अपन बुखार में हैं। लिखने की हिम्मत नहीं है। और कूबत भी नहीं। फिर भी जिद करके टेबिल पर बैठ ही गया। लगा गुरूपूर्णिमा