर पर सोया हूं। पूरी जवानी इसी स्टेंड पर काट दी। हम आपको चाय नहीं पिलाते। अपनी जवानी घोल घोल कर पिला रहे हैं। बस ने हार्न बजाया। हम आकर बस में बैठ गए। बस चल दी। लेकिन उस आदमी का चेहरा। उसकी चाय का स्वाद। और उसका जवाब। मुझे लगता है। जैसे किसी ने अभी अभी कहा हो। मुझे आज भी समझ में नहीं आता। हम उस रात एक रुपए में खराब चाय पीकर आए थे। या किसी आदमी की जवानी। किसी सुहागन की कुवारीं रात।

Sunday, May 16, 2010

अक्षय तृतीया। न घर में नया मटका है। न दिल्ली में दादी

हमारे त्यौहार बदलते जा रहे हैं। सो उनको मनाने का ढंग भी। और पंचाग भी। अब हमारे त्यौहार दादी के पंचाग से नहीं मनते। बाजार के कैलेंडर तय करते हैं। हमारे लिए अब वैलेंटाइन डे। मदर्स डे। फादर्स डे। फ्रैंडशिप डे। ज्यादा बड़े त्योहार हैं। बजाय अक्षय तृतिया जैसे कसबाई त्यौहारों के। हमारे बुंदेलखंड में परंपरा है। कि इस दिन घर में नया मटका आता है। और हम अक्षय तृतीया से मटके का पानी पीना शुरू कर देते हैं। लेकिन हमारी परंपराएं किसी पुरानी कापी में लिखी इबारत की तरह हल्की होती जा रही है। हालांकि एक दिन ऐसा आएगा। जल्दी ही। जब किसी फ्रिज बनाने वाली कंपनी को यह त्योहार समझ मे आएगा। और बाजार इसकों अपने रंग में रंग लेगा।
हमने बचपन से देखा इस त्यौहार के कुछ दिन पहले से ही पहचान के कुम्हार घर आते थे। जैसे बड़े शहरों में फैमली डाक्टर होते हैं। वैसे कस्बों में फैमली कुम्हार भी होते हैं। लिहाजा हमारी फैमली का कुम्हार अक्षय तृतिया की आहट होते ही। नया मटका घर दे जाता था। और पानी पीने के लिए हमें इसका इंतजार रहता था।और फिर दादी इसकी पूजा करती। साफ पानी से धोती। और पानी भरकर रख देती। पहले दिन का पानी देवता पीते। दूसरे दिन हम सब। लेकिन पहले दिन का पानी इतना सौंदा होता था। मिट्टी की इतनी खुशबू कि देवताओं से जलन होती। और मैं अक्सर पहले दिन का पानी चोरी करके पी ही लेता था। जब बड़ा हुआ तो विज्ञान की क्लास में पता लगा कि पहले दिन मिट्टी के घड़े का पानी पीने से पत्थरी हो सकती है। तब जाकर ये परंपरा समझ में आई। लेकिन दिल्ली में आज अक्षय तृतीया थी। सो खबरों का तनाव था। दस हजार से ज्याद शादियां। टेंट की परेशानी। जगह की परेशानी। पंडित की परेशानी और ट्रैफ्रिक जाम की बात तो थी ही। लिहाजा इन तमाम परेशानियों को कैसे कवर कराएं। कौन सा रिपोर्टर कहां भेजे। हम इसी में फंसे रहे। और भूल ही गए। कि नया मटका भी इसका अंग हैं। लेकिन दिल्ली में अब वे परपंराए कहां। सो न घर में नया मटका है।और न दिल्ली में दादी।

Saturday, May 15, 2010

आप शायद इसे पागलपन कहेंगे। मैं इसे अपनापन कहता हूं।

आपको शायद यह घटना झूठ लगेगी। या फिर पागलपन। लेकिन घटना भी सच है। और मैं इसे अपनापन मानता हूं। एक तरह की प्रेम की हद भी आप कह सकते हैं। मुझे बेघर हुए। करीब 13 साल होने को हैं। लेकिन घर के लोग बताते हैं। खाने पीने के सामानों में आज भी दादी अपना हिस्सा लगाती है। अलग तरह का पागलपन इसलिए आप कह सकते हैं कि मैं दिल्ली में हूं। और फिर खाने पीने की चीजों में हिस्सा क्यों। लेकिन परिवार और साधना इसी तरह के दस्तूरों से मजबूत होती चलती है। वह शायद परिवार के बाकी लोंगों को यह अहसास नहीं होने देना चाहती। कि मैं परिवार का हिस्सा नहीं हूं। मै बाहर हो गया हूं।
हमने बचपन से देखा है। आप लोगों ने भी देखा ही होगा। किस तरह से परिवार में कोई भी सामान आता है। तो हर आदमी का उसमें हिस्सा होता है। परिवारों में लूट या जंगलराज नहीं चलता। जो नहीं है। हिस्सा उसका भी होता है। चाहे मिठाई हो या फिर समोसा। दादी ने रसगुल्ले बनाए हों। या पिता जलेबी लाए हों। परिवार में हर चीज बंटती है। सिर्फ कुंती ने द्रौपदी भाइयों में नहीं बांटी थी। हम आज भी कस्बों में जलेबी तक बांटकर ही खाते हैं। मैने देखा है कि दादी किस तरह से हर आदमी का बराबर का हिस्सा लगाती थी। और आखरी हिस्सा जो हर बार कम बंचता था। वो उसका होता था। या कई बार बंटते बंटते वह हिस्सा ही खत्म हो जाता था। लिहाजा ये सबक हमने बचपन में ही सीख लिया था कि जब बांटने की जिम्मेदारी हो तो लेने में पीछे रह जाना। यही दस्तूर हैं। जिम्मेदारी का। बड़े होने का।
मुझे याद आता है। अपने वो दिन जब अपने हिस्से में मौज ही मौज थी। रंगीन कंचे। कई पतंगे। टिकली फोड़ने वाला तमन्चा। माचिस की खाली डिब्बियां। गुल्लक। दादी और बुआ के पास कहानियों का बैंक। पिता के पास खिलौनो की लिस्ट। लेकिन अपने हिस्से में किसने ये नौकरियां लिख दी। ये तनाव। दूसरे को मारकर आगे बढ़ने की लगातार कोशिश। ऐसी दौड़ जिसमें भागने के लिए इंसानियत दफन करना पड़े। जिंदगी का ये हिस्सा मजा नहीं देता। सिर्फ तनाव देता है। और पीछे पीछे आती है बीमारियां। बहिन ने फोन पर बताया है। पिताजी पसेरी भर आम लाए हैं। उन आमों में भी दादी ने अपना हिस्सा अलग बचा कर रखा है। लगता है जिंदगी में कभी हार कर। कभी थक कर। घर वापस जाने की इच्छा हो। तो पूरी इज्जत और विश्वास के साथ वापस लौट सकूंगा। सोचकर कि दादी ने मेरे हिस्से का आम बचाकर रखा है।

Friday, May 14, 2010

पिता ने कहा। छुट्टी के दिन भी एक्सट्राक्लास। ये इस साल फेल हो जाएगा।

क्या आपको याद है। आपने कभी छुट्टी को कोसा है। जिंदगी में कभी ऐसा दौर रहा हो।जब छुट्टी दुश्मन लगी हो। हम यूं तो हफ्ते भर छुट्टी का इंतजार करते है। लेकिन कभी छुट्टी का दिन कटता ही न हो। लगता हो कब ये खत्म हो। जिंदगी में कभी आपको संडे दुश्मन लगा है। शायद ये सब हुआ होगा। याद करिए। उन दिनों जब आप किसी से टूटकर प्रेम करते थे। और छुट्टी के दिन वो न मिले। तो दिन ही खराब गुजरता था। आया कुछ याद।
संडे की शाम को अपने घर में घुसते ही जा रहे थे। पिता मिल गए दरवाजे पर। पूछा कहां थे। दिनभर दिखे नहीं। मैने कहा युनिवर्सिटी गया था। संडे को ? उन्होने स्वाभाविक प्रश्न पूछा। हमने कहा। एक्सट्राक्लास थी। वे बोले संडे को। मैने कुतर्क किया। एक्सट्राक्लास तो संडे को ही लगती है। आम दिनों में तो क्लास ही होती है। वे बोले बेटा हम भी युनिवर्सिटी में कई साल पढे। लेकिन संडे को कभी एक्स्ट्रक्लास न लगी। मैंने कहा अब पढ़ाई कठिन हो गई है। वे बोले कठिन हो गई है। या बदल गई है। दादी गुस्से में थी। लड़का छुट्टी के दिन भी पढ़ने गया था। दिन भर के बाद लौटा है। भूखा प्यासा। तुम पुलिस वालों की तरह प्रश्न पूछे जा रहे हो। वे दादी के आगे चुप हो गए। लेकिन दादी से कहा कि संडे के दिन भी ये एक्सट्रा क्लास जा रहा है। इस साल इसका फेल होना तय है।
बात उन दिनों की है। जब हम युनिवर्सिटी में थे। और जमकर प्रेम के रंग में रंगे थे। अपनी क्लास उन दिनों प्रीरियड के हिसाब से नहीं चलती थी। गर्ल्स बस के पहले चक्कर से शुरू होती थी। और आखरी चक्कर पर खत्म होती थी। हालांकि घर वाले भी परेशान थे। कि यूनिवर्सिटी में आजकल इतनी पढ़ाई हो रही है। दादी सुबह सुबह उठकर टिफिन भी बना देती थी। उन्हें लगता था कि लड़का दिनभर के लिए पढ़ाई करने जा रहा है। मैं उनको बता भी देता था कि हमारी क्लास में कुछ लड़के हास्टल के भी है। जिन्हें अच्छा खाना नहीं मिलता। हमें दादी की इस कमजोरी का पता था। सो वे खूब सारा खाना रख देती थी। वो अपन को दिनभर के लिए हो जाता था। लेकिन मामला छुट्टी पर उलझता था। सो अपन को पता चला कि जब कोर्स पूरा नहीं होता है। और परिक्षाएं समय पर होनी हो। तो शिक्षक एक्सट्राक्लास लगाकर कोर्स पूरा करते हैं। लिहाजा फिर क्या था। हमारा कोर्स तो पहले से ही पीछे चल रहा था। और इस विषय में तो आप जितनी क्लास पढ़े उतनी ही कम है। जिंदगी भी अजीब चीज है। जिन विषयों की क्लास अटेंड करने आप नहीं जाते है। उनमें तो पास हो जाते है। और जिस जिंदगी की आप एस्कट्राक्लास भी करते हैं। उसमें फेल हो जाते है। मुझे आपका पता नहीं। लेकिन अपन तो फेल ही हो गए। उस साल नहीं। जिंदगी में।

