Friday, July 30, 2010

सिर्फ मनुष्य़ ही अपना स्वभाव बदलता रहता है। और कोई नहीं बदलता।

बचपन में मैंने कहानी सुनी थी। नदी से साधु नहा कर निकल रहे थे। उन्होंने अचानक एक बिच्छू को डूबते हुए देखा। उन्हें उस पर दया आ गई। वे फट से गए। उसे निकालने की कोशिश करने लगे। जैसे ही वह हाथ पर आया। उसने डंक मार दिया। छटपटा कर साधु के हाथ से बिच्छू पानी में गिर गया। यह क्रम कई बार चला। वे जैसे ही उसे अपनी हथेली पर बैठाते। वह उन्हें काटता। उनके हाथ से बार बार वह छूटता जाता था। पास में ही खड़े एक दूसरे साधु ने कहा कि महाराज आप क्या कर रहे हैं। वह अपना स्वभाव नहीं बदलेगा। आप फालतू में परेशान में हो रहे हैं। वह आपको बार बार काट रहा है। फिर भी आप उसे निकालने की कोशिश में लगे हैं। साधू बोले यही तो बात है। कि जब वह अपना स्वभाव बदलने को तैयार नहीं हैं। तो मैं अपना स्वभाव कैसे बदलू।
लेकिन आज की बात कुछ और है। मुझे लगता है पूरी प्रकृति में सिर्फ इंसान ही ऐसी कृति है जो अपना स्वभाव समय और लोगों के हिसाब से बदलता रहता है। आपने कभी नहीं देखा होगा। कि नीम पर आम का फल लग जाए। या फिर इमली पर टमाटर होने लगें। मांसाहारी जानवर सब्जियां नहीं खाते। तो शाकाहारी जानवर मांसाहार नहीं करते। लेकिन इंसान कब शाकाहारी से मांसाहारी हो जाए। पता ही नहीं चलता।
अपन जनसत्ता के समय से बार बार घर भागने के लिए बदनाम थे। कोई उपाय समझ में नहीं आता था। कि दिल्ली में मन कैसे लगे। मैंने एक कोशिश की। अपने बुंदेलखंड के लोगों को खोजा। उनसे दोस्ती की। उनसे मिलने जुलने लगे। मैंने देखा कि हमारे वे दोस्त जो सागर में तो बुंदेलखंडी में बोलते थे। लेकिन दिल्ली आने वाली रेल में बैठते ही उनकी भाषा बदल जाती। और वे खड़ी हिंदी बोलने लगते। उनकी पत्नियां दिल्ली आते आते कपड़े कब और कहां बदल लेती। पता ही नही चलता था। जिन भाभी को हमने सागर स्टेशन पर साड़ी पहने देखा। वे ही दिल्ली में जींस और टीशर्ट पहन कर उतरती थी। यानि स्वभाव के अलावा भी हम अपनी भाषा, अपना पहनावा, अपनी पहचान कितनी जल्दी बदल देते हैं। इसका अंदाजा हमें भी नहीं होता। लेकिन सब कुछ बदल रहा हो। ऐसे में कुछ चीजें थाम कर चलना चाहिए। शायद वक्त रहते कभी काम आए। क्या आप भी कुछ बदले हैं। क्या और कितना। क्यों और कैसे हमें बताना जरूर।

