Monday, April 19, 2010

दादी का डर और वक्त की कीमत

दादी मेरी लापरवाहियों से जब कभी बहुत गुस्सा हो जाती थी....तो एक बात बहुत दुखी होकर कहती थी...बेटा तू वक्त की कीमत नहीं करता है...मुझे इस बात से डर लगता है कि कभी ऐसा न हों..कि वक्त तुम्हारी कीमत न करें....उनकी यह शिकायत कम और शायद डर ज्यादा था...वे हमें समाजिक साचों में एक सफल आदमी के रूप में देखना चाहती थी....शायद यही वजह थी कि उन्होंने हमें अग्रेंजी स्कूल में पढ़ाया ....वे कहती थी कि आने वाले सालों में जो अग्रेंजी नहीं जानेगा वह अनपढ़ कहलाएगा.....लेकिन मैं शायद न दुनिया के खानों में सही उतर पाया...और शायद न उनकी उम्मीदों पर...समाज डाक्टर, इंजीनियर...कलेक्टर या फिर एसपी और कम से कम किसी कालेज में प्रोफेसर को सफल मानता है...लेकिन अपन ने नौकरी कलम घसीटने की...यही काम अपन को भा गया....अब कभी जब दिल्ली की सड़कों पर डर लगता है या फिर नौकरी को लेकर मन कभी डरता है कि तो मन में दादी का डर खटकता है....

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