Thursday, September 29, 2011

दादी का फोन आया। मूंगफली आ गई। तुम कब आओगे।

पिछले कई महीनों से मैं बहाना बना रहा था। जब देशी मूंगफली मिलने लगेगी। तब आउंगा। पिताजी इस फसल की पहली मूंगफली लाए थे। घऱ के लोग बताते हैं।दादी ने मूंगफली खाई बाद में। पहले फोन किया। में चिंदबरम और प्रणव मुखर्जी के मेल मिलाप पर नजर रखे था। तभी नार्थ ब्लाक में फोन बजा। और दादी की आवाज आई। सागर में देशी मूंगफली मिलने लगी है। घर भी आ गई है। तुम छुट्टी की बात कर लो। और आजाओ। और हां। इस बार ज्यादा दिन की छुट्टी लेकर आना। तुम्हारा आना पता ही नहीं चलता है.....इतना कहकर उन्होंने फोन रख दिया। वे पिछले कुछ सालों में खबर की urgency भले न समझी हों। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया की व्यस्तता समझ गई है।
कुछ लोग कहते हैं। बंगाली रसगुल्ला खाना है तो कोलकत्ता चलो। बड़ा पाव के लिए मुम्बई चलो। मथुरा में चाट का मजा है। तो आगरा में पेठा। और पत्नी कहती है कि इलाहाबाद में अमरूद अच्छे मिलते हैं। लेकिन जो मजा अपन को सागर में मूंगफली खाने में आया। वो और कहीं नहीं मिला। बात स्वाद की नहीं। मजे की है। सागर की मूगंफली। मूंगफला कहलाती है। उनमें एक अलग तरह की नमी रहती है। जो स्वाद को और ज्यादा बढ़ाती है। पूरे साल में यह देशी मूंगफली सिर्फ कुछ दिनों के लिए ही मिलती है। मूंगफली तो पूरे शहर में एक जैसी ही मिलती हैं। लेकिन जो दुकानदार अच्छी चटनी बनाता है। दुकान उसी की चलती है। मूंगफली का महत्व मैंने जनसत्ता में समझा। मैं उन दिनों सुधीर चाचा से पत्रकारिता की एबीसीडी सीख रहा था। सागर जाते समय में मैंने पूछा । आपको कुछ लाना है क्या। वे बोले मूंगफलां। और मैं उन्हें ले आया। उन्होंने छुट्टी लेकर उन्हें भूंजा। और खाया।
मूंगफलां खाने का मजा। सागर में ही है। अपन ने दिल्ली लाकर और भूंज कर देख लिया। बात बनी नहीं। फिर मुझे लगा जैसे चाय स्वाद की बात नहीं होती। आप जिसके साथ बैठकर पीते है। मजा उसका साथ देता है। यही बात सागर की है। दोस्तों के साथ कितने बार हमने घंटों मूंगफलां खाया। उन्हीं ठेलों पर कबीर से लेकर शेक्शपीयर और पिकासो से लेकर खलील जिब्रान तक पर गप्पे ठोकी। अल्ला रख्खा का तबला और रविशंकर जी की सितार इन्हीं ठेलों पर चर्चा में घुली और और हम मूंगफलां के साथ खा गए।
दिल्ली जैसे महानगर में जहां हर मिनिट की कीमत होती है। वहां पर कोई ठेले पर घंटों खडे़ होकर मूंगफलां खाने की सोच भी नहीं सकता। लेकिन सागर में यह आम बात है। एक बार में सिर्फ कुछ लोगों को ही मिल पाती। फिर करीब आधा घंटा इंतजार करना पडता है। अपनी बारी का। इस तरह से कई बार घंटों मूंगफलां खाई। इस बार देखो क्या होता है। पिछले कई सालों से सागर सही वक्त पर नहीं पहुंच पाया। और इन्हें खा नहीं पाया। अगर सागर इस बार गए और मूंगफलां आते रहे। तो खाकर आंएगे। अगर आपको फुर्सत हो तो हमारे साथ चलिएगा। macdonalds और domminos से ज्यादा मजा आएगा। हमारे शहर में मूंगफलां के ठेलों पर। साथ में हरी चटनी। और ढेरों गप्पे।

