Friday, April 16, 2010

मौत सा अकेलापन

सुबह सुबह जब दिल्ली की खबरें छांट रहा था....तो एक खबर पर नजर रुक गई...दिल्ली के एक पॉश इलाके में एक व्यक्ति ने खुदकुशी कर ली...किसी की खुदकुशी अब हमारे लिए खबर नहीं होती...जब तक मरने की वजह कोई विशेष न हो .... खबर में कहीं लिखा था कि वजह बीमारी और अकेलापन था....मैं कुछ देर ठिठका लेकिन फिर दूसरी खबरों पर नजर दौड़ाने लगा....दिल्ली में बढ़ती गर्मी और रेडियशन का मामला ज्यादा महत्वपूर्ण था...सो उन पर अपने साथियों से बात करने लगा.....और फिर मीटिंग खत्म हुई....
मीटिंग खत्म होते ही चाय पीने की इच्छा हुई...लेकिन याद आया कि पत्नि तो घर में है नहीं...वह दिल्ली में बढ़ते बलात्कारों पर एक सेमीनार में शामिल होने गई है....लिहाजा अपने को अकेला पाया...चाय पीने और बनाने का मामला कठिन समझ में आया और इरादा बदल दिया..लेकिन फिर मुझे अकेलेपन में खुदकुशी की खबर बार बार दिमाग में घूमने लगी...जहां हम इस बात को लेकर परेशान है कि हमारे देश की जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है...हमारी गिनती अरबों का आकड़ा कब का पार गई है...ऐसे में कोई आदमी अकैला है....और वो भी इतना अकेला की मरने की सोचने लगे....ये तो हम और आप जानते है कि आदमी भीड़ में अकेला होता है..लेकिन शायद भीड़ हमें एक धोखा देती है...और उस धोखे के सहारे हम अपना काम चला लेते हैं...कितने बार होता है कि दिल्ली की सड़कों पर किसी व्यक्ति का accident हो जाए...कहने को तो हजारों लोग हर मिनिट निकलते हैं...लेकिन उसे अस्पताल पहुंचाने के लिए हम पुलिस का इंतजार ही करते हैं....अकेले तो हम उस भीड़ मे भी है...लेकिन चार दीवारी के भीतर का अकेलापन हमसे वह भीड़ का झूठ भी छीन लेता है..जो हमें सहारा दे रहा था...यानि जिंदगी में कई बार हमें सच का साथ नहीं ही मिलता है...लेकिन झूठ भी हमारे साथ नहीं देती एक भ्रम जो हम अपने चारों तरफ बुनते हैं...अगर वो भी तार तार हो जाए...तो फिर शायद हमारा जिंदगी से मोह ही खत्म हो जाता है...चीनी विचारक लाओत्से पर बोलते हुए रजनीश एक जगह कहते हैं कि हम अपने जीवन का हर पल यह सोचकर इनवेस्ट कर रहे है क हमारा आने वाला कल बेहतर होगा। और वर्तमान पल को नही जीते...जिसने पुरी जिंदगी ही भविष्य के लिए इनवेस्ट की हो और फिर उसका फल अकेलापन निकला हो तो व्यक्ति को लगता है कि हमने अपनी पूरी जिंदगी ही हार दी....हमारी समाजिक बनावट कुछ इस तरह की है...कि होश संभालते ही हम अपने बुढापे की चिंता करने लगते हैं...अच्छी नौकरी करनी है...ताकि रिटायर होने पर ठीक ठाक पैंशन मिले...और बुढ़ापा सुख से कटे...कहीं न कहीं बच्चों का भी यही आसरा होता है कि अच्छे से पढ़े लिखे...बढ़े होकर बेहतर नौकरी करे...ताकि मां बाप का बुढ़ापा सुविधाजनक रूप से कट सकें...व्यक्ति को लगता है कि जीवन में सबसे ज्यादा कष्ट बुजुर्ग होने पर ही है...लिहाजा उसके जीवन जीने का आधार ही उस कष्ट को कम करना है...हमारे कहा जाता है कि जो व्यक्ति जीवन भर अच्छे काम करता है उसका बुढ़ापा अच्छा कटता है....पर मुसीबत अपने नए चेहरे में हैं...नौकरी भी अच्छी की...बच्चें भी अच्छे निकले...लेकिन कुछ ज्यादा ही अच्छे निकले कि विदेशों में जाकर बस गए...और मां बाप अकेले रह गए...आजकल दिल्ली जैसे शहरों में अगर व्यक्ति भावनात्मक होता है...या फिर ऐसी बातें करता है...तो उसे सीधे सीधे मूर्ख न कहकर कहा जाता है कि आप PRACTICAL नहीं है.....क्या अपने मां बाप को बुढ़ापे में अकेला छोड़ कर और विकास की....महत्वकांक्षा की अंधी दौड़ में भागते रहना क्या PRACTICAL है....मध्यप्रदेश के जिस छोटे शहर से मैं आया हूं...वहां पर तो घर का बुजुर्ग .....मोहल्ले का दादा या फिर दादी होती है...लेकिन महानगरों में जिंदगी की गति ने संबंधो के धागे कुछ ज्यादा ही पतले कर दिए हैं....यहां पर मोहल्ले वाले तो दूर की बात अपने घर के सदस्य ही आपकों रोज मिल जाएँ ये जरूरी नहीं हैं....हमें खुद भी नहीं पता कि हमें जिंदगी में क्या हासिल करना है...और उसकी कीमत क्या चुकानी हैं..सिर्फ आस पड़ोस में भागते लोगों को देखकर हम भी भागते जा रहे हैं...बिना कुछ जाने...बिना कुछ समझे....हमें भी हर रोज आधी रात को उन्नींदी पत्नी मिलती है...और सुबह सुबह भागती हुई एक कंपनी की मुलाजिम...हम सिर्फ छुट्टियों में ही एक दूसरे को पहचान पाते हैं...हम दुनिया की भीड़ में भागते भागते कितने अकेले और कितने थक गए हैं...हमें इसका अंदाजा भी नहीं है....सारी जिंदगी भागकर हमने जो जमा किया है...अब वो क्यों हमें बेमानी लगने लगता है...अब हमें क्यों रिश्ते चाहिए...अब हमें क्यों लोग चाहिए....जबकि पूरी उम्र हम इस तरह भागते रहे कि हमारे पास भी कोई दूसरा न भटक पाए नहीं तो प्रतियोगिता हो जाएगी....सो हम अपने हर करीब आते आदमी को गिराते रहे और उससे तेज भागते रहे...और अब हम इतने अकेले हो गए.....कि हमें पूरी दुनिया ही बेमानी लगने लगी...इससे अच्छे तो अपने छोटे छोट कस्बें है...जहां आज भी पीपल के नीचे खांट बिछाकर हमारे बुजुर्ग बैठते हैं...हमारे घरों के दरवाजे पड़ोसी के आंगन में खुलते है....जहां दुख सुख के साथ साथ भाभी... काकी...दादी और दादा भी मोहल्ला बांटता है...जहां न हम अकेले हैं...न हमारे बुजुर्ग.....वापस सागर चले क्या......

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