Friday, July 15, 2011

गुरूपूर्णिमा पर अवस्थी सर, सुधीर सर से लेकर रज्जाक चाचा तक सभी याद आते हैं।

अपन बुखार में हैं। लिखने की हिम्मत नहीं है। और कूबत भी नहीं। फिर भी जिद करके टेबिल पर बैठ ही गया। लगा गुरूपूर्णिमा है। कुछ तो लिखूं। हालांकि किसी गुरू को अच्छा लगता है। जब उसका शिष्य उचाइंयों पर पहुंचे। अपन किसी भी गुरू को गुरूदक्षणा नहीं दे पाए। गुरू की सबसे बड़ी दक्षणा होती है उसके शिष्य की कामयाबी। यह सुख तो किसी भी गुरू को अपन दे नहीं पाए। पछतावा भी है। और शर्म भी। फिर भी बेशर्मी से लिखने बैठ गया।
स्कूल। कालेज। पत्रकारिता। और फिर जिंदगी। ये अपने रूप बदलते गए। और हर मोड़ पर मुझे नए नए गुरू मिलते गए। जो वर्तमान जिंदगी की कठिनाइयां कम करते गए। व समझाते गए। और मैं आगे चलता गया। यह बात अलग है कि जो जिंदगी में कर्म करना चाहिए था। वो हमसे न हुआ। और हम जिंदगी के रास्तों पर पिछड़ते चले गए। अपने तमाम गुरू हमसे खुश है। लेकिन मेरी असफलता उन्हें दुखी करती होगी। वे शायद सोचते थे। मैं जिंदगी में ऐसा कुछ करू। जो उनकी शिक्षा को सार्थक करें। मैं कुछ दुनिया को ऐसा दे जाऊं। जो मेरी पढ़ाई लिखाई का अर्थ बने। लेकिन अपन ऐसा कुछ भी नया और रचनात्मक नहीं कर पाए। और जिंदगी को कलम घसीटकर काटने लगे।
अवस्थी सर ने मनोविज्ञान सिखाया। सुधीर सर ने पत्रकारिता। रज्जाक चाचा ने जिंदगी। रज्जाक चाचा का यह कहना कि जिंदगी में तीन चीजें साफ रखना। शरीर। लिबास। और नियत। सुनने में लगता है। आसान है। लेकिन सद नहीं पाता। बीच बीच में गिर ही जाता हूं। सुधीर चाचा का हाथ पकड़कर ही अपन जनसत्ता में घुसे। और आज भी पत्रकारिता में जो भी कर पाते हैं। उनका महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने ही समझाया। लिखना और पढ़ना। और हां दादा की एक बात। जो अपने आप में गुरू है। जिंदगी में जो बो दोगे। वहीं काटोगे। संभल कर रहना। प्रकृति तुम्हारे सारे कर्म तुम्हें लौटाती है। बहुत सी बातें है। ब्लाग में नहीं लिखी जा सकती। इतनी जल्दी। फिर भी मुझे अपने तमाम गुरू याद है। आपको भी होगें। हे भगवान मेरे तमाम गुरूओं को अगले जन्म में सामार्थ्य शिष्य जरूर देना। जो उनका नाम रोशन कर सकें।

