Friday, April 30, 2010

चूंचूं, गबू, पोच्चमा, कुलू....प्रेम की शक्कर में पगे नाम

दादा ने पहली बार देखा तो कहा चींची बाबू। वक्त के साथ नाम छोटा हुआ। हम चींची हो गए। फिर धीरे धीरे चलन में चूंचूं आ गया। और अब हम अपना नाम बताते हैं....आलोक मोहन नायक ब्यूरो चीफ दिल्ली। सहारा एनसीआर। संयुक्त परिवार की विरासत से हमें प्रेम के ये छोटे नाम भी मिलते हैं। हर नाम के पीछे एक कहानी होती है। कई बार कोई घटना भी। दादी बताती है। दादा हमें अस्पताल देखने गए थे। तो हम चिंचिना रहे थे। इस बुंदेली शब्द का मुझे हिंदी अनुवाद नहीं पता है। सो दादा ने अपन को चींची बाबू कह दिया। फिल्म का गाना था। गपू गपू जी गम गम। बुआ सुनती थी रेडियों पर और छोटा भाई नाचता था। और वह गपू जी हो गया। वक्त के साथ साथ गपू जी गबू जी हो गए । छोटी बुआ की सहेली घर आती थी। वे साउथ इंडियन थी। उनके परिवार से मेरे पिता ने नाम उठाया और मेरी बहिन पर रख दिया। और वह पोच्चमा हो गई। कुलू वैली सुंदर जगह है। छोटे में छोटा भाई सुंदर था। सो वे भी कुलू वैली हो गए। अब वे कुलू हैं।
मुझे अपना नाम शुरू से ही पंसद है।शायद इस नाम से दादी बुलाती है। जब भी मुझसे बचपन में कोई नाम पूछता था...तो मैं चूंचूं ही बताता था। लोग कहते अच्छा वाला नाम बताओं। मैं कहता मेरे दादा ने रखा है नाम तो अच्छा ही होगा। फिर कहता बाहर वाला बताओं में कहता यही नाम बाहर ले जाउंगा। लोग मुझ बदतमीज समझकर पास खडे किसी गार्डियन नुमा आदमी से पूछते। इसका नाम स्कूल में क्या लिखाओगे। फिर कोई बताता। आलोक मोहन नायक।
छोटे नाम। घरू नाम। इनका महत्व कितना है। ये मुझे उम्र में काफी आगे समझ में आया। मेरे पिता के एक दोस्त हैं। जिनका तलाक हो गया था। लेकिन एक बेटी है। वह जब मेरे घर आई हमारे नामों को सुनकर रोने लगी। बच्ची छोटी थी। लेकिन बात बड़ी कह गई। उसने कहा मेरा प्यार का कोई नाम नहीं है। शायद मेरे माता-पिता को फुर्सत ही नहीं थी मुझे प्यार करने की। मुझे प्यार से बुलाने की। हालांकि मेहमान के ठीक आने से पहले जिस तरह हम प्लास्टिक के फूल गुलदस्ते में रख देते हैं। या फिर हलवाई के यहां से नास्ता ले आते हैं। उतना ही बनावटी नाम उसका उन लोगों ने रखा। लेकिन उस नाम में न रंग था। न संगीत। और न ही खुशबू।
लेकिन इन नामों में कई मजेदार होते हैं। मेरे पिता एक जगह गए थे। तो उन्होंने नाम पूछे। तो बडे भाई ने अपना नाम कलेक्टर राय बताया। छोटे ने एसपी राय। पिता ने मजाक में पूछा। डीआईजी राय और कमिश्नर राय कहां हैं। उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा। वो घर पर खेती करते हैं। पिता ने कहा ये तो अच्छा हुआ कि आपके पिता ने ब्यूरोक्रेशी से काम चला लिया। अगर मंत्रीमंडल बनाते तो मुश्किल हो जाती । इसी तरह मेरे रिश्तेदारों के नाम है पट्रोल.... डीजल और तीसरा भाई आयल है। पढ़ोस में एक बच्ची थोड़ी सी मोटी थी नाम हो गया फुग्गा। लिंग की दिक्कत थी। सो वे फुग्गी हो गई।
लेकिन अब दिल्ली के परिवारों में सिर्फ मम्मी पापा होते हैं। दादा दादी बुआ चाचा फोटो में दिखाई देते हैं। बच्चों के नाम अब घर के बुजुर्ग नहीं रखते। मम्मी इंटरनेट पर देखती है। पांच नामों की लिस्ट बनाती है। पापा से बहस होती है। और फिर नाम जो डाउन मार्केट न हो। बच्चे पर थोप दिया जाता है। मैं अपने नाम को अभी भी जोर से पकड़े रहता हूं। लगता है कि दुनिया की रफ्तार मुझ से इसे छीन कर न ले जाए। लेकिन फिर लगता है। दूर ही सही। दुनिया के किसी कोने में मेरी दादी इस नाम को रोज लेती है। कौन हैं। जो इसे मिटा सकेगा। फीका कर सकेगा। दादी पर भी कभी कभी समाज का प्रेशर काम करने लगता है। उन्हें मेरा नाम बिगड़ता हुआ दिखता है। लिहाजा वो कभी कभी मेरे दोस्तों को डांट भी देती है। कि अब वह बड़ा हो गया है। नाम बिगाड़ा मत करो। चूंचूं नहीं आलोक कहा करो। लेकिन मैं दादी से कहता हूं। जिंदगी तो अपन से संभली नहीं। पूरी बिगड़ गई। एक नाम ही हैं. जिसे में संभाल कर रखता हूं। और इश्वर से प्राथर्ना करता हूं। कि मुझे इतना बढ़ा कभी मत बनाना कि दादा का ये नाम मेरे लिए छोटा पड़ जाए।

Thursday, April 29, 2010

फांसी के दिन भी भगत सिंह ने की थी कसरत....यकीं नहीं होता

मैंने सुना है। पढ़ा नहीं है। लेकिन यकीन नहीं आता। कोई बता रहा था। जिस दिन भगतसिंह को फांसी होनी थी। उस दिन भी उन्होंने सुबह उठकर कसरत की थी। किसी व्यक्ति का अपने जीवन मूल्यों के प्रति इतना समर्पण। जीवन में ऐसा महान लोगों के साथ होता है। जब उनके मूल्य और वे अलग अलग नहीं होते। एक ही हो जाते हैं। हम महात्मा गांधी और अहिंसा को अब अलग अलग नहीं कर सकते। हमारे लिए गांधी और अहिंसा एक ही हैं।
मैं आज बाहर गया था। अभी लौटा हूं। लिखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। लेकिन मुझे लगा कि अगर मेरा एक भी पाठक मेरा ब्लाग हर रोज खोलता है...तो ब्लाग न लिखना उसके प्रति अपराधा होगा....मैं न भगत सिंह हू और न महात्मा गाधी...लेकिन मैं अपने आप को आपके प्रति जिम्मेदार मानने लगा हूं. सोलिख रहा हूं। नियम साधना और बात है। उसे ढोना अलग बात है। मुझ से जीवन में आज तक कुछ भी नहीं सधा तो नियम सध पायगा...यही कहना ही मुश्किल हैं...फिर भी में कोशिश करता रहूंगा...

Wednesday, April 28, 2010

दिल्ली में दादी नहीं है......

हो गई है शाम। सोया नहीं जाता। भगवान घर जा रहे हैं। यहां मुझ से कोई नहीं कहता। दिल्ली में दादी नहीं है....
थक कर आया है। पसीना सूख जाने दे। थोड़ा सा गुड़ खाले। एक दम ठंडा पानी मत पी। यहां कौन मुझ से कहेगा। न घर में कोई बुजुर्ग हैं। न दिल्ली में दादी।
आज जल्दी क्यों घर से निकलता है। कुछ खाकर जाना। खूब सारा पानी पीले। गर्मी है तेज। जेब में प्याज भी रखले। यहां कौन सिखाएगा ये सब। दिल्ली में दादी नहीं हैं।
हो गई है कितनी घनी रात। रास्तों पर सिर्फ घूमते हैं भौकते कुत्ते। क्यों नहीं आया है अब तक बेटा घर। यह सोच कौन टहलेगा घर के बाहर। दिल्ली में दादी नहीं है।

