Saturday, April 30, 2016

कान्हा की पुरानी टीचर देखकर रो पड़ी। कहा 23 साल में पहली बार कोई बच्चा मिलने आया है।

शनिवार था। देर से दफ्तर जाना था। सोने का पूरा मूड था। लेकिन सुबह पांच बजे से ही कान्हा ने ऊधम शुरू कर दिया। छह बजे उठ ही गया। कान्हा की जिद पर आज पहली बार इतना गुस्सा हुआ। चिड़ आई। पेऱशान हुआ। लेकिन बाद में आंखे ही डबडबा गई। आसुओं को बड़ी मुश्किल से रोक पाया। कान्हा ने अपनी प्ले स्कूल मालवीय नगर में ही की है। उस स्कूल में कान्हा को अपनी टीचर रीमा मैडम बहुत पसंद  थी। वक्त के साथ सब कुछ छूटता चलता है। लेकिन आदमी एक कच्ची सी डोर में  कुछ रिश्ते अपने साथ लेकर चलता है। इस साल कान्हा ने नरसरी में दाखिला लिया। तो पूरानी स्कूल छूट गई। और टीचर भी। शनिवार को उनकी अमिटी बंद थी।लेकिन वह सुबह से ही जिद कर रहा था। पुरानी स्कूल चलना है। रीमा मैडम से मिलना है। सो तैयार होकर चल पड़े। रास्ते में कहा मैडम तो हमको चाकलेट देती थी। उनके लिए भी एक चाकलेट ले लो। महीने की तीस तारीख को कान्हा का यह प्रेम मुझे कुछ ज्यादा ही महंगा लग  रहा था। लेकिन तीन साल के बच्चे को यह कैसे समझाएं की महीने की आखरी तारीख को महंगी चाकलेट किसी को देना अच्छी आदत नहीं है। लेकिन गुस्से में यह जिद भी पूरी की।
शनिवार को स्कूल उदास दिखते है। शायद उनकी रोनक उन बच्चों में होती है। जिनकी चहल कदमी  से वे जिंदा होते है। जैसे ऩई कोपल किसी भी पुराने पेड़ को जीवित बना देती है। सो उस उदास स्कूल में सन्नाटा पसरा था। कुछ टीचर आने वाले हफ्ते की तैयारी में जुटे थे। लेकिन कान्हा की आवाज गूंज गई। रीमा मेंम। मेम वो बैठी है। उन्हें शायद माजरा समझ में नहीं आया। यह बात उन्हें समझनें में।फिर यकीन करने में काफी देर लगी कि कान्हा उनसे मिलने आया है। चाकलेट लेकर। जब उन्हें यकीन हो गया तो वे चुप सी हो गई। कहने लगी। हमको इस स्कूल में 23 साल हो गए। जिंदगी में पहली बार कोई बच्चा मुझसे मिलने आया है। प्ले स्कूल का टीचर न बच्चों को याद आता है। न उनके मम्मी पापा को। उन्होने कान्हा को गोद में ले लिया। उससे बात करती रही। जब हम कान्हा को लेकर वापस आ रहे थे। तो उसके गाल पर दो आंसू चिपके थे। रीमा मैडम के। मुझे लगा ये दो अमृत की बूंदे है। जो शायद मेरे बेटे को  जीवन भर आशीर्वाद के रूप में काम करेगीं। मैंने भी सोचा जब भी सागर जाउंगा तो अपनी पहली टीचर के पैर छून जरूर जाउंगा। कान्हा ने आज मुझे  जिंदगी का पहला सबक सिखाया है। 

Friday, April 29, 2016

कान्हा परेशान हैं कि वो अपने आप को नहीं देख पाते। उसे कौन बताए हम भी तो नहीं देख पाते।

मेरा तीन साल का बेटा कान्हा परेशान है। वो अपने आप को नहीं देख पाता। लेकिन उसे कौन बताए कि हम भी तो अपने आप को नहीं देख पाते। दूसरों को ही देखते हैं। जिस दिन इतनी क्षमता विकसित हो जाएगी। अपने अाप को देखने की उस दिन हम संत हो जाएगें। मैंने कहीं पढ़ा था। इस दुनिया में तीन चीजें सबसे सख्त है। हीरा। इस्पात। और अपने आप को जानना। वैसे यह बात भी है कि हम कोशिश ही कब करते है।अपने आप को जानने की। हर दम हम दूसरों से या तो अपनी तुलना करते रहते है। या फिर उन्हें बेहतर मानकर उनसे जलते रहते है। कल एक नेताजी के पास हम बैठे थे। वे अपने समय कई दिग्गज नेताओं के साथ काम कर चुके है। इनमें सीताराम केशरी भी शामिल है।  उन्होंने एक अच्छी बात कही।  राजनीति में हर वो व्यक्ति जो तारीफ अपने मुंह से करता है। यकीन मानकर चलिए उसे मूर्ख बनाया जा सकता है। और यही कमजोरी हमारे कई बड़े नेताओं में  है। उन्होंने यह भी  कहा कि इस मनोविज्ञान के व्यक्ति से लंबी बातचीत  करना आसान होता है। एक मुख्यमंत्री ने  उन्हें दस मिनिट के लिए चाय पर बुलाया था। लेकिन इस कमजोरी के चलते बैठक लंबी चली। मुख्यमंत्री जब भी चुप हो। वे उनकी शान में एक बात गिना दी। वे फिर शुरू हो जाए। और बात मुलाकातों और मुलाकातें दोस्ती में बदल गई।
कान्हा शायद बड़ा होकर समझ जाएगा कि अपने आप को देखना कठिन काम है। जो अपने अाप को देख ले। समझ ले। फिर वो कभी दुखी नहीं होता। संतुष्ट हो जाता है। क्यों की हम अपने दुख से कम दुखी है। दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी  है। 