Wednesday, September 28, 2011

सागर में धूम। दिल्ली में सन्नाटा

सोचा था। सुबह जल्दी उठेगें। नहा कर। पूजा करेगें। मंदिर भी जाएँगे। नवरात्र जो आरंभ हो रहे हैं। लेकिन कल रात दिल्ली में एक हादसा हो गया। एक इमारत गिर गई। कई लोगों की जान गई। कई जख्मी हुए। अपनी ड्यूटी लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल के बाहर थी। सो देर रात तक घायलों की स्थिति और मरने वालों की संख्या पर खबर भेजते रहे। देर रात घर लौटे। मन परेशान था। मौत जब भी करीब से देखों। दहला देती है। जिंदगी के तमाम मायने बेमानी लगने लगते है। सच को इस तरह करीब देखकर मन बैचेन होने लगता है। हमारी झूठी जिंदगी के महल ताश के पत्तें की तरह गिरने लगते है। तड़के तक सोचता रहा। सो नींद देर से लगी। उठा भी देर से। लिहाजा कुछ भी नहीं कर पाया। सिर्फ दादी को फोन किया। और जिस अंदाज में होटल से खाना मंगाते हैं। या पीज्जा का आर्डर देते है। कहा आशीर्वाद दे दो। दिन शुरू कर रहा हूं।
अपने सागर में नवरात्र की शुरूआत का मजा पहले से ही आने लगता था। काली जी बैंठेगी। पंडाल बनेगा। प्रतियोगिताएं होगी। हां और भाषण प्रतियोगिता जिसे में ही जीतता था। नौटंकी से लेकर रामलीला तक बस मजा ही मजा था। काली का तिगड्डे पर बैठना मानो किसी मेला जैसी रौनक का बिखरना हो। काली की मूर्ति का चुनाव करना। मूर्ति को कई तरीके से सजाना। अपने मोहल्ले की काली का पंडाल सबसे खूबसूरत हो इस पर दिमाग लगाना। नए नए प्रयोग करना। सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाना। कोशिश करना की एक दिन कवि सम्मेलन भी हो। ताकि मोहल्ले में अपनी धाक बरकरार रहे। और इस तरह पूरा महीना किस तरह निकल जाता था। पता ही नहीं चलता था।
हो सकता है आप लोगों ने शेर नाच न देखा हो। हमारे शहर में कुछ लोग मन्नत मांगते है। कुछ लोग शोकिया शेर बनते है। वे पूरी तरह शेर के रंग में डूब जाते है। उसी तरह अपने शरीर को पोतते हैं। और हर पंडाल पर जाकर शेर की तरह नाचते हैं। नांचने की यह विधा एक दम अलग तरह की है। और इसके अलावा फिर सप्तमी को रामदल निकलता है। इसमें अखाड़े निकलते हैं। अपने अपने उस्तादों के साथ। पूरी तरह सजे हुए लोग। अखाड़े के पूरे हथियारों के साथ। और फिर आता है दशहरा। जिस दिन काली निकलती है। हमारे यहां रावण दहन इतनी बड़ी घटना नहीं होती। हां काली का निकलना पूरी रात चलता है। उस रात शहर में घूमने में कई तरह का मजा आता है। एक तो आपको वे दोस्त भी मिल जाएँगे। जिन्हें आपने सालों से देखा ही न हों। उनके साथ गप्पे। चाय पर चाय और पान। दशहरा का मजा कई गुना करता है।
दिल्ली में पता ही नहीं चलता। न नवरात्र का । न काली के बैठने का मजा आता है। कुछ देर पहले घर लौटा हूं। दादी से बात हई। उन्होंने बताया आज तो पूरा दिन बाजों की आवाज सुनते ही निकला। और मौहल्ले की काली बैठ गई रौनक पहले जैसी नहीं हैं। लेकिन अच्छा लग रहा है। मोहल्ले में काली कमेटी का अध्यक्ष नामवर आदमी बनता था। बात साफ थी। जिसका चरित्र साफ सुथरा और इमानदारी वाला हो। मोहल्ले में जिसकी इज्जत हो। हां उसे आरती करने मिलती थी। और वह पूरे पंडाल का महाराजा होता था। मुझे बचपन में कई बार लगा। मैं बड़ा होकर। काली कमेटी का अध्यक्ष बनूंगा। और हर साल बनता ही रहूंगा। लेकिन वक्त ने मुझे अध्यक्ष भी नहीं बनने दिया। और मोहल्ला ही छुटवा दिया। अब दिल्ली में न काली कमेटी है। और न परकोटा मोहल्ला। मैं किसका अध्यक्ष बनूं।