Tuesday, April 27, 2010

शब्दों का छल और पूजा के गुदे कागज

आज मुझे एक चिट्ठी मिली है....इसे तीन साल की पूजा ने लिखा है...लिखा नहीं गूदा है... इसमें साबुत शब्द एक भी नहीं है.... सिर्फ लकीरें हैं...या फिर गुदना है....सामान्य चिट्ठियां करीब दस मिनिट मे पढ़ ली जाती है..लेकिन इसे मैं पिछले बारह सालों से पढ़ता जा रहा हूं......बात उन दिनों की हैं जब मैं अपना घर छोड़कर दिल्ली चला आया था...जनसत्ता में रिपोर्टर बनने.....और तीन साल की पूजा उस समय बोलती तो थी...पर लिखती नहीं थी...लिहाजा हर पत्र जो मेरे लिए घर से आता था उसमें उनके कुछ गुदने और कुछ उनकी लकीरें भी मेरे लिए होती थी. . फिर कुछ दिनों बाद पूजा ने मेरे लिए अलग से पत्र लिखने या कहे गूदने ही शुरू कर दिए....मेरे लिए आजतक जितनी भी चिट्ठियां आई उन्हें मैंने कुछ मिनिट में ही पढ़ लिया ... कुछ देर बाद उन्हें भूल भी गया....और लापरवाही में कभी जवाब दे नहीं पाया...लेकिन मैं इसे बार बार समझता हूं पढ़ता हूं.....इसका जवाब देना भी चाहता हूं...लेकिन उतनी मासूमियत कहां से लाऊं...जो मेरी भावनाओं को बिना शब्दों के व्यक्त कर दें....बात सीधी और सपाट है...जिस भाषा में पत्र आया हो..उसका जवाब भी उसी भाषा में होना चाहिए.....
पूजा की इस चिट्ठी को मैं सालों से पढता आ रहा हूं....कागज पर एक बच्चें की कुछ तिरक्षी...कुछ टेड़ी लकीरें..कुछ गुदने। इनके कितने अर्थ हो सकते हैं यह कहना मुश्किल हैं...क्यों कि शब्द का तो एक ही अर्थ होता है...जो लिखा गया है....लेकिन इन लकीरों के सैकड़ों....हजारों या फिर लाखों...शायद न जाने कितने अर्थ बरसते हैं....सबसे बड़ी कठिनाई कि इन लकीरों का अर्थ निकालने की है.... क्यों कि इनका अर्थ लिखने वाले के शब्दों से नहीं निकलेगा....इसे पढ़ने वाले को अपने हिसाब से निकालना होगा....इन लकीरों के अर्थ समझ से नहीं भावनाओं से निकलेंगे...
चीन में एक विचारक हुआ है.....लाओत्से....वह कई कीमतीं बाते करता है...वह कहता है कि किसी भी भावना को हमनें शब्दों से अभिवयक्त किया...और उसकी कीमत घट गई...हमने जैसे ही कहा कि सुबह सुंदर हैं...वैसे ही उसकी कीमत हमने लगा दी....उसकी सुंदरता की सीमा बांध दी....जैसे ही तुम किसी से कहते हो हमें तुम से प्यार हैं...वैसे ही समझ लो कि इसमें कुछ पैंचिदगियां हैं....बात एक दम सफेद नहीं हैं....वर्ना कहने की जरूरत ही न होती...हम चिट्ठी में लिखते हैं...तुम्हारी बहुत याद आती है...फसाद यहीं से शुरू होता है....यह लिखने की जरूरत ही न थी...हमें यह बात मेहनत करके लिखने की जरूरत हीं क्यों पड़ी....पिछले दिनों दिल्ली में एक पत्नी ने अपने दोस्त के साथ मिलकर पती की हत्या करवा दी...लेकिन आपकों शायद हैरत होगी कि उसने भी अपनी चिट्ठियों में कभी लिखा था कि तुम्हारे बिना खाना खाने की इच्छा ही नहीं होती...नींद भी नहीं आती... और अपने पति को आखरी में लिखा था...हैं मेरे जीवन जल्दी चले आओ...तुम्हारे बिना जीने की एक पल भी इच्छा नहीं होती......मुझे लगा शायद इस पत्र को पढ़कर ही पति को समझ जाना चाहिए था कि शब्दों का इतना प्रपंच...बात कुछ और है...
मुझे लगता है कि इस दुनिया में जितना छल.... कपट....झूठ....धोखा....प्रपंच शब्दों ने किया है.....इतना तो तमाम दूसरी चीजों ने मिलकर भी नहीं किया होगा....जिस बात को हमें व्यवहार से समझाने के लिए महीनों और सालों लग सकते हैं...वह हम मशीन की तरह शब्दों से फौरन कह देते हैं....और यहीं से शुरू होता है शब्दों का छल....सुंदर लड़की देखी नहीं .....कि उससे प्यार हो जाता है....और अगर वो हमारी बात सुनने को तैयार हो जाए तो हम फट से कह दें..कि अब तुम्हारे बिना जिंदा रहना मुमकिन नहीं...मैं देखता हूं...कि दिल्ली के मैदानों में संत समागम होते हैं...लाखों लोग कभी गीता तो कभी रामायण सुनने जाते हैं.....इसी तरह हजारों संत दुनिया को सुधारने के लिए बोलते ही जाते हैं....लेकिन उनके शब्द असर ही नहीं करते हैं...हमारे समाज में अब सुधारवादी बातें गीता पर हाथ रखकर कसम खाने जैसी हो गई हैं.....जिसका न हमें अर्थ पता है और न ही उसका असर...सिर्फ एक रस्म हैं...
लकीरों और गुदना से अपनी बात समझाने वाली पूजा अब हिंदी के शब्दों को खूब लिखती भी हैं और बोलती भी हैं....उसकी लिखी हुई उम्दा और फर्राटेदार अंग्रेजी सुनकर दादी की झुर्रियां भी चमकती हुई दिखती हैं...लेकिन पूजा की वह लकीरों वाली चिटठी हमें आज भी किसी रामायण या गीता से कम कीमती नहीं हैं...उसे में संजों कर रखे हूं.. शायद उस दिन के लिए जब शायद शब्द भी हमारा साथ छोड़ देगें...रिश्तों की बेईमानी....नंगानाच करती हुई बाजार बाजार दिखेगी...जब अपनेपन के अवशेष सिर्फ शब्दों में खंगालने पडेगे....टूटते संबंध किसी शब्दों के बांसों पर तंबू की तरह लटके होगें...उस दिन शायद जब में बिलकुल अकेला रहूंगा...उस दिन तक पूजा की इन लकीरों को पढ़ता रहूंगा...वो गुदना क्या कहता है...मैं सुनता रहूंगा...शायद भगवान एक क्षण को भी मुझे निश्चलता की भाषा कभी सिखा दे तो में इसे पढ़ लूंगा...वर्ना प्रेम और अपनेपन की इस भाषाई दुनिया में अभी तक मैं निरक्षर हीं हूं ..

Monday, April 26, 2010

डायबिटिक बुआ कहती है...भगवान के प्रसाद में शक्कर नहीं होती

अपनी बुआ कहती है कि भगवान के प्रसाद में जो लड्डू मिलता है....उसमें शक्कर नहीं होती....अगर कोई खुशी से मिठाई खिला रहा है तो मना नहीं किया जाता ....उसका दिल टूट जाता है... और दादी ने अगर मगौड़ी, पकौड़े या फिर दही बड़ा बनाए हैं तो एक आध चखने में बुराई नहीं है...हां और अगर कोई समोसा ले आया है तो एक खाने में शक्कर इतनी नहीं बड़ जाएगी कि हाय तौबा मचाई जाए..यानि हर बार मिठाई या फिर तेल की चाट खाने की एक वाजिब वजह है उनके पास ...वर्ना वे संयमी है......काफी परहेज से रहती है....
हमारा घर संयुक्त परिवार हैं...लिहाजा बचपन से ही फर्क कर पाना मुश्किल था कि कौन मां और कौन बुआ...कौन दादी और कौन चाची....सभी से एक जैसा ही रिश्ता था...बहुत बड़े तक हमें अपनी बड़ी बुआ भी मां ही लगती रही...वे ही मुझे पढ़ाती थी....वे ही मेरी स्कूल जाती...और कपड़े भी वे ही लिवाती थी...जब कुछ समझदार हुआ...तब पता चला कि बुआ और मां अलग अलग होती हैं...लेकिन फिर अपन से ये फासला बनाया न गया.....से वे आज भी मां...बुआ...दादी और बहिन हैं...उनका सीधापन और मासूमियत इतनी कि हमारा सबसे छोटा भाई जो अभी कुछ ही सालों का हैं...वो भी उनके साथ मजा कर लेता है...पिछली बरसात में उसने इतने भरोसे के साथ कहा कि बुआ बाहर भीगने आजाओं मीठे पानी की बारिश हो रही है....बुआ को हमारे पिता से लेकर जीवू तक चिढ़ाते हैं...उन्हें आप कितना भी नाराज कर ले....किसी भी बात पर नाराज कर ले....लेकिन दो गर्म समोसे उन्हें वापस आप तक उतना ही नजदीक ला सकते जितनी दूर वे गुस्से में गई थी....
पश्चिम में एक विचारक हुआ है..फ्रायड....जो कहता था कि जिस बात को आप जितना दबाएंगे...बात उतनी ही तेजी से बाहर निकलेगी...रजनीश भी एक जगह कहते है कि विचार को अगर अभिव्यक्ति न मिले तो वह कुंठा बन जाता है....शायद हर शक्कर की बीमारी वाले मरीज को मीठी चीजें ज्यादा पसंद आती..शायद इसीलिए कि उसे मनाही होती है...या फिर जो चीजे हमारे अंदर कम होती है...उसकी पूर्ति के लिए मन न जाने कितने बहाने बनाता है....हम अपने जीवन में भी ऐसे कई काम करते हैं...जिन्हें हम अंदर से सही नहीं मानते..लेकिन करते ही नहीं उन्हें सही ठहराते हुए करते हैं...जैसे हर कमजोर आदमी गुस्से में ज्यादा जोर से गाली बकता है...मारने की धमकी देता है.....हर व्याभीचारी...नैतिक मापडंढो की बाते करता है...कांग्रेस पार्टी लोकतंत्र की और बीजेपी मर्यादा की बातें अक्सर करती हुई दिखती हैं...जैसे राहुल गांधी दलितों के घर सोते हैं...हमारे नेता तो पूरी तरह से इंमानदार होते है ...ये अलग बात है कि उनके बच्चें या फिर उनकी तीसरी या फिर चौथी प्रेमिका.. अक्सर फायदा उठाने वाली कंपनियों में मुलाजिम होती हैं....
किसी ने कहा है कि सच भी कई तरह के होते हैं...एक मेरा सच...एक तेरा सच और एक जो सच हैं...लेकिन झूठ गजब की चीज हैं...वह एक ही होता है...मेरा भी ...तेरा भी है...और वह अपना भी...जब हम कोई बहाना बनाते है या फिर कोई झूठ बोलते हैं तो हम मानकर चलते हैं कि हम अपना झूठ तुम्हारे लिए सच बनाकर बोल रहे हैं...और कोशिश भी करते है कि हमारा झूठ सामने वाले का सच हो....मुझे नहीं पता कि ये मेरी बुआ की मासूमियत है या उनका बहाना ....लेकिन में गणपति से प्रार्थना करूंगा कि अगर तेरे होने में सत्य है तो कम से कम इतना तो कर ही दो कि जो लड्डू तुझे प्रसाद में चढ़ाकर मेरी बुआ खाती है..उसमें शक्कर न हो...मैंने सुना है तुम्हारे पिता शिव ने समुद्र मंथन के समय सागर का पूरा विश पीकर नीलकंठ हो गए थे....तुम क्या मेरी बुआ के लड्डू से सिर्फ शक्कर नहीं खा सकते...हैं गणपित अपने होने का सिर्फ इतना ही हमें फायदा हमें दे ....दे उस लड्डू का मीठा जहर कम करे दे..जिसे मेरी बुआ तेरा प्रसाद समझकर खाती है...

