Sunday, November 14, 2010

रहीस आए थे हमसे रोशनी मांगने। हमने अपना झोपड़ा जला दिया।

आज खबरों का सिलसिला दिन भर चलता रहा। ए राजा का पीछा करते करते दिन पूरा निकल गया। ए राजा चेन्नई से दिल्ली आए। फिर प्रधानमंत्री के घर जाकर इस्तीफा दिया। दिन बदल गया। बारह से ज्यादा बज गए थे। घर वापसी के लिए रेसकोर्स से कोई साधन नहीं दिखा। ड्राइवर से कहा घर छोड़ दो। मेरा यह प्रस्ताव स्वाभाविक रूप से उसे अच्छा नहीं लगा। फिर भी मेरी तरह वह भी नौकरी करता है। सो वह मान गया। मैं जानता था। वह भी दिन भर से मेरी ही तरह भूखा है। हम दोनों में एक फर्क था। मुझे भरोसा था। कि मेरे घर पर पत्नी जाग रही है। और घर पर खाना है। उसकी आंखों में शंका थी। दफ्तर पहुंच कर। पराठें की दुकान खोजनी होगी। रास्तें में हम दोनों एक जगह उतरें। और मेंने उसके साथ एक फुटपाथ पर बैठकर खाना खाया। खाना खत्म हुआ। मेंने उसकी चमकती हुई आंखो में तृप्ती देखी। और वह सिर्फ बोला। भाईसाहब धन्यवाद। बहुत बहुत धन्यवाद।
हम और आप हर रोज ही किसी ने किसी के साथ पैसा खर्च करते रहते हैं। कभी चाय पर तो कभी पान पर। कभी कभार दोस्तों के साथ खाना पर भी। लेकिन हमें शायद यह उम्मीद रहती है। कि कल हमारे लिए ये भी खर्च करेंगे। आज जो हम इनके साथ कर रहे हैं। ये कल लौंटा देंगे। वह न मदद है। न दोस्ती। सिर्फ एक अच्छे किस्म का investment है। या फिर अगर हम कभी कभार त्योहार पर या फिर अपने बुजुर्गों की पुंण्य तिथि पर किसी गरीब को खाना खिला देते हैं। तो वह भी पुण्य की आंकाक्षा को लेकर किया गया एक सौदा है। जो हम अक्सर करते रहते हैं। लेकिन क्या बिना किसी आकांक्षा के बिना किसी सौदा के हम किसी के लिए एक कप चाय भी नहीं पिला पाते। वह शायद घाटा होगा। और हम घाटे के हामी नहीं है।
हम बचपन से ही एक बात देखते आए है। शादियां और दरवाजे पर व्यवहार कि कॉपी। जिसमें हिसाब रहता है। तुम्हारे साथ किसने क्या किया। इसमें लिखा रहता है। मुझे यह बात समझ में नहीं आती। हम अपने परिचितों के साथ वह व्यवहार नहीं करना चाहते। जो हमारी इच्छा है। लेकिन हम वह करना चाहते है। जो उन्होंने हमारे साथ किया है। या फिर हम उनकी हैसियत के हिसाब से हम अपना व्यवहार वापस करते है। छोटे शहरों में किसी भी रहीस आदमी के यहां शादी हो तो गरीब से गरीब आदमी भी ज्यादा से ज्यादा व्यवहार देना चाहता है। लेकिन गरीब मित्र के घर पर शादी पर वह इतनी तकलीफ नहीं लेता। मुझे यह प्रश्न कई बार परेशान करता रहा। कि हमारे संबंध अपनी हैसियत से बनाए जाने चाहिए। या फिर सामने वाले की हैसियत देखकर। हमारे एक दोस्त दिल्ली में है। वे तो कई कदम आगे है। वे कपड़े भी सामने वाले कि हैसियत देखकर पहनते है। जब किसी काबिल दोस्त की शादी होती थी। तो वे सूट पहन कर जाते थे। और उन्हीं दोस्त को मैंने कुर्ता पयजामा पहन कर भी शादियों में जाते देखा है।
हमारी मानसिकता का ये पहलू मुझे कभी समझ में नहीं आया। जिन्हें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है। तुम उनकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते हो। लेकिन जिन्हें तुम्हारी जरूरत है। तुम उनसे हमेशा बचते रहते हो। किसी रहीस को अगर रोशनी की जरूरत है तो तुम अपना झोपड़ा भी जला दोगे। लेकिन गरीब के लिए एक दिया भर तेल देना भी हमें शायद गंवारा नहीं होता। बात साफ है। यह मदद हम गरीब या फिर रहीस की नहीं करते है। यह मदद है हमारी अपनी। इस उम्मीद के साथ कि मदद उसकी करो। जो जरूरत पढ़ने पर लौटा सके। लेकिन मदद या सौदा नहीं है। कारोबार नहीं है। न ही बीमा कि कोई पॉलिसी है। जो वक्त पर काम आएगी। यह तो आत्मा का खेल है। मैंने भी तो 40 रुपए के दो पराठें खिलाकर ब्लाग लिख दिया। आप शायद यही सोच रहे होगें। लेकिन क्या करें। इच्छा हुई सो लिख दिया। हमारे ईश्वर तो आप है। सही या गलत जो भी लगे बताइएगा।

1 comment:

  1. CHHA GAYE GURU....
    KITNI SAHI BAAT KAH GAYE....
    LEKIN BADALTI DUNIYA KE DASTOOR HI BADAL CHUKE HAIN....BINA SWARATH KE KOI KUCHH BHI KARNE KO RAZI NAHI HAI...

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