Thursday, April 22, 2010

हवा में यू हीं बकी थी पहली गाली

ये कितना अच्छा है कि विचार व्यवस्थित नहीं होते....वे किसी अनुशासन को भी नहीं मानते....लिहाजा वे कभी भी कहीं भी और किसी भी विषय के आ सकते हैं....आज जब में खबरों को व्यवस्थित करने में लगा था...तभी मुझे याद आया कि पहली बार हमने गाली कब बकी थी.....और मानों वह क्षण हमें किसी तमगे की तरह याद है....शायद इसलिए कि मुझे पहली बार लगा था...कि अब ऐसा भी कोई काम है...जो में अपने पिता या दादी की मदद के बैगर कर सकता हूं....मेरे पास करने के लिए यह पहला ऐसा काम था...जो मै अपने दोस्तों के साथ कर सकता था...सुरक्षा के उस बाड़े के बाहर जो मेंरे परिवार के लोगों नें मेरे चारों तरफ बनाया था....
मेरी दादी पढ़ाई लिखाई को लेकर शुरू से ही काफी सतर्क रही....लिहाजा हम सागर शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने गए....पर मुझे याद है कि हमने पहली गाली अंग्रेजी की नहीं... हिंदी की ही बकी थी...वह भी ठेठ बुंदेलखण्डी में...हमारा बचपन अजय तिवारी और दीपक नामदेव के साथ कटा....अजय हमसे कुछ बढ़ा था...सो उसके दोस्त और उसकी बातें हम लोगों से कुछ कदम आगे की थी...अजय ही हमें अपनी स्कूल पं मोतीलाल नेहरू जो शहर के बीच में ही थी दिखाने ले गया...एक खुला मैदान और फिर एक ....इमारत ....उसके बीच से निकलते हुए...अजय फिर दीपक और फिर हमने जोर से हवा में गाली बकी....मेंरी गाली सुनकर अजय ने रुककर पूछा भी था...किसको गाली बकी तुमने....और मेंने उसे पूरी इमानदारी से पूछा था...कि गाली बकने के लिए क्या किसी का होना जरूरी है...क्या हम खुद ही गाली नहीं बक सकते...वह हंसने लगा...उसने कहा लेकिन गाली किसी के लिए तो हो...मुझे ये बात समझ में ही नहीं आई.....गाली बकना था...सो बक दी....और गाली बककर हम बढ़े हो गए...अब गाली किसी को दी जाए...ये जरूरी क्यों हैं......लेकिन इतने सालों बाद आज मुझे लगता है कि काश ये बात मुझे आज फिर याद होती कि हम सिर्फ गाली हवा में बक सकते हैं....अपनी गुस्सा का इजहार अपने आप से कर सकते....हमें खीज उतारने के लिए कोई क्यों चाहिए....हमें अपनी कुंठा अभिव्यक्त करने के लिए एक वस्तू क्यों चाहिए....समाज से थक हार कर वापस घर लौटने पर चिल्लाने के लिए और ये अपने को जताने के लिए कि अभीतक हम पुरूष ही हैं..एक सीधी सादी अदद पत्नी क्यों चाहिए...हमें ये सहारे क्यों चाहिए...काश मेरी वह मासूमियत लौट आए....और में फिर गुस्सा इजहार करने के लिए अजय और दीपक के साथ हवा में ही गाली बक सकूं...हवा में ही अपने आप चिल्ला सकूं...अपनी कुंठाएँ अपने ऊपर ही अभिव्यक्त कर सकूं...अपनी हार अपनी जीत खुद पर ही जाहिर कर सकूं...क्या वह लौट सकती है....मुझे पता नहीं...आपको पता हो तो तरीका मुझ तक पहुंचाइएगा...

1 comment:

  1. आलोक भाई,
    क्या मुखारबिंदु से ऐसे शुद्ध वचन निकालने के लिए हमारे माननीय सांसद कम हैं जो आपको भी ज़रूरत पड़ गई...

    ये वर्ड वेरीफिकेशन हटा दो, कमेंट देने वालों को दिक्कत होती है...

    जय हिंद...

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