दादी ने मेरा ब्लाग सुना। अब पढ़ने में उन्हें दिक्कत होती है। फोन किया। आवाज कुछ बैठ सी गई थी। शायद हमारी बेवसी पर दुखी थी। फिर भी हंसने लगी। कहा हम पढ़े लिखे नहीं है। तुम लोग मोटी मोटी किताबें पढ़ते हो। पढ़े लिखे लोगों में उठते बैठते हो। फिर भी बेटा। खुशबू मिट्टी की हो या फिर प्रेम की न भेजी जाती है। न मंगाई जाती है। महशूस की जाती है। और महशूस करने की ताकत व्यक्ति की अपनी होती है। तुम हमसे जितना ज्यादा प्यार करोगें। तुम्हें हम उतने नजदीक लगेंगे। गौर से महशूस करो। तुझे दिल्ली में भी सागर की मिट्टी की खुशबू आएगी। और रही बात बारिश की।उसे हम भेज रहे है। और मुझे फोन पर लगा। उनकी चेहरे की झुर्रियां खिल गई। दादी ने हमारे साथ बदमाशी की है। मैंने कहा इंतजार करूगां।
गोंडवाना एक्सप्रेस निजामुद्दीन स्टेशन पर सात बजकर 25 मिनिट पर आकर रुकती है। उसी ट्रैन से हमारी बहिन दिल्ली पहुंची। आप को यकीन हो न हों। मेरे माथे पर पहली बूंद स्टेशन के बाहर करीब सात बजे पड़ी। और में खुशी में डूब गया। पत्नी से कहा तुम अंदर जाओ प्लेटफार्म पर। हम दादी का सामान लेले। वह बोली पहले ट्रैन तो आजाए। पागल शायद सोचती थी की दादी का सामान पौचम्मा के बैग में होगा। मैं आसमान की तरफ देखा और खड़ा होकर भीगने लगा। मुझे पता ही नहीं चला। कि पानी के बूंदों के साथ साथ मेंरें आंसू भी आंखों से बहने लगा। रोने की वजह नहीं पता। लेकिन मैं खूब भीगा भी और रोया भी।
दिल्ली आए अब तो कितने साल हो गए। लेकिन घर का सामान मैंन कभी अकेले इस्तेमाल नहीं किया। जब दोस्तों के साथ रहते थे। तो कभी न लड्डू न आचार छुपकर खाए। न जलेबी न बर्फी। छुपाकर रखी। हमेंशा ही मिल बांट कर खाता रहा। अब तो ऐसी स्थिति है कि मैं जब भी सागर जाता हूं। मैंरे शुभचिंतक पहले ही लिस्ट दादी को फोन पर लिखवा देते हैं। जब बैग के वजन पर में गुस्सा होता हूं। तब मां बताती है। कि दादी ने ये सामान लोगों के लिए रखा है। किसी के लिए आचार। किसी के लिए लड्डू। किसी ने जलेबी मंगाई। तो किसी ने पापड़। एक डिब्बी में हींग है। उस पर भी किसी का नाम है। कुछ चीजें बनी हुई है। कुछ सामान बनने का है। और जब हम दिल्ली पहुंचते तो मेरे साथी। मेरा बैग खोलते ।चोरों की तरह हिसाब करने बैठ जाते। अगली बार दादी से कहना सामान ज्यादा भेजें। फिर सुधार करते । तुम क्या कहोंगे। हम खुद ही कह देगें।
आज जब निजामुद्दीन स्टेशन पर मैं भीग रहा था। तो मैंने अपने साथ कुछ और भी लोगों को भीगते हुए देखा। लगा जैसा दादी की जलेबी में लोगों को बांट कर खा रहा हूं। यह बारिश मेरे लिए नहीं। उन सबके लिए आई है। जिन्होंने मंगाई है। सौ मैं खूब भीगां। आप तक भी मैं भेज रहा हूं। खूब भीगिए। और अपनो को भिगाइएँ। आप जो भी कहें। लेकिन मैं आपकी बात सुनूगां ही नहीं। मानसून। मौसम विभाग। विज्ञान। भाप। बादल। सब झूठे हैं। सिर्फ इतना सच है कि जिस तरह से दादी मेरे लिए जलेबी भेजती है। उसी तरह उसने बारिश भेजी है। में भीग रहा हूं. .....
आलोक भाई, दादी की बारिश में भीगते भीगते आंखें आंसुओं से भीग गई, सच में जितना अच्छा तुम्हारा अनुभव है उससे कहीं अधिक अच्छा उसका वर्णन है
ReplyDeleteसबसे पहले आपको और भाभी को चरण स्पर्श,
ReplyDeleteमैं आपको और परिवार के सारे सदस्यों से मिला हूं,
आप और आपका परिवार शायद उन कुछ गिने चुने लोगों
मैं शूमार है जिनकी आत्मा से परमात्मा का रिश्ता आज भी
कायम है,
आपका छोटा भाई
santa banta wallpapers, utorrent
सबसे पहले आपको और भाभी को चरण स्पर्श,
ReplyDeleteमैं आपको और परिवार के सारे सदस्यों से मिला हूं,
आप और आपका परिवार शायद उन कुछ गिने चुने लोगों
मैं शूमार है जिनकी आत्मा से परमात्मा का रिश्ता आज भी
कायम है,
आपका छोटा भाई
desktop wallpapers, utorrent
bahut achcha likhate hain aap, badhai, Tv journalism mein kam hi writter hain, lekin aapka jabab nahi
ReplyDelete