Thursday, July 14, 2011

धोखा हजार का नोट देता है। पचास पैसे का सिक्का नहीं।

शिव भैया अपने एक दोस्त को बाहर तक भेजने आए थे। वह अपने पन में हमसे मिला। हाथ मिलाया। मुस्कराया। हालचाल पूछे। और चला गया। मैं कैसे कह देता कि तुम्हें पहचाना नहीं। अपने पन का एक मान होता है। उसे रखना ही चाहिए। जब वह चला गया। तो मैंने भैया से पूछा। कि चेहरा पहचान लिया था। नाम याद नहीं आया। उन्होंने बताया। उसका नाम अभय कुमार है। वह इंडियन इस्टिट्यूट आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में अस्सिटेंट प्रोफेसर है। लेकिन अभय इतने सरल। इतने सज्जन और इतने सीधे साधे हैं। कि उनके बारे में समझ पाना थोड़ा मुश्किल हुआ। लेकिन शिव भैया ने तपाक से कहा। और में पूरी बात समझ गया। वे बोले। आदमी धोखा हमेशा हजार के नोट से खाता है। पचास पैसे के सिक्के से नहीं। नोट वही नकली निकलता है। और कई बार तो उस समय जब उसकी जरूरत सबसे ज्यादा होती है। पचास पैसा का सिक्का ठोस होता है। और न कभी धोखा देता है। न नकली होता है। यह बात सुनकर मैं अपनी जिंदगी के कई पन्ने पलटने लगा। और मुझे याद आता गया। पुराना अनुभव। जिंदगी में कितनी बार हमने धोखा हजार के नोट से खाया है। वैसे आपने भी खाया ही होगा। हमारी फितरत है कि हम हमेशा सिर्फ बाहरी आवरण पर भरोसा करते हैं। हमने स्कूल में फिर कालेज में, शहर में और अब रोज मर्रा की जिंदगी मे देखा है। आम आदमी ऐसे लोगों के आसपास मडराता रहता है। जिसे वह अमीर या ताकतवर मानता है। आदमी को हमेशा लगता है कि अमीर आदमी से दोस्ती रखो। वक्त पर काम आयगा। मुझे याद है कालोनी में एक सज्जन ने कार खरीदी। उसके बाद उनके मिजाज ही बदल गए। लोग उनसे इसलिए सलाम करते कि कभी न कभी उनकी कार लोगों के काम आएगी। और उन्होंने लोगों से सलाम तो दूर बात करना और उन्हें देखना भी कम कर दिया। उन्हें डर था कि कभी न कभी कोई न कोई कार मांगने जरूर आएगा। कुछ लोगों ने उन्हें आजमाया भी। तो कभी बैटरी डाउन थी। तो कभी इंजन मे काम था। वह कार कभी किसी के काम आते मैंने तो नहीं देखी।
अक्सर मैं देखता हूं। लोग नेताओँ। विधायकों और मंत्रियों के आसपास लगातार रहना चाहते हैं। सबको लगता है कि संबंध बने रहे तो अच्छा है । वक्त रहते काम आएगें। और शायद यही वजह है कि संबध बनाने के चक्कर मैं हम अपना स्वाभिमान कब खो देते हैं। पता नहीं चलता। और चापलूसी की सीमा में हम कब पहुंच जाते है। याद नहीं रहता। लेकिन अगर हम यह बात याद रखें। तो शायद जिंदगी बदलेगी। हजार के नोट पर यकीन मत करों। जो ठोस है वही साथी है। चाहे वह पचास पैसे का सिक्का हो। या अभय हो।