Sunday, September 25, 2011

कब तक पंजों के बल पर खड़े रहेंगे हम।

आप चाहे तो आशीष देवलिया को गालियां दे सकते हैं। उनका नंबर है ....९८७१०१७३७० । अगर आपको मेरा ब्लाग बुरा लगता है तो। अगर अच्छा लगता है। तो उन्हें बधाई दीजिए। अपन कंप्यूटर की तकनीक को लेकर पूरी तरह से अपढ़ है। अपना कंप्यूटर खराब हो गया। उसमें वाइरस आ गया। और मेरा हिंदी फोंट खराब हो गया। उसे वापस लाने की कोशिश की। लेकिन हुआ नहीं। अपन समझ गए। अपने कूबत में नहीं है। फिर आशीष से कहा और उन्होंने कोशिश करके। इसे चालू किया। और फिर से हम अब ब्लाग लिखना शुरू कर रहे हैं।
जो समय निकल जाता है। उसे याद करना। उसे लिखना कुछ अजीब सा मन में खिचाव पैदा करता है। लगता है। कि हमने अपने समय का इस्तेमाल ठीक तरीके से नहीं किया। वह यू हीं जाया हो गया। आप लोगों से महीनों बाद बातचीत हो रही है। कभी मैं बीमार रहा। तो कभी कंप्यूटर। कभी फोन गुम गया। तो कभी फोंट ही गुम हो गए। हां इन दिनों कुछ नई किताबें जरूर पढ़ी।
एक विचारक की बात मुझे बहुत अच्छी लगी। कि तुम ज्यादा देर तक पंजे के बल नहीं खड़े रह सकते। मैं यह बात पढ़ कर घंटों सोचता रहा। हम तो अपनी जिंदगी में पंजों के बल ही खड़े रहने की कोशिश करते रहते हैं। पूरा समय इसी में निकलता है। कि जो हम नहीं है। उसे हम बार बार जताना चाहते हैं। अपनी ऊंचाई से ज्यादा दिखना चाहते है। हम किसे धोखा दे रहे हैं। अपनी झूठी उंचाई से । अपने आप को । या फिर दूसरों को । लेकिन धोखे की उम्र इतनी छोटी होती है। कि हमें सिर्फ दुख ही मिलता है उससे।
आज अपने एक बहुत पुराने दोस्त नोएडा से आए थे। नवरात्री में उनकी बहिन को लोग देखने आने वाले है। वे मेरी पत्नी के कुछ जेवर उधार चाहते थे। मना करते या उन्हें फलसफा सुनाते तो वे शायद बुरा मान जाते। लगा कह दूं। कि जिंदगी का इतना बड़ा रिश्ता तुम तय करने जा रहे हो। वो भी झूठ की बुनियाद पर। यह कैसे और कितने दिन चल पाएगा। लेकिन हिम्मत नहीं हुई कहने की। हम क्यों बार बार पंजों पर खड़े होना चाहते हैं। पता नहीं। लेकिन में तो शायद अभी भी पंजे पर ही खड़ा हूं। आशीर्वाद दीजिए। कि वापस अपने पैरों पर आ सकूं।। हो सकता है कुछ बोना हो जाउं।लेकिन सच्चाई तो वही है। क्या कहते है।