Thursday, April 28, 2016

कान्हा स्कूल जाते वक्त रोता है। और अनिता लौट कर

कान्हा स्कूल मजे से जाता था। कभी कभार मना करता था। लेकिन अब नर्सरी में कुछ दिनों से दुखी है। शायद उसका समय अब करीब करीब तीन गुना हो गया है। वो भी एक वजह है। लेकिन बहुत पूछने पर उसने बताया कि उसे स्कूल जाने से डर लगता है। वजह उसने बताई कि मैडम बच्चों को जोर से डांटती है। मैंने पूछा तुम्हें डांटती है। कहा नहीं। बोला हम तो शैतानी करते नहीं। जो बच्चे शैतानी करते है। उन्हें डांटती है। मैने पूछा तो तुम क्यों डरते  हों। मजेदार जबाब दिया। कहा कभी हमें डांट दिया तो। मैंने मन में सोचा। डर का  यही सिंद्धांत है। जो हम शुरू से  ही सीख जाते है। मैंने कहीं पड़ा था कि जिंदगी में हम उन चीजों  के लिए भी कई बार चिंतित हुए.जो कभी हुई ही नहीं।. ..लेकिन क्या कर सकते है। यही मानव स्वभाव है।
हमारे बुंदलेखंड में  एक लोक कथा है। मुझे अच्छी लगती है.। आपको  भी सुना देता हूं। एक व्यक्ति गर्मी में घर के  बाहर सो रहा  था। अचानक जोर जोर से रोने लगा। लोगों ने पूछा क्या हुआ। बोला अभी तो कुछ नहीं हुआ। फिर क्यों  चिल्ला रहे हो। लोगों ने दूसरा सवाल पूछा। उसने बताया कि उसकी छाती पर से एक चींटी निकल गई है. लोगों ने कहा तो रोने की क्या बात है। उसने  कहा कि कल चूहा निकलेगा। फिर बिल्ली निकलेगी। कुत्ता निकलेगा। एक दिन देखते देखते हाथी निकलेगा। और मैं फिर मर जाउंगा। आज जानवरों ने रास्ता देख लिया है.। इस लिए मैं रो  रहा हूं।
बहुत मुश्लिक होता है। रोते हुए बच्चे को  स्कूल भेजना । कितनी बातें। कितना समझाना। कितनी कहानियां गढ़ना। लेकिन अंत में जब वह स्कूल के  गेट पर चिपट कर रोता है। और कहता हैं मैं शैतानी भी नहीं करूंगां। मुझे वापस घर ले चलो.।.  हांड़ मुंह को आते है। शायद इसीलिए यह काम न कभी मेरे पिता कर पाए। और न मैं। मुझे दादा भेजते थे। कान्हा को  उसकी मां।  लेकिन कान्हा स्कूल जाते वक्त रोता है। और अनिता उसे भेजकर वापस आती है। जब रोती है। 

Wednesday, April 27, 2016

बहुत दिनों बाद बारात देखी। सो ठिठक कर देखता रहा।

सालों हो गए। किसी की बारात में गए ही नहीं। अब दिल्ली में सीधा reception का चलन है। कोई बारात के लिए अब बुलाता नहीं। सागर से इक्का-दुक्का फोन कभी-कभार आ जाते हैं। सो अपन जा कहां पाते है। लिहाजा अब बाराती बनने के सोभाग्य से अपन वंचित है। लेकिन सोचते है कि अभी भी लोग मुंह में रुमाल फंसा कर नागिन डांस कर रहे होगें। बारात जब लड़की की घर पहुंचती है। तो डांस बदल जाता है। नाचने वालों के अंदाज बदल जाते है। हर स्टेप छत पर देखकर होने लगता है। कुछ लोग जिन्हें सदियों से सिर्फ बारात जल्दी लगवाने की जिंम्मेदारी इश्वर ने दी है। शायद अभी भी चिल्लाते होगें। जल्दी करो। समय हो गया। वे लोग जो जन्मजात ही ट्रैफ्रिक को दूरुस्त करने में लगे रहते है। अपना काम कर रहे होगों। हालांकि वे बड़ा महत्वपूर्ण काम करते है। और हां जीजा-फूफा अभी भी बारात में देरी करवा रहे होगें। उन्हें इज्जत जो कम मिली है। चाचा जी अभी भी गुस्से में होगें। कहते होगें। अब बुजुर्गों की इज्जत कहां रही। चलो जैसा चल रहा है। तो चलने दो बारात के पीछे पीछे महिलाओं से अलग। छोटी मौसी या मंजली बुआ गुस्से में चल रही होगीं। वजह अजीब है। महीनों पहले तय हो गया था कि वे शादी में पिंक साडी़ पहनेगीं। चप्पल बबली की पहनेगीं। लेकिन अाज बबली ने अपराध किया है। खुद ही पिंक सूट पहन लिया। और चप्पल भी। अब बुआ जी को काली चप्पल पहननी पड़ी। वे गुस्से में है। पहले से मना कर देती तो बुआ जी कम से कम दस जोड़ी चप्पल ला सकती थी। आज इस परदेश में कहां से लाए।। दुल्हा पान खाकर बैठा था। अपने कुछ दोस्तों को नांचने के लिए कह रहा था। हमनें सोचा चलो पिछले 40 सालों में कछ नहीं बदला। और हां कुछ लोग छूट ही जाएगें। जिनके तिलक नहीं हो पाएगें। बात पैसे की नहीं थी। बात सम्मान की थी। उन्हें सालों तक कहने का मौका मिलता रहेगा।
हमारे समय में बारात बदल रही थी। उसमें नई नई चीजें आ रही है। बसों का चलन आम हो चला था।किराए के चार पहिया लेकर जाना। नौजवानों का नया फैशन था। दुल्हा का छोटा भाई अपने दोस्तों के साथ जीप करके जाता था। बसों में बुजुर्ग और महिलाओं की संख्या बड़ रही थी। डांस में डीजे शुरू हो रहा था। दुल्हें के साथ बराताी भी सूट पहनने लगे थे। नागिन के साथ साथ भांगड़ा शुरू हो गया था।

Tuesday, April 26, 2016

दोस्त ने सलाह दी है। सोशल मीडिया कमजरो दिखने की जगह नहीं है। न ही हर वक्त रोने की।