Thursday, May 13, 2010

कोक और पेप्सी के शोर में गुम हो गया छांछ और आम का पना

सच बोलिएगा। आपको क्या लगता है। जो जिंदगी हम जी रहे हैं। उसे कौन चला रहा है। हमारे संस्कार। हमारे मूल्य। हमारी परंपराए। या फिर विज्ञापन एजेंसिया। मीडिया में छपते विज्ञापन। और हमारे फिल्मी कलाकारों और क्रिकेटर्स की सलाह। आमिर खान ने कह दिया। ठंडा मतलब कोका कोला। और हमने मान लिया। सचिन ने शाहरूख के साथ मिलकर हमसे कह दिया। पेप्सी अच्छी है। तो हम उनके साथ हो गए। किसी ने कहा कि डर के आगे जीत है। तो हमें लगा बात तो सही है। और इस तरह हम इस हजारों करोड़ के इस धंधे में उपभोक्ता बन गए। हम अपनी गाड़ी कमाई उन्हें देते गए। अपना छांछ और आम का पना भूल गए। बस कोक और पेप्सी याद रहा।
पिछले दिनों हम अपने एक दोस्त के घर यू हीं पहुंच गए। वेवजह। गप्पे ठोकनीं थी। हम दोनों मिले और शुरू हो गए। बीच में कुछ पीने की इच्छा हुई। उसने अपनी पत्नी से गुजारिश की। लेकिन उसकी एप्लीकेशन रद्द हो गई। वो शायद किसी सीरियल के अंतिम पड़ाव में थी। वहीं से उन्होंने आवाज दी। फ्रिज में कोक की बोतल है। खुद भी पीलो । आलोक को भी दे दो। और एक गिलास हमें भी। हम इतने दकियानूसी नहीं है। कि बदलाव को पचा न पाए। न ही पुरातनपंथी है। कि कोक के जमाने में भी छांछ पीने की बात कहे। बात इतनी सी है कि जब हमारी संस्कृति बदलती है। तो कितनी तेजी से हमारे सांस्कृतिक मूल्य भी भरभराकर गिरते हैं। किसी रेत के टीले की तरह।
मैने वो जमाना देखा है। कि मेहमान कोई भी हो। अगर उसे कुछ पीना है तो परिवार के लोग मेहनत करके कुछ बना देते थे। घर के हालचाल पूछते थे सो अलग। पहले मां-पिता भाई बहिनों के फिऱ पत्नी के। लेकिन अब तो फ्रिज में ठंडे की बोतल है। निकाल कर पीलो। मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे आप लोग मेरे साथ सोचते हो। मेरी तरह। मुझे याद है। किस तरह से घरों में गर्मी के दिनों में मेगों शैक बनता था। कच्चे आम का पना बनता था। सादा और मसालेदार छांछ बनता था। नींबू लेने हमारे घर लोग न जाने कितनी दूर दूर से आते थे। शिकंजी का अपना एक अलग ही मजा था। ठंडाई तो आप लोगों को याद होगी ही। और इन सबके साथ हमारा एक रिश्ता भी बनता था। कभी छांछ के साथ दादी का। तो ठंडाई के साथ दादा का। लेकिन विज्ञापन के इस शोर में हमारा हाथ छुटाकर ये सब न जाने कहां भाग गए। हम सब भूल गए। हमें सिर्फ इतना ही याद है। ठंडा मतलब कोका कोला।

Wednesday, May 12, 2010

क्या आपको याद आती हैं हाथ में पंखा लिए दादी-नानी। मैंने आज इनवर्टर ले लिया।

मुझे यकीन है। आपको याद होगा। कैसे कुछ सालों पहले तक जब हम अपने घरों में थे। कैसे हमारी दादी। कभी नानी। हाथ में पंखे लेकर डुलाया करती थी। कैसे वह ततुरी वाली गर्मी उस पंखे की हवा में काफुर हो जाती थी। छत पर सोते हम और बहुत देर तक नहीं आती थी नींद। गर्म हवा भी आधी रात तक चला करती थी। और ऐसे में ही हमारी दादी के बुढ़े हो चले हाथ लगातार चलते रहते थे। पंखा हिलाते रहते थे। उस समय यह भी था। दादी के सबसे नजदीक सोने के लिए भी तिकड़म भिढ़ानी पड़ती थी। वजह साफ थी जो दादी के पास सोएगा। वही सबसे ज्यादा पंखे की हवा का मजा उठा पाएगा। हांलाकि दादी इस बात का ध्यान रखती थी। कि हवा सबको बराबर मिले। उस हवा में कहानी बोनस होती थी। और दादी बीच बीच में ठोकती भी रहती थी। कि नींद जल्दी आ जाए। लेकिन हम तो अब दिल्ली में हैं।और मशीनों के सहारे जिंदगी काटते हैं। हर काम के लिए एक नई मशीन चाहिए हमें। कभी कभी लगता है कि शायद हम खुद भी तो एक मशीन ही बन गए हैं।
शीला दीक्षित और उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट में भले हलफनामा दाखिल करके कह दे कि दो साल तक हमारे पास बिजली पर्याप्त हैं। बिजली कटेगी नहीं। लेकिन कई मामले तकनीकि होते हैं। आसानी से समझ में नहीं आते। कभी frequency कम हो जाती है। तो कभी लोकल फॉल्ट आ जाता है। यानी बिजली तो कटती ही रहती है। ये बात भी सच है कि हमारी धंधेबाज बिजली कंपनियों को मुनाफा भी तो कमाना है। सो कुछ न कुछ तरीके तो वे खोज ही लेगें। लेकिन ये बात हमें समझते समझते दो महीने लग गए। बिजली कटती रहती और रात को न नींद पूरी होती। न दिन में ठीक से काम। लिहाजा हम इनवर्टर खरीद कर रहीसों की लिस्ट में शामिल हो गए। आप हैं उस लिस्ट में की नहीं।
मशीनें दाम से चलती है। और आदमी भावनाओं से। आपको याद होगा कि कैसे हमारी गर्मी शुरू होती थी। मजे के साथ। लेकिन उस गर्मी में हमारे पास न फ्रिज था। न एसी। न इनवर्टर। फिर भी ठंडे मटके का पानी न जाने केसे ऐसी प्यास बुझाता था कि अंदर का मन तृप्त ही हो जाए। गोबर से लिपे घर। और खपरैल की छतें आग उगलती गर्मी में भी कुछ ठंडक का इंतजाम करती रहती थी। फ्रिज नहीं थे। लेकिन आम और दूसरे फल दादा पानी की हौजों में डालकर ठंडे करते थे। घर के मटकों में कुल्फी जमती थी। और देर रात छत पर दादी कहानी सुनाती थी और पंखे डुलाती थी। लेकिन अब हर चीज के लिए हमारे पास मशीन हैं। लेकिन फिर भी हमारी जिंदगी में इतनी तपिश क्यो हैं। शायद हमसे वे लोग छूटगए जो हमारी जिदंगियों की तपिश खत्म करके हमें बेला की फूल की तरह एक तरावट भरी जिंदगी देते थे। शायद अब भी छत पर दादी पंखे के साथ सो रही होगी। लेकिन हम एसी में करवट बदलते हैं। आपको भी याद आती होगी अपनी दादी और नानी के साथ गर्मी की छत हमें लिखिएगा जरूर।

Tuesday, May 11, 2010

अपमानों से बहुत डरे अब सम्मानों से डरना होगा। क्या कहते हैं आप ?

