Friday, July 1, 2011

पत्नी की साड़ी और हाफ पैंट

अपन जनसत्ता में नौकरी करने दिल्ली आए थे। दिव्या दीदी उन्हीं दिनों साकेत में रहती थी। वे कलेक्टर होने की तैयारी कर रही थी। सो हम भी साकेत में ही रुक गए। जब से इसी इलाके में ही टिके हैं। पिछले 15 सालों में जिंदगी में कुछ नहीं बदला। सिर्फ जनसत्ता से सहारा में आ गए। पहले डायरी पेंन लेकर घूमते थे। अब कैमरामेन को साथ लेकर घूमते हैं। जब अपन सागर से दिल्ली आए। उन दिनों अनुपम पीवीआर नया खेल था। बुनियादी रूप से यह एक टाकीज है। जिसमें कई सिनेमाहाल एक साथ है। और आसपास खाने पीने की मंहगी दुकाने। यहां पर चाय पान की कीमत दो गुनी से ज्यादा होती है। पार्किंग वाला भी उस समय अंग्रेजी में चेंज मांगता था...।
यह जगह अपने जैसे कस्बाई मानसिकता वाले व्यक्ति के लिए दूसरी दुनिया थी। अंग्रेजी में फर्राटे से बोलती लड़कियां। धुओँ के छल्ले उड़ाती लड़किया।शराब पीकर नांचती लड़किया। शार्ट स्कर्ट उसी समय चले थे। उन्हें पहनकर आत्मविश्ववास के साथ घूमती लड़किया। उन्हें देखकर कई बार लगता था। कि यहां आकर एक नई उपलब्धि हासिल कर ली है। हम भी अपने समाज से एक साथ कई सीड़ी उपर चढ़ गए है। जब कभी छुट्टी होती। या फिर स्टोरी जल्दी फाईल कर देता।तो लौटते में कुछ देर यहां बैठकर चाय पीता। पान के अपन पुराने शौकीन है। और जिस तरह से हम फिल्मों के जरिए विदेश घूम आते हैं। अपने हीरों के जरिए हीरोइन के साथ नच लेते है। वैसे में भी एक चाय और एक पान के साथ इस आधुनिक समाज का हिस्सा हो जाता था।
वक्त तेजी से निकलता है। पिछले 15 साल पता हीं नहीं चले।और वे चलते गए। हम सिर्फ कैंलेंडर बदलते गए। हां इस बीच मेरी शादी भी हो गई। अब कभी कभार जल्दी घर आ जाता हूं। तो थकान के कारण घर से निकले की इच्छा हीं नहीं होती। छुट्टी के दिन वे किताबें जो कई दिनों से इंतजार में होती है। उन्हें पढ़ने बैठ जाता हूं। और कुछ सालों पहले मेरे घर के सामने साउथ दिल्ली के सबसें मंहगे और सबसे सुंदर मॉल भी बन गए। सो पीवीआर जाना और भी कम हो गया।
आज कई महीनों बाद। अपन घर जल्दी आ गए। चाय और पान की पहले जैसी हूक उठी।सो पीवीआर चले गए। अब पत्नी को साथ ले जाना जरूरी लगता है। जैसे मंदिर जाते समय प्रसाद लेकर जाना ही पड़ता है। गुंजाइश हो या न हो। अपन ने भी खानापूरी की। और उसके साथ निकल लिए। अब वहां का माहौल और भी बदल गया। हमनें करीब दो तीन हजार लोगों को फिल्म का टिकिट लेते। खाना खाते। या फिर घूमते देखा। मैं बदलते हुए समाज को देखने में व्यस्त था। लेकिन मैंने देखा कि जहां से भी निकलता हूं। लोग हमारी तरफ जरूर देखते हैं। खासकर लड़कियां। कुछ देर बाद पता चला कि वे मुझे नहीं मेरी पत्नी को घूर रही हैं...और उसे भी क्यों। उसकी साड़ी को। उन्हें शायद अटपटा लग रहा था। और फिर मुझे भी लगने लगा। उस पूरे समाज में एक भी महिला साड़ी पहने नहीं दिख रही थी। हां अब ज्यादातर लड़किया हाफ पैंट पहने थी। कुछ ताई। या फिर एक दो मेरी दादी की उम्र की महिलाए। भी दिखी। वे सलवार सूट पहने थी। मुझे समझ में नहीं आया। हम इनके समाज के नहीं है। या फिर ये हमारे समाज की नहीं है। मैंने पत्नी से कहा कि अगली बार या तो तुम हाफ पैंट पहन कर आना।या फिर घर पर ही चाय पी लेना। पता नहीं उसे क्या ठीक लगेगा। मैं आपको बताउंगा जरूर।

3 comments:

  1. bahut badiya.. shayad yeah ek naye bhari ki purani vichardhara aur sanakaro ke patan ka ek behtareen udharan hai

    ReplyDelete
  2. प्यारे ऐसा गजब मत करना दोनों घर पर ही चाय पी लेना उस समाज की आगे की तो सोचो

    ReplyDelete
  3. बहुत बढ़िया !!! नए समाज के बदलते रंग .....
    समय बड़ी तेजी के साथ बदल रहा है और अब औरतें आज़ादी चाहती हैं , हर किस्म की आज़ादी . इसे कोई कुछ भी समझे पर ये है एक क्रांति ही इसे विद्रोह भी कहा जा सकता है , बहुत समय तक दबी रहने वाली महिला अब बराबरी करना चाहती है तो अब वक्त है की पुरुषों को भी ये बात समझ लेनी चाहिए | हमेशा से औरतों के वस्त्र गुलामी का प्रतीक रहे हैं , अब साड़ी को ही ले लीजिये .. भागना चाहे तो हम भाग नही सकते , एक जेब तक नही होती की पैसा रख सकें , बस हर समय पल्लू को ही सँभालते रहते हैं , सलवार सुइट में भी जेब लगाने का कोई प्रावधान नहीं , बस चुन्नी ही सँभालने में ही साडी अक्ल लगी रहती है | अब अगर हमसे उम्मीद की जाती है की हम भी बाहर निकलें , आत्म निर्र्भर बनें और सही मायनो में अर्धांग्नी बने तो फिर हमने भी गुलामी की वेशभूषा को पूरी तरह से गुड बाय कह दिया .... हाँ , पर संस्कारों को बाय नही कहा जाना चाहिये ...

    ReplyDelete