गालियां देना शुरू किया। उन्होंने फोन उठाते ही। हैलो नहीं कहा। वे गालियां नहीं लिख रहा हूं। बेवजह आपके मुंह का स्वाद खराब होग। कहने लगे पागल हो गए हो क्या। आजकल फैसबुक पर क्या लिखते रहते हो। हर समय रोते क्यों रहते हो। सोशल मीडिया को समझो। यहां पर कमजोर मत दिखो। अगर हो तो भी नहीं। यह प्लेटफार्म दुख या परेशानी सांझा करने के लिए नहीं हैं। इसका इस्तेमाल तुम भले ड्राइंग रूम में बैठकर कर सकते हो। लेकिन यह तुम्हारा ड्राइंगरूम नहीं है। देखा नहीं तुमने। लोग कितने सज संवर के। अपना फोटो अपडेट करते है। यहां पर अपना हर एचीवमेंट शेयर करते है। यहां कुछ अच्छा लिखो। यहां पर जितने हो उससे बड़े दिखों।
मैंने उनका फोन रखा। और मुझे अपनी स्कूल की कालू मैडम याद आ गई। कालू मैडम ने पहली बार दर्द से परिचय कराया था। बहुत छोटा था। शैतान भी नहीं था। लेकिन कालू मैडम पूरी क्लास को एक साथ मारती थी। थोड़ा भी कोई हल्ला करे। वे पूरी क्लास को खड़ा करके एक साथ मारती थी। उम्र में कम थे। तो कई बार हम लोग रोेने भी लगते थे। उनकी विशेषता थी। जो रोया उसे वे एक स्केल और मार देती थी। चिल्लाकर कहती थी। बिलकुल चुप। रोना मत। हमारा समाज भी कालू मैडम होता जा रहा है। मारता भी है। और रोने भी नहीं देता।
मैं उस समाज को अपना कैसे कहूं।जहां पर रोने के कायदे हो। और हंसने के लिए नियम। यानि अगर अाप अपना दुख सुख भी अपने मुताबिक नहीं अभिव्यक्त कर सकते तो फिर समाज आपका कैसे हुआ। और हर वो चीज जो अपने हिसाब से अभिव्यक्त नहीं की जा सकती। वो कुंठा बन जाती है। कुंठित समाज हो या व्यक्ति तरक्की नहीं कर पाता। मैं ऐसा मानता हूं।

Monday, April 25, 2016

सलाह देने से अपना अहंकार सतुष्ट होता है।

हमारे पिता पान के बहुत शौकीन हैं। उनके जीवन में पान की दुकान के किस्सों का भंडार है। वे एक बात अक्सर सुनाते हैं। सिविल लाइंस चौराहे पर एक दादा की पान  की दुकान थी। वे पान की दुकान चलाने वाले दादा कम और डाक्टर ज्यादा थे। उनके पास हर बीमाारी का इलाज होता था। पिता ने बताया कि वे एक डाक्टर मित्र के साथ हाइड्रोफोबिया पर कुछ बात कर रहे थे। बात चल रही थी।  कुत्ता काटे और फिर हाइड्रोफोबिया हो जाए तो बचना मुश्किल है। दादा ने बीच में ही अपना इलाज बताया। बोले डाक्टर साहब जिस व्यक्ति को यह बीमारी हो जाती है तो क्या उसके पेट में  पिल्ला हो जाते है। यानि कुत्ता के बच्चे। डाक्टर साहब को भी लगा कि बात बड़ाने  से क्या फायदा। चालू भाषा में ही समझा दो। वे बोले हां। फिर दादा ने इलाज बताया बोले डाक्टर साहब जिस व्यक्ति के लिए यह बीमारी हो उसे दस्त की दवाई दे दो। जितने कुत्ता के पिल्ला पेट में  होगें। वे सब निकल जाएगें। पिता ने कहा हां दादा और चाहोंं तो उन पिल्लों को बैच भी दो। दादा चुप रहे। लेकिन वे इस बात से सहमत जरूर थे।
कुछ बातें तय है।  जैसे देने वाला बड़ा होता है। चाहे वह सलाह ही क्यों न हो। किसी को भी सलाह देने  के कई फायदे हैं। सबसे पहले जैसे ही आप सलाह देते है वैसे ही सामने वाले से ऊपर हो जाते है। वह आपकी सलाह सुन रहा है। इसका मतलब साफ है। वह आप से कुछ ग्रहण कर रहा है। और आप मुफ्त में उसे कुछ दे रहे है। यह भाव आते ही व्यक्ति कृष्ण हो जाता है। इसे जाने बिना ही कि सामने वाला अर्जुन हुआ या नहीं। उसमें देवत्व प्रवेश करता है और गीता शुरू हो जाती है। अपन जैसे लोग जो जिंंदगी की दौड़ में पीछे रह गए उन्हें सलाह देने वाले बहुतायत में मिलते है। वे लोग जो संयोग से किसी बेहतर नौकरी में चले जाते है। उनसे मिलकर तो मजा ही आ जाता है। वे तो अलबर्ट आइंसटीन को फीजिक्स समझाने को भी तैयार रहते  है।
लोग अपनी बात पूरी करके यह जरूर कहते है कि हम तो भैया मुफ्त में सलाह दे रहे है। मानना हो तो मानो न मानना हो तो मत मानो।  हालाकि जिन दो जगहों पर जहां हमें अक्सर सलाह की जरूरत होती है। वहां  पर मिलती नहीं। जो जरूरी होती है। उसकी कीमत होती है।चाहे डाक्टर से सलाह लेनी हो या फिर वकील से। फीस तय है। ये अलग बात है कि हर बीमारी का उपचार किसी ने किसी के पास होता ही है। जैसे उसके पास अपनी समझदारी के किस्से रटे हुए रहते है.। हिंदुस्तान में तो रास्ता चलता व्यक्ति भी  डाक्टर है। वह अापको हर बीमारी का इलाज बता देगा। 