आज दो घटनाएँ हुई। मेरे पास फोन आया। सबेरे सबेरे। हम आपको सम्मानित करना चाहते हैं। दिल्ली रत्न की उपाधी से नवाजना चाहते हैं। 11 हजार रुपए देगें। यकीन मानिए। उन्होंने ऐसे ही कहा था। और पांच सौ रुपए की शाल। मैं चुप रहा। मुझे पूरे वाक्य का अर्थ कुछ देर बाद समझ में आया। मैंने पूछा। नारियल और फूलों की माला देगें नहीं। या कीमत नहीं बताना चाहते। अब वो चुप हो गया। लगा जितनी गालियां बुंदेलखंड से सीखकर आया हूं। सारी सुना दू। लेकिन किसी को भी अपमानित करके आप भले कुछ देर के लिए खुश हो जाए। लेकिन संतुष्ट नहीं हो सकते। सो मैं चुप ही रहा। पूरे धैर्य के साथ मैने कहा कि मैं इस तरह के सम्मान में यकीन नहीं करता। मेरी खबर देखकर जब कोई दर्शक या मेरा पाठक सिर्फ कह देता है कि सही बात है। मेरे लिए वही सबसे बड़ा सम्मान हैं।
इसके बाद आज दिल्ली सचिवालय में हिन्दी अकादमी का सम्मान समारोह था। उसकी खबर हमें ही करनी थी। हालांकि मुझे लगता है कि इस तरह की खबरें ज्यादातर लोग चाव से नहीं देखते। लेकिन इस सम्मान समारोह को लेकर इतना विवाद था कि इसमें खबर बनती थी। सो अपन पहुंच गए। लेकिन वहां पहुंच कर मेरी सुबह वाली उलझन और ज्यादा बढ गई। मुझे लगा जो काम सुबह मेरे साथ एक धंधेबाज कर रहा था। क्या इस तरह का सम्मान उसी तरह का काम नहीं है। मंच पर मुख्यमंत्री खड़ी है। अपनी सहयोगी मंत्री से बात भी करती जा रही है। बुजुर्ग साहित्यकार जिन्हें चलने में भी परेशानी है। वे मंच पर चले जा रहे हैं। मुख्यमंत्री के सम्मान में हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं। और फूल शाल चैक और एक सर्टिफिकेट नुमा कुछ लेते जा रहे हैं। मुझ इस तरह का सम्मान कुछ समझ में नहीं आया। आप जानते ही हैं कि जब कार्यक्रम खत्म हुआ तो हम रिपोर्टर बाइट लेने के लिए पीछे भागने लगते है। सो हम भी भागे। एक साहित्यकार से पूछा कि आप में से कुछ लोग सम्मान लेने नहीं आए। क्या कहेंगे। वे बोले मैं सम्मान को ठुकराना उचित नहीं मानता। मैने तो अपना सम्मान ले लिया है। और अगर आप कहीं दो चार सम्मान और दिला दे तो हम उन्हें भी ले लेगें।
कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। मुझे लगा क्या ये वही लोग हैं। जिनमें समाज अपना चेहरा देखता है। क्या यही लोग जो आईने की तरह काम करते है। सरकार से कहते हैं कि देखों तुम्हारा चेहरा पीला हुआ जा रहा है। अपने को संभालो। लेकिन जब हमारे साहित्यकार ही इस तरह के सरकारी सम्मानों से अपने को गौरवांवित महशूस करते है। तब मुझे डर लगता है। क्यों कि यही लोग जो सरकार को ललकार सकते हैं। समाज को ये ही लोग टेर लगाते हैं। इनके अंदर की नसों में बहता खून समाज को क्रांति के लिए ललकारता है। लेकिन अगर ये हीं सत्ताधीशों के आगे इस तरह झुककर उनसे सम्मानित होगें। तो शायद हमारे हुक्मरान इनका भले सम्मान कर दे। लेकिन समाज का सम्मान नहीं कर पाएगे। समाज यानि आखरी पंक्ति में खड़ा आखरी आदमी। मुझे समझ में नहीं आया आपको जो भी लगे मुझे बताइएगा। कि हमें क्या इस तरह के सम्मानों से डरना चाहिए। या इन्हें स्वीकार करना चाहिए।

Monday, May 10, 2010

क्या आपको याद है अपनी परिक्षाएं। कितनी अच्छी नींद आती थी उस रात।

बहुत दिन हो गए होगें। पर फिर भी क्या आपको परिक्षाओं वाली रातें यादे हैं। याद है कितनी अच्छी नींद आती थी उस रात। जब सुबह पेपर हो। छतों पर कितनी ठंडी हवा चलती थी। हवा में भी एक अजीब सी खुशबू।और चाल में भी गजब की खनक। लगता था कि बस आज सो जाते हैं। चाहे फिर पूरी जिंदगी जागते रहेंगे। बिस्तर पर रखी चादर की ठंडक। बहुत दूर से आती न जाने कहां से बेला की खुशबू। और दूर कहीं छत पर बात करते लोग। ठहाका मारते कोई दंपति। और हाथ से किताब गिरने को तैयार।
मैंने विवेक भैया से कहा। कि आज कि रात में तो सो जाउंगा। चाहे भले सुबह फेल हो जाउं। ज्यादा से ज्यादा सप्लीमेंट्री आएगी। परीक्षा देकर पास होजाउंगा। अगले महीने। लेकिन इतनी अच्छी नींद मुझे कभी नहीं आई। और न ही इतनी नशीली रात मैंने कभी देखी। विवेक भैया यानि विवेक पांडे। हम दोनों एक साथ रात को पढ़ते थे। उनका घर तालाब किनारे था। तीसरी मंजिल के ऊपर छत। उस पर हम दोनों के बिस्तर। रात भी क्या गजब श्रृंगार किए थी। बेला का गजरा लगाए। हवा के साथ न जाने कैसी चाल चलती थी। हम एमए अंग्रेजी से कर रहे थे। सुबह कविता का पेपर था। मन में आया कि अगर ऐसी रात सो न सकें तो जीवन भर न कविता समझ पाएगें। और न इतनी मोहक रात महशूस कर सकेंगे। और इतना कहकर आधी रात को चाय पी.... और अपन सो गए।
बाद में मनोविज्ञान पढ़ा। और जिंदगी की कई बातें समझ में आई। जिस चीज से जितना भागों वह उतने ही वेग से पीछा करती है। परिक्षा की उन रातों में कितना मजा आता था। गप्प मारने में। कितना मजा आता था। सोने में। कितनी सुंदर सुबह होती थी। जब दादी पढ़ने को उठाती थी। लगता था आज सो ले तो शायद मोक्ष ही मिल जाए। और देखते देखते परीक्षाएं खत्म हो जाती। और वे सुनहरे दिन बोरियत में बदल जाते। न फिर उन रातों में नींद आती। और न वे सुबह इतनी अच्छी लगती। तपती दोपहरी काटने में भी परेशानी होने लगती। रिजल्ट की चिंता वो अलग।
लेकिन आपको शायद चिंता हो रही होगी कि उस रात में सो गया था। लेकिन रिजल्ट का क्या हुआ। यकीन मानिए। मुझे सबसे अच्छे नंबर कविता में ही मिले। और मैं अंग्रेजी से एमए हो गया। लेकिन उसके बाद उतनी सुंदर रात मैने कभी नहीं देखी। न उतनी अच्छी नींद कभी आई।