Sunday, April 25, 2010

दादी का खोटा सिक्का और पाठकों का शतक

खोटे सिक्के और आदमी में शायद यही फर्क हैं। बाजार में कई बार आदमी साबुत होते हुए भी नहीं चल पाता है। जबकि सिक्के में चलने की गुजाइंश हमेंशा बनी रहती है....बशर्ते वह साबुत हो...पता नहीं अपन बाजार में चल क्यों नहीं पाए...यह कहना अभी शायद जल्दबाजी होगी...पर यह सच है कि हम बाजार में खनकते हुए सिक्के की तरह चले नहीं....जिस तरह से लोग फटे हुए नोट को चलाने की कोशिश जलेबी की दुकान से लेकर पेट्रोल पंप तक पर करते हैं.. समय बदल बदल कर....कभी...दिन को तो कभी शाम को और रात में तो कई बार किसी धंधेबाज को धोखा देने की कोशिश करते हैं...वैसे ही जिंदगी ने अपन को चलाने की कोशिश तो कई बार की...लेकिन अपन ही नहीं चल पाए.....
12 वीं पास करके हमारे तमाम दोस्त कोई पीएमटी तो कोई पीईटी की लाइन में लग गया....लेकिन उस दौर में हम लाइन के बाहर ही खड़े रहें....बीए पास हुए तो साथियों ने पीएससी से यूपीएससी तक सब को खंगालने की कोशिश शुरू कर दी...हम फिर पीछे ही खड़े रहे...एमए पास हुए तो साथ के सभी बैंक में किलर्क से लेकर तमाम तरह की नौकरियों के फार्म भरते पोस्टल आर्डर खरीदते हुए व्यस्त हो गए....हम फिर भी किसी दुकान पर गए ही नहीं....एमजे किया और समाज सुधारने की बाते हांकते लोगों के रैला से दूर ही रहे.....धीरे धीरे साथियों के नौकरियों के रिजल्ट आने लगे...कोई मंत्रालय में क्लर्क होने लगा तो कोई मास्टर....कोई बैंक में चला गया तो कोई सरकारी पद पर आसीन हो गया...लोग मेरी दादी के पैर छूने आते...अपनी नौकरी के बारे में बतियाते...और मेंरे निक्कमेंपन पर सहानूभुति जता कर ही जाते....फिर नौकरियों के हिसाब से मेरे दोस्तों की शादियां होने लगी....फिर वे ही लोग जो नौकरी का आशीर्वाद लेकर गए थे...अब शादी के लिए बुलावा देने आने लगे.....मैं शायद उनसे बहुत पीछे होता गया...लेकिन मुझे लगता था किसी का आगे होना या मेरा पीछे रह जाना ....तभी तय होगा जब हमारी दिशा एक हो....जब हमारी मंजिल एक हो...मुझे बचपन से ही लगता था कि मैं हर बेजुबान की आवाज बन सकूं....हर थके हुए..हारे हुए आदमी का होंसला बन सकू....जीवन में उम्मीद खोजती हर कमजोर महिला की उम्मीद बन संकू...कचरे में अपना जीवन खोजते बच्चों की आँखों में एक चेतना जगा सकूं....सो अपन अखबार नवीस हो गए......
जिंदगी में कई बार हम अपनी मंजिल तलाशते तलाशते कई जीचें खो भी देते हैं....वे चीजें कीमती थी या सस्ती उनका हिसाब हम इसलिए नहीं कर सकते कि वे हम खरीद ही नहीं पाए...न अखबारों में छपे रोल नंबर की लिस्ट में अपना नाम आया...न साथियों के घर नौकरी लगने पर मिठाई लेकर गए....न ही अपना नाम लेकर किसी दोस्त को उसके मां बांप ने डाटा होगा....न मेरे माता पिता को स्कूल में बुलाकर सम्मानित किया गया...और शायद वह अकड़ जो ठीक शादी के पहले माता पिता की समाज में होती है...वे भी उससे वंचित रहें होगें....क्या करें...सिक्के का खोटा होना उसकी नियति हैं या फिर टक्साल की लापरवाही मुझे पता नहीं.....लेकिन आज मुजे कुछ अच्छा लगा जब मेरा ब्लाग सौ से ज्यादा लोगों ने पढ़ा।.शतक यह शब्द हमने कभी सचिन के लिए तो कभी सुनील गावस्कर के लिए ही सुना था..मुझे लगा कि दादी को फोन करके बता ही दूं....कि एक शतक हमने भी मारा है....हमारे चाहने वाले अब इस दुनिया में सौ से उपर हैं...यह सिलसिला जारी रखिएगा...पढ़ने का मुझसे मोहब्बत करने का...मुझे बाजार की न सही आपकी जरूरत होगी....चलने के लिए नहीं..... सिर्फ जताने के लिए कि खोटे सिक्के बाजार में चलते न हों ...लेकिन कुछ लोग आज भी ऐसे हैं... जो इनका संकलन करते हैं....