Sunday, April 24, 2016

गर्मी के इस मौसम में। कालेज के दिन और तुम बहुत याद आती हो।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों का विजय चौक अड्डा है। हमारे लिेए यह उस पेड़ की तरह है जहां हम हर उड़ान के बाद यहां कुछ देर को आते हीं है। इसकी कई वजह है। हमारी ओवी वैन यहीं खड़ी रहती है। लिहाजा हम अपनी स्टोरी इसी जगह से दफ्तर भेजते है।  हम जो भी काम करके लाते है। उसे यहीं से मोक्ष मिलता है। इसके अलावा तमाम पत्रकार यहीं जमा रहते है। सो गप्प बोनस में। टीवी में कोई भी पत्रकार तोपची नहीं हो सकता। कुछ  न कुछ किसी न किसी से कभी न कभी छूट ही जाता है। सो विजय चौक ऐसी जगह है। कि जब अपने छूटने से अपनी अटकी रहती है। तो यहीं  पर हम लोग अपने किसी साथी से ट्रांसफर ले लेते है। और उसे दफ्तर भेजकर नार्मल हो जाते है। खाना पीना भी यहीं पेड़ के नीचे होता है। इसके अलावा यह हमारे काम के सर्किल के बीच में हैं। लिहाजा किसी भी इमरजैंसी में यहांं से जगह तक पहुंचना सबसे आसान है। सो विजय चौक पर हम लोग सुबह दस बजे आकर खाम ठोक देते है। और आकर  बैठ जाते है।
कुछ काम खास नहीं था। फुर्सत में ही था लगभग। विजय चौक पर आकर बैठ गया। लू के थपेडों से बचने के लिए शायद कुछ लोगों ने  कुछ उपाय कर रखे होगें। सो ठेठ  दोपहरी में कोई साथी दिख भी नहीं रहा था। ना जाने क्यों पेड़ के  नीचे अकेले बैठने की इच्छा हुई। सो किसी योगी की तरह ध्यान जमा लिया। वे उदास सी दिख रही सरकारी इमारतें। अपने में एक अलग तरह का सूनापन लपेटे विजय चौक। जैसे अभी अभी थक कर सुस्ताने के लिए बैठे हों रास्ते। इन सबके बीच से होता हुआ मैं अपनी यूनिवर्सिटी पहुंच गया। इसी तरह का मौसम और बिलकुल ऐसा ही माहौल होता था परीक्षा के  आसपास। इस मौसम में हर किसी के पास जो होता था वही छूटता नजर आता था।. किसी से क्लास छूटती थी। किसा से हाथ छूटता था। किसी का साथ छूटता था। मौसम बेरहम होकर पेड़ों से उनके पत्ते तक ले जाता  था। लेकिन प्रकृति ने हमारे साथ धोखा किया है। जिन पेड़ो से वह पत्ते ले गई थी। उनके पत्ते फल सहित वापस कर दिए। जिस खेत से नमी ले गई। बारिश की पहली बूंद से उनकी शिकायत दूर हो गई। लेकिन प्रकृति जो हमसे छीन कर ले गई। वो आजतक उसने वापस नहीं किया।


Saturday, April 23, 2016

प्यास लगी है। बहुत तेज। दलाली की कुदाल से कुआं खोदूं या फिर कलम से।


किस्से कहानियां। कहावते। संस्मरण। जब सुनों तो कितने अच्छे लगते है। लेकिन जब खुद ही आजमाएं जाओ। तब मुश्किल होती है। तब उनके अर्थ शब्दों से निकलकर तुम्हारे सामने जिंदगी-जिंदगी खेलते है। अपन ने कितने बार सुना है कि नाविक की परीक्षा तूफान में होती है। पुरूष का धीरज मुसीबत से परखा जाता है। भोजन का संयम। भूख लगने पर समझ में आता है। यह बात सच मालुम होती हैं। जब तुम संकट में हो। तुम्हें किसी चीज की जरूरत हो। और तुम उसकी उपलब्धता से इंकार करते है। कुछ विचारों की वजह से। यहां आकर विचार बड़े हो जाते है। और जरूरत छोटी।
पिछले कुछ दिनों से अपन आर्थिक तंगी से गुजर रहे है। ऐसे में पत्रकारों के सामने एक आसान तरीका होता है दलाली का। उन लोगों को जिन्हें तुम जानते पहचानते है। उनके दलाल हो जाओ। यह कमाऊ तरीका भी होता है। और आसान भी। समाज इस तरह की चीजों को पहले ही स्वीकार कर चुका है। आपको समझोता अपने आप से करना है। दूसरा रास्ता होता है। लिखने पढ़ने का। कठिन और लंबा। जिंदगी कई बार दोराहे पर आकर खड़ी हो जाती है। लेकिन तुम्हारे कुछ अपने होते है। उनकी भी परीक्षा होती है। शिव भैया से गप कर रहा है। उन्होंने कहा कि कई बार कुदाल से कुआं खुद तो जल्दी जाता है। लेकिन पानी पीने लायक मिले। जरूरी नहीं। कलम से कुआँ न सही कोई नहर ही बन जाए। और अगर कहीं कोई झिर मिल गई। तो तुम्हारा भाग्य हो सकता है। लेकिन तुम्हारे अपने उस झिर से प्यास बुझाकर खुश होगें। लेकिन कई बार आदमी कुआँ का पानी पीकर कहता है। पानी खारा है। और प्यास भी नहीं बुझती। रही तुम्हारी प्यास की बात तो तुम्हें प्यासा नहीं मरने देगें। इसकी जबावदारी हम लेते है।

Friday, April 22, 2016

लोग उन्हें सनकी। पागल कहते रहे। लेकिन वे जिंदगी भर अपने मरे हुए दोस्त के साथ घूमते रहे।