Thursday, July 29, 2010

क्या आपके घर भी आते हैं चिपकू भाईसाहब। चाटू अंकल

पिछले दिनों मैं अपने एक दोस्त के घर बैठा था। प्रोग्राम था। बाहर जाकर खाना खाने का। दोस्त की पत्नी और बच्चे तैयार हो रहे थे। मैं भी अपने मित्र का उसके घर पर ही इंतजार कर रहा था। अचानक घंटी बजी। और हम सब खुश हो गए। कि वह दफ्तर से आ गया होगा। और हम अपने तय कार्यक्रम पर निकल पड़ेगें। लेकिन दरवाजा खोलने गया बंटी कुछ परेशान सा लौटा। मैंने पूछा। क्या हुआ। उसकी शक्ल देखकर मैं कुछ डर सा गया था। वह बोला अरे यार। चाटू अँकल आए हैं। मैंने सोचा। जैसा अपना घर का नाम चूंचूं है। वैसे ही किसी अंकल का नाम चाटू होगा। सो मैंने कहा कि इसमें परेशान होने की क्या बात है। अंकल आए है। तो उन्हें बैठने दो। चाय पानी दो। जब तक तुम्हारे पापा आजएंगे। वह मुझ पर ही गुस्सा हो गया। बोला। अब सब प्रोग्राम खराब हो गया। इतना कहकर उसने गुस्से में चप्पल उतारी और भीतर चला गया।
मुझे पूरा माजरा समझ में ही नहीं आया। कुछ देऱ बाद उनकी आवाज आई। बेटा पानी तो पिला। पता नहीं ....कौन ...पर कोई पानी दे आया। फिर उन्होंने पूछा भाभीजी घर पर है। कब तक आएंगे। साहब। शायद भाभी ने उनको टालने के लिए कहा। एक घंटा लग सकता है। उन्होंने कहा चलो कोई बात नहीं। हम उनका इंतजार कर लेगें। भाभी जी हम चाय पीएगें। फिलहाल। बाकी भाईसाहब को आने दो फिर देखते हैं। आवाज फिर आई। भाभीजी टीवी का रिमोट कहां है। पेपर कहां है। अरे रजनीश की सीडी कहां है। ये सारे प्रश्न उन्होंने एक ही सांस में किए थे। अब बात मुझे कुछ समझ में आने लगी थी। मैंने अपनी भाभी से पूछा। माजरा क्या हैं। उन्होंने बताया कि ये उनके दोस्त है। हर शनिवार को आते हैं। कभी कभी तो रविवार को भी आते है। इनका परिवार यहां नहीं रहता। खामियाजा हमें भुगतना पड़ता है। चाय के समय आते हैं। तो चाय तो पीते ही है। फिर घंटो बोलते रहते हैं। और खाना खाकर जाते हैं। क्या बताए। बहुत चांटते हैं। कई बार तो आपके दोस्त सो भी जाते हैं। लेकिन जब वे उठते हैं। तो ये बैठे ही मिलते हैं।
चाटू अँकल की सुनकर मुझे अपने एक चिपकू भाई साहब याद आगए। सागर में उन दिनों हम युनिवर्सिटी में पढ़ते थे। चिपकू भाई साहब हमसें दो तीन साल बढ़े थे। लेकिन वे हमारी ही क्लास में आ गए थे। उन्हें चिपकने की इतनी गजब बीमारी थी। कि उन्हें देख कई लोगों को मैंने दौड़ते देखा है। और शायद कई बार मैंने भी रास्ते बदले हैं। उनके साथ कई परेशानियां थी। वह बिना रुके। घंटों बोल सकते थे। अगर वो साथ में हैं। तो आप किसी से भी कोई भी बात नहीं कर सकते। बोलने का अधिकार सिर्फ वे अपने पास ही रखते थे। वे सलाह देने से लेकर शेऱ शायरी तक करते थे। वे ऐसे आदमी थे कि वे फुर्सत में भी अच्छे नहीं लगते थे। और एक बार वे मिल जाए। तो फिर घंटो आपसे चिपके रहते थे। आप दुनिया में कोई भी काम बताईए। वे उससे जुड़ा हुआ काम बताकर आपके साथ हो लेते थे। लेकिन इस दिल्ली में जहां हर कोई व्यस्त है। यहां घर पर न कोई चाटूं अंकल आते है। न रास्ते में कोई चिपकू भाई साहब मिलते हैं। क्या आपके घर भी कभी कोई चाटू अँकल या चिपकू भाई साहब आते थे। अगर आते थे हमें बताईएगा जरूर।