Wednesday, July 13, 2011

क्या हम भी इसी तरह मर जाएगें। किसी रोज। बेवजह

मैं बातूनी आदमी हूं। खूब बोलता हूं। लिहाजा बोलने में कभी भी दिक्कत नहीं होती। न झिझक। न शर्म। और बोलने में डर भी नहीं लगता। लेकिन आज कुछ देर तक मैं चुप बैठा रहा। बोल ही नहीं पाउँ। मेरे आसपास बैठे लोगों को लगता रहा। कि मैं नाटक कर रहा हूं। मेरी सिर्फ आंखे भर आती थी। मैं आंसू पीता। पोंछता। फिर कुछ सोंचने लगता। फिर चुप हो जाता ।और इस तरह मैं बहुत देऱ तक चुपचाप बैठा रहा। शायद खौफ में था। फिर कई सारे लोग एक साथ चिल्लाएं। चिंदबरम निकल रहा है। और हम अपना माइक लेकर पीछे पीछे भागे। पर गाड़ी 19 सफदरजंग से निकल कर चली गई। और मैं वापस होश में आया।
अपन कांग्रेस दफ्तर में थे। जब अपने boss का फोन आया। मुम्बई में ब्लास्ट हो गए हैं। तुम गृह मंत्री के घर चले जाओँ। और जो जरूरी था। उन्होंने मुझे फोन पर समझाया। मैं सरपट भागता हुआ। उनके घर के बाहर जम गया। हम जानते थे। वे कुछ बोलेगें नहीं। पहले जाकर अपने अफसरों से हालात समझेंगे। फिर कुछ कहेंगे। सतर्कता के साथ। जिन लोगों को हम नहीं जानते उनके लिए आंसू बहुत मुश्किल से निकलते हैं। लेकिन यह दुख शायद उनके लिए नहीं था। यह डर भी शायद उनके लिए नहीं था। आप से झूठ बोलने की कोई वजह नहीं है। ये डर ये दुख। अपने लिए था। मैं शायद यही सोच रहा था कि क्या हम भी इसी तरह किसी भी रोज मार दिए जाएंगे। बेवजह । क्या हमारी जिंदगी की कोई कीमत नहीं। कोई महत्व नहीं। हम सिर्फ आज शाम तक इसलिए जिंदा हैं क्यों की किसी ने हमें मारने की जरूरत नहीं समझी।
आखिर क्या दोष है। उन लोगों का जो अपनी जिदंगी के रोज मर्रा के संघर्ष करने में व्यस्त है। और इन्हीं संघर्षों के दौरान मार दिए जाते हैं। कुछ सिरफिरे लोग आते है। हमें रेत के घरों की तरह ढहा देते है। और हमारे पास रह जाते हैं। सिर्फ कुछ बयान। जांच के भरोसे। प्रधानमंत्री की संयम की अपील। मुख्यमंत्री की मुआवजे की घोषणा। और अस्पतालों में मरीज। जो मुआवजें को भटकेगें। सालों। विपक्ष के आरोप। और हम जैसे पत्रकारों की कुछ खबरें।
हो सकता है। मैं कुछ डरा हुआ हूं। इसलिए इस तरह की बातें लिख रहा हूं आप को क्या लगता है। कि क्या हल है इस तरह के हादसों को टालने का। हम इस लिए जीएँ कि हम कुछ सार्थक। कुछ रचनात्मक करना चाहते। इस लिए नहीं कि हम अभी तक आतंकवादियों की आँखों में खटके नहीं है।