बात मजाक से शुरू हुई। लेकिन मुझे यह सालों पुराना किस्सा याद आ गया। मेरे दादा यह किस्सा सुनाते थे। वे बताते थे। शुरूआती दिनों में उनके साथ एक तिवारी जी मास्टर थे। कम बतियाते थे। बेहद दिमागदार। अनुशासित। छात्रों में बेहद लोकप्रिय। लेकिन वे किसी से तपाक से नहीं मिलते थे। वे धीरे धीरेे घुलते थे। जैसे पानी में शक्कर घुलती है। और फिर एक दिन अचानक उनके व्यक्तित्व की पूरी मिठास तुम महशूश कर सकते थे। उन्हें कुछ लोग पागल। कुल लोग सनकी। और कुछ लोग हाफ माइंड भी कहते थे। उकने जीवन का एक किस्सा है। जो मेरे दादा को बहुत प्रिय था। और उन्होंने सुनाया तो मुझे भी प्रीतीकर लगने लगा।
तिवारी जी आठवी क्लास में थे। जब उनकी मित्रता एक दोस्त से हुई। मैं नाम नही जानता। शायद दादा भी भूल गए थे। दोनों मित्रों में प्रेम भी था। दोनों लोग सुबह उठकर घूमने भी जाते थे। दोस्ती ऐसी हुई। दोनों की नौकरी भी मास्टरी की लगी। वो भी एक ही स्कूल में। और उनका सुबह का घूमना बा दस्तूर जारी रहा। हादसा कैसे हुआ पता नहीं। लेकिन एक रेत से भरे ट्रक ने उन्हें कुचल दिया। और मौके पर ही उनकी ठौर मौत हो गई। लेकिन इस हादसे का तिवारी जी पर अजीब असर हुआ। वे दूसरे दिन अपने दोस्त के घर पहुच गए। जैसे उसे लिवाने जाते थे। फिर वापस उसे छोड़ने भी गए। जब भी तिवारी जाते थे। उनके दोस्त तैयार होने में हमेशा कुछ समय लगाते थे। तो उन्हें कुछ देर रुकने की आदत थी। सो बे हमेसा कुछ देर रुकते भी थे। शुरूआत में लोगोंं ने कहा कि शायद यह दोस्ती का दिखावा है। कुछ महीनों बाद लोगों ने कहा कि सनक है। फिर किसी ने कहा पागलपन है। फिर कहा गया कि हादसे से उनके जीवन पर गलत असर हुआ है। बात तो जब अजीब हो गई। जब उनके दोस्त के परिवार वालों ने उनके चलते घर ही बदल दिया। लेकिन दादा बताते थे। तिवारी जी जब तक जीवित रहे। अपने उस दोस्त के घर जाते थे। और उसके साथ जीवन भर घूमते रहे।
मुझे अब लगता है क्या था यह। सनक। पागलपन। या फिर प्रेम। क्या किसी नियम के प्रति इतना समर्पण मुमकिन है। जो भी हो। लेकिन आज की दुनिया में ऐसा किसी का करना। नार्मल नहीं है। लिहाजा वे जो भी थे। नार्मल नहीं थे।

Thursday, April 21, 2016

पढ़कर अच्छा लगा। पूरी दुनिया में आप जैसा दूसरा कोई नहीं।

पढ़ने लिखने का मौका कम मिलता है। यह बहाना नहीं चलेगा। जानता हूं। जिन्हें पढ़ना होता है। वे पढ़ ही लेते है। कभी भी कहीं  भी। लेकिन कहने में अच्छा लगता है। यह मुहावरा। पढ़ने लिखने का वक्त ही नहीं मिलता। इससे दो बातें साबित हो जाती है। पहली हम पढ़ने-लिखने वाले हैं। दूसरा आजकल काम में व्यस्त है। सो हम भी चूकेंगे नहीं। इन दिनों पढ़ाई-लिखाई नहीं हो रही। बहुत दिनों से कोई किताब ही नहीं  खरीदी। हां शुक्र है। WhatsApp का। आजकल दुनिया  के तमाम जानकार। दार्शनिक ।साहित्यकार। यहां मिल जाते हैं। और अपन अपडेट रहते है। एक मि्त्र ने ओशो का एक संदेश भेजा। बड़ा प्यारा। और उत्साहवर्धन करने वाला है। उसमें लिखा है। पूरी दुनिया में अगर तुम एक पत्ता लेकर भी निकलो। तो उस तरह का। उस जैसा। पूरी तरह उसकी फोटो कांपी मिलना मुमकिन नहीं  है। भगवान ने हर चीज को एक ही बनाया। इसमें उसने किसी को भी repeat नहीं किया। यह जानकार अच्छा लगा।
पिछले कई दिनों से। मन कुछ परेशान सा है। लगता है कि जिंदगी की किताब के पन्ने फिर से पलटकर देखे। कहीं कुछ गलत तो नहीं सीखा-समझा है। लेकिन अोशो की  यह बात पढ़कर अच्छा लगा। और उत्साह भी आया। लगा कि अपना सिर्फ होना ही सार्थक है। भगवान ने इस पूरी दुनिया में अपने जैसा कोई दूसरा नहीं बनाया। लिहाजा किसी दुसरे से अपनी तुलना करना बेमानी है। हर किसी की सफलता। हर किसी की असफलता। उसके जीवन मूल्य। उसकी चाल। उसका चरित्र। सब कुल अलग है। जब हमारे जैसे कोई दूसरा इस दुनिया है ही नहीं। फिर किसी से क्या तुलना। अपना आलस्य। अपनी गप्पे। अपनी बाते। अपनी हार। अपनी असफलता। सब कुछ अपना है।एक दम यूनिक। यानि न कोई अपन से आगे।  न अपन किसी से पीछे। सब के रास्ते। अलग अलग है। सबकी मंजिले अलग अलग है। जो कुछ हमारे पास है वो किसी दूसरे के पास नहीं। लिहाजा जो भी हमारे पास है। वह कीमती है।और शायद हम भी। और आप भी।