Wednesday, July 28, 2010

हमनें पहले ही कहा था। अनुशासन अपनी कूबत के बाहर है।

चलो अच्छा हुआ। हम फिर से फैल हो गए ।इस बार लिखने में। हम जिस तरह से लिखते जा रहे थे। हमें खुद भी अजीब सा लग रहा था। लगातार इतने दिन तक कोई काम हम से सधा ही नहीं था। हम पहले ही कह चुके थे। अनुशासन अपनी कूबत के बाहर की चीज है। लेकिन आप लोगों की प्रतिक्रियाएं। मुझे मजा दे रही थी। सो लिखता गया। लेकिन जो लापरवाही अपन ने सालों से पाली है। उसे खिलाया पिलाया जवां किया है। उसे भी तो अपना रंग दिखाना ही चाहिए। वर्ना हमें भी लगता कि हम कुछ बदल से गए हैं। लेकिन लगातार न लिख पाने से। अच्छा लगा। लगा कि अभी भी हम वहीं है। लापरवाह। अनुशासनहीन। मौजी। और जिस काम को करने की इच्छा न हो। सो नहीं करते। चाहे नुक्सान कुछ भी हो।
आज बहुत दिन बाद कुछ पढ़ा भी । और लिख भी रहा हूं। आयरिश कवि मुनरो को पढ़ रहा था। वो लिखतें हैं। जब भी कोई मरता है। तो मैं ही मरता हूं। और इसलिए कभी बाहर पूछने को मत भेजो कि किसकी अर्थी गुजरती है। मेरी ही अरथी गुजरती है। मुनरो को पढ़कर मुझे बुद्ध अचानक याद आ गए। बुद्ध को मरा हुआ आदमी देखकर लगा था कि मैं ही मर गया। अगर एक आदमी मर गया। तो मैं मर गया। मौत निश्चित है। तो अब जीवन बेकार हो गया। आप नाराज मत होना। आपको लगे। इतने दिन बाद कुछ लिखा। और जीवन की बात छोड़कर मरने की बात करता है। बात जीवन या मौत की नहीं है। बात सिर्फ इतनी सी है। कि जिस दिन हम ये बात समझ ले। ये सत्य समझ ले। उस दिन से हमारी जिंदगी में कई परिवर्तन शुरू हो जाएंगे। हमें लगने लगा कि पद, धन, मकान, कार कलर टीवी। क्या ये सब चीजें इतनी जरूरी है। क्या इनके लिए हमें इतना छल करना चाहिए। इतना कपट। इतना कष्ट।
पिछले कई दिनों से हमारे एक मित्र हमारे पीछे पड़े है। बंटवारे को लेकर। वे लोग अपना घर। जमीन जायदाद। सब बांट चुके हैं। सिर्फ एक मंदिर का अहाता है। जिस पर सबकी नजर है। लेकिन इसे बांटे कैसे। इस पर विवाद है। वे हमारी मदद चाहते हैं। मैंने उनसे पूछा। इसे कौन अपने हिस्से में चाहता है। पांचों भाई। एक साथ बोले। वे चाहते है। सबके अपने तर्क थे। मैंने फिर पूछा। अम्मा और बाबूजी को कौन ले जाएगा। वे आपके लिए और मेरे लिए न सही। लेकिन उन लोगों के लिए वे अब वस्तु ही है। सो मैंने इस भाषा का इस्तेमाल किया। इस पर सब चुप थे। जिन लोगों की संपत्ति पर इतना विवाद है। उन्हें ले जाने के लिए कोई तैयार नही है। क्या हम इस सत्य को भूल जाते है। कि हम भी उसी रास्ते पर हैं। कुछ देर बाद ही सही हमें भी वहीं पहुंचना है। पर शायद हमें यह याद नहीं रहता। अगर याद रहे। तो जिंदगी कुछ बेहतर हो।
चलिए। अगर आपका आशीर्वाद रहा। तो मैं फिर लिखने की कोशिश करता रहूंगा।