Tuesday, July 12, 2011

टेक्नालॉजी क्या हमें अपनों से दूर कर रही है।

सुबह उठता हूं। कंप्यूटर चालू करता हूं। नेट के जरिए सारे ई पेपर देखता हूं। अपनी बीट की तमाम खबरें खंगालता हूं। और फिर फोन पर मीटिंग शुरू होती है। इसके बाद खबर करने की तैयारी। और घर से निकलता हूं। इस बीच तमाम google-alerts खोल खोल कर पढ़ता रहता हूं। कहीं कोई खबर बन तो नहीं रही हैं। कहीं कोई खबर अपन से छूट तो नहीं रही है। लिहाजा कई बेव साइट्स खोलता रहता हूं। इस बीच अपने साथी रिपोटर्स को फोन के जरिए टटोलता रहता हूं। जब भी मौका मिलता है कहीं भी टीवी देखने का फायदा उठा ही लेता हूं। फोन पर हर एसएमएस। हर मेल। ध्यान से देखता रहता हूं। खबर बनाई। और फिर घर लौट आए। नहाता बाद में हूं। पहले तमाम चैनल्स देखता हूं। फिर रात में मेल चेक करता हूं। और हां अब ब्लाग लिख रहा हूं। इस बीच फेस बुक पर भी कुछ न कुछ करता रहता हूं। अब इस बीच कहां समय हैं। किसी के लिए। वो पत्नी हो या मां। दादी हो या कोई दोस्त।
टेक्नालॉजी ने हमें धोखा दिया है। कहा तो ये गया था। कि इससे हमारी जिंदगी आसान होगी। जिंदगी सुविधाजनक होगी। लेकिन हुआ उल्टा। हम खाली होने की वजाए। इसमें उलझते चले गए। दफ्तर अब घर पर भी आता है। lap-top की शक्ल में। कंप्यूटर बंद ही नहीं होता। फोन बाथरूम में लेकर भी जाना पड़ता है। एसी के चलते दरवाजें बंद करके सोते है। अब सोते सोते किसी से बातचीत नहीं होती। हां कोई फोन बाहर से आजाए। तो बात अलग है। अब पत्नी के उठाने से पहले ही फोन का अलार्म बज जाता है। कई बार अपना तो कई बार उसका। अपना पहले बजे तो कोई बात नहीं। उसका पहले बजे तो गुस्सा आता है।
आप को खूब याद होगा। जब किसी का जन्मदिन होता था। तो हम कभी चिट्ठी लिखते थे। तो कभी ग्रीटिंग कार्ड भेजते थे। फिर फोन भी कर लेते थे।अब एसएमएस कर देते हैं। वो शुभकामनाएँ रेडीमेड फोन में लिखी आती है। उन्हें सिर्फ हम भेज देते है। अब हम अपनों से मिलने नहीं जाते। हां फेसबुक पर चैट कर लेते है। अब तो अपनों की याद भी किसी कंपनी की मुलाजिम हो गई है। जो सिर्फ संडे की संडे आती है। क्या इस नई दुनिया के चलन ने हमसे सब कुछ छीन लिया है। रिश्ते। सुख। अपनापन। मजा। और थमा दिया है। एक नई टेक्नालॉजी का झुनझुना। जो हम अब छोड़ भी नहीं सकते। और रखते हैं। तो जिंदगी का मजा जाता है। अब आप ही बताइए। इसने हमें अपनों से दूर किया है। या करीब लाई है। अपनी बात हम बताइएगा जरूर।

Monday, July 11, 2011

क्या गिफ्ट दी थी आपने पहली बार किसी अपने को।

कुलू का बेटेम फोन आया। घर से कोई भी फोन सुबह नौ बजे से रात ग्यारह बजे के बीच नहीं आता। आता है। तो नंबर देखकर ही मैं नर्वस हो जाता हूं। फोन आन करने और सुनने के बीच का समय भी बुरा गुजरता है। फोन उठाया और जल्दी से बोला। बोल। क्या हुआ। वह हंसने लगा। बोला परेशान मत होइए। कोई खास बात नहीं। तो फिर फोन क्यों किया। मैं दादी को चैन लाया हूं। इसीलिए। लेकिन वे कहती हैं। कि चूंचूं की चैन का मजा कुछ और था। हालांकि दोनों उपहारों में जमीन आसमान का अंतर है। कीमत में और समय में।
हमें जिंदगी में कई बार कितनी जल्दी रहती है। कि माफिक वक्त का इंतजार ही नहीं होता। उन दिनों हम पढ़ते थे। स्कूल में। मन में आया। और हमने चूंचूं एडवर्टाइजर्स खोल ली। संबंध अपने थे ही। काम भी मिलने लगा। भाग्य से एक चुनाव भी आ गया। कुछ रुपए भी कमा लिए। फिर क्या था। अपन उद्योगपति हो गए। दादी को ले गए। और एक सोने की चैन खरीद लाए। जिंदगी में उसके बाद कई लोगों को गिफ्ट दिए। लेकिन वह न पहले जैसा उत्साह मिला। न गिफ्ट देने की अंदर हूक उठी। बस कभी औपचारिकता में तो कभी परंपरा निभाने के लिए। तो कभी धंधेबाज की तरह व्यवहार लौटाने के लिए। लेकिन गिफ्ट देनें में जो एक मजा आता है। वह जाता रहा। वजह समझ में नहीं आती।
मुझे ऐसा लगता है कि किसी को प्रेम करने की अपनी intensity कम हो गई है। प्रेम करने के लिए एक ताकत और उत्साह के साथ साथ जो एक उतावला पन होना चाहिए। वो नहीं बचा। मैं पिछले कुछ सालों से जितना तनाव में रहता हूं। मुझे उतना ही बच्चा होने की इच्छा होने लगती है। मुझे फिर से कोई वो हुनर सिखा दे। जब किसी को कुछ देने में उतना ही मजा आए।जितना सालों पहले दादी को चैन देते वक्त आया था। आपने भी किसी अपने को कभी न कभी कुछ गिफ्ट दी होगी। क्या थी गिफ्ट। और किसे दी थी। हमें जरूर बताइए। और क्या आपको अभी भी कुछ देने में मजा आ रहा है। तो ये हुनर हमें भी सिखाइए।