Sunday, May 9, 2010

सागर की यादें। नन्हें महाराज, हल्के दाऊ और छोटे उस्ताद

complex का हिंदी शब्द मुझे नहीं पता। कुंठा से वह अर्थ नहीं पहुंचता। मैं दोनों शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं। आपको जो भी ठीक लगे। उसे ही सही मानिएगा। किसी भी आदमी का व्यक्ति कई बार उसके अंदर की कुठाओं का जोड़ होता है। और मनोविज्ञान मानता है कि कुंठित आदमी unpredictable होता है। अपना inferiorty complex छुपाने के लिए वह कभी भी किसी तरह का व्यवहार कर सकता है। छोटे शहरों और कस्बों में इस तरह के कुंठित लोग समाज के लिए मनोरंजन का उपयुक्त पात्र होते हैं।
अनिल सोनी। अमेरिका की एक कंपनी में Engineering head हैं। उनकी तरक्की हमारे शहर के सभी लोगों के लिए मजा देती है। वे जब से भारत आए हैं। उनसे मिलने की हमें बहुत इच्छा थी। सो हमने उन्हें बुलावा भेजा और वे आगए। सागर की कई यादें ताजी हुई। किस तरह हम चाय पर चाय पीते जाते थे। और गप्पों का सिलसिला चलता रहता था।
सागर कई चीजों के लिए जाना जाता था। गुंडागर्दी के लिए भी हमारा इलाका काफी नामी है। लिहाजा जो गुंडागर्दी करते थे उनके किस्से तो चलते ही थे। लेकिन जो इस काम में अपना नाम नहीं कमा पाए उनके लिए भी यह विषय झूठे किस्से गढ़ने के लिए काफी मौके मुहैया कराता था। कुछ बात आपको स्वाभाविक ही लगती होगीं। जैसे गुंडागर्दी करने वाले लोग हमेशा एक पहलवानी शरीर के मालिक होते हैं। लेकिन कई बार कुछ दुबले पतले लोग भी यह कारनामा कर जाते हैं। हमारे शहर में ऐसे कई लोग थे। जिनकी कद काठी कहीं से भी गुडों जैसी नहीं होती थी। लेकिन उनकी इच्छा हमेशा ऐसी कल्पनाएं करती रहती थी। समाज के कुछ हम जैसे लोग हमेशा से ही इन लोगों से रस लेते रहते थे। और इनकी कल्पनाओं को एक नदी की तरह बहने के लिए रास्ता बनाते जाते थे। जहां से इनकी कल्पनाएं सागर में जा मिलती।
छोटा कद। दुबला पतला शरीर। मुछों पर बल। बेवजह गुस्सा। सिर्फ कमजोंरों पर। शहर के नामी लोगों से दूर दराज की रिश्तेदारी। या फिर पहचान का तुर्रा। लगभग ऐसी ही होते थे। बड्डे। हल्के महाराज। छोटे दाऊ। छोटू उस्ताद। हमारी जमात के पास कई हल्के महाराज थे। इनके पास जाकर सिर्फ बैठना होता है। और लड़ाई झगड़े की बातें शुरू करनी होती थी। अगर आपने दो चार लोगों के सामने हाथ जोड़कर नमस्ते कर ली। या फिर पैर छू लिए। तो आपको बातचीत में की गुना मजा आएगा। हल्के महाराज से बात शुरू करो और फिर सुनो। किस तरह से उन्होंने यूनिवर्सिटी में तलवार लेकर सौ... कई बार दौ सौ लोगों को दौड़ लगवा दी थी। किस तरह उनके नाम से यूनिवर्सिटी में छात्र तो ठीक है। टीचर्स कांपते थे। हल्के महाराज अपने जीवन में कई बार भीड़ में अकेले घुस जाते थे। और दर्जनों लोगों को पीटना शुरू कर देते थे। इस तरह के किस्से घंटो चलते थे। किस तरह से उन्होने अपनी पिछली रेल यात्रा में अकेले ही चार पांच लोगों को पीटा। ये बात अलग है कि फिर उनसे कोई पूछ देता। महाराज लेकिन आप तो पिछले कई सालों से सागर के बाहर ही नहीं निकले। यहीं से बात बिगड़ना शुरू हो जाती।और महाराज सुनने वालों को ही गाली गलौच करने लगते। सवाल फिर पूछा जाता कि आपका साथी कुछ और बता रहा था कि कुछ लोग आपको सिर्फ पूछते हुए आए थे। तो आप डर कर डिपार्टमेंट में महिलाओं की बाथरूम में घुस गए थे। चार घंटे बाद निकले। जब चपरासी दरवाजा बंद करने लगा। बस यही आखरी सवाल होता था। और हल्के महाराज हम लोगों को गालियां बक कर चले जाते। फिर उन्हें हफ्तों लग जाते मनाने में। कई बार नमस्ते करो। कई बार पैर छुओं। जब वे फिर से ट्रैक पर आते थे। लेकिन आज देखने से लगता है कि वे कितने भोले थे। हम लोग सालों उनसे किस्से सुनते रहे। और सुनाते रहे। कितना खरा सोना थे। जो वक्त के साथ कभी खोटे नहीं हुए।
अब मैं घर जाता हूं। तो मेरे जमाने के कई हल्के महाराज। कई छोटे उस्ताद। जिंदगी के सही किस्सों में उलझ कर रह गए हैं। दो जून की रोटी भी जीवन में कितना संघर्ष शुरू कर देती है। अब ये कहानियां उनका चेहरा बताता है। वे चुप है। कितने बार लगता है कि फिर किसी हल्के महाराज के पैर छू लू। उन्हें चाय पिलाउं। उनकी बहादुरी के किस्से सुनू। लेकिन अब समय बदल गया है। अपनी रोज मर्रा की जिंदगी में हर रोज गन्ने की तरह पिसते ऐसे लोगों से अब मजाक करना भी अपराध लगता है। पर लगता है कि किसी दिन अगर मेरा पीर मुझसे प्रसन्न हुआ तो मैं जरूर दुआ करूंगा कि एक दिन के लिए ही सही हमारे इन तमाम उस्तादों को शहर का बादशाह बना दे। ताकि सालों तक दिन के उजाले में देखे इनके सपने पूरे हों। मेरे दादा ने एक बार कहा था। कि गप्प मारने वाला मजाक का पात्र नहीं होता। दया का पात्र होता है। वह अपनी सारी कुंठाए जो कर्म से पूरी नहीं कर पाया। शब्दों से पूरी करता है। आपको भी अपनी जिंदगी में अगर कोई हल्के महाराज मिले। तो उसकी बात पूरी इज्जत से सुनिएगा। और उठते समय इस तरह से नमस्कार करिएगा कि आपको उसकी कही पर यकीन था। मैं भी कोशिश करूगां। कि सागर जाऊं। तो हल्के महाराज को खोजकर उनकी बात सुनू। और जब उठूं। तो इस तरह से कि वे जो भी कह रहे थे। सच ही था। पूरा सच।

Saturday, May 8, 2010

मेरी मां परमात्मा की तरह हर जगह रहती है। और कहीं भी नहीं।

चीन में एक विचारक हुआ है। लाओत्से। उसने ढाई हजार साल पहले कई मूल्यवान चीजें कहीं। उसकी बातें कीमती मालूम पड़ती हैं। वह कहता है। उसे देखे, फिर भी वह अनदिखा रह जाता है। उसे सुने फिर भी वह अनसुना रह जाता है। उसे समझे फिर भी वह अछूता रह जाता है। वह हर जगह है। लेकिन वह दिखता नहीं। सयुंक्त परिवार में मां । हर जगह होती है। लेकिन वह दिखती नहीं। उसके पास मां का दिखावा नहीं है। उसे अच्छी मां साबित होने की कोई जल्दबाजी नहीं है। बच्चें उसके प्रति ही जवाबदेह हों ऐसा कोई आग्रह नहीं है। उसे परमात्मा पर और पारिवारिक मूल्यों पर बराबर का भरोसा है। शायद यही वजह थी कि मैं होश संभालने के बाद भी सालों तक दादी को ही अपनी मां समझता रहा। मां और दादी में आज भी कोई अंतर नहीं कर पाता। दादी के पास ज्यादा रहा। सो उनसे .....लगाव आज भी कुछ ज्यादा ही है।
संयुक्त परिवार सिर्फ इतना नहीं है। जितना दिखता है। एक दरवाजे से सभी घर के अंदर जाए। और बाहर निकले। घर का खाना एक ही चूल्हे पर बनता हो। भगवान एक ही जगह रखे हों। और घर का मुखिया भी एक ही हो। यह तो केवल सतह है। अगर इतना ही समझे तो अज्ञानी ही रह जाओगे। आपको शायद यकीन न हों। मैं शुरू से ही अपनी दादी के पास रहा। मैने जाना ही नहीं कि मां कुछ अलग से होती है। मेरी जरूरतें परिवार पूरा करता रहा। किसने खाना खिलाया। किसने नहलाया। किसने पढ़ाया। किसने घुमाया। मुझे कुछ याद नहीं। मैं चाय का शौकीन बचपन से था। सो किसने कितने बार बनाई कभी गिनती ही नहीं की। लेकिन उन तमाम धुंधली यादों में मां की याद कहीं नहीं है। वह शायद परमात्मा की तरह हर जगह होती थी। लेकिन कभी अपना अहसास नहीं कराती थी।
लाओत्से एक बात और कहता है कि परमात्मा जगत बनाता है। लेकिन उसका कहीं दावा नहीं करता। तो हम कह सकते है कि मां ने भी कभी हम पर अपना दावा ही नहीं किया। मैं दिल्ली में आज भी हर रोज दादी से फोन पर बात करता हूं। जब दिल्ली आया था। तो हर रोज रात आठ बजे एक झूठ बोलता था। दादी मैं घर आ गया हूं। खाना खा लिया है। सोने ही वाला हूं। मैं उन दिनों जनसत्ता में रिपोर्टर था। आप जानते हैं कि रात आठ बजे तो अखबार में खबरें लिखना शुरू होती है। लेकिन वे तसल्ली कर सो जाती थी। और कभी कभार जब वे कहती कि भाभी से भी बात कर लो। तो मैं उनसे हालचाल पूछ लेता। और अपने बता देता। पिछले 13 सालों में उन्होंने एक ही सवाल शब्द बदल बदल कर पूछा है। खाना खा लिया या नहीं।
मैं अब तो 39 साल का होने वाला हूं। लेकिन आज भी जब भी मुझे कुछ भी करने की इच्छा होती है। तो दादी ही दिमाग में आती है। कभी लगता भी है कि कोई बुजुर्ग हमारी छत पर आकर हमें साया दे दे तो दादी ही मन में रहती हैं। मुझे लगता है कि सयुंक्त परिवारों में मां व्यक्ति नहीं विचार होता है। और इसको परिवार में कई लोग बांटते हैं। तुम्हारी मां सिर्फ परमात्मा की तरह तुम्हें देखती है। लेकिन तुम उसको नहीं देख सकते। मां का हिस्सा कभी दादी में है। तो कभी बुआ में। कभी चाची में तो कभी बहिन में। मां अलग से नहीं है। लिहाजा मदर्स डे पर सिर्फ एक ग्रीटिंग कार्ड से काम नहीं बनेगा। मेरे पास ऐसी कोई मां नहीं है। जिसे मैं एक ग्रीटिंग कार्ड देकर खुश कर सकूं। एक गिफ्ट देकर उरिन हो जाउँ। मैं कह सकता हूं। मेरी मां को मदर्स डे की अलग से जरूरत नही है। वह मेरे चारों तरफ हैं। भले मैं उसे देख न पाऊँ। उसकी सुगंध मेरे हर तरफ है। मैं भले उसे महसूस न कर पाऊ। मेरे चारों तरफ उसके प्रेम का इंद्रधनुष हैं। भले मेरी आँखे न देख पाए। वह दिल्ली में भी है। भले मैं उसे छू न पाउं। परमात्मा मुझे भले एक क्षण के लिए ही शक्ति देना लेकिन इस तरह की ही देना कि मैं जिसके लिए कुछ भी करू। उसे अहसास कराने का भी लोभ न करूं। अपना अधिकार न जताऊ। और कुछ अपेक्षा भी न करू। सिर्फ अपना कर्तव्य करता रहूं। मां की तरह। भाभी की तरह।