Saturday, April 24, 2010



गर्मी की छुट्टियां और उसका नानी के घर आना

गर्मी की छुट्टियां। सभी को अच्छी लगती है...लेकिन मेरे लिए किसी वरदान से कम न थी...इन गर्मियों की छुट्टी में वो अपनी नानी के घर आती थी...उसके आते ही मेरी गर्मी की छुट्टियां शुरू होती ...और उसके जाते ही खत्म....वैसे आमतौर पर बच्चों की गर्मी की छुट्टियां रिजल्ट आते ही शुरू हो जाती है...लेकिन मेरी परीक्षा खत्म हो जाती....रिजल्ट आ जाता...मैं अच्छे नंबरों से पास भी हो जाता....लेकिन मेरी छुट्टियां कब शुरू होगीं.. पता नहीं होता था...क्यों की वो रिजल्ट की तरह 30 अप्रैल को नहीं आती थी...लेकिन मई शुरू होते ही....मानो मुझे उसकी आहट सुनाई देने लगती थी.... और उसका इंतजार मेरी दिनचर्या का हिस्सा होता था....दिन भर न जाने क्या क्या बहाने सोचता था...कि किसी न किसी तरह उसकी नानी के घर हो आंऊ....और तसल्ली कर लूं....उसकी नानी धार्मिक थी...यानि पूजा पाठ करती थी...मंदिर जाती थी....सो अपन को एक बहाना था....नानी को सुबह सुबह फूल दे आता...राम राम कर आता ..और इस बहाने पूरा घर खंगाल आता....मां से पूछ पूछ कर नानी को कभी अचार...कभी पापड़ और न जाने क्या क्या दिन भर उनको पहुंचाता रहता...कोई पता पूछने आए...तो घर तक ही पहुंचा आउ...या फिर शाम को उनसे रामायण या फिर महाभारत की कहानियां सुनने जाता था...लेकिन वो कहांनियां आधे मिनिट बाद ही उबाऊ हो जाती थी..जैसे ही पता चलता कि एक दिन और खत्म हुआ..वो नहीं आई....फिर किसी दिन अचानक आम पर बौर की तरह वह चली आती ....हर साल वह कुछ बदल सी जाती...शायद उसकी उम्र बड़ती जाती....वह फ्राक से सलवार सूट पर आ गई..और फिर वह अपने दुपट्टे पर विशेष ध्यान देने लगी...वह उन जेठ की दोपहरी में सावन की तरह आकर मेरे आंगन में बरसती थी... ..और मेरी छुट्टियां शुरू हो जाती.....नए नए खेल...नई नई बातें..नई नई कहानियां ....जिंदगी ही जैसे चमेली की तरह महक उठती..
टूटने.....फूटने या गुमने के डर से ....में पूरे दस महीने किसी के साथ भी कंचे नहीं खेलता था.....उसे दिखाने के लिए साल भर में सील लगे डाक टिकिट जमा करता था तो कभी पुराने सिक्के....तो कभी माचिस की खाली डिब्बियां...या फिर चमकनी कागज...प्लास्टिक के रंगीन टुकडे....कुछ अजीब सी चीजें...जिन्हें वो अपने खेल में इस्तेमाल कर सकें...मैं साल भर जमा करता.. मैं पतंग उड़ाने के लिए हर समय सद्दी को माजां बनाता रहता था....हमारे शहर में मिलने वाला एक विशेष तरह का मिरचुन उसे पसंद था...उसके लिए पैसे जमा करना...उसे लाना और उसे खिलाना अपने लिए चारों धाम करने जेसा था...उसके घर में नल नहीं था...सो वो हमारे घर से पानी भरने आती थी....मैं इन दो महीनों में अपनी मां की मदद करता पानी भरने में...मेरी मां या तो इतनी सीधी थी....को वो मेरी इस मदद की मंशा कभी समझ ही नहीं पाई....या फिर इतनी समझदार कि उसने कभी जाहिर ही नहीं होने दिया...कि वो समझती है....शुरूआती दिनों में ही एक रोज उसके घर की दोपहर में ही बिजली चली गई....और में उसकी नानी को अपने घर ले आया....मेरे घर के बड़े से कूलर के सामने उसकी नानी मेरी दादी के साथ आराम करती रहीं...उसकी मां मेरी मां के साथ और हम सिर्फ बातें करते रहे....जाते वक्त उसने कह दिया कि कितना अच्छा होता कि अगर हमारे घर की लाईट रोज जाती....हम छोटे थे...लेकिन इतनी समझ न जाने कहां से आ गई थी...कि हर रोज उसके घर की लाइट दोपहर को चली जाती .....और में उसकी नानी को अपने घर ले आता....नानी से कहता कि दादी ने बुलाया हैं....और दादी से कहता कि नानी को गर्मी लगती है...और दोनों लोगों ने कभी भी एक दूसरे से इस बारे में जिक्र नहीं किया दोपहर हमारी अच्छी कटने लगी....जैसे ही हमारे बुजुर्ग जागते उसके कुछ देर बाद ही उसकी लाईट आजाती और वह चाय के साथ ही विदा हो जाती है...हमारी छत एक थी....वो अपने भाई बहिनों में सबसे बड़ी और में अपने परिवार में...शाम होते ही हम अपनी छत पर पानी डालते और बिस्तर बिछा लेते फिर कहांनियां सुनाते...हमारे भाई बहिन कभी दो तो कभी चार कहांनियां तक जागते रहते....आखरी व्यकित के सोते ही हमारी कहानियों के पात्र बदल जाते.....और फिर हम कई बार सुबह तक बतियाते ही रहते....
वे दस महीने जो उसके इंतजार मे कटते....और वे दो महीने जो उसके साथ गुजरते....जिंदगी के इस चक्र में हमें कभी समझ में ही नहीं आया....न पता चल पाया....कि हम दोपहर में गुड्डी गुड्डी...राजा मंत्री चोर सिपाही और सांप सीड़ी खेलते खेलत....कब घर बसाने लगे...कब जिंदगी..जिंदगी खेलने लगे...रात में सोते समय कहानिंया बदलते बदलते हम कब चिठ्ठियां बदलने लगे....हमारी जिंदगी गर्मियों की छुट्टियों में ही बढ़ने...संभलने....गुनगाने और नांचने लगी....लेकिन फिर एक गर्मी की छुट्टी वो नहीं आई...उसके पिता का पत्र आया मेरे पिता के लिए...वो भी हल्दी लगा....हुआ....मेरी आँखों ने सिर्फ हल्दी लगी ही चिठ्ठी देखी...बाकी कुछ भी छलक आए आसुंओं ने देखने नहीं दिया....गर्मी की छुट्टी शुरू होने से पहले ही उसकी नानी और नाना.....शायद तैयारियों के लिए उसके शहर ही चले गए....वो नानी का घर जिससे मुझे पूरी गर्मी की छुट्टियां कभी मंदिर की आर्तियां तो कभी आजानें सुनाई देती थी....खंडर रहा ......एक सन्नाटा पूरे घर पर पसरा रहा.....और उसके बाद मेरी जिंदगी में न कभी वो आई और न गर्मी की छुट्टियां....

Friday, April 23, 2010

राजनैतिक पाठक नहीं...अपने कुटुंबी चाहिए....

मैं पेशे से पत्रकार हूं...इलेक्ट्रानिक मीडिया में रिपोर्टर हूं...लिहाजा हर आदमी को लगता है कि मैं ब्लाग भी राजनीति पर ही लिखूंगा...लेकिन यह मैंने राजनैतिक पाठक जुटाने के लिए लिखना शुरू नहीं किया है...मैं अपना कुटुंब बनाना चाहता था ..मैं ऐसे लोगों का समाज पनपाना चाहता हूं... जो मेरा हो...जो मेरी परेशानियों को सुन सके...अपनी कह सकें...हम अपनी बातें एक दूसरे को बता सकें...अपनी भावनाएं एक दूसरे को जता सकें...अपने दुख अपने सुख...अपने मजे....अपनी मौज...अपने दोस्त...अपनी शैतानियां....एक दूसरे के साथ साझा कर सकें....हमारी अपनी जिंदगी भी तो हैं...फिर हम हर चीज में राजनीति और राजनैताओं को क्यों घसीटना चाहते हैं...हम हर दम अपनी जिंदगी का हिस्सा उन्हें क्यों बनाना चाहते हैं..और उनकी जिंदगी का हिस्सा क्यों बनना चाहते हैं....हमारे पास भी महिला मित्र हैं....और आपके पास भी होगीं...फिर हमें शशि थरूर की महिला मित्र में इतनी दिलचस्पी क्यों हों...शायद हमारी यही कमजोरी हमें दिन ब दिन छोटा बनाती जाती है...और वे अपनी ऐठ में और ज्यादा अकड़ते जाते हैं.... इतना ही नहीं हमारी इन्हीं कमजोरियों का फायदा बाजार भी उठाता है....और हमारी भावनाओं को भी बाजार में लाकर उन्हें धंधे की वस्तु बना देता है...खरीद फरोख्त करता है...मुनाफा वसूली करता है....हमें अपने दोस्तों की शादी में मजा आएगा...अपने चाहने वालों की शादी का हम हिस्सा होगें.....हमें इस बात से क्या मतलब हैं कि राहुल महाजन किससे और कब शादी करेगा...लेकिन धंधेबाजों का खेल देखिए...हमें इस तरह से इस्तेमाल करते हैं कि हम उनके साथ साथ चलते हैं....उनके साथ साथ हंसते और रोते भी हैं..हमने कई घरों में जाकर देखा है....लोगों को राहुल महाजन की शादी का ऐसे इंतजार था जैसे उनके परिवार में ही शादी हो रही हो...
हमनें अपनी बिरादरी में भी देखा है....हमारे साथियों की इतनी ज्यादा इच्छा होती है कि उनके घरू कार्यक्रमों में भी नेताओं की मौजूदगी रहे...हमारे साथी कई रिपोर्टर चाहते है कि उनकी शादी में मंत्री या फिर मुख्यमंत्री जरूर आएँ...यह न्योता स्वाभाविक तो नहीं ही होता है...और इसे अंजाम देने के लिए हमें अपनी गरिमा से कई इंच नीचे गिरना होता है...हम किसी को बुलाए और वो आ जाए....यह स्वाभाविक है...लेकिन अगर हमें किसी नेता को बुलाने के लिए गिडगिड़ाने जैसा स्वर इस्तेमाल करना पड़े तो शर्म सी लगती है...आप बाकायदा उसके लिए होम वर्क करते हैं...उनके सूचना अधिकारियों से गिड़गिड़ाते हैं...उनके पीए के सामने लगभग विनय करते हैं...बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि आपके बुलाने पर वे आते हैं या नहीं ...बात है आप किस कीमत पर उन्हें अपने कार्यक्रम का हिस्सा बना रहे हैं....और अगर वे आकर आपके कार्यक्रम का हिस्सा बन भी जाते हैं... तो क्या आप कल उन्हीं लोगों के खिलाफ जनता की तरफ से खड़े हो सकेंगे...हम छोटे छोटे सौदों में हम अपना क्या बेचकर क्या खरीदते हैं....हमें इसका हिसाब भी करना होगा...मैं पूरी कोशिश करूगां... कि यह ब्लाग हमार ही रहें...यानि आपका और मेरा...हम अपनी कहें...और आपकी सुने...बाकी सब चीजों के लिए तो इतनी जगह है ही..जहां सब कुछ चल रहा है...लिखा जा रहा हैं....आईपीएल के भ्रष्टाचार पर दूसरी जगहों पर कागज काले हों हम अपना ब्लाग काला क्यों करें...इसे आपके अपनेपन से उजला ही रहने दे......