Sunday, July 10, 2011

चंदा करके जन्मदिन मनाना। आपने भी किया होगा।

हमने कहा तो था। पर सागर नहीं जा पाए। 11 जुलाई का वायदा था। जीबू से। बहुत पहले ही कह दिया था। इस बार तुम्हारा जन्मदिन साथ मनाएँगे। उसे कई तरह के सपने भी दिखाए थे। होटल में चलेगें। तुम्हारे दोस्तों को ले चलेगें। पार्टी करेंगे। मजा आएगा। लेकिन ये हो नहीं पाया। एक गुनहगार की तरह कहा। रिजर्वेशन कैंसिल करा रहा हूं। फिर आउंगा। औज 12 बजते ही फोन किया। हैपी बर्थडे कहा। पूछा जन्मदिन मन रहा है। बोला हां। केक लाए थे।बोला, मुंह में हैं। इसके आगे न मैं पूछ सका। न वो बताने के मूड में था। बात खत्म हो गई।
जीबू हमारे सबसे छोटे भाई हैं। इस साल वे पांचवी में पहुंच गए है। उन्हें जन्मदिन मनाने का बहुत पहले से शौक है। जन्मदिन किसी का भी हो। वे मनाते जरूर हैं। अपनी बहिन से लेकर दादी तक। सबका जन्मदिन उनके लिए त्यौहार की तरह होता है। होली। दशहरा। गणपति या फिर जैसे मंदिर बनाने के लिए लोग उत्साहित होकर बंदी लेकर घूमने लगते हैं। जीबू भी उसी तरह हफ्ते भर पहले से ही चंदा उगाहने लगते है। हर किसी के पास जाकर बताते हैं। कि अमुख आदमी का जन्मदिन है। बताना नहीं। चंदा चाहिए। लेकिन एक दिन में वे कई बार चंदा मांगते है। कई बार एक घंटा में तीन बार भी मांग लेते है। देने वाला नाराज होकर चिल्लाने लगता है। और घर को पता चल जाता है। किसी का जन्मदिन आने वाला है। और चंदा शुरू है।
अनुभव आदमी को जिंदगी कैसे सिखाता है। ये जीबू से जानिए। पहले वे मैन्यू बनाते थे। केक। चिप्स। कोल्ड ड्रिंक। और गिफ्त। फिर चंदा शुरू होता था। लेकिन कई बार चंदा कम पड़ जाता था। सो फिर दुबारा चंदा की प्रकिया शूरू करनी पड़ती थी। अब सुना है कि चंदा का तरीका बदल गया। अब पहले चंदा होता है। फिर मैन्यू बनता है। और हां एक फुग्गा जरूर आता है। जिसमें चमकनी कागज भरे होते है। और उसे वे खूद ही फोड़ते है। जैसे चंदा करने वाला भगवान की पहली पूजा खुद ही करता है। लेकिन जीबू उदास थे। कहते थे। कि उनका जन्मदिन शायद ठीक तरीके से मनाया नहीं जा रहा है। बात साफ थी। कहीं चंदे की सुगबुगाहट नहीं थी। सो उन्हें शंका थी। लेकिन बात कुछ बनती गई। और जन्मदिन मन गया।
बात सिर्फ जीबू के जन्मदिन की नहीं है। न ही चंदे की है। लेकिन हम जो अपने अंदर एक सन्नाटा देखते हैं। महसूश कर रहे है। वह खालीपन है। हमारे अंदर का। हम खाली हो रहे है। हमारे अंदर न कोई रिश्ता बचा है। न ही कोई खुशी की दरार। हम दूसरों की खुशी में खुश हो नहीं सकते। हमारे पास अपनी बची नहीं। शायद यही अकेलापन जो हमें दुखी और निराश करता जा रहा है। बचपन में आपने और हमने भी इसी तरह खुशियां इकठ्ठी की थी। जब हम मजे में थे। अब समझदार हो गए हैं। पर दुखी है। चलो जीबू की तरह एक बार किसी का जन्मदिन मनाते हैं। चंदा करते है। आपके हिस्से का चंदा में आपको बता दूंगा। भेज दीजिएगा। जन्मदिन किसी न किसी का मना ही लेगें।

