Sunday, May 30, 2010

शाम बीमार हुए। रात मर गए। सुबह उठे। चल दिए। जी रहे हैं लोग।

शाम बीमार हुए। रात मर गए। सुबह उठे। चल दिए। जी रहे हैं लोग। यह शेर। हमने करीब बीस साल पहले सुना था। जब हम कालेज में थे। कविताएं लिखते। और खूब सुनते-सुनाते थे। आपसे सच कहूंगा। उस समय मुझे यह समझ में ही नहीं आया था। मैंने न ऐसी जिंदगी देखी थी। और न दिल्ली । हम जब दिल्ली आए। और नौकरी करने लगे। फिर टेलीविजन की नौकरी करने लगे। अब इस महानगर की जिंदगी का हम हिस्सा बन गए हैं। अब हमें कुछ कुछ ये शेर समझमें आने लगा है। किस तरह से सुबह उठकर हम चल देते है। पूरे दिन का पता ही नहीं चलता। आधी रात को घर आते है। लगभग बीमार। और बिस्तर पर मरे हुए आदमी की तरह सो जाते है। और सुबह उठकर। फिर चल देते हैं।
आप भी मेरी ही तरह शायद जिंदा होंगे। अगर आप दिल्ली में हैं। या ऐसे ही किसी शहर में। ये शहर हमें दो जून की रोटी तो देते है। लेकिन इसकी कीमत आपको नहीं लगता कि कुछ ज्यादा ही वसूल लेते हैं। आपके परिवार में कोई शादी है तो लगभग मेहमान की तरह पहुंच पाते हैं। अगर किसी दूर के रिश्तेदार की शादी है तो टाल देते है। हमारी जिंदगियों से छोटी छोटी खुशियां कहीं गायब नहीं हो गई है।मुझे याद नहीं कि पिछले कितने सालों से मैंने किसी का मन भर के जन्मदिन या फिर किसी की शादी की सालगिरह मनाई हो। बिना किसी तनाव के फिल्म देखी हो। या फिर कहीं बाहर जाकर लंबें समय तक फुर्सत से बैंठे हों। कुछ आप ही बताइए। कहां से खोज कर लाऊ। जिंदगी में फुर्सत के रात दिन।

4 comments:

  1. sir yahi haal hai ghar hi saal me 1 2 baar ja paate hain...jaane kab purane jaise din wapas aayenge...

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  2. bilkul sahi chitran kiya hai.........yahi haalat hai sabhi ke........dil dhoondhta hai phir wo hi fursat ke rat din......hai na.

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  3. Sir Jindagi to ise hi kehte hai hazaron uljhno ko paar karne ke baad apne pariwar ko samay dena. samay bade sheron me milta nahi nikalana padta hai agar iska chitran bhi aap karte to logo ko inspiration milti

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