Sunday, April 25, 2010

दादी का खोटा सिक्का और पाठकों का शतक

खोटे सिक्के और आदमी में शायद यही फर्क हैं। बाजार में कई बार आदमी साबुत होते हुए भी नहीं चल पाता है। जबकि सिक्के में चलने की गुजाइंश हमेंशा बनी रहती है....बशर्ते वह साबुत हो...पता नहीं अपन बाजार में चल क्यों नहीं पाए...यह कहना अभी शायद जल्दबाजी होगी...पर यह सच है कि हम बाजार में खनकते हुए सिक्के की तरह चले नहीं....जिस तरह से लोग फटे हुए नोट को चलाने की कोशिश जलेबी की दुकान से लेकर पेट्रोल पंप तक पर करते हैं.. समय बदल बदल कर....कभी...दिन को तो कभी शाम को और रात में तो कई बार किसी धंधेबाज को धोखा देने की कोशिश करते हैं...वैसे ही जिंदगी ने अपन को चलाने की कोशिश तो कई बार की...लेकिन अपन ही नहीं चल पाए.....
12 वीं पास करके हमारे तमाम दोस्त कोई पीएमटी तो कोई पीईटी की लाइन में लग गया....लेकिन उस दौर में हम लाइन के बाहर ही खड़े रहें....बीए पास हुए तो साथियों ने पीएससी से यूपीएससी तक सब को खंगालने की कोशिश शुरू कर दी...हम फिर पीछे ही खड़े रहे...एमए पास हुए तो साथ के सभी बैंक में किलर्क से लेकर तमाम तरह की नौकरियों के फार्म भरते पोस्टल आर्डर खरीदते हुए व्यस्त हो गए....हम फिर भी किसी दुकान पर गए ही नहीं....एमजे किया और समाज सुधारने की बाते हांकते लोगों के रैला से दूर ही रहे.....धीरे धीरे साथियों के नौकरियों के रिजल्ट आने लगे...कोई मंत्रालय में क्लर्क होने लगा तो कोई मास्टर....कोई बैंक में चला गया तो कोई सरकारी पद पर आसीन हो गया...लोग मेरी दादी के पैर छूने आते...अपनी नौकरी के बारे में बतियाते...और मेंरे निक्कमेंपन पर सहानूभुति जता कर ही जाते....फिर नौकरियों के हिसाब से मेरे दोस्तों की शादियां होने लगी....फिर वे ही लोग जो नौकरी का आशीर्वाद लेकर गए थे...अब शादी के लिए बुलावा देने आने लगे.....मैं शायद उनसे बहुत पीछे होता गया...लेकिन मुझे लगता था किसी का आगे होना या मेरा पीछे रह जाना ....तभी तय होगा जब हमारी दिशा एक हो....जब हमारी मंजिल एक हो...मुझे बचपन से ही लगता था कि मैं हर बेजुबान की आवाज बन सकूं....हर थके हुए..हारे हुए आदमी का होंसला बन सकू....जीवन में उम्मीद खोजती हर कमजोर महिला की उम्मीद बन संकू...कचरे में अपना जीवन खोजते बच्चों की आँखों में एक चेतना जगा सकूं....सो अपन अखबार नवीस हो गए......
जिंदगी में कई बार हम अपनी मंजिल तलाशते तलाशते कई जीचें खो भी देते हैं....वे चीजें कीमती थी या सस्ती उनका हिसाब हम इसलिए नहीं कर सकते कि वे हम खरीद ही नहीं पाए...न अखबारों में छपे रोल नंबर की लिस्ट में अपना नाम आया...न साथियों के घर नौकरी लगने पर मिठाई लेकर गए....न ही अपना नाम लेकर किसी दोस्त को उसके मां बांप ने डाटा होगा....न मेरे माता पिता को स्कूल में बुलाकर सम्मानित किया गया...और शायद वह अकड़ जो ठीक शादी के पहले माता पिता की समाज में होती है...वे भी उससे वंचित रहें होगें....क्या करें...सिक्के का खोटा होना उसकी नियति हैं या फिर टक्साल की लापरवाही मुझे पता नहीं.....लेकिन आज मुजे कुछ अच्छा लगा जब मेरा ब्लाग सौ से ज्यादा लोगों ने पढ़ा।.शतक यह शब्द हमने कभी सचिन के लिए तो कभी सुनील गावस्कर के लिए ही सुना था..मुझे लगा कि दादी को फोन करके बता ही दूं....कि एक शतक हमने भी मारा है....हमारे चाहने वाले अब इस दुनिया में सौ से उपर हैं...यह सिलसिला जारी रखिएगा...पढ़ने का मुझसे मोहब्बत करने का...मुझे बाजार की न सही आपकी जरूरत होगी....चलने के लिए नहीं..... सिर्फ जताने के लिए कि खोटे सिक्के बाजार में चलते न हों ...लेकिन कुछ लोग आज भी ऐसे हैं... जो इनका संकलन करते हैं....

2 comments:

  1. Alok Bhaiya,
    Mera gullak khaas hai. Usme sirf khote sikke hee jama hote hain.
    Shiv

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