Friday, May 7, 2010

पिता गाड़ी का एवरैज चैक कराते रहे मैकेनिक से और मैं पेट्रौल फूंकता रहा।

मुझे पहली बार लगा था कि उड़न खटोला में इसी तरह का मजा आता होगा। जब पिता ने पहली बार दो पहिया वाहन लिया। कितना अजीब अनुभव था कि तुम जितना चाहो उतना तेज चला लो। सांस भी न फूले। और मजा भी इतना .....कि बस बयां ही न हो पाए। बात उन दिनों की है जब हम स्कूल में दुनिया दारी समझने लगे थे। और उस समय मुझे वाहन मिला। उपलब्धि था। ठीक उन्हीं दिनों मुझे अपनी एक क्लास की लड़की से प्रेम हो गया था। उसके पिता फौज में थे। और वह कैंट में रहती थी। और हम एक दम बाजार में। यानी कई किलोमीटर का फासला। जो कभी पट न पाया। खैर।
पिता ने जब वाहन खरीदा तो शायद उन्हें लगा होगा कि इसका एवरैज दूसरे वाहनों से अच्छा है। पेट्रोल कम खाएगी। और चलेगी ज्यादा। लेकिन उन्हें जल्दी ही निराशा हाथ लगी। वे पेट्रौल भराकर आते। और कुछ ही समय में गाड़ी में रिजर्व लग जाता। वे कुछ सोचते और फिर अपनी गाड़ी को मैकेनिक के पास ले जाते। वो कुछ ठीक करता। लेकिन दो पहिया वाहन कार की तरह एवरैज दे रहा था। ये बात गाड़ी मैकेनिक को भी समझ न आए। दो पहिया वाहन 14 से 15 किलोमीटर एक लीटर में चलता है। वह अपने बाल खुजाए। लेकिन हर बार कुछ ठीक कर दे। और पिता को भरोसा हो जाए। कि अब गाड़ी ठीक हो गई है। वे पूरे यकीन के साथ पेट्रोल का एवरैज नापते और उनका ये भरोसा जल्दी ही टूट जाता।
प्रेम में भी कितनी परेशानी होती है। हालांकि मोबाइल ने कई परेशानियां दूर की है। हमारे समय में पता ही नहीं चलता कि वह कहां है। बस इतना समन्वय था कि उसे हर शाम वॉक करना है। और एक वाक में आप कितने चक्कर लगा सकते है। एक या दो। लेकिन बाकी चक्कर वॉक शुरू करने वाले के पहले लगाने पढ़ते थे। लेकिन वो शाम। उसकी कोई कीमत नहीं। शाम चार बजने के बाद छह बजे तक का हर मिनिट याद होता था। और फिर किस तेजी से वाहन लेकर भागते थे। और वाक करती हुई वो दूर दिखती। हमारी तपस्या पूरी होती। और शिव वरदान के लिए खड़ा हो जैसे। फिर जब और समझदार हुए तो कई बार तो उसकी कार को घर से लेने और छोड़ने भी जाते थे। उस गाड़ी पर कितनी उपलब्धियां रही। पहली बार जब वह गाड़ी पर बैठी। पहली बार जब वह हमारे साथ बहुत दूर तक घूमने गई। और हां पहली बार जब उसने हमारी गाड़ी को चलाया। हां एक बात और थी। हमारी गाड़ी का एवरैज खराब करने में। उन दिनों हमारे मित्र विवेक पांडे भी प्रेम में थे। सो हमसे जब भी फुर्सत हो तो वह उनके काम भी आती थी।
आज मैं कारों में घूमता हूं। अब गाड़ी में पेट्रौल भराना तनाव की बात भी नहीं होती। आप कह सकते है कि दो पहिया वाहन से कार ज्याद सुविधाजनक है। स्टेटस सिंबल है। लेकिन फिर वह मजा क्यों नहीं आता। क्या करूं फिर से किसी से प्रेम कर लूं। जो वाक पर निकलती हो। और उसे देखने फिर से चक्कर लगाना शुरू करू। लेकिन ये खबरों की डेडलाईन भी तो है। इसका क्या करूं। कुछ सुझाइए। कुछ बताईए। अपने अनुभव भी हमें बताए क्या परेशानी रही आपको अपनी प्रेमिका से मिलने में। आज शायद मेरे पिता को पता चल ही जाएगा। कि गाड़ी का एवरेज खराब नहीं था। बेटा ही कुछ खराब हुआ जा रहा था।

Thursday, May 6, 2010

जीजाजी वक्त के साथ जीजा हुए फिर जीजू और अब जीज

मेरी एक रिपोर्टर का फोन आया। मुझे छुट्टी चाहिए। मेरे जीज आए हैं। पहले तो मैने जीज को खीज सुना। मैने सुधारा। खीज आए नहीं। आई है। उसने दोहराया। खीज नहीं जीज। मैंने सारे रिश्ते याद कर लिए। लेकिन जीज को नहीं समझ पाया। यह शब्द और ये रिश्ता हमसे नहीं सुलझा। मैंने कहा। मैं समझा नहीं। उसने फिर बताया दीद आई हैं। साथ मैं जीज भी हैं। अब मैं समझा जैसे मम्मी वक्त के साथ ममा हुई और फिर मॉम। पिताजी, पापा हुए फिर डेडी और अब डेड। मेरे एक मित्र कहते भी है। जिसकी मॉम जितनी जीवंत होगीं। डेड उतने ही डेड होगें। हालांकि उनका ये दर्शन कुछ लोगों को गुस्सा भी दिलाता है।संबोधन का सिर्फ इतना ही मकसद होता है। जिसे आप बुलाए वो सुन ले। ऐसा मैं सोचता था। लेकिन उम्र के साथ साथ मुझे लगने लगा है कि शब्द भी जीवंत होते हैं। इनमें भी जीवन है। इनको इस्तेमाल करने वाला अपना जीवन डालता हैं इनमें। और वह इन्हें आयुवान भी बनाता है। सयुक्त परिवारों में जैसा होता है। वैंसा चलन अपने यहां भी रहा। मैं आज भी अपने पिता को भैया। मां को भाभी कहता हूं। मेरी पत्नी अपने पिता को चाचा और मां को चाची कहती हैं। इसके चलते मैंने अपने जीवन में बहुत कम महिलाओं को भाभी कहा। और जिसको भाभी कहा। उसके साथ न कभी मजाक की। न कभी उनके साथ होली खेली। उन्हें मां की तरह ही माना। पिता भी कहते हैं। कि उन्हें कभी पिता का आभास ही नहीं हुआ। वे अपने बच्चों के बड़े भैया ही बने रहे।आधुनिकता हमारे संबंधों के कद को छोटा करती जा रही है। इसका हमें आभास होता रहता है। संबोधन भी विकृत होते जा रहे हैं। इनका असर भी समाज पर दिखने लगा है। मुझे याद है कि दिल्ली की रहने वाली एक युवती हमारे बुंदेलखंड में कलेक्टर की ट्रैंनिंग करने गई थी। वे रात को दुकाने बंद कराने पहुंची। तो एक सज्जन व्यक्ति ने कह दिया कि दीदी बंद करता हुं। वे तपाक से बोली मेरे पिता तो यहां कभी आए नहीं। फिर में तुम्हारी दीदी कैसे हुई। जब उनसे मेरी मुलाकात हुई तो मैंने उन्हें बताया था। कि परदेशी को दीदी कहना अपनी मां की चरित्रहीनता का परिचय देना नहीं है। अपरिचित लड़की को भी बहिन का दर्जा देना हमारी बुंदेली संस्कृति हैं। इन्हीं मौहतरमा ने बाद के दिनों में एक शिक्षक को चांटा भी मारा था। और अपने सांसकृतिक मूल्यों का खुद ही परिचय दे दिया था।बात इतनी सी नहीं है कि हम भी पिता को डेड या मां को मॉम कह सकते हैं। जीजा को जीज कहने में हर्ज नहीं है। लेकिन हम उस संस्कृति में पल कर आए हैं। जहां पर राम का नाम लिखने से पत्थर भी तैरने लगते है। लिहाजा हर शब्द का अर्थ होता है। और अर्थ से सांस चलती है। जीवन बनता है। लेकिन हमने यह भी जाना है कि मरा कहते कहते भी लोग राम कहने लगते हैं। बात शब्दों की नहीं बात संबंधो की है। हम कुछ भी कहे। कुछ भी सुने। लेकिन जब तक संबंध मीठे हैं। मजा तब तक ही है। हो सकता है आप लोग भी अपने माता पिता को अलग अलग नाम से बुलाते होगे। हमें लिखिएगा जरूर। बताइगा आपने अपने रिश्तों को क्या क्या नाम दिए हैं। हमें इतंजार रहेगा।