Thursday, April 22, 2010

हवा में यू हीं बकी थी पहली गाली

ये कितना अच्छा है कि विचार व्यवस्थित नहीं होते....वे किसी अनुशासन को भी नहीं मानते....लिहाजा वे कभी भी कहीं भी और किसी भी विषय के आ सकते हैं....आज जब में खबरों को व्यवस्थित करने में लगा था...तभी मुझे याद आया कि पहली बार हमने गाली कब बकी थी.....और मानों वह क्षण हमें किसी तमगे की तरह याद है....शायद इसलिए कि मुझे पहली बार लगा था...कि अब ऐसा भी कोई काम है...जो में अपने पिता या दादी की मदद के बैगर कर सकता हूं....मेरे पास करने के लिए यह पहला ऐसा काम था...जो मै अपने दोस्तों के साथ कर सकता था...सुरक्षा के उस बाड़े के बाहर जो मेंरे परिवार के लोगों नें मेरे चारों तरफ बनाया था....
मेरी दादी पढ़ाई लिखाई को लेकर शुरू से ही काफी सतर्क रही....लिहाजा हम सागर शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने गए....पर मुझे याद है कि हमने पहली गाली अंग्रेजी की नहीं... हिंदी की ही बकी थी...वह भी ठेठ बुंदेलखण्डी में...हमारा बचपन अजय तिवारी और दीपक नामदेव के साथ कटा....अजय हमसे कुछ बढ़ा था...सो उसके दोस्त और उसकी बातें हम लोगों से कुछ कदम आगे की थी...अजय ही हमें अपनी स्कूल पं मोतीलाल नेहरू जो शहर के बीच में ही थी दिखाने ले गया...एक खुला मैदान और फिर एक ....इमारत ....उसके बीच से निकलते हुए...अजय फिर दीपक और फिर हमने जोर से हवा में गाली बकी....मेंरी गाली सुनकर अजय ने रुककर पूछा भी था...किसको गाली बकी तुमने....और मेंने उसे पूरी इमानदारी से पूछा था...कि गाली बकने के लिए क्या किसी का होना जरूरी है...क्या हम खुद ही गाली नहीं बक सकते...वह हंसने लगा...उसने कहा लेकिन गाली किसी के लिए तो हो...मुझे ये बात समझ में ही नहीं आई.....गाली बकना था...सो बक दी....और गाली बककर हम बढ़े हो गए...अब गाली किसी को दी जाए...ये जरूरी क्यों हैं......लेकिन इतने सालों बाद आज मुझे लगता है कि काश ये बात मुझे आज फिर याद होती कि हम सिर्फ गाली हवा में बक सकते हैं....अपनी गुस्सा का इजहार अपने आप से कर सकते....हमें खीज उतारने के लिए कोई क्यों चाहिए....हमें अपनी कुंठा अभिव्यक्त करने के लिए एक वस्तू क्यों चाहिए....समाज से थक हार कर वापस घर लौटने पर चिल्लाने के लिए और ये अपने को जताने के लिए कि अभीतक हम पुरूष ही हैं..एक सीधी सादी अदद पत्नी क्यों चाहिए...हमें ये सहारे क्यों चाहिए...काश मेरी वह मासूमियत लौट आए....और में फिर गुस्सा इजहार करने के लिए अजय और दीपक के साथ हवा में ही गाली बक सकूं...हवा में ही अपने आप चिल्ला सकूं...अपनी कुंठाएँ अपने ऊपर ही अभिव्यक्त कर सकूं...अपनी हार अपनी जीत खुद पर ही जाहिर कर सकूं...क्या वह लौट सकती है....मुझे पता नहीं...आपको पता हो तो तरीका मुझ तक पहुंचाइएगा...

Wednesday, April 21, 2010

अड्डेबाजी वो भी दिल्ली में....

अड्डेबाजी और वो भी दिल्ली में. .....सुनकर अजीब लगा होगा न आपको.....वो भी इस तरह से कि पुराने कालेज के दिन याद आ जाए......संयोग से हम और एम्स में कार्डियक सर्जन डॉ शिव चौधरी....स्किन के डाक्टर डॉ विनोद खेतान और हड्डियों को जोड़ने वाले....ड़ॉ कौशल एक संयोग से मिले....और अपने आगे के कार्यक्रम भुलाकर अड्डा जमाकर बैठकर गए....अड्डेबाजी की कुछ विशेषताएँ होती है...जैसी लगातार रोचक विषयों का आते रहना....बैठने के लिए माफिक जगह होना....समय समय पर खाने और पीने की पूर्ति होते रहना...और बैठकी में कोई रोक टोक न हो...सो वो सभी चीजें हमारे माफिक थी...हमारी बाते चलती रही कबीर से होती हुई सचिन तेंदुलकर तक सभी को हमने खंगाला...गांव की पांरपरिक जिंदगी से होते हुए हम लोग कैसे दिल्ली जैसे महानगर में आकर रहने लगे और यहीं को होते जाते हैं..फिर भी हूक है जो अपनी अपनी पुरानी जिंदगियों की याद दिलाती रहती है..
हमें याद आया कि कैसे कालेज के दिनों में हम लोग यू ही अड्डेबाजी करते .....और गप्पे ठोकते ठोकते आधी रात कर लेते...लेकिन बातों का मजा कुछ कम नहीं होता था..फिर कोई एक प्रस्ताव करता और बाकी उस पर सहमत हो जाते कि अब घर नहीं चलते हैं....किसी ढाबे पर चलते हैं....घर पर झूठे फोन करते कि हमारी क्लास का एक लड़का हास्टल में रहता है...बहुत बीमार है....उसके घर के लोग सुबह तक ही आ पाएंगे...रात भर हमें ही रुकना होगा...और फिर गप्पों का सिलसिला जारी रहता....कई बार ऐसा भी हुआ....कि अड्डेबाजी का मन हफ्ते में दुसरी बार हुआ तो फिर वह जो बीमार हुआ था...वह मर जाता था....और हम लोग रात भर फिर गप्पे सुनते सुनाते रहते....इस तरह न जाने कितने हास्टल में रहने वालें हमारे दोस्त बीमार या फिर मर गए......हां दिनभर हमारे घर वाले जरूर हास्टल में मरे हुए लड़के का दुख मनाते रहते थे...अब तो जिंदगी कितनी बदल गई है....दफ्तर से थककर जल्दी से घर आने का मन होता है...कब खाया...कब सो गए पता ही नहीं चलता..हां कभी कभार वे दोस्त जरुर याद आते हैं.. सरकारी छुट्टी के दिन उनके फोन भी आते हैं....जिनके साथ हमने अपनी जिंदगी का कितना अच्छा समय गुजारा...लेकिन यह मानसिकता कस्बाई है...और दिल्ली महानगर....यहां हम मजा के लिए कुछ भी नहीं करते...अड्डा भी नहीं जमाते...हां कभी संयोग से ही ऐसे कुछ लोग मिल जाते हैं जिनके साथ आप गप्पे ठोक सकते हैं....भगवान करे....आपको भी कोई डॉ खेतान..कोई शिव चौधरी या फिर कौशल मिले....जिनके साथ बैठकर आप भी पुराने दिन याद कर सकें....हां पत्नियों के फोन से कैसे निपटेंगे ये आपको ही सोचना होगा....क्यों कि ये हुनर अभी हमें नहीं पता है.....

Tuesday, April 20, 2010

अनुशासन और मजा

मैं पहले से ही कहता था....कि रोज रोज लिखना अपनी कूबत में नहीं है...क्या किसी भी तरह का अनुशासन मजा खत्म करता है...जैसे लिखना निहायती व्यक्तिगत काम है...जब मौज में हो...तो लिख दो...या फिर कोई घटना या बात इतना दुखी कर जाए...कि कुछ लिखने की इच्छा हो तो लिख दो...लेकिन हर रोज लिखने के लिए लिखो...ये काम कुछ कठिन सा लगता है...लेकिन मैंने सुना है कि अधिकतर सफल लेखक रोज रोज लिखने के लिए बैठते ही थे...और कुछ न कुछ लिखते ही थे...शायद यही एक वजह है कि अच्छे लेखकों के भी कुछ काम हमें पठनीय नही लगते..या फिर उतने रोचक नहीं लगते...जब मजा भी कर्तव्य बन जाए...तो कर्तव्य निभाना बोझ लगता है....ये अच्छी बात है कि कर्तव्य निभाने में भी मजा आता हो....मेरे घर के ठीक नीचे एक पार्क है....में कभी कभार जब कभी घर जल्दी आ जाता था...तो उसमें यूं ही घूमने चला जाता था...पार्क के सुंदर वृक्ष मुझे मजा देते थे...कई तरह के फूलों की खुशबू भी आती थी...और घूमने का एक अलग तरह का मजा भी देता था....लेकिन फिर मेंने सुंदर और स्वस्थ्य दिखने के लिए नियम बनाकर टहलना शुरू कर दिया...अब में सिर्फ पार्क के चक्कर लगाता हूं...न अब फूलों में खुशबू है और न हीं पार्क में सुंदर वृक्ष..हां अब हाथ में घड़ी होती है...जो बताती है कितने चक्कर और लगाने है..और मेंने एक पेट को नापने के लिए टेप भी खरीद लिया है....जिससे अपना बेशर्म पेट नापता रहता हूं..जो कम हीं नहीं होता...

Monday, April 19, 2010

हर्ष को विदा करने जो आया वही रोया

हर्ष को विदा करने आज जो भी आया...वही रोया... हमें खबर पहले से थी...कि सोमवार को दो बजे लोधी रोड पर हर्ष को विदा करना है....अंतिम सफर के लिए...दिल्ली कैबिनेट पर खबर करनी थी...और उससे संबंधित बातें दफ्तर में भी लिखवानी थी...लिहाजा हम और रवि त्रिपाठी दोनों देर से पहुंचे....हमने अपने हिस्से की लकड़ी लगा दी और दूर आकर टिक गए...पास की एक बैंच पर चुपचाप डॉ शिव चौधरी और डॉ कौशल भी बैठे थे...हम वही ठिठक गए.....न वे लोग हम से कुछ बौले न हमसे कुछ बतिया गया....हम सिर्फ लकड़ी के जमावड़े को देखते रहे और कुछ देर तक तो कोशिश भी करते रहे....पर फिर अपनी डबडबाई आंखों से आसूं बहने ही लगे....न वे रुके.....और फिर न अपन ने कोशिश की....

