Friday, August 6, 2010

जब एक बच्चे की गुल्लक फूटती है। तब हजार जवान सपने मरते हैं।

राजू भैया किराने की दुकान चलाते हैं। मोहल्ले की किराने की दुकान यानि सब कुछ मिलता है। जब भी कभी हमारे पास समय होता है। मैं अक्सर अपने मोटे भैया कि शिकायत दूर कर देता हूं। जाता हू। उनकी दूकान पर खड़ा हो जाता हूं। कभी आटे की बोरी पर बैठकर चाय पीता हूं। उन्हें कभी गालिब तो कभी कबीर। कभी क्राईस्ट तो कभी मोहम्मद सुना आता हूं। कलमाड़ी से लेकर शीला दीक्षित तक पर उनकी प्रतिक्रिया सुन लेता हूं। वे अक्सर कई चीजों को लेकर परेशान होते हैं। जैसे दो रुपए की सिगरेट लेने आए आदमी से। जो उन्हें अक्सर सौ का नोट देता है। वे जानते हैं। उसकी जरूरत सिगरेट नहीं फुटकर पैसे हैं। उसके जाते ही वे कहते भी हैं। सिगरेट का पैकेट लेगा सामने की दुकान से। और फुटकर लेता है मुझसे। बीबी को दफ्तर जाना होगा। बस का किराया चाहिए ना। सो सिगरेट लेने आ गए। जब वे इस तरह की दिक्कत से दो चार हो रहे थे। तभी एक आदमी एक हाथ में पालीथिन लिए आया। उसमें चिल्लर थी। और उसके पीछे। चल आया। चिल्लर का मालिक। जैसे चिंता में जवान बेटी के पीछे पीछे अक्सर मां चलती हैं।
उस आदमी ने तीन चार पालीथिन मिलाकर जो एक सुरक्षित थैला बनाया था। वह उसने भैया के काउंटर पर रख दिया। उन्होंने पूछा क्या है। वह कुछ बोलता इसके पहले वह बच्चा बोल पड़ा। चिल्लर हैं। मेरे गुल्लक की। 87 रूपए हैं। और दो चार आने भी। भैया चिल्लर देखकर इतने खुश हो गए कि उन्होंने उसे गिनने की भी जरूरत नहीं समझी। पूछा पक्का गिनकर लाए हो। जवाब फिर बच्चे ने ही दिया। पांच बार हमने गिनी है। दो बार पापा ने। भैया ने चिल्लर अपने काउंटर में डाल ली। और उनकी आंखे चमक गई। जैसे आज शाम का मोक्ष उन्हें मिल गया। और चिल्लर की खनक सुनकर उस बच्चें की आंख में मैंने एक ऐसा मरघट देखा। जहां पर किसी हादसे के बाद हजार सपने एक साथ जलते हों। मेरी आँखो में पानी भर आया। लेकिन मैं सिर्फ उस मातम में शामिल हो सकता था। मैं शिव की तरह किसी को जिंदगी नहीं दे सकता। न आदमी को न मरे हुए सपनों को। भैया ने 87 रुपए उसे दिए। और दो चार आने वापस कर दिए. ये नहीं चलेगें। उसने पूरी पवित्रता के साथ जेब में रख लिए। इलाहबाद से लौट रहे किसी सन्यासी के कमंडल में जिस तरह गंगा चलती है। उसी पवित्रता के साथ वे दो सिक्के बच्चे की जेब में खनकने लगे। दुकान के काउंटर पर रखी कई चाकलेंटों की बर्नियों पर उसने नजर दौड़ाई। और फिर उसकी आँखे चुप हो गई। मैं भैया की तरफ देखा। वे न जाने क्या समझे और उस बच्चें को दो टाफियां दे दी। पिता से पैसे भी नहीं लिए। यही दो टाफियां मुआवजा थी। उसकी गुल्लक का।
हो सकता है कि आप को लगे कि मैंने 87 का रुपए का फसाना बना दिया। दिल्ली में कौन इतना गरीब है। जो 87 रुपए के लिए अपने बच्चे की गुल्लक फोड़ता है। और यह रकम भी ऐसी नहीं है। जिसके लिए ब्लाग लिखा और पढ़ा जाए। लेकिन आप अपना बचपन याद करिए। आपने भी कोई गुल्लक कभी न कभी जरूर बनाई होगी। उसमें चिल्लर भी डाली होगी। अब सोचिए कहां से आती है वह रकम। जब कोई रिश्तेदार घर आता है। और कुछ दे जाता है। वे सिक्के जो लेकर आप पूरा बाजार घूमते हैं। कभी कुल्फी खाना चाहते हैं। तो कभी आलू चाट। कभी हरा सर्बत। कभी चमड़े के काले जूते लेना चाहते हैं। तो कभी सुंदर सा बस्ता। कभी रंगीन चश्मा तो कभी चाबीदार हैलीकाफ्टर लेकिन फिर आप तमाम चीजों पर संयम की दीवाल खड़ी कर देते है। और उस चिल्लर को गुल्लक में डाल देते है। कितने बार आप कई घंटे ज्यादा पढ़े है। परीक्षाओं के समय। और आठ आने मिले। कितने बार पिता के साथ घूमने नहीं गए। और सिक्का ले लिया। कितने बार उनके पैर दावे और चिल्लर ले ली।
मैं यकीन के साथ कह सकता हूं। वे 87 रुपए उस बच्चें ने हजार दिनों में जमा किए होगें। और लाखों बार अपनी इच्छाओं के साथ सौदा किया होगा। जब कहीं जाकर इतनी रकम बनती है। जिसमें दो चार आने खोटे भी निकलते हैं। कितने सपने होगें। जो इससे पूरे होने होगें। सपनो की तादाद और उनकी तीव्रता सिर्फ उस बच्चें की आंख में ही दिख सकी। मैं उसे लिख नहीं सकता। लेकिन उस बच्चें को कौन बताए। इसी देश में कलमाड़ी भी रहते हैं. जो कामनवैल्थ खेल करा रहे हैं। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगने लगे हैं। खेलों पर 87 हजार करोड़ रुपए खर्च होगें। लेकिन एक घर ऐसा भी है जो अपनी जरूरतों के लिए बच्चे की गुल्लक फोड़कर 87 रुपए निकाल लेता है। क्या आपको याद है कि कभी आपने भी अपनी गुल्लक फोड़ी हो किसी के लिए। कभी अपनों सपनो पर किसी की जरूरत को जिंदा किया हो। अगर ऐसा कोई वाक्या हो तो हमें लिखिएगा जरूर।

1 comment:

  1. मैंने तोड़ी है गुल्लक... लेकिन उसका फ़साना बयाँ नहीं करना चाहता

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