Wednesday, April 20, 2016

नसेनी को टिकाने के लिए दीवाल मत खोजो। हम आपस में ही कैंची बना लेते हैं।

सुबह सुबह मेरे एक भैया का फोन आया। पूछा क्या हाल चाल है। सवाल का जबाव देते देेत थक सा गया हूं। कह दो ठीक-ठाक हैं । तो प्रश्न पूछने वालों को क्या फर्क पड़ता है। कह दो यार परेशान है। तो वह कह देता है। अरे यार हम भी परेशान है। वक्त ही ऐसा कुछ चल रहा है। हर कोई परेशान है। इस तरह बात को खत्म ही कर देता है। और अपने काम की बात करने लगता है। जिसके लिए उसने फोन किया था। मैंने इस बार कुछ जबाव बदल दिया। कहा कि खाई में हूं। सहारे के लिए दिवाल भी नहीं मिलती। जिसके सहारे अपनी नसेनी टिका सकूं। और इस खाई से बाहर आ जाउं। उनका जबाव सुनकर मजा आ गया। कहने लगे । परेशानी में दीवाल नहीं मिलती। न सीड़ी टिकाने के लिए। न छत डालने के लिए। हम भी परेशान है। और तुम भी। चलो कैचीं नसेनी बना लेते है। और बाहर निकलते है। मुझे थोड़ी देर बाद बात समझ मेंं आई। और फिर लगा कि  परेशानी में वही मददगार होता है। जो खुद भी परेशान हो। उनकी बात  जम गई।
उम्र में बड़े है। इसलिए भी भैया कहता हूं। बातें भी अच्छी अच्छी करते हैं। लेकिन संबंध दोस्ताना है। वे भोपाल के बड़े कारोबारी है। लेकिन कई बार वक्त न जाने किस चाल से चलता है। उसे समझना मुश्लिक होता है। सो वे भी कुछ दिनों से परेशान  हैं। लगातार कारोबार में घाटा। फिर उनकी फैक्ट्री में एक बड़ी आग। सो वे भी कुछ अपने जैसे ही हो गए हैं। बुंदेलखंड में एक कहावत है। दुखिया ने दुख कउ। सुखिया ने  हंस दउ। मानवीय मनोविज्ञान पर  शायद ही इतनी अच्छी बात कही गई हो। हम अक्सर अपना  दुख उन्हें सुनाने जाते है। जिन्हें इसके व्याकरण से वास्ता ही नहीं होता। न वे यह भाषा समझते है। न ही इसमें कही गई बात। लिहाजा वे इसका जबाव अपनी भाषा में ही देते है। जिसके पैर में  कभी बिमाई नहीं फटी। वह दुसरे का दुख नहीं समझ सकता। सो मुझे लगा कि परेशानी में हमेशा उनका सहारा ही तको। जो तुम्हारी तरह ही परेशान है। वे ही मददगार साबित होगें। उऩ्हीं के सहारे अपनी नसेनी टिकाउं। कैसीं बना लो। और बाहर निकल आओ।

Tuesday, April 19, 2016

जानवर भी अपनी जानकारी के जरिए अपनी क्षमताओँ को अपडेट कर लेते हैं।

मैं कुछ परेशान सा हूं। इन दिनों। मेरे तमाम अपनो को लगता है। मेरे चाहने वाले लगातार फोन कर रहे हैं। और अच्छी अच्छी बातें सुना रहे है। मेरे चाहने वालों को लगता है शायद किसी न किसी बात से मुझे मोटिवेशन मिल जाए। और मेरा रुका हुआ चक्का चल पड़े । जो शायद जाम हो  गया है। मेरे एक दोस्त ने फोन करके सुनाया कि उन्होंने एक रिसर्च पड़ी है। रिसर्च जानवरों पर हुई। उसके नतीजे हैरत में डालने वाले है। बड़ी मजेदार बातें कही गई है। उन रिसर्च के नतीजों में। महत्वपूर्ण बात है। जानवर और पक्षी अपनी क्षमताओं को बेहतर तरीके से जानते है। वे अपनी जानकारी से उसे अपडेट भी करते  रहते है। जैसे किसी जानवर को पता है कि वह शेर से तेज नहीं दौड़ सकता। तो जब भी उसका सामना शेर से होगा। तो वह हमेशा तिरछा तिरछा भागेगा। या वह इस तरह से भागेगा जहां पर उसका अपना कौशल काम आए। अपनी सफलताओं और असफलताओं के जरिए वह अपनी छमताओं को अपडेट करते रहता है। यह बात इंसानों में भी है। लेकिन हम इसका उपयोग नहीं करते है। यह हमारी असफलता की एक प्रमुख वजह है.
मेरे मित्र ने कहा कि जीवन में यह करते रहना चाहिए। जब हम अपने फोन और कंप्यूटर अपडेट करते रहते है। तो हमें अपनी छमताओं को भी अपडेट करते रहना चाहिए। हो सकता है बड़ी हो या फिर घटी हो। दोनों  की ही जानकारी हमारे पास होनी चाहिए। आपने कब  से अपडेट नहीं किया। करिए और मैं भी करता हूं। ताकि फिर कुछ सार्थक किया जा सकें। 