जीजाजी वक्त के साथ जीजा हुए फिर जीजू और अब जीज

मेरी एक रिपोर्टर का फोन आया। मुझे छुट्टी चाहिए। मेरे जीज आए हैं। पहले तो मैने जीज को खीज सुना। मैने सुधारा। खीज आए नहीं। आई है। उसने दोहराया। खीज नहीं जीज। मैंने सारे रिश्ते याद कर लिए। लेकिन जीज को नहीं समझ पाया। यह शब्द और ये रिश्ता हमसे नहीं सुलझा। मैंने कहा। मैं समझा नहीं। उसने फिर बताया दीद आई हैं। साथ मैं जीज भी हैं। अब मैं समझा जैसे मम्मी वक्त के साथ ममा हुई और फिर मॉम। पिताजी, पापा हुए फिर डेडी और अब डेड। मेरे एक मित्र कहते भी है। जिसकी मॉम जितनी जीवंत होगीं। डेड उतने ही डेड होगें। हालांकि उनका ये दर्शन कुछ लोगों को गुस्सा भी दिलाता है।
संबोधन का सिर्फ इतना ही मकसद होता है। जिसे आप बुलाए वो सुन ले। ऐसा मैं सोचता था। लेकिन उम्र के साथ साथ मुझे लगने लगा है कि शब्द भी जीवंत होते हैं। इनमें भी जीवन है। इनको इस्तेमाल करने वाला अपना जीवन डालता हैं इनमें। और वह इन्हें आयुवान भी बनाता है। सयुक्त परिवारों में जैसा होता है। वैंसा चलन अपने यहां भी रहा। मैं आज भी अपने पिता को भैया। मां को भाभी कहता हूं। मेरी पत्नी अपने पिता को चाचा और मां को चाची कहती हैं। इसके चलते मैंने अपने जीवन में बहुत कम महिलाओं को भाभी कहा। और जिसको भाभी कहा। उसके साथ न कभी मजाक की। न कभी उनके साथ होली खेली। उन्हें मां की तरह ही माना। पिता भी कहते हैं। कि उन्हें कभी पिता का आभास ही नहीं हुआ। वे अपने बच्चों के बड़े भैया ही बने रहे।
आधुनिकता हमारे संबंधों के कद को छोटा करती जा रही है। इसका हमें आभास होता रहता है। संबोधन भी विकृत होते जा रहे हैं। इनका असर भी समाज पर दिखने लगा है। मुझे याद है कि दिल्ली की रहने वाली एक युवती हमारे बुंदेलखंड में कलेक्टर की ट्रैंनिंग करने गई थी। वे रात को दुकाने बंद कराने पहुंची। तो एक सज्जन व्यक्ति ने कह दिया कि दीदी बंद करता हुं। वे तपाक से बोली मेरे पिता तो यहां कभी आए नहीं। फिर में तुम्हारी दीदी कैसे हुई। जब उनसे मेरी मुलाकात हुई तो मैंने उन्हें बताया था। कि परदेशी को दीदी कहना अपनी मां की चरित्रहीनता का परिचय देना नहीं है। अपरिचित लड़की को भी बहिन का दर्जा देना हमारी बुंदेली संस्कृति हैं। इन्हीं मौहतरमा ने बाद के दिनों में एक शिक्षक को चांटा भी मारा था। और अपने सांसकृतिक मूल्यों का खुद ही परिचय दे दिया था।
बात इतनी सी नहीं है कि हम भी पिता को डेड या मां को मॉम कह सकते हैं। जीजा को जीज कहने में हर्ज नहीं है। लेकिन हम उस संस्कृति में पल कर आए हैं। जहां पर राम का नाम लिखने से पत्थर भी तैरने लगते है। लिहाजा हर शब्द का अर्थ होता है। और अर्थ से सांस चलती है। जीवन बनता है। लेकिन हमने यह भी जाना है कि मरा कहते कहते भी लोग राम कहने लगते हैं। बात शब्दों की नहीं बात संबंधो की है। हम कुछ भी कहे। कुछ भी सुने। लेकिन जब तक संबंध मीठे हैं। मजा तब तक ही है। हो सकता है आप लोग भी अपने माता पिता को अलग अलग नाम से बुलाते होगे। हमें लिखिएगा जरूर। बताइगा आपने अपने रिश्तों को क्या क्या नाम दिए हैं। हमें इतंजार रहेगा।

Wednesday, May 5, 2010

अंकल को पोएम सुनाओ। अच्छा अब एबीसीडी सुनाओ

दोस्त की महीनों से शिकायत थी। तुम पत्नी को लेकर घर आओ। दिल्ली में 40 किलोमीटर जाना और फिर वापस आना। वो भी दस साल पुरानी मोटरासाइकिल पर। और हम जैसे आलसी को। मुश्किल था। फिर भी हम पहुंच ही गए। लेकिन मुझे पता नहीं था। कि वे अभी कुछ दिन पहले ही अपने तीसरे बच्चे के एडमीशन की जंग जीतकर आए है। और घर में विजय उत्सव है। मैंने सुना है जीते कोई भी और हारे कोई भी। नुक्सान जंग से सभी को होता है। लेकिन मुझे ये पता नहीं था कि विजय उत्सव में शामिल होने वालों को भी एक जंग लड़नी ही पड़ती है।
शुरूआत ही ऐसी हुई। मेरे दोस्त अपने बेटे को गोदी में लेकर ही मुझे लेने आए। और उन्होंने परिचय भी ऐसा ही कराया। कि अँकल तुम्हारी पोयम सुनने दिल्ली से आए है। अगर अच्छे से सुनाओगे तो टीवी में दिखाएंगे। बताओं कौन सी वाली सुनाओगे। पिता-पुत्र के इस साक्षात्कार को मैने बीच में ही रोका। मुझे जोर से प्यास लगी है। मेरी पत्नी को मुझ से भी ज्यादा। थोड़ा जोर से कहा। शायद कभी कभी जीवन ही पूरा एक विचार का रूप ले लेता है। और हम सिर्फ उसके हिस्से रहते है। वे फिर बच्चे से मुखातिब हुए चलो अंकल को पानी लाए। वो पानी वाली पोएम याद है न। मछली जल की रानी है। बोलो बोलो आगे क्या है। बच्चा शर्माने लगा। मैने कोई खतरा मोल नहीं लिया। और कहा कि इस समय हमारा जीवन पानी है। उन्होंने अपने बच्चे से अंग्रेजी की पोएम सुनवाई। हम सुनते रहे। फिर हिंदी की कविताओं का नंबर आया। चंदा मामा से मछली तक सभी को हमने सुन। फिर एबीसीडी। फिर नोज से हेंड तक पूरे शरीर के हिस्से। और गुड नाइट तक हम नर्सरी का टेस्ट देते रहे। हां इस बीच पानी, चाय नास्ता और खाना भी हमने खाया।
जब बच्चा अपनी मासूमियत खुद लेकर चलता है। तो मजा देती है। लेकिन मासूमियम के नाम पर जब मम्मी उसे कुछ पहना कर भेजती है। तो वह विकृत हो जाती है। मुझे शुरू से ही बच्चों से प्रेम है। और मुझे लगता रहा है कि गांधी और अलबर्ट आइंसटाइन के अलावा मुझे कभी भी च्वाइस हो तो मैं बातचीत के लिए हमेशा बच्चा ही चुनूगां। उनकी मासूम बाते तुम्हारें तनाव को पानी की तरह धो देती है। लेकिन इन्हीं बच्चों के चेहरे पर जब कृत्रिमता पोत दी जाती है। तो मुझे और भी तनाव देती है। मेरे घर के सामने एक शर्मा जी रहते हैं। उनके बच्चे गाली तो बकते हैं। लेकिन संबोधन में आप कहते हैं। लिहाजा न गाली की सुंदरता बचती है। न संबोधन की। संयुक्त परिवारों में बच्चों को ट्रिम करने की फुर्सत मां बाप को नहीं होती। लिहाजा हमारी ग्रोथ टेड़ी मेडी ही रही। इस बात को हम कहते भी रहे हैं। कि हम इतनी जगह से टेड़े है। कि हम न तो फर्नीचर के काम के हैं और न हम मंहगे बिक सकते हैं। लेकिन मौलिक है।
हो सकता है आप भी मेरी तरह ऐसे अनुभवों से गुजरते होगे। इसी तरह हमने अपने एक मित्र को खाना खाने बुलाया था। वे अपने साथ एक सुटकेस नुमा सामान भी लेकर आए। हमने सोचा शादी इनकी हुई है। तोहफा तो हमें देना है। लेकिन इनका लाना तो ठीक नहीं था। कुछ मिनिट बाद ही पता चला कि वह बाकायदा सुटकेस ही है। और उनमें उनकी शादी के एलबम हैं। मैं आपसे झूठ नहीं बोलूगां। लेकिन पूरे दो घंटे हमने उनके सारे रिश्तेदारों की तस्वीरें देखीं। और सबकी विशेषताएं भी सुनी। आपको यकीन नहीं होगा। हमने खाने के बाद फिर उनकी हनीमून की तस्वीरें भी देखीं। कुछ वाक्या भी सुने। बात हमारी बोरियत की नहीं है। बात जिंदगी के उस क्षण की भी हैं। जिसे आप अपने सुकून के लिए अपने साथ रखना चाहते है। आपकी पत्नी हिमांचल के जेवर पहनकर और हिंमाचली पोशाक पहनकर आपको सुंदर लग सकती है। लेकिन हर को लगे। इसका आग्रह क्यों होना चाहिए। मेरी बुआ और मेरे फूफा के आशीर्वाद देती हुई फोटो हमारे लिए कीमती है। लेकिन हमारे घर आए दोस्तों को भी कीमती हो ये जरूरी नहीं। फिलहाल मैने सोच लिया है कि जब तक एडमीशन का समय पूरा नहीं हो जाता। मैं अब किसी के घर नहीं जाउँगा। आपके घर भी नहीं।

