Tuesday, April 5, 2011
दादा नहीं हैं तो अपने घर भी नया साल नहीं आया।
अपने लिए लिखना न काम है। और न ही धंधा। लिखने का अनुशासन न कभी था। और न अभी है। लिहाजा महीनों हो गए। कुछ लिखने का मन ही नहीं हुआ। सो लिखा भी नहीं। पिछले कुछ दिनों में फोन पर कई messages आए। नए साल के। तब याद आया कि नया विक्रम संवत शुरू हो गया है। मुझे दो ही साल याद आते थे। एक नया साल जो जनवरी में शुरू होता है। और एक दादा का नया साल। दादा का नया साल। यानि विक्रम संवत। इस दिन अपने दादा सुबह से ही अत्य़ाधिक प्रसन्न और उत्साहित नजर आते थे।उन्हें देखकर लगता था कि पूरा नया साल दादा में उतर आया है। वे हम लोगों को पैसा तो देते ही थे। उनकी एक दिली ख्वाहिश भी रहती थी। घर के ऊपर नया झंडा फहराने की। सो बे सुबह से ही झंडा के लिए जुगत बिठाने लगते। कपड़ा लाते। उसे सिलाते। डंडा खोजते। उसमें पिरोते। और फिर उसे लगाने की व्यवस्था करते। किसी न किसी को तैयार करते। और फिर मकान के ऊपरी हिस्से पर उसे लगवा देते। अपन न विक्रम संवत समझते थे। और न नए साल का मतलब। लेकिन उन दिनों में भी दादा को खुश देखकर त्योहार मना लेते थे। जिंदगी में कुछ त्योहार लोगों से बनते है। और उनके मायने भी उन्हीं से निकलते है। अब अपनी जिंदगी में दादा नहीं है। तो नया साल भी नहीं आया। नया साल न खुशियों की उमंग लाया। न घर पर भगवा ध्वज फहरा। न किसी ने आशीर्वाद दिया और न ही मन प्रफुल्लित हुआ। सिर्फ फोन पर सूचना थी। जैसे किसी ने प्रेस कांफ्रेस में बुलाया हो। ये नया साल भी अपनी जिंदगी से दादा के साथ ही चला गया। क्या कुछ ऐसे त्योहार आपके भी है। जो आपसे विदा हो गए। अगर हों तो हमें बताइएगा जरूर।
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