Monday, April 18, 2016

जीवन में लगातार काम करते रहना भी सफलता का एक रास्ता है।

कल आधी रात को फोन बजा। घबराकर उठा। नंबर विचित्र सा था। सो राहत मिली। कोई मुसीबत में अपना वाला नहीं है। फिर दुविधा थी। उठाऊ की नहीं। फिर सोचा और उठा लिया। परदेश से दोस्त का फोन था। वे समय के हिसाब-किताब में कुछ गड़बडा गए। और फोन कर लिया। कुछ देर बार नार्मल हुआ। फिर बातचीत शुरू हई। उसने एक अच्छी कहानी सुनाई। बताया जब वह लंदन में एमबीए कर रहा था। तो उसे सुनाई गई थी। एक कारीगर था। मकान बनाने में उसे महारथ हासिल थी। बहुत सलीके से और बेहतरीन मकान बनाता था। सीधा-सादा और इमानदार भी था। उसने पूरी जिंदगी एक ही मालिक के पास काम करके गुजार दी। लिहाजा पूरी कंपनी में उसका सम्मान था। एक दिन जब वह बूडा हो गया। उसे लगा अब वह थक रहा है। लिहाजा अब वो रिटायर होना चाहता है। जिन्होंने काम अपना मन लगाकर किया हो। उन्हें काम से रिटायर होने पर भी एक सतुंष्टी मिलती  है। सो वह अपने मालिक के पास गया। रिटायरमेंट की बात की। सोचकर गया था कि मालिक जिंदगी भर  की मेहनत की तारीफ करेगा। उसे कुछ तोहफा देगा। प्रंशसा में कुछ कहेगा।और फिर विदा कर देगा।पुरे सम्मान के साथ। लेकिन उल्टा हुआ। उसने कहा कि ठीक है। तुम एक आखरी मकान बना दो। एक दम शानदार। फिर तुम विदा होना। कारीगर गुस्सा हो गया।सोचा कि पूरी जिंदगी कभी छुट्टी नहीं ली। मन लगाकर काम किया। आज जब रिटायरमेंट की बात करने आया। तब भी मालिक को काम ही याद आया।  उसने गुस्से में उस मकान को आनन फानन में पूरा किया। शायद यह काम उसके जीवन का सबसे बुरा काम था। गया और गुस्से में मालिक को चाबी देकर नमस्कार किया। कहा अब तो जाएं। मालिक ने कहा रुको। उसे पूरे सम्मान के साथ बिठाया। उसकी ताऱीफ की और जो मकान की चाबियां वो लाया था। उन चाबियोंं को उसे ही वापस कर दिया। कहा यह तुम्हारी मेहनत और सादगी का इनाम है। यह मकान तुम्हारा है। वह कारीगर हैरत में था। जिंदगी ने उसके साथ मजाक किया था। लेकिन क्या करता।  चुपचाप चला गया। अखिल ने बताया कि जिंदगी में  लगातार एक ही रफ्तार से काम करते रहने का इससे बेहतर उदाहरण मैंने किसी क्लास में नहीं सुना।
मेरी जिंदगी की  यह कमजोरी रही है।मैं कोई भी काम। पूरी मेहनत के साथ ज्यादा दिन तक नहीं कर पाया। इसी लिए शिव भैया कहते है कि तुम हर हफ्ते नया प्लान सुनाते हो। जिस बार तुम अपना पुराना प्लान ही लेकर आओगे।और कुछ उस पर अमल करना शुरू करोगे।सफलता दिखनी लगेगी। क्या आप भी मेरी तरह रास्ते और आइडिया बदलते रहते है। या एक ही रास्ते पर चलते है। चलो रास्ता नहीं बदला। कोई नया प्लान नहीं आया। तो फिर कल मिलेगें। 

Sunday, April 17, 2016

मैंने कहा स्कूल में मेरा कुछ हिस्सा छूट गया है। वो वापस दिला दो।

करीब पच्चीस साल बाद सूर्य प्रताप सिंह से बातचीत हुई। अग्रेंजी में एमए साथ किया था। फिर कुंभ के मेले में भाइयों की तरह बिछड़ गए। WhatsApp ने  आज वापस मिला दिया। पूछा कहां हो। उन्होंने बताया कि सेंट्रूल स्कूल नंबर एक में पीजीटी अंग्रेजी हो गया हूं। मैंने कहा मेरी स्कूल में। उन्होंने हैरत जताई। फिर कहा हां। कहा कुछ काम हो  तो बताना। मैं मदद करूंगा। मैंने कहा कि मेरे कुछ टूटे हुए सपने बारवहीं क्लास के डेस्क पर रखे हैं। उनकी तामील करा दो। स्कूल की लाइब्रेरी में कुछ दोस्त गुम हो  गए थे। वे फिर मिले नहीं। उनसे मिला दो। स्कूल के पीछे एक केैंटीन थी। जहां कुछ रिश्ते बने थे। चाय और चाकलेट में लिपटे थे। वे अधपके रह गए है। उन्हें अंजाम तक पहुंचना था। वे भटक गए। उन्हें मंजिल तक ले आओ। फिजिक्स के लैब में एक कहानी अधूरी सुना कर आ गया था वो पूरी करनी है। समय को वापस पलटा दो। वे बोले ये मैं नहीं कर सकता।
जिंदगी के वे साल पता ही नहीं चले। कितनी स्पीड से निकल गए।  रफ्तार से निकली हुई किसी कार की धुधली सी यांद रह जाती है। बस वही है। कितना मजा। कितने सपने। कितने दोस्त।कितने किस्से। जमीन के उस हिस्से में बनते हैं। पनपते हैं। और जब उऩ्हें छोड़कर हम आगे बड़ते है। तो एक उम्मीद रहती है। कि बस अभी गए। और अभी वापस आकर सब कुछ बटोर कर ले जाएगें। अब तो पच्चीस साल से ज्यादा हो गए। कुछ दोस्त कभी कभार मिल भी जाते है। लेकिन न वो फुर्सत है। न वो तपाक से मिलते है। कुछ जो बह गया है। हमारे बीच अक्सर बना रहता है। लेकिन चलो इच्छा है कि कभी स्कूल जाकर अपना हिसाब-किताब पूरा करेंगे। पूछेगें। कि जो तुमने दिया वो मेरे साथ है। लेकिन जो तुमने देकर वापस छीन लिया था। वो कहां है। जो तुमने साथ किया था। वो मेरे साथ है। लेकिन जो तुम्हारे हवाले कर गया था। वो कहां गया।
स्कूल बताओ वो संडे के बाद बैचेन सी आंखें कहां है। जो सोमवार को दूर तक टकटकी लगाकर देखती थी। वे किताबें कहां  है। जिनके बीच में मैंने कुछ पत्र छोड़े थे। तुमसे कहा था। जबाव लेकर आना। क्या हुुआ। वे सुबहें कहांं हैं। जहांं पर जिंदगी नया जन्म लेती थी। वो ब्लेक बोर्ड कहां गया। जहां पर मेरा नाम उसके साथ मेरे एक दोस्त ने लिखा था। वो सालाना जलसा क्या हुआ। जब पर्दे के पीछे मैने उसका हाथ पहली बार पकड़ा था। वो मार्कशीट कहां गई। जहां  मेरा नाम आने पर उसकी आंखे ज्यादा बैचने होती थी। वो मंच का क्या हुआ। जहां से मैं बोलता था। और दूर से मुझे सिर्फ आंखे बजती हुई दिखती थी। बोलो स्कूल वो गेट कहां  गया। जहां से जानेे की उस रोज इच्छा ही नहीं  थी। मैं जानता था तुम धोखेबाज हो। तुमने कहा था। जाओं। जीवन में आगे चलो। जब कहोगे। तुम्हारा सब सामान वापस मिल जाएगा। स्कूल मुझे वापस चाहिए। वो वक्त। अपने पूरे दोस्त।