Tuesday, May 4, 2010

मैं जिंदा में ही सेवा करना चाहता हूं। और तुम मरने के बाद

मेरे एक बहुत ही प्रिय दोस्त है। हालांकि ये उनकी उदारता है कि वे मुझे अपना बड़ा भाई मानते हैं। हम लोगों को जो कई चीजें निकट लाती है। उनमें से एक उसका नानी के प्रति अदभुत प्रेम है। उसने एक बात सुनाई कि किस तरह से उसके मामा जो विदेश में आला अफसर हैं। अपनी बीमार मां की सेवा के लिए महीनों से घर पर ही डेरा डाले थे। इतनी लंबी छुट्टी से मामी का परेशान होना स्वाभाविक था । और उन्होंने उनसे वापस आने की बात कही।उसके मामा ने जबाव दिया। उसके मामा का कहना था कि हम मां के जिंदा रहते उसके लिए हाथ जोड़ना चाहते हैं। और तुम मां के मरने के बाद हाथ जोडना चाहोगी। यह बात वह सुनाकर चला गया। लेकिन में अभी तक वहीं अटका हूं।
बचपन में जब भी कभी मंदिर में किसी के नाम के पत्थर लगे देखता था। या किसी पंखे पर किसी का नाम। किसी की स्मृति में प्याऊ चलाते लोग। अपने माता पिता की याद में धर्मशाला बनवाते लोग मेरे अँदर कई प्रश्न पैदा करते रहे हैं। मुझे शुरू से ही ये बात लगती रही है कि ये लोग अपने माता पिता की याद में पुण्य करते हैं। तो फिर अपना नाम साथ में क्यों लिखवाते हैं।कई बार तो ये नाम मातापिता के नाम से भी बड़े अक्षरों में होता है। ये स्मृति इनके बुजुर्गों की है या फिर इनका खुद का विज्ञापन। और जिस आदर सत्कार के साथ लोग अपने माता पिता का नाम लिखवाते है। उस से ही कई शंकाओं का जन्म होता है। जो भी बात कही जाए। वह कमजोर अपने आप हो जाती है। जब भी में इस बात का एलान करता हूं कि में अपने माता पिता का सबसे ज्यादा सम्मान करता हूं। उनका चरण सेवक हूं। यही से उपद्रव पैदा होता है। श्रवणकुमार ने अपने माता पिता की याद में कहीं भी कोई धर्मशाला नहीं बनवाई। मैं जानता हूं। अपने एक डाक्टर दोस्त को। जब उनके पिता मरे। तो बे सबसे कम रोए। बात साफ थी मैंने उनको सालों अपने पिता की सेवा करते हुए देखा है। उन्हें जो भी करना था। वे अपने हिस्से का कर चुके थे। अपने कर्तव्य को लेकर वे संतुष्ठ थे। मेरे दादा के निधन पर मेरे पिता ने कहा था। कि आदमी जहां जहां चूकता हैं। वहीं उसे पश्चाताप होता है। वहीं वह रोता है।
विज्ञापन की दुनिया में हर संप्रेषण की कीमत है। कितने बेहतर ढंग से आप अपनी बात कह सकते है। ये आप पर निर्भर हैं। गांव में आज भी जब रिश्तेदार आते हैं। तो गली के मुहाने से ही रोना शुरू कर देते है। उनके हिस्से में सेवा नहीं थी। अब रोकर ही उन्हें सब जताना है। अपने किसी बुजुर्ग की सेवा हम करते हैं। वह हमारे अपने लिए होती है। और जो दिखावा हम किसी के जाने के बाद करते हैं। वह विज्ञापन समाज के लिए है। और इसकी भी कीमत हम वसूलते रहेंगे। यह निवेश हैं। हमारी भावनाओं का समाज के खाते में। जिसे हम भंजाते रहेंगे। पत्रकार होने के नाते अपनी आर्थिक हालत अच्छी कभी रही नहीं। सो अपन ने दादा की याद में न पत्थर लगवाए। न मंदिरों में पंखा टांग पाए। और न ही कोई प्याऊ खोली। न धर्मशाला बनवाने ही हैसियत है। लेकिन हां। दादा के निधन के बाद दिल्ली में दो चुनाव हुए। लोकसभा और विधानसभा। सभा जानते हैं। चुनाव पत्रकारों के लिए उत्सव से कम नहीं है। लेकिन इन चुनाव में अपन बिके नहीं। कीमतें लगती और बढ़ती रहीं। अपन डिगे नहीं। दादा की याद में अपन ने भी एक बोर्ड लगाया है। कि हम बिकाऊ नहीं है। आप भी आशीर्वाद दीजिए कि ये लगा रहे। और उनके साथ साथ आप भी मुझ पर गर्व करते रहे।

Monday, May 3, 2010

विवेकानंद, लाओत्से, कबीर को पढ़ कर बिगड़ गए हम.....

तुम handsome हो नहीं। कपड़े अच्छे पहनते नहीं। बाल गिर गए हैं। गंजे हो गए हो। मोटापा इतना है कि बेडोल दिखते हो। बाहर पेट निकला है। कहीं से स्मार्टनेस झलकती ही नहीं। बोलते हो तुतलाते हो। नौकरी....पत्रकार हो। आखिर तुम से कौन करेगा शादी। दिल्ली में सालों पहले अपनी एक महिला मित्र ने पूछा था। और मैने कहा था कि जो इसके पार देखेगा। वह झल्लाकर बोली। तुम विवेकानंद, लाओत्से, कबीर और ना जाने ये कौन कौन सी किताबें पढ़ते रहते हो। इनको पढ़कर तुम बिगड़ गए हो।
अपने घर में सब के सब मास्टर ही हैं। सो घर में हर विषय पर कोई ना कोई किताब बचपन से ही देखी। विवेकानंद पर दादा का ज्यादा जोर था। कबीर पर पिता का। सो अपन ने बचपन से ही इन किताबों को पढ़ना शुरू किया। जब लोग बचपन में चंपक, नंदन और चाचा चौधरी पढ़ते थे। हम उन दिनों में आवारा मसीहा और निराला की साहित्य साधना, लाओत्से के सूत्र, कबीर की उलट बासियां पढ़ने लगे थे। समझ में कितना आया पता नहीं। लेकिन उन दिनों ही किसी से सुना था कि विवेकानंद कहते है। भारत में किसी का भी व्यक्तित्व उसका चरित्र बनाता है। जबिक अमेरिका में दर्जी बनाता है। ये बात ना जाने किस मुहूर्त में सुनी की आज भी कहीं छपी हुई मालूम पड़ती हैं। अपना सारा जोर रोचक बाते करने में ही लगने लगा। दार्शनिकों की मिशालें देना। उनकी कही हुई बातों पर गप करना हमारा शौक बन गया। हमें मजा न कभी जिम जाकर बॉडी बनाने में आया और न कभी तीन बार ढाड़ी बनाकर युनिवर्सिटी जाने में आया। दुनिया में जो विषय हमें कम रुचिकर लगे। उनमें एक फैशन भी था। इस विषय में हम आज भी निरक्षर ही हैं।
दिल्ली जब आए तब इसका खामियाजा भुगतना शुरू किया। यहां लोगों के पास इतना समय नहीं होता कि वे तुम्हारा चरित्र समझने की कोशिश करे। और फिर तुम्हें लेकर कोई धारणा बनाए। न तुम्हारे परिवार की यहां विरासत चलती है। और न कोई पहचान। तुम पहली नजर में जैसे दिखते हो वैसे ही तुम मान लिए जाते हो। सो अपन हर सांचे में फेल ही हुए। पर अपनी लापरवाही नौकरी के साथ कुछ जम गई। पत्रकार को लोग वैसे भी अभावग्रस्त ही मानते हैं। लिहाजा अपना लुक काम कर गया। किसी ने लापरवाह कहा तो किसी ने सनकी। कुछ ने होशियार भी माना। हालांकि इसके मानने वाले कम ही मिले।
अपने एक पुराने मित्र हैं। मेरी इस आदत से वे हमेशा ही खफा रहते है। और मुझे लगभग गरियाते रहते हैं। उनका कहना है कि अच्छा दिखना भी मेहनत क काम है। तुम इतने लापरवाह हो की तुम अच्छे दिख ही नहीं सकते। अपने आलस्य को दार्शनिकों की बातों से मत ढका करो। फिट रहने क लिए सुबह उठकर जिम जाना होता है। अच्छे कपड़े पहनने के लिए। अच्छा कमाना होता है। स्मार्टनेस एक दिन का खेल नहीं हैं। सालों का रियाज है। और अच्छे दिखने में बुराई क्या है। लेकिन मुझे शुरू से ही लगता रहा कि कोई भी यात्रा एक ही दिशा में हो सकती है। या तो हम बाहर की तरफ चले। या हम अंदर की तरफ चले। बाहर को जो खेल है। वह कुछ समय बाद खत्म हो जाता है। लेकिन अंदर की यात्रा दिन ब दिन आयुवान होती जाती है। मैं कभी भी न अच्छा दिख पाया न कोशिश की। हां ये बात अलग है कि लोगों से मेरी दोस्ती देर से होती रही है। पर दोस्ती के बाद संबंध लंबे और गहरे होते गए। क्यों कि मुझे लगता है कि जो व्यक्ति आपकी सुंदर कमीज और ब्रांडिड जींस से प्रभावित होता। उसका प्रभाव कपड़ो के साथ खत्म भी होता है। लेकिन जो आपके चरित्र से प्रभावित हो कर दोस्ती करता वह रिश्ता लंबा चलता है। खैर ये दिल्ली है। यहां पर लिबास की कीमत ज्यादा है। आदमी की कम। लेकिन अपन ने कब चाहा कि अपनी कीमत भी यहां लगे। जिस शहर में अपनी कीमत है। एक दिन वहीं वापस लौट जाएगें।