Sunday, July 3, 2011

कमजोर दिल के लोग समाचार न देखें।

अपने घर का टीवी बंद नहीं होता। जब तक घर पर रहता हूं। देखना ही पढ़ता है। कई बार घर पर नहीं हूं तब भी टीवी चलता रहता है। पत्नी को आदत हो गई है। समाचार के आवाज की। हो सकता है उसे भ्रम बना रहता हो। कि मैं घर पर हूं। इसके साथ ही हर घंटे हर चैनल को बदलकर हेडलाइंस सुनता रहता हूं। किस के हाथ क्या लग गया। कहीं खबर बड़ी न हो जाए। या फिर इस पर भी नजर रखनी पड़ती है। कि कोई खबर अपन से छूट तो नहीं गई। सो समाचार चैनलों को खंगालता रहता हूं। छुट्टी के दिन भी।
संडे था। अपनी एक छोटी बहिन बबली के घर खाना खाने गया था। वैसे अपन समाज में काफी बदनाम है। लोगों के घर न जाने के लिए। कुछ दिन में शादी को तीन साल हो जाएंगे। और अब तक दिल्ली में सिर्फ तीन लोगों के घर ही खाना खाने जा पाया हूं। सो लौटते में देर हो गई। आया और फटाफट चैनल बदलने लगा। खबरें खोजने लगा। हेंडलाइंस सुनने के लिए परेशान था। समय हुआ। और खबरें शुरू हुई। 13 साल के लड़कों को गोली मारी। उसका अपराध था कि पेड़ पर चढ़ा था फल खाने के लिए। एक अस्पताल से गर्भवती महिला को बाहर धकेला। अस्पताल के बाहर बच्चे को जन्म दिया। लखीमपुर में पुलिस वाले ने ही मारा है बच्ची को। इसके बाद पटना पुलिस ने बेरहमी से घसीटा युवक को। दिल्ली के एक इलाके में लाश मिली 12 दिन बाद। नरेला में मां ने बेटी को जहर दिया। खुद फांसी लगाई। रायबरेली में 22 साल की महिला के साथ सामूहिक बलात्कार। और अपन ने टीवी बंद कर दिया।
टीवी बंद करके मैं सोचता रहा कि इतनी हिंसा देश को कहां ले जा रही है। हमारी संवेदनशीलता को क्या हो रहा है। क्या हम ये तमाम चीजें टीवी पर न देखें न दिखाएं। शुतुरमुर्ग की तरफ अपना सिर रेत में छुपा ले। या फिर टीवी बंद करके गालियां दें। कभी मीडिया को कभी सरकार को। करें क्या। कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन यह जरूर है कि अगर इसी तरह से हमारे देश में ये हरकतें होती रही। तो तय मानिए। हमें लिखना होगा। कमजोर दिल वाले लोग समाचार न देखें।