Saturday, April 16, 2016

जीवन में एक बार पलायन कर लो। तो फिर हर बार पलायन करना आसान होता जाता है।

यह पूरी बात निजी है। लेकिन सा्वजनिक इसलिए कर रहा हूं। मुझे लगता है। यह मानसिकत किसी एक की नहीं होती। हम सब की है। हम अपने भीतर जब आत्मविश्वास खोते है। मेहनत करने की क्षमता भूलते है। तब हमें हर आसान चीज भी कठिन लगने लगती है। और हम पलायन करने लगते है। लेकिन कितना पलायन इसकी कोई सीमा भी तो हो।हम जिंदगी हारते जाते है। और हमारे बहाने मजबूत होते जाते है। एक दिन वे झूठे बहाने भी हमें खुद को भी सही लगने लगते है।लेकिन इसक नुक्सान यह है कि हम जिंदगी हार जाते है। जो हमें अपमानित करते हैं। हमें उन पर गुस्सा नहीं आती। अपने पर दया आती है।
पोलीपल्ली राजेश्वर राव। पूरा नाम। हम लोग प्यार से उन्हें कभी राजेश तो कभी पी राजेश तो कभी कभार सिर्फ पी से भी काम चलाते है पी राजेश कभी भी कुछ अच्छा पड़ते हैं। कुछ अच्छा सुनते हैं। तो वे हमें जरूर भेजते हैं। हमारे बीच एक अलिखित समझौता है। जो सालों से चल रहा है। खासकर जो बात मेरे चरित्र से मिलती जुलती है। तो वे दुखी होकर। कुछ हंसकर मुझे जरूर सुनाते हैें। कल आधी रात उनका फोन आया। बिना किसी भूमिका के ही कहा। एक बात पढी है। ध्यान से सुनो। एक बार तुम पलायन करते हो तो उसके बाद पलायन करना हर बार आासान होता जाता है। इतना कहकर वे शांत हो गए। अपनी आदत के चलते वे चुप हो गए। शायद चाहते थे मैं अपनी जिंदगी के तमाम पलायन सोचूं। शायद वे हमें वक्त दे रहे थे। और फिर मैं रात की उम्र तो बता नहीं सकता। लेकिन बहुत देर तक सोचता रहा।
मेरी दादी पत्रकारिता को क्या समझती है पता नहीं। लेकिन आर्थिक तंगी को देखकर अक्सर कहती रहती है। मैंने कभी सोचा नहीं था कि तुम जिंदगी में इतने ही बड़ पाओगे। इसी तरह पी राजेश को भी लगता है। मेरे अंदर की आग जल्दी ही बुझ गई। लेकिन सामान कुछ बाकी है। इसे जब भी चिंगारी मिलेगी। एक बार धधकेगी। शायद यही वजह है कि वे बार बार फूंकते रहते है। लेकिन अपनी बेशर्मी है कि अपने अंदर से एक चिंगारी भी नहीं उठती है।
लगा कि पी राजेश से कह दू।अबकी बार भागूंगा नहीं। पलायन नहीं करूगा। चाहे मर जांऊ। लेकिन हिम्मत नहीं हुई। कायरों की तरह लिख रहा हू।ये हिम्मत कहां से और कैसे मिलेगी। लड़ने की मरने की डटने की। पी राजेश को फोन करने की। कोई तो बताओ।

Thursday, April 14, 2016

शिव भैया हारते नहीं हैं। शायद इसीलिए उनके मरीज आसानी से नहीं मरते।

शिव भैया तब भी नहीं हारते। जब मरीजों  के  परिवार वाले। भैया के स्टाफ वाले भी थक जाते हैं। और कहीं न कहीं  यह यकीन कर लेते हैं। भगवान ने मरीज की डोर खींच ली है। मैं मेडीकल भाषा में नहीं समझा पाउगां। लेकिन मैने देखा है कि मरीज के प्राण निकल गए हैं। ऐसा लगता है। शायद। इसके बाद भी वे उसके शरीर के साथ  जद्दोजहद करते रहते हैं। पिछले दिनों मैंने देखा । एक मरीज की शायद मौत की खबर उनका जूनियर उन्हें सुनाने आया था। वे बिजली की तरह भागें। न जाने क्या क्या करते रहे। फिर उसे अापरेशन थिएटर में ले गए। फिर कुछ करते रहे। करीब एक घंटा बाद उस व्यक्ति के साथ वापस लौटे। वे बोलते कम है। लेकिन आखों से लगा कि यमराज को शायद ललकार वापस ले आए हैं।  आज उस मरीज की छुट्टी हो गई। वह स्वस्थ्य होकर  घर चला गया। लिख इसलिए रहा हूं। कि शिव भैया जो दूसरो के साथ करते हैं हम उतना भी अपने साथ नहीं  कर पाते। हम हथियार डालने में। हार मानने में माहिर हो गए हैं। हमारी किस्मत में  नहीं था। यह कहकर चुप हो जाना हमारे लिए ज्यादा आसान है। शिव भैया मानो अपने मरीज के प्राणों के लिए काल से लड़ते है। अपनी बाजूओं और पुरूषार्थ के दम पर उसके चगुंल से  जीवन खींच लाते हैं। इसके लिए शायद यकीन चाहिए। अपने ऊपर। गुस्सा चाहिए सामने वाले दुश्मन पर। और हां जुनून तो चाहिए ही। एक एम्स बनने में शायद कई शिव भैया लगते है। लेकिन एक ड़ॉ शिव चौधरी बनने में ना जाने कितने इंसान लगते होगें। पता नहीं।