हर्ष का बनाया हुआ ही यह परिवार था...जो आज वहां मौजूद था...जितने डाक्टर थे उतने ही मीडिया कर्मी....वे लोग भी थे...जिनकी हर्ष ने कभी बीमारी से लड़ते वक्त मदद की तो कभी दुख से टूटते लोगों को सहारा बना...अजीब स्थिति थी...वहां मौजूद हर आदमी एक शून्य में गुम था...न कोई किसी से बतियाता....न कोई किसी को समझाता... कौन समझाए...किसे समझाए....जो खुद ही दुखी हो वो किसी और को सहारा कैसे दे...मैंने इस तरह का सन्नाटा शायद जैसी जीवन में पहली बार देखा...नहीं तो अपन भी कई लोगों के अंतिम संस्कार में शामिल हुए हैं...लोगों को शामिल होने की औपचारिकाएं निभाते देखा है....हंसी ठहाके लगाते और मजाक करते भी देखा है....लेकिन जो लोग हर्ष को विदा करने आए थे...वे तो अपने आप से बोलने को राजी न थे।....इन्हीं लोगों के साथ हमने आरक्षण का आंदोलन कवर किया...वेणू गोपाल के साथ कंधा से कंधा मिलाकर इन्हीं को लड़ते देखा और उस समय के स्वास्थ्य मंत्री और सरकार से ताल ठोकते इन डाक्टरों को कितने बार देखा...न कभी टूटे ये लोग...न कभी डरे ये लोग....लड़ते रहे.....पहली बार हमें इस बात को लेकर हैरत होती थी....कि डाक्टर भी अपना आला कमरों में तांगकर इस तरह ताल ठोकते हैं....और खुले मैदान में किसी भी लड़ाई को इस तरह से लडते हैं....आज उसी टीम को इस तरह शोक में टूटा हुआ...बिखरा हुआ...देखते हुए कैसे न आँखे डबडबाए...

टाइगर सिंह...यानि डॉ मनोज सिंह...जो हमेशा किसी भी तरह के काम में इंतजाम करते हुए नजर आते है....इधर से उधर भागते तो आज भी थे....लेकिन मानो लगता था कि ये आदमी सालों से चुप है...आज न हम लोगों के लिए उनके जुबान पर गालियां...न वह पुरानी मुस्कराहट....डॉ खेतान भी एक दम चुप...जैसे किसी ने मानो उनकी ताकत ही छीन ली हो....चाहे शंपा भाभी हो या फिर डॉ अनिल सभी तो थे....ये वही लोग तो है...जो हर्ष के करीब हमेशा देखे जाते थे...विनोद पात्रों भी था...हमें याद है उन दिनों की जब विनोद ने हमारा परिचय कराया था...ये हर्ष हैं.... हमारी तरफ से मीडिया से बात किया करेगा...आज लगा कि विनोद को रोक कर पूंछ ले कि तुम तो कहते थे कि हर दम उपलब्ध रहेगा...मीडिया से बात करने के लिए....तो फिर आज ये मौन क्यों है...हम सब इतनी तादाद में आए हैं .....फिर ये बात क्यों नहीं करता...झूठ तुमने बोला था...या हर्ष ही हमें धोखा दे गया...देखते ही देखते सालों की जिंदगी का खेल किस तरह से मिंटों में खत्म हो जाता है...हमने रवि त्रिपाठी से कहा कि एक बार फिर चलो...हम दोनों अंदर गए....हर्ष को प्रणाम किया....कुछ देर रुके .....और बाहर निकल आए...न किसी से हाथ मिलाया न किसी से कुछ कहा...किसे कहते...क्या कहते ....किसको समझाते....क्या समझाते....हम सबने हर्ष को खोया. है..कुछ ने ज्यादा... कुछ ने कम.... अखिल भारतीय आयुर्विक्षान संस्थान यू ही चलता रहेगा....कल फिर कोई न आरडीए का अध्यक्ष होगा...और हमारे चैनल कोई नया हैल्थ रिपोर्टर...लेकिन हां...एम्स के बाहर से निकलते वक्त कुछ देर को ही सही लगेगा जरूर कि कोई हमसे रुठ गया है... जो पहचाना हुआ था....टाईगर सिंह के हर चने की फांक पर लगेगा कि हमसे कुछ छूट गया है.....कहने को तो अभी भी डॉ खेतान हैं...कौशल वहीं डॉ शिव चौधरी है...वह हम और वही एम्स लेकिन हम सब आज अधूरे से हो गए हैं....लगता नहीं कि यह हिस्सा जो तुम्हारे टूट गया है...यह मन का हिस्सा कभी भर पाएगा या नहीं..डॉ काले से पूछूंगा जरूर.....हम सबमें दिमाग के बारे में तो वे ही जानते हैं...

दादी का डर और वक्त की कीमत

दादी मेरी लापरवाहियों से जब कभी बहुत गुस्सा हो जाती थी....तो एक बात बहुत दुखी होकर कहती थी...बेटा तू वक्त की कीमत नहीं करता है...मुझे इस बात से डर लगता है कि कभी ऐसा न हों..कि वक्त तुम्हारी कीमत न करें....उनकी यह शिकायत कम और शायद डर ज्यादा था...वे हमें समाजिक साचों में एक सफल आदमी के रूप में देखना चाहती थी....शायद यही वजह थी कि उन्होंने हमें अग्रेंजी स्कूल में पढ़ाया ....वे कहती थी कि आने वाले सालों में जो अग्रेंजी नहीं जानेगा वह अनपढ़ कहलाएगा.....लेकिन मैं शायद न दुनिया के खानों में सही उतर पाया...और शायद न उनकी उम्मीदों पर...समाज डाक्टर, इंजीनियर...कलेक्टर या फिर एसपी और कम से कम किसी कालेज में प्रोफेसर को सफल मानता है...लेकिन अपन ने नौकरी कलम घसीटने की...यही काम अपन को भा गया....अब कभी जब दिल्ली की सड़कों पर डर लगता है या फिर नौकरी को लेकर मन कभी डरता है कि तो मन में दादी का डर खटकता है....

Saturday, April 17, 2010

हर किसी से पीछे होते हम

क्या आपको भी जिंदगी में कभी कभी लगता है....कि आप पीछे छूटते जा रहे हैं..और दुनिया तेजी से आपको हाशिए पर धकेलती हुई आगे निकलती जा रही है....ये बात और भी उलझाती है...जब हम सोचते हैं कि हमें पछाड़ कौन रहा है....वे कौन लोग है जिन्हें देखकर हमें लगता है कि हम पीछे होते जा रहे हैं... या फिर हर तेज भागते हुए आदमी से हम डरे हुए हैं... हर आगे निकलते हुए आदमी से अपने को हम खतरा महशूस करते हैं....शायद यह मानसिकता उन लोगों के साथ ज्यादा काम करती है...जिनके पास जीवन में कोई लक्ष्य ही नहीं होता...लिहाजा ये पता ही नहीं है कि हमें जाना कहां है...और किस गति से जाना है...लिहाजा हर तेज भागते हुए आदमी से हम अपने को हारा हुआ महशूस करने लगते है....और यहीं से हमारा आत्मविश्ववास भी कम होने लगता है...ये परेशानी शायद पीछे होने की नहीं...लक्ष्यहीनता की है...और हम जैसे लोग जो एक बेहोश जिंदगी जीते हैं...जिनके सामने न कोई मंजिल होती है...और न जीवन में गति लिहाजा हर तेज चलता हुआ आदमी हमें पीछे करता हुआ चलता है....मुझे लगता है हर व्यक्ति के जीवन में भले छोटा ही क्यों न हो लेकिन लक्ष्य होना चाहिए...जिसे हासिल करने के लिए वह अपने जीवन को गति मान रख सकें..

