आज मुझे एक चिट्ठी मिली है....इसे तीन साल की पूजा ने लिखा है...लिखा नहीं गूदा है... इसमें साबुत शब्द एक भी नहीं है.... सिर्फ लकीरें हैं...या फिर गुदना है....सामान्य चिट्ठियां करीब दस मिनिट मे पढ़ ली जाती है..लेकिन इसे मैं पिछले बारह सालों से पढ़ता जा रहा हूं......बात उन दिनों की हैं जब मैं अपना घर छोड़कर दिल्ली चला आया था...जनसत्ता में रिपोर्टर बनने.....और तीन साल की पूजा उस समय बोलती तो थी...पर लिखती नहीं थी...लिहाजा हर पत्र जो मेरे लिए घर से आता था उसमें उनके कुछ गुदने और कुछ उनकी लकीरें भी मेरे लिए होती थी. . फिर कुछ दिनों बाद पूजा ने मेरे लिए अलग से पत्र लिखने या कहे गूदने ही शुरू कर दिए....मेरे लिए आजतक जितनी भी चिट्ठियां आई उन्हें मैंने कुछ मिनिट में ही पढ़ लिया ... कुछ देर बाद उन्हें भूल भी गया....और लापरवाही में कभी जवाब दे नहीं पाया...लेकिन मैं इसे बार बार समझता हूं पढ़ता हूं.....इसका जवाब देना भी चाहता हूं...लेकिन उतनी मासूमियत कहां से लाऊं...जो मेरी भावनाओं को बिना शब्दों के व्यक्त कर दें....बात सीधी और सपाट है...जिस भाषा में पत्र आया हो..उसका जवाब भी उसी भाषा में होना चाहिए.....
पूजा की इस चिट्ठी को मैं सालों से पढता आ रहा हूं....कागज पर एक बच्चें की कुछ तिरक्षी...कुछ टेड़ी लकीरें..कुछ गुदने। इनके कितने अर्थ हो सकते हैं यह कहना मुश्किल हैं...क्यों कि शब्द का तो एक ही अर्थ होता है...जो लिखा गया है....लेकिन इन लकीरों के सैकड़ों....हजारों या फिर लाखों...शायद न जाने कितने अर्थ बरसते हैं....सबसे बड़ी कठिनाई कि इन लकीरों का अर्थ निकालने की है.... क्यों कि इनका अर्थ लिखने वाले के शब्दों से नहीं निकलेगा....इसे पढ़ने वाले को अपने हिसाब से निकालना होगा....इन लकीरों के अर्थ समझ से नहीं भावनाओं से निकलेंगे...
चीन में एक विचारक हुआ है.....लाओत्से....वह कई कीमतीं बाते करता है...वह कहता है कि किसी भी भावना को हमनें शब्दों से अभिवयक्त किया...और उसकी कीमत घट गई...हमने जैसे ही कहा कि सुबह सुंदर हैं...वैसे ही उसकी कीमत हमने लगा दी....उसकी सुंदरता की सीमा बांध दी....जैसे ही तुम किसी से कहते हो हमें तुम से प्यार हैं...वैसे ही समझ लो कि इसमें कुछ पैंचिदगियां हैं....बात एक दम सफेद नहीं हैं....वर्ना कहने की जरूरत ही न होती...हम चिट्ठी में लिखते हैं...तुम्हारी बहुत याद आती है...फसाद यहीं से शुरू होता है....यह लिखने की जरूरत ही न थी...हमें यह बात मेहनत करके लिखने की जरूरत हीं क्यों पड़ी....पिछले दिनों दिल्ली में एक पत्नी ने अपने दोस्त के साथ मिलकर पती की हत्या करवा दी...लेकिन आपकों शायद हैरत होगी कि उसने भी अपनी चिट्ठियों में कभी लिखा था कि तुम्हारे बिना खाना खाने की इच्छा ही नहीं होती...नींद भी नहीं आती... और अपने पति को आखरी में लिखा था...हैं मेरे जीवन जल्दी चले आओ...तुम्हारे बिना जीने की एक पल भी इच्छा नहीं होती......मुझे लगा शायद इस पत्र को पढ़कर ही पति को समझ जाना चाहिए था कि शब्दों का इतना प्रपंच...बात कुछ और है...
मुझे लगता है कि इस दुनिया में जितना छल.... कपट....झूठ....धोखा....प्रपंच शब्दों ने किया है.....इतना तो तमाम दूसरी चीजों ने मिलकर भी नहीं किया होगा....जिस बात को हमें व्यवहार से समझाने के लिए महीनों और सालों लग सकते हैं...वह हम मशीन की तरह शब्दों से फौरन कह देते हैं....और यहीं से शुरू होता है शब्दों का छल....सुंदर लड़की देखी नहीं .....कि उससे प्यार हो जाता है....और अगर वो हमारी बात सुनने को तैयार हो जाए तो हम फट से कह दें..कि अब तुम्हारे बिना जिंदा रहना मुमकिन नहीं...मैं देखता हूं...कि दिल्ली के मैदानों में संत समागम होते हैं...लाखों लोग कभी गीता तो कभी रामायण सुनने जाते हैं.....इसी तरह हजारों संत दुनिया को सुधारने के लिए बोलते ही जाते हैं....लेकिन उनके शब्द असर ही नहीं करते हैं...हमारे समाज में अब सुधारवादी बातें गीता पर हाथ रखकर कसम खाने जैसी हो गई हैं.....जिसका न हमें अर्थ पता है और न ही उसका असर...सिर्फ एक रस्म हैं...
लकीरों और गुदना से अपनी बात समझाने वाली पूजा अब हिंदी के शब्दों को खूब लिखती भी हैं और बोलती भी हैं....उसकी लिखी हुई उम्दा और फर्राटेदार अंग्रेजी सुनकर दादी की झुर्रियां भी चमकती हुई दिखती हैं...लेकिन पूजा की वह लकीरों वाली चिटठी हमें आज भी किसी रामायण या गीता से कम कीमती नहीं हैं...उसे में संजों कर रखे हूं.. शायद उस दिन के लिए जब शायद शब्द भी हमारा साथ छोड़ देगें...रिश्तों की बेईमानी....नंगानाच करती हुई बाजार बाजार दिखेगी...जब अपनेपन के अवशेष सिर्फ शब्दों में खंगालने पडेगे....टूटते संबंध किसी शब्दों के बांसों पर तंबू की तरह लटके होगें...उस दिन शायद जब में बिलकुल अकेला रहूंगा...उस दिन तक पूजा की इन लकीरों को पढ़ता रहूंगा...वो गुदना क्या कहता है...मैं सुनता रहूंगा...शायद भगवान एक क्षण को भी मुझे निश्चलता की भाषा कभी सिखा दे तो में इसे पढ़ लूंगा...वर्ना प्रेम और अपनेपन की इस भाषाई दुनिया में अभी तक मैं निरक्षर हीं हूं ..
लिखने की कोशिश अच्छी है...हालांकि आलेख की कसावट उसकी शब्द सीमा से आती है...जिसे ध्यान में रखना जरूरी है...लिखने के लिए और अपने विचारों के सम्प्रेषण के लिए बधाई..
ReplyDeleteACHA HE OR KOSIS KARE
ReplyDeleteKOSIS SAKAR HOGI.
ReplyDeletelakirein kagaz se uth kar dil tak pohounchti hain aur har ensaan ka dil apne anusaar lakeeron ki bhasha ko translate kar leta hai ye baat aur hai ki har ensaan ke liye meaning alag hai
ReplyDeleteby prasoon