Friday, April 30, 2010

चूंचूं, गबू, पोच्चमा, कुलू....प्रेम की शक्कर में पगे नाम

दादा ने पहली बार देखा तो कहा चींची बाबू। वक्त के साथ नाम छोटा हुआ। हम चींची हो गए। फिर धीरे धीरे चलन में चूंचूं आ गया। और अब हम अपना नाम बताते हैं....आलोक मोहन नायक ब्यूरो चीफ दिल्ली। सहारा एनसीआर। संयुक्त परिवार की विरासत से हमें प्रेम के ये छोटे नाम भी मिलते हैं। हर नाम के पीछे एक कहानी होती है। कई बार कोई घटना भी। दादी बताती है। दादा हमें अस्पताल देखने गए थे। तो हम चिंचिना रहे थे। इस बुंदेली शब्द का मुझे हिंदी अनुवाद नहीं पता है। सो दादा ने अपन को चींची बाबू कह दिया। फिल्म का गाना था। गपू गपू जी गम गम। बुआ सुनती थी रेडियों पर और छोटा भाई नाचता था। और वह गपू जी हो गया। वक्त के साथ साथ गपू जी गबू जी हो गए । छोटी बुआ की सहेली घर आती थी। वे साउथ इंडियन थी। उनके परिवार से मेरे पिता ने नाम उठाया और मेरी बहिन पर रख दिया। और वह पोच्चमा हो गई। कुलू वैली सुंदर जगह है। छोटे में छोटा भाई सुंदर था। सो वे भी कुलू वैली हो गए। अब वे कुलू हैं।
मुझे अपना नाम शुरू से ही पंसद है।शायद इस नाम से दादी बुलाती है। जब भी मुझसे बचपन में कोई नाम पूछता था...तो मैं चूंचूं ही बताता था। लोग कहते अच्छा वाला नाम बताओं। मैं कहता मेरे दादा ने रखा है नाम तो अच्छा ही होगा। फिर कहता बाहर वाला बताओं में कहता यही नाम बाहर ले जाउंगा। लोग मुझ बदतमीज समझकर पास खडे किसी गार्डियन नुमा आदमी से पूछते। इसका नाम स्कूल में क्या लिखाओगे। फिर कोई बताता। आलोक मोहन नायक।
छोटे नाम। घरू नाम। इनका महत्व कितना है। ये मुझे उम्र में काफी आगे समझ में आया। मेरे पिता के एक दोस्त हैं। जिनका तलाक हो गया था। लेकिन एक बेटी है। वह जब मेरे घर आई हमारे नामों को सुनकर रोने लगी। बच्ची छोटी थी। लेकिन बात बड़ी कह गई। उसने कहा मेरा प्यार का कोई नाम नहीं है। शायद मेरे माता-पिता को फुर्सत ही नहीं थी मुझे प्यार करने की। मुझे प्यार से बुलाने की। हालांकि मेहमान के ठीक आने से पहले जिस तरह हम प्लास्टिक के फूल गुलदस्ते में रख देते हैं। या फिर हलवाई के यहां से नास्ता ले आते हैं। उतना ही बनावटी नाम उसका उन लोगों ने रखा। लेकिन उस नाम में न रंग था। न संगीत। और न ही खुशबू।
लेकिन इन नामों में कई मजेदार होते हैं। मेरे पिता एक जगह गए थे। तो उन्होंने नाम पूछे। तो बडे भाई ने अपना नाम कलेक्टर राय बताया। छोटे ने एसपी राय। पिता ने मजाक में पूछा। डीआईजी राय और कमिश्नर राय कहां हैं। उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा। वो घर पर खेती करते हैं। पिता ने कहा ये तो अच्छा हुआ कि आपके पिता ने ब्यूरोक्रेशी से काम चला लिया। अगर मंत्रीमंडल बनाते तो मुश्किल हो जाती । इसी तरह मेरे रिश्तेदारों के नाम है पट्रोल.... डीजल और तीसरा भाई आयल है। पढ़ोस में एक बच्ची थोड़ी सी मोटी थी नाम हो गया फुग्गा। लिंग की दिक्कत थी। सो वे फुग्गी हो गई।
लेकिन अब दिल्ली के परिवारों में सिर्फ मम्मी पापा होते हैं। दादा दादी बुआ चाचा फोटो में दिखाई देते हैं। बच्चों के नाम अब घर के बुजुर्ग नहीं रखते। मम्मी इंटरनेट पर देखती है। पांच नामों की लिस्ट बनाती है। पापा से बहस होती है। और फिर नाम जो डाउन मार्केट न हो। बच्चे पर थोप दिया जाता है। मैं अपने नाम को अभी भी जोर से पकड़े रहता हूं। लगता है कि दुनिया की रफ्तार मुझ से इसे छीन कर न ले जाए। लेकिन फिर लगता है। दूर ही सही। दुनिया के किसी कोने में मेरी दादी इस नाम को रोज लेती है। कौन हैं। जो इसे मिटा सकेगा। फीका कर सकेगा। दादी पर भी कभी कभी समाज का प्रेशर काम करने लगता है। उन्हें मेरा नाम बिगड़ता हुआ दिखता है। लिहाजा वो कभी कभी मेरे दोस्तों को डांट भी देती है। कि अब वह बड़ा हो गया है। नाम बिगाड़ा मत करो। चूंचूं नहीं आलोक कहा करो। लेकिन मैं दादी से कहता हूं। जिंदगी तो अपन से संभली नहीं। पूरी बिगड़ गई। एक नाम ही हैं. जिसे में संभाल कर रखता हूं। और इश्वर से प्राथर्ना करता हूं। कि मुझे इतना बढ़ा कभी मत बनाना कि दादा का ये नाम मेरे लिए छोटा पड़ जाए।

5 comments:

  1. मजा आ गया आलोक जी...
    बेहतरीन... अदभुत...

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  2. नाम पुराण...मस्त!! आनन्द आया..

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  3. आलोक की लेखनी से वाक़िफ़ रहा हूँ, उनके सामाजिक पत्रकारिता के मिज़ाज से भी, लेकिन ठेठ हिन्दुस्तानी समझ के प्रति उनकी इतनी गहरी संवेदना से निराला परिचय हुआ। आमतौर पर सहारा समय में मेरे इस देसी दोस्त को हमने कभी आलोक कभी मोहन कभी नायक, कभी खलनायक और बारहा AMN से पुकारा। इस बार पता चला ये चूंचू भी हैं। कई दिलजोई की महफ़िलों में मैं चूंचू को छेड़ता रहा हूँ कि यार स्कूल में जब किताब पर नाम लिखते होगे तो आख़िरी पेज तक भर जाता होगा, एक बार उसने यही बात मेरे लिए (अख़लाक़ अहमद उस्मानी) के लिए कह दी समझ आया कि चुटकुला ख़ुद का भी बन सकता है। ख़ैर, देशज मूल्यों के लिए चूंचू का ये लगाव और समर्पण देखकर ख़ुशी हुई।
    टेलीविज़न की दुनिया में इतने सालों के बाद काम करने के बाद भी इतनी मेहनत मैंने बहुत कम पत्रकारों में देखी है। नववैवाहिक जीवन के आनन्द, दफ़्तर के दबाव और अपनी मेहनत के प्रति श्रद्धा रखते हुए इतना कोमल रहते हुए लेख के लिए समय निकाल लेने के चूंचू के प्रयास को साधुवाद।

    उनकी दादी से मिलने की हसरत में मुन्तज़िर चूंचू का दोस्त ही नहीं उनके सर्जना का कट्टर समालोचक भी। यार अख़लाक़

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