Friday, April 16, 2010

मौत सा अकेलापन

सुबह सुबह जब दिल्ली की खबरें छांट रहा था....तो एक खबर पर नजर रुक गई...दिल्ली के एक पॉश इलाके में एक व्यक्ति ने खुदकुशी कर ली...किसी की खुदकुशी अब हमारे लिए खबर नहीं होती...जब तक मरने की वजह कोई विशेष न हो .... खबर में कहीं लिखा था कि वजह बीमारी और अकेलापन था....मैं कुछ देर ठिठका लेकिन फिर दूसरी खबरों पर नजर दौड़ाने लगा....दिल्ली में बढ़ती गर्मी और रेडियशन का मामला ज्यादा महत्वपूर्ण था...सो उन पर अपने साथियों से बात करने लगा.....और फिर मीटिंग खत्म हुई....
मीटिंग खत्म होते ही चाय पीने की इच्छा हुई...लेकिन याद आया कि पत्नि तो घर में है नहीं...वह दिल्ली में बढ़ते बलात्कारों पर एक सेमीनार में शामिल होने गई है....लिहाजा अपने को अकेला पाया...चाय पीने और बनाने का मामला कठिन समझ में आया और इरादा बदल दिया..लेकिन फिर मुझे अकेलेपन में खुदकुशी की खबर बार बार दिमाग में घूमने लगी...जहां हम इस बात को लेकर परेशान है कि हमारे देश की जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है...हमारी गिनती अरबों का आकड़ा कब का पार गई है...ऐसे में कोई आदमी अकैला है....और वो भी इतना अकेला की मरने की सोचने लगे....ये तो हम और आप जानते है कि आदमी भीड़ में अकेला होता है..लेकिन शायद भीड़ हमें एक धोखा देती है...और उस धोखे के सहारे हम अपना काम चला लेते हैं...कितने बार होता है कि दिल्ली की सड़कों पर किसी व्यक्ति का accident हो जाए...कहने को तो हजारों लोग हर मिनिट निकलते हैं...लेकिन उसे अस्पताल पहुंचाने के लिए हम पुलिस का इंतजार ही करते हैं....अकेले तो हम उस भीड़ मे भी है...लेकिन चार दीवारी के भीतर का अकेलापन हमसे वह भीड़ का झूठ भी छीन लेता है..जो हमें सहारा दे रहा था...यानि जिंदगी में कई बार हमें सच का साथ नहीं ही मिलता है...लेकिन झूठ भी हमारे साथ नहीं देती एक भ्रम जो हम अपने चारों तरफ बुनते हैं...अगर वो भी तार तार हो जाए...तो फिर शायद हमारा जिंदगी से मोह ही खत्म हो जाता है...चीनी विचारक लाओत्से पर बोलते हुए रजनीश एक जगह कहते हैं कि हम अपने जीवन का हर पल यह सोचकर इनवेस्ट कर रहे है क हमारा आने वाला कल बेहतर होगा। और वर्तमान पल को नही जीते...जिसने पुरी जिंदगी ही भविष्य के लिए इनवेस्ट की हो और फिर उसका फल अकेलापन निकला हो तो व्यक्ति को लगता है कि हमने अपनी पूरी जिंदगी ही हार दी....हमारी समाजिक बनावट कुछ इस तरह की है...कि होश संभालते ही हम अपने बुढापे की चिंता करने लगते हैं...अच्छी नौकरी करनी है...ताकि रिटायर होने पर ठीक ठाक पैंशन मिले...और बुढ़ापा सुख से कटे...कहीं न कहीं बच्चों का भी यही आसरा होता है कि अच्छे से पढ़े लिखे...बढ़े होकर बेहतर नौकरी करे...ताकि मां बाप का बुढ़ापा सुविधाजनक रूप से कट सकें...व्यक्ति को लगता है कि जीवन में सबसे ज्यादा कष्ट बुजुर्ग होने पर ही है...लिहाजा उसके जीवन जीने का आधार ही उस कष्ट को कम करना है...हमारे कहा जाता है कि जो व्यक्ति जीवन भर अच्छे काम करता है उसका बुढ़ापा अच्छा कटता है....पर मुसीबत अपने नए चेहरे में हैं...नौकरी भी अच्छी की...बच्चें भी अच्छे निकले...लेकिन कुछ ज्यादा ही अच्छे निकले कि विदेशों में जाकर बस गए...और मां बाप अकेले रह गए...आजकल दिल्ली जैसे शहरों में अगर व्यक्ति भावनात्मक होता है...या फिर ऐसी बातें करता है...तो उसे सीधे सीधे मूर्ख न कहकर कहा जाता है कि आप PRACTICAL नहीं है.....क्या अपने मां बाप को बुढ़ापे में अकेला छोड़ कर और विकास की....महत्वकांक्षा की अंधी दौड़ में भागते रहना क्या PRACTICAL है....मध्यप्रदेश के जिस छोटे शहर से मैं आया हूं...वहां पर तो घर का बुजुर्ग .....मोहल्ले का दादा या फिर दादी होती है...लेकिन महानगरों में जिंदगी की गति ने संबंधो के धागे कुछ ज्यादा ही पतले कर दिए हैं....यहां पर मोहल्ले वाले तो दूर की बात अपने घर के सदस्य ही आपकों रोज मिल जाएँ ये जरूरी नहीं हैं....हमें खुद भी नहीं पता कि हमें जिंदगी में क्या हासिल करना है...और उसकी कीमत क्या चुकानी हैं..सिर्फ आस पड़ोस में भागते लोगों को देखकर हम भी भागते जा रहे हैं...बिना कुछ जाने...बिना कुछ समझे....हमें भी हर रोज आधी रात को उन्नींदी पत्नी मिलती है...और सुबह सुबह भागती हुई एक कंपनी की मुलाजिम...हम सिर्फ छुट्टियों में ही एक दूसरे को पहचान पाते हैं...हम दुनिया की भीड़ में भागते भागते कितने अकेले और कितने थक गए हैं...हमें इसका अंदाजा भी नहीं है....सारी जिंदगी भागकर हमने जो जमा किया है...अब वो क्यों हमें बेमानी लगने लगता है...अब हमें क्यों रिश्ते चाहिए...अब हमें क्यों लोग चाहिए....जबकि पूरी उम्र हम इस तरह भागते रहे कि हमारे पास भी कोई दूसरा न भटक पाए नहीं तो प्रतियोगिता हो जाएगी....सो हम अपने हर करीब आते आदमी को गिराते रहे और उससे तेज भागते रहे...और अब हम इतने अकेले हो गए.....कि हमें पूरी दुनिया ही बेमानी लगने लगी...इससे अच्छे तो अपने छोटे छोट कस्बें है...जहां आज भी पीपल के नीचे खांट बिछाकर हमारे बुजुर्ग बैठते हैं...हमारे घरों के दरवाजे पड़ोसी के आंगन में खुलते है....जहां दुख सुख के साथ साथ भाभी... काकी...दादी और दादा भी मोहल्ला बांटता है...जहां न हम अकेले हैं...न हमारे बुजुर्ग.....वापस सागर चले क्या......

Wednesday, April 14, 2010

मुस्कराहट की भाषा

पी राजेश का फोन आया था...कोलंबिया के बगोटा शहर से...पी राजेश्वर राव अपने पूराने दोस्त है...सागर से ही.... वे जब सेंट्रल बैंक में सबसे कम उम्र के कर्मचारी थे...तब से...और फिर वे एक सरकारी नुमा नौकरी छोड़कर प्राइवेट नौकरी करने दिल्ली चले आए...तो हम सबने उनको कम से कम समझदार तो नहीं ही माना था...बात साफ थी...कि बैंक में नौकरी लग गई है...अब जिंदगी का संघर्ष खत्म समझो..बहिन की शादी कर दो...और फिर अपनी करके...सागर में ही बस जाओ...बैंक से लोन लेकर एक मकान बनवा लो....बाद में एक कार भी खऱीद लेना...लेकिन उन्होंने हम सब की बात न मानकर दिल्ली आकर नौकरी कर ली...और वे नौकरियां बदलते गए...शहर और देश भी ....इन दिनों वे बड़ी कंपनी में manager buisness analysis हैं...और पूरी latin america उनका कार्यक्षेत्र हैं...
पी राजेश से हम लोग अक्सर दुनिया के बारे में हजारों उल्टे सीधे सवाल पूछते रहते है....आज भाषा को लेकर बात हो रही थी...राजेश कहने लगे कि पूरी दुनिया में मुस्कराहट ऐसी भाषा है जो दुनिया में हर कहीं समझी जाती है...किसी भी अनजान व्यक्ति को देखकर मुस्करा दो तो वह भी इसका जवाब तो दे ही देता है...जैसे दुनिया के किसी भी कौने में आलू मिल जाता है...वैसे ही मुस्कराहट का जवाब भी मिल जाता है...लेकिन हमारी जिंदगी इतनी पैचीदगियों में फंस गई है....कि हम communication का पहला पाठ ही भूल गए हैं...हमारे जहन में ये बात आती ही नहीं कि मुस्करा कर भी कोई संवाद शुरू हो सकता है...हम भाषा की दुनिया में उलझे हुए वगैर भी बातचीत कर सकते है....लेकिन हम तो पहले हर अंजाने आदमी से उसका शहर उसका प्रांत उसका देश और फिर उसकी भाषा पूछते हैं...भाषा भी कितनी अजीब चीज हैं...हम भाषा के जरिए क्या जानना चाहते है....उसका नाम...या फिर कुछ खोखले सवालों के जवाब....कुछ औपचारिकताएं...या फिर कुछ जानकारियों के कबाड़ जमा कर लेते हैं.....ठीक उसी तरह से जैसे में आज भी कई रद्दी कागज नहीं फैंकता हूं यह सोचकर किसी दिन खबर लिखते वक्त काम आएगें...
मुझे लगता है कि जितना छल हमने भाषा के जरिए किया है...उतना शायद ही किसी और माध्यम से किया हो....हजारों लोग रोज अपनी पत्नियों से कहते है कि वे ही उन्हें दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार करते हैं....हजारों प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं के लिए मरने को तैयार हो जाते हैं...हजारों संत पूरी दुनिया में लोगों को भाषा के जरिए ही ठीक करने की बात कर रहे हैं..लेकिन भाषा सिर्फ वह संप्रेषित करती है...जो तुम कहना चाहते हों....उसे नहीं करती ...जो तुम सोच रहे हैं....हमारे सोचने और कहने में काफी अँतर हैं...जिसे भाषा के स्तर पर नहीं समझा जा सकता...लेकिन पी राजेश सही कहता है कि मुस्कराहट ही एक ऐसी भाषा जिसे दुनिया का हर आदमी समझ सकता है.....और इस भाषा में अपनी बात कहने के लिए हमे क्षानी नहीं होना पड़ेगा...सिर्फ प्रेमी बनना पड़ेगा...निश्छल और एक अच्छा इंसान...पर शायद पी राजेश को पता होगा... कि ये काम कठिन है...क्षानी बनने से ज्यादा कठिन......