Sunday, July 4, 2010

दादी हमारी पीठ पर कील ठुकवा दो। बस्ता बहुत भारी है।

जीबू लाल का फोन आया था। पूछ रहे थे। ब्लाग लिखना क्यों बंद कर दिया। मैंने कहा वक्त नहीं मिलता। जीबू बोले। हमें अपना पास वर्ड दे दो। हम तुम्हारे लिए लिख दिया करेंगे। मैंने पूछा किस विषय पर लिखोगे। बोले विषयों की कमी है क्या। हमारे पास बहुत विषय है। हम स्कूल जो जाते हैं। जीबू लाल हमारे छोटे भाई है। और अब वे पांचवी क्लास में पहुंच गए हैं। उनकी ये बात सुनकर हमें अपने ऊपर एक बार फिर शर्म आई । जो अक्सर आती रहती है। लेकिन पूरी बेशर्मी से मैं उसे पी भी जाता हूं। लेकिन जीबू की बात काम कर गई। मैंने नहाया। और मैं ब्लाग लिखने बैठ गया। हांलाकि कल भारत बंद है। और मुझे खबर करने के लिए सुबह सात बजे जाना है। सो जल्दी उठना होगा।
मुझे याद है जैसे कुछ दिनों पुरानी ही बात हो। जीबू स्कूल से पहले दिन लौटे थे। और हमारी दादी को सुझाव दे रहे थे। बोले दादी। हमारा बस्ता बहुत भारी है। पीठ में कील ठुकवा दो। सारे लोग हंसने लगे। और मैं चुप होकर उसकी पीठ को और बस्ते के वजन को देखता रहा। हम किस तरह की शिक्षा दे रहे हैं। अपने स्कूलों में इन बच्चों को। क्या बस्तों का बोझ बढ़ाने से हमारे बच्चे ज्यादा समझदार और बेहतर इंसान बन पाएगें। या फिर हम सिर्फ अपनी नाकामी छुपाने के लिए इन पर बोझ डालते जा रहे हैं।
पिछले दिनों हमने एक खबर की थी। खबर एक विज्ञापन पर थी। विज्ञापन था। बच्चों के होमवर्क हमारे यहां पर सस्ते दामों में किए जाते हैं। उनके प्रोजेक्ट्स भी हम बनाते हैं। पता चला होलिडे होमवर्क का कारोबार हर साल वह सज्जन करते हैं। मैं जब मिला तो उन्होंने बताया कि यह काम वे पिछले दस सालों से करते आ रहे हैं। और ऐसे मां बाप जो दोनों नौकरी करते है। वे हमारी मदद लेने अक्सर आते है। होलिडे होमवर्क ही हमें समझ में नहीं आता। जिस छुट्टी में होमवर्क करना हो। वो छुट्टी ही कैसी। हमारे जमाने में अप्रैल में परिक्षाएँ होती थी। तीस अप्रैल को रिजल्ट आता था।दो महीने की खालिस छुट्टियां होती थी। और फिर एक जुलाई को स्कूल खुलता था। लेकिन अब फरवरी में परीक्षाएं होती है। और स्कूल लगना फिर शुरू हो जाता है। तो मानों गर्मी की छुट्टियां न होकर। सिर्फ एक ब्रेक सा मालूम पढता है। और बच्चों में पढ़ाई का तनाव उन छुट्टियों में भी रहता है।
आपको शायद अपनी गर्मियां की छुट्टियां याद होंगी। हम कितना खेलते थे। कितनी मौज करते थे। और कितने तनाव मुक्त थे। न होलिडे होमवर्क थे। न प्रोजेक्ट्स। लेकिन हम एक अजीब सी दौड़ में ऐसे फंसे हैं। कि निकलना बाहर है। दुनिया का हर आदमी अपने बच्चें को अपनी असफलता का तोड़ समझता है। वह तो क्लर्क ही बन पाया लेकिन बेटा कलेक्टर बन जाए। बस यही दोड़ है। जीबू की पीठ पर तो कील नहीं है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि आने वाले दिनों में हमारे माता पिता ही अपने बच्चों की पीठ पर कील ठोंकने लगे। संभलिए। और हमें बताइएगा। कि आप कितने सहमत है। इन बस्तों से और उनके बोझ से।