Sunday, May 2, 2010

मौत का खौफ नहीं है। वेवजह मरने से चिढ़ होती है।

सुमन बुआ का फोन आया। कहां हो। दिल्ली में आतंकवादी घुस गए है। तुम घर कब पहुंचोगे। वे कभी भी दिल्ली में ब्लास्ट कर सकते हैं। तुम अभी कहां हो। टीवी वाले दिखा रहे हैं। तुम्हें कितनी देर लगेगी घर पहुंचने में। और फिर घर से फोन का सिलसिला शुरू हो गया। सभी के सवाल एक जैसे थे। और मेरे जवाब भी। क्या करें। हमारी नौकरी ऐसी है। जब दंगा फसाद हो। कोई बवाल मचें। तो लोग घरों को भागते हैं। हम दफ्तर जल्दी जल्दी पहुंचते हैं। आम आदमी खतरे वाली जगहों से निकलकर भागता है। सुरक्षित ठिकाने की तरफ। और हम सुरक्षित दफ्तरों और घरों से बाहर निकलते हैं कैमरा के साथ। खतरों वाली जगहों पर खबरों के लिए।
डर तो सभी को लगता है। मरने से। मुझे भी लगता ही होगा। लेकिन यकीन मानिए। मौत का खौफ नहीं है। एक अलग तरह की चिढ़ है। वे वजह मरने से। जिस तरह से हर आदमी की जिंदगी की एक वजह होती है। उसी तरह से मरने की भी एक वजह होनी चाहिए। मैंने सुना है कि भगतसिंह का वजन फांसी की सजा के बाद कुछ बढ़ गया था। यानि उन्हें मरने से डर नहीं लग रहा था। उनके पास वजह है। मरने की भी। लिहाजा मरने के लिए एक वजह तो हो। बाजार में कुछ खऱीदते समय। अपने बच्चे को स्कूल भेजते समय। पत्नी को दफ्तर ले जाते हुए। दादी को अस्पताल ले जाते समय। या फिर खुद दो जून की रोटी के इंतजाम में लगे हुए। यूं ही मरना अजीब सा लगता है। कि कोई पगलाया हुआ आदमी आए। और यूं ही गोली मारकर चला जाए। तुम्हें मारकर उसे जन्नत मिल जाए।
हालांकि ये कहना गलत होगा कि इस तरह की चेतावनी का कुछ भी असर नहीं होता। लेकिन दिल्ली वालों ने इस डर से निजात पा ली है। मैंने लगभग हर बाजार में जाकर देखा। लोग बेखोफ खरीददारी करते नजर आए। लोग सरोजिनी नगर बाजार में तो बाकायदा पाउडर और बिंदी जैसी चीजें भी खरीदने आए। जिसे शायद टाला जा सकता था। लेकिन आम दिल्ली वालों ने इस चुनौती को अंदेखा किया। लेकिन क्या हमारी सरकारें इतनी निकम्मी होती जा रही है। कि अमेरिका अपने नागरिकों को पहले चेतावनी देती है। फिर हमारी सरकार हरकत में आती हैं। क्या हमारे नागरिकों की जिंदगियां दूसरे देशों के नागरिकों की जिंदगियों से कम कीमती है। या फिर हमारी सरकारों को अपने कामकाज और अपनी तिकड़म से फुर्सत ही नहीं है। कि वो आम आदमी की जिंदगी पर भी ध्यान दे सके। हमारे नेता सुरक्षित हैं। अपनी सुरक्षा को वाई से जैड और जेड से जेड प्लस कराने में व्यस्त हैं। मुझे लगता है कि जिस दिन हम अपने नागरिकों कि जिंदगियों की कीमत करना शुरू कर देंगे। उस दिन आतंकवाद अपने आप खत्म हो जाएगा। जिस दिन हमें इस बात का अहसास होगा कि आतंकवाद का शिकार भले एक आदमी होता हो। लेकिन मरता पूरा परिवार है। हर रोज। दुआ करिए कि मुझे मौत भी आए तो किसी ब्लास्ट में नहीं। हां आप तक किसी खबर का सच पहुचाते हुए। वहीं मेरा मोक्ष होगा।

Saturday, May 1, 2010

मेहनत बैचने वाले भूखे और दुखी हैं। इमान बैचने वाले मजा कर रहे हैं.

हमारी जिंदगी भी अब तारीखों और दिनों में बंट गई है। अब हमें मदर्स डे पर मां की याद आती है। मई दिवस पर मजदूरों की। आज सुबह जब मैं निकला रिपोर्टिंग के लिए। तो मैं मेहनतकशों का चौराहा देख रहा था। एक ऐसी जगह जहां पर मजदूर सुबह से ही जमा हो जाते हैं। और अपनी मेहनत को आठ घंटे के लिए बैचने आ जाते हैं। मजदूरी हर रोज मिले ही ये जरूरी नही है। घर में चूल्हा जलना इनके लिए गांरटी नहीं हैं। मैं इन मजदूरों के चेहरों को देखता रहा। इनके चेहरे हर मिनिट बुझते जाते है। और दिन चढ़ने के कुछ देर बाद ही इनके चेहरे मर जाते हैं। दिन के शुरू में इन्हें उम्मीद होती है। मजदूरी मिलने की। और सपने होते है। दो जून की रोटी के। लेकिन जैसे जैसे समय निकलता जाता है। कुछ मजदूरों को लोग अपने साथ ले जाते है। लेकिन कुछ उन्हीं चौराहों पर अपनी बारी का इंतजार करते रहते है। कई बार उनकी बारी नहीं आती। शाम ढल जाती है।
हमारी दुनिया में इतना अंतर तो नहीं था। कि जो लोग अपनी मेहनत बैचना चाहते है। वे भूखे और उदास रहे। जो अपना इमान बैचते हैं। वे मजे करते हैं। माधुरी गुप्ता हमारी सरकार में अफसर बन जाती है। देश के साथ धोखा करती है। और चांदी कांटती है। क्यों हमारे कई नेता दिन दोगुने और रात चार गुने तरक्की करते हैं। जिन से हमें उम्मीद थी कि देश के विकास की। वे अपने विकास करने में जुटे हैं। कई बार बहुत दूर तक अंधेरा दिखता है। इसी उम्मीद में शायद किसी रोज कोई महात्मा गांधी...कोई भगतसिंह.....कोई खुदीराम बोस...कोई चंद्रशेखर आजाद अपने हाथ में दिया लेकर आएगा...और हमारी इस अंधेरी गुफा में रोशनी करेगा...हमें इंतजार रहेगा। जिस दिन मेहनत के इस बाजार में कोई भी मजदूर भूखा नहीं लौटेगा। हर घर में चुल्हा जलने की गारंटी होगी।