Tuesday, April 20, 2010
अनुशासन और मजा
मैं पहले से ही कहता था....कि रोज रोज लिखना अपनी कूबत में नहीं है...क्या किसी भी तरह का अनुशासन मजा खत्म करता है...जैसे लिखना निहायती व्यक्तिगत काम है...जब मौज में हो...तो लिख दो...या फिर कोई घटना या बात इतना दुखी कर जाए...कि कुछ लिखने की इच्छा हो तो लिख दो...लेकिन हर रोज लिखने के लिए लिखो...ये काम कुछ कठिन सा लगता है...लेकिन मैंने सुना है कि अधिकतर सफल लेखक रोज रोज लिखने के लिए बैठते ही थे...और कुछ न कुछ लिखते ही थे...शायद यही एक वजह है कि अच्छे लेखकों के भी कुछ काम हमें पठनीय नही लगते..या फिर उतने रोचक नहीं लगते...जब मजा भी कर्तव्य बन जाए...तो कर्तव्य निभाना बोझ लगता है....ये अच्छी बात है कि कर्तव्य निभाने में भी मजा आता हो....मेरे घर के ठीक नीचे एक पार्क है....में कभी कभार जब कभी घर जल्दी आ जाता था...तो उसमें यूं ही घूमने चला जाता था...पार्क के सुंदर वृक्ष मुझे मजा देते थे...कई तरह के फूलों की खुशबू भी आती थी...और घूमने का एक अलग तरह का मजा भी देता था....लेकिन फिर मेंने सुंदर और स्वस्थ्य दिखने के लिए नियम बनाकर टहलना शुरू कर दिया...अब में सिर्फ पार्क के चक्कर लगाता हूं...न अब फूलों में खुशबू है और न हीं पार्क में सुंदर वृक्ष..हां अब हाथ में घड़ी होती है...जो बताती है कितने चक्कर और लगाने है..और मेंने एक पेट को नापने के लिए टेप भी खरीद लिया है....जिससे अपना बेशर्म पेट नापता रहता हूं..जो कम हीं नहीं होता...
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