Saturday, July 2, 2011

गरीब की आह से पत्थर पिघलता है। सरकार क्यों नहीं।

मेरी दादी मुझ से कहती रही है। बेटा धोखे से भी किसी गरीब का दिल मत दुखा देना। गरीब की आह से पत्थर पिघल जाता है। मुझे पता है। दादी झूठ नहीं बोलती। मैंने पत्थर को कभी भी पिघलते हुए नहीं देखा। फिर भी भरोसा है। दादी की बात पर। मैं कोशिश करता हूं। किसी का दिल न दुखे।लेकिन आज जब दफ्तर से फोन आया कि मंहगाई पर लाइव करना है। लोगों के साथ। सो अपन ने कुछ लोग जमा किए। और सवाल पर सवाल पूछने लगे। उनके जबाव सुनकर हम हैरत में थे। कि मंहगाई बढ़ती जा रही है। लोग परेशान है। आह निकल रही है। पत्थर पिघलेगें या नहीं। मैं नहीं जानता लेकिन सरकार नहीं पिघलती दिखती।
मैंने सोचा था। आपसे कहा था। मुझे याद भी है कि ब्लाग पर मैं राजनीति नहीं लिखूंगा। क्यों की यह कोई राजनैतिक पटल नहीं है। मेरा और आपका रिश्ता बनाने वाला जरिया है।जहां हम आपके कंधे पर सिर रख कर रो सकेंगे। अपनी बात आप से कह सकेगें। लेकिन मंहगाई का मुद्दा। राजनैतिक नहीं है। हमारी बेवसी का है। हम कुछ नहीं कर पाते। उन प्रणव मुखर्जी का जो इतनी बेशर्मी से पेट्रोल डीजल और गैस मंहगी करते है। फिर कहते हैं। राज्य सरकारें इन्हें सस्ती करें। ये लोग आप और हम से चालाक है। चतुर हैं। लेकिन इन्हें ऐसा क्यों लगता है कि अपन दोनों मूर्ख है। अगर तुम दिल्ली में बैठकर राजनीति कर रहे हो।तो वे क्या राज्यों में बैठकर सेवा कर रहे है। सब्जियां। फल। गैस। डीजल। दूध। और अब दिल्ली में बिजली मंहगी होती जाती है। और सरकारों के पास बहाना है। मैंने एक बार शीला दीक्षित से पूछा था। जब वे पानी मंहगा कर रही थी। उन दिनों हम दिल्ली सरकार देखते थे। हमने पूछा था कि आपकी सरकार किसी लाला की दुकान है। जो घाटा और मुनाफे के लिए चुनी गई है। या फिर जनता की सेवा के लिए। और लोगों को पानी मुहैया कराना हमारी संस्कृति में पुण्य का काम है। धंधे का नहीं। वे चूपचाप मुझे घूर कर चली गई।
ढीठ कपिल सिब्बल का कुछ नहीं कर पाते हैं हम। वे मंहगाई के आंकड़े गिनाते है। क्या करें हम उस मनीष तिवारी का जो एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की मंहगाई पर अभी भी तारीफ किए जा रहे हैं। कहते है। उनकी वजह से ही हमारी अर्थव्यवस्था बची हुई है। लेकिन अगर हम और आप सुख में नहीं हैं।तो हमारी सरकारें क्या बचा रहीं है।
इन तमाम बातों के बाद भी मुझे अपनी दादी पर भरोसा है। वे कहती है । तो गरीब की आह से पत्थर पिघलता ही होगा। और एक न दिन ये तमाम निकक्मे लोग पिघलेंगे। और इनका नाम लेवा भी कोई नहीं होगा। मुझे अपनी बेवसी के लिए रोना है। आपका कंधा चाहिए।