जिंदगी और दलदल

जिंदगी और दलदल एक जैसे ही होते हैं...मैंने सुना है कि दलदल से जितना निकलने की कोशिश करो व्यक्ति उतना ही अंदर धसता जाता है...वैसे ही जिंदगी है...इसे जितना समझने की कोशिश करो...उतनी ही कठिन मालूम होती है....जिंदगी किस तरह से जी जाए...समझ में ही नहीं आती है...क्या जिंदगी में समझौता करना जरूरी है....क्या हम जिंदगी अपनी शर्तों पर नहीं जी सकते...कई बार होता है...कि जिंदगी में तुम एक जगह समझौता नहीं करते हों..लेकिन उसके बाद तुम्हें कई जगह समझौते करने पड़ते हैं....क्या सफलता के लिए चापलूसी....झूठ फरेब जरूरी है....और फिर ऐसी सफलता किस काम की जिसे हासिल करने के बाद तुम दुखी ही बने रहो...या फिर हमेशा तनाव में ही जियों....कई बार तो कुछ लोगों से मिलने की....उन्हें देखकर मुस्कराने की इच्छा तक नहीं होती...लेकिन मन का कोई हिस्सा कहता है कि इनसे संबंध बनाकर रखो...कभी काम आएँगे...ऐसी हालत में क्या किया जाए...समझ में नहीं आता....मुझे लगता है शायद जिंदगी भी हम दो तरह से जी सकते हैं...या तो सफलता के लिए या फिर अच्छी जिंदगी ......एक ऐसी जिंदगी जिसमें सफलता तो न हो...लेकिन वे सारी चीजें जिन्हें करने को मन कहता है....और वो कुछ भी न हों...जिन्हें करने से मन इंकार करता है...हमें अंहकार न हों..लेकिन स्वाभिमान के साथ हम जिंदा रह सके....लेकिन इस जिंदगी के लिए हमारे पास दूसरी चीजें जरूर होनी चाहिए...हमें स्वाभिमान के साथ मेहनती होना होगा...हमें संतोषी होना होगा....वे सुविधाएं.. जो दूर से चमकती हुई दिखती हैं...उनके भीतर का खोखलापन भी हमें समझना होगा...यानि हर जिंदगी की एक कीमत है जो हमें अदा करनी होगी.....न जाने किस तरह के दौराहे पर मैं खड़ा हूं...जहां मुझे जिंदगी पहेली की तरह समझ में नहीं आती...सिर्फ उलझती जाती है...हालांकि मैं जानता हूं... जिंदगी गणित नहीं है...जिसे किसी फार्मूले की मदद से सुलझाया जा सके...लेकिन फिर भी आपकों कोई रास्ता समझ में आए तो बताइएगा...आपसे जिंदगी का कुछ हिस्सा ही सुलझ पाए...तो हमें तरीका बताईएगा जरूर.....

Tuesday, April 13, 2010

हर्ष अपने साथ हमारा भी कुछ हिस्सा ले गया...

भैया मैंने एक खबर सुनी है....शिव भैया ने कुछ रुककर कहा सही है...और वे चुप हो गए....शिव भैया यानि डॉ शिव चौधरी...एम्स के जाने माने कार्डियक सर्जन....न मैंने खबर बताई... न उन्होंने कुछ पूछा...बात साफ थी...कि हम दोंनो हर्ष के बारे में बात कर रहे हैं....हम दोंनों कुछ देर चुप रहे है....मैंने फिर पूछा कि क्या हुआ....उन्होंने कहा कि कार्डियक अरेस्ट हुआ है....मैने पूछा कोई करिश्मा हो सकता है...वे चुप रहे .....और फिर मुझे याद नहीं कि मैंने फोन बंद किया...या उन्होंने काट दिया....
मैं ये बात जानता हूं.....कि हर्ष दुनिया का पहला आदमी नहीं हैं जो सड़क हादसे में मारा गया...और न मैं ऐसा पहला आदमी हूं...जिसका कोई दोस्त असमय ही चला गया है...फिर भी पूरी समझदारी को जैसे लकवा लग गया है...न कुछ समझ में आता है...न कुछ समझने को जी चाहता है....वैसे हम और हर्ष का संबंध खबर का था...लेकिन उसका व्यक्तित्व और हर किसी की मदद करने की चाहत ने उसे न केवल हमारा बल्कि न जाने कितने मीडिया वालों का खास दोस्त बना दिया था....बात उन दिनों की है जब एम्स के पुस्तकालय के सामने लंच में कुछ जूनियर डाक्टर्स खड़े होकर आरक्षण के खिलाफ नारेबाजी करते थे...और हम लोग इसे धीरे धीरे खबर बनाने लगे...आंदोलन बढ़ता गया है...और देखते देखते पूरे देश में एम्स और हर्ष का नाम लोग जानने लगे....हर्ष पहले प्रवक्ता के रूप में हमारे सामने आता था...फिर एम्स आरडीए के चुनाव हुए और हर्ष अध्यक्ष हो गया..आंदोलन चलता गया....आंदोलन में कई चरण आए....कई लोग साथ हुए...कई लोग टूट गए....हमने उसे कई बार कई तरह से देखा...कभी उदास...तो कभी परेशान...लेकिन हर हालत में उसमें एक उम्मीद का जागते रहना बड़ी बात थी...एम्स में उन 18 दिनों में कई रिपोर्टस एम्स में ही डेरा डाले रहते थे.... मेनें youth for equality के इस आंदोलन को काफी करीब से कबर किया...और फिर सुप्रीम कोर्ट की बात मानकर ये लोग वापस अपने कामों पर लौट गए...लेकिन वो चिंगारी आगे चलती रही...हर्ष एम्स छोड़ कर रोजी रोटी के लिए नौकरी करने आगे चला गया...हम लोगों की मुलाकातों का सिलसिला कम हो गया...लेकिन यदा कदा फोन पर बतियाते रहते थे....और आज एक खबर ने सब खत्म कर दिया....हर्ष अक्सर कहता था कि लोग हम लोगों को दलित विरोधी समझते हैं...जबकि हम उनके सही मायने में हिमायती है...हम सिर्फ उस झूठ के खिलाफ है जो आरक्षण के रूप में इन लोगों को राजनैतिक लोग सुनाते और समझाते आए हैं...हमने कभी भी अपने मरीज से उसकी जात नहीं पूछी...सिर्फ उसका इलाज किया है...क्यों की हम जानते है कि न तो तकलीफ किसी जात की होती है...और न मौत... इस समाज की दहलीज पर समानता लाने का सपना देखने वाली आंखे अब नहीं रही ....वे हमारी आँखों में सिर्फ आंसू छोड़ गई...आज मुझे लगा कि जब कोई अपना चाहने वाला मरता है तो अपना भी एक हिस्सा उसके साथ मर जाता है...मुझे लगता कि हर्ष के साथ जैसे मैं भी कुछ हिस्सा मर गया हूं... हर्ष से जब पहचान हुई थी...जब वो हमारे लिए खबर था....और आज जब वो गया...हमारे लिए रिश्ता है...खबर नहीं है.....

शुरूआत कर रहा हूं...

लिखना भी अनुशासन का काम है...और वो अपन में कभी रहा नहीं...लिहाजा कभी लिखा नहीं...सिर्फ सोचता ही रहा....यही वजह रही कि जिंदगी में लोगों को पत्र भी नहीं लिख पाया...दादी को भी दिल्ली से कम चिठ्ठियां ही लिखी...और उनमें से भी कम ही पोस्ट की...ज्यादातर चिठ्ठियां तो लिख कर रखता ही गया....और उन्हें बाद में फोन पर ही सुनाकर काम चलाया...लेकिन अपने एक भाई है...गौरव उन्होंने सालों पहले हमारा यह ब्लाग बनाया...और लिखने को कहा...लेकिन सिर्फ सोचता ही रहा...कभी लिख नहीं पाया....आज न जानें क्यों इच्छा हुई और लिखने बैठ गया....सवाल यह भी है..मेरा लिखा आप क्यों पढ़ेगें...खासकर जब अपने पास कहने को बहुत सार्थक न हो...और कुछ ऐसा भी न हो जो इतिहास बनने जा रहा हो...लेकिन शायद हम अपने लिए लिखते हैं....लिखना भी एक तरह का निक्कमापन है....हम शायद लिखकर एक बहाना अपने लिए बुन लेते हैं...कि हमनें अपने हिस्से का काम कर लिया...और इस बहाने की चादर में हम अपने को सुरक्षित कर सो लेते हैं...और नैतिक भी बने रहते हैं....शायद हम सोचते हैं कि हम इतना ही कर सकते थे....भूखे आदमी को देखकर एक कविता लिख दी या फिर एक लेख ....और हम भूख के खिलाफ पूरे संघर्ष से बच जाते हैं...सोचते हैं हम जो कर सकते थे...वो हमने कर दिया...तो शायद लिखना भी एक तरह का आलस्य है....मैं कोशिश करूगां कि लिखता रहूं...और उम्मीद करता हूं कि शायद कभी कुछ ऐसा भी लिख पाउं जो आपके काम का हो...तो शायद मेरा लिखना सार्थक हो....मैं बहुत दावे नहीं कर सकता है...हां इतना यकीन दिलाता हूं...कि कुछ भी झूठ फरेब या प्रपंच नहीं लिखूंगा...वहीं लिखूंगा जो देखूगां.....मैं कहता आंखन देखी.....आशीर्वाद दीजिएगा...