Wednesday, April 14, 2010

जिंदगी और दलदल

जिंदगी और दलदल एक जैसे ही होते हैं...मैंने सुना है कि दलदल से जितना निकलने की कोशिश करो व्यक्ति उतना ही अंदर धसता जाता है...वैसे ही जिंदगी है...इसे जितना समझने की कोशिश करो...उतनी ही कठिन मालूम होती है....जिंदगी किस तरह से जी जाए...समझ में ही नहीं आती है...क्या जिंदगी में समझौता करना जरूरी है....क्या हम जिंदगी अपनी शर्तों पर नहीं जी सकते...कई बार होता है...कि जिंदगी में तुम एक जगह समझौता नहीं करते हों..लेकिन उसके बाद तुम्हें कई जगह समझौते करने पड़ते हैं....क्या सफलता के लिए चापलूसी....झूठ फरेब जरूरी है....और फिर ऐसी सफलता किस काम की जिसे हासिल करने के बाद तुम दुखी ही बने रहो...या फिर हमेशा तनाव में ही जियों....कई बार तो कुछ लोगों से मिलने की....उन्हें देखकर मुस्कराने की इच्छा तक नहीं होती...लेकिन मन का कोई हिस्सा कहता है कि इनसे संबंध बनाकर रखो...कभी काम आएँगे...ऐसी हालत में क्या किया जाए...समझ में नहीं आता....मुझे लगता है शायद जिंदगी भी हम दो तरह से जी सकते हैं...या तो सफलता के लिए या फिर अच्छी जिंदगी ......एक ऐसी जिंदगी जिसमें सफलता तो न हो...लेकिन वे सारी चीजें जिन्हें करने को मन कहता है....और वो कुछ भी न हों...जिन्हें करने से मन इंकार करता है...हमें अंहकार न हों..लेकिन स्वाभिमान के साथ हम जिंदा रह सके....लेकिन इस जिंदगी के लिए हमारे पास दूसरी चीजें जरूर होनी चाहिए...हमें स्वाभिमान के साथ मेहनती होना होगा...हमें संतोषी होना होगा....वे सुविधाएं.. जो दूर से चमकती हुई दिखती हैं...उनके भीतर का खोखलापन भी हमें समझना होगा...यानि हर जिंदगी की एक कीमत है जो हमें अदा करनी होगी.....न जाने किस तरह के दौराहे पर मैं खड़ा हूं...जहां मुझे जिंदगी पहेली की तरह समझ में नहीं आती...सिर्फ उलझती जाती है...हालांकि मैं जानता हूं... जिंदगी गणित नहीं है...जिसे किसी फार्मूले की मदद से सुलझाया जा सके...लेकिन फिर भी आपकों कोई रास्ता समझ में आए तो बताइएगा...आपसे जिंदगी का कुछ हिस्सा ही सुलझ पाए...तो हमें तरीका बताईएगा जरूर.....

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