Wednesday, April 28, 2010

दिल्ली में दादी नहीं है......

हो गई है शाम। सोया नहीं जाता। भगवान घर जा रहे हैं। यहां मुझ से कोई नहीं कहता। दिल्ली में दादी नहीं है....
थक कर आया है। पसीना सूख जाने दे। थोड़ा सा गुड़ खाले। एक दम ठंडा पानी मत पी। यहां कौन मुझ से कहेगा। न घर में कोई बुजुर्ग हैं। न दिल्ली में दादी।
आज जल्दी क्यों घर से निकलता है। कुछ खाकर जाना। खूब सारा पानी पीले। गर्मी है तेज। जेब में प्याज भी रखले। यहां कौन सिखाएगा ये सब। दिल्ली में दादी नहीं हैं।
हो गई है कितनी घनी रात। रास्तों पर सिर्फ घूमते हैं भौकते कुत्ते। क्यों नहीं आया है अब तक बेटा घर। यह सोच कौन टहलेगा घर के बाहर। दिल्ली में दादी नहीं है।

1 comment:

  1. दिल्ली में बहुत कुछ नहीं है। बहुत ख़ून पीने के बाद ये शहर हमें नहीं शायद हमारे बच्चों को अपना बना ले।

    इस दौर-ए-तरक़्क़ी के अन्दाज़ निराले हैं,

    ज़हनों में अन्धेरे हैं, सड़कों पे उजाले हैं

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