Friday, July 1, 2011

पत्नी की साड़ी और हाफ पैंट

अपन जनसत्ता में नौकरी करने दिल्ली आए थे। दिव्या दीदी उन्हीं दिनों साकेत में रहती थी। वे कलेक्टर होने की तैयारी कर रही थी। सो हम भी साकेत में ही रुक गए। जब से इसी इलाके में ही टिके हैं। पिछले 15 सालों में जिंदगी में कुछ नहीं बदला। सिर्फ जनसत्ता से सहारा में आ गए। पहले डायरी पेंन लेकर घूमते थे। अब कैमरामेन को साथ लेकर घूमते हैं। जब अपन सागर से दिल्ली आए। उन दिनों अनुपम पीवीआर नया खेल था। बुनियादी रूप से यह एक टाकीज है। जिसमें कई सिनेमाहाल एक साथ है। और आसपास खाने पीने की मंहगी दुकाने। यहां पर चाय पान की कीमत दो गुनी से ज्यादा होती है। पार्किंग वाला भी उस समय अंग्रेजी में चेंज मांगता था...।
यह जगह अपने जैसे कस्बाई मानसिकता वाले व्यक्ति के लिए दूसरी दुनिया थी। अंग्रेजी में फर्राटे से बोलती लड़कियां। धुओँ के छल्ले उड़ाती लड़किया।शराब पीकर नांचती लड़किया। शार्ट स्कर्ट उसी समय चले थे। उन्हें पहनकर आत्मविश्ववास के साथ घूमती लड़किया। उन्हें देखकर कई बार लगता था। कि यहां आकर एक नई उपलब्धि हासिल कर ली है। हम भी अपने समाज से एक साथ कई सीड़ी उपर चढ़ गए है। जब कभी छुट्टी होती। या फिर स्टोरी जल्दी फाईल कर देता।तो लौटते में कुछ देर यहां बैठकर चाय पीता। पान के अपन पुराने शौकीन है। और जिस तरह से हम फिल्मों के जरिए विदेश घूम आते हैं। अपने हीरों के जरिए हीरोइन के साथ नच लेते है। वैसे में भी एक चाय और एक पान के साथ इस आधुनिक समाज का हिस्सा हो जाता था।
वक्त तेजी से निकलता है। पिछले 15 साल पता हीं नहीं चले।और वे चलते गए। हम सिर्फ कैंलेंडर बदलते गए। हां इस बीच मेरी शादी भी हो गई। अब कभी कभार जल्दी घर आ जाता हूं। तो थकान के कारण घर से निकले की इच्छा हीं नहीं होती। छुट्टी के दिन वे किताबें जो कई दिनों से इंतजार में होती है। उन्हें पढ़ने बैठ जाता हूं। और कुछ सालों पहले मेरे घर के सामने साउथ दिल्ली के सबसें मंहगे और सबसे सुंदर मॉल भी बन गए। सो पीवीआर जाना और भी कम हो गया।
आज कई महीनों बाद। अपन घर जल्दी आ गए। चाय और पान की पहले जैसी हूक उठी।सो पीवीआर चले गए। अब पत्नी को साथ ले जाना जरूरी लगता है। जैसे मंदिर जाते समय प्रसाद लेकर जाना ही पड़ता है। गुंजाइश हो या न हो। अपन ने भी खानापूरी की। और उसके साथ निकल लिए। अब वहां का माहौल और भी बदल गया। हमनें करीब दो तीन हजार लोगों को फिल्म का टिकिट लेते। खाना खाते। या फिर घूमते देखा। मैं बदलते हुए समाज को देखने में व्यस्त था। लेकिन मैंने देखा कि जहां से भी निकलता हूं। लोग हमारी तरफ जरूर देखते हैं। खासकर लड़कियां। कुछ देर बाद पता चला कि वे मुझे नहीं मेरी पत्नी को घूर रही हैं...और उसे भी क्यों। उसकी साड़ी को। उन्हें शायद अटपटा लग रहा था। और फिर मुझे भी लगने लगा। उस पूरे समाज में एक भी महिला साड़ी पहने नहीं दिख रही थी। हां अब ज्यादातर लड़किया हाफ पैंट पहने थी। कुछ ताई। या फिर एक दो मेरी दादी की उम्र की महिलाए। भी दिखी। वे सलवार सूट पहने थी। मुझे समझ में नहीं आया। हम इनके समाज के नहीं है। या फिर ये हमारे समाज की नहीं है। मैंने पत्नी से कहा कि अगली बार या तो तुम हाफ पैंट पहन कर आना।या फिर घर पर ही चाय पी लेना। पता नहीं उसे क्या ठीक लगेगा। मैं आपको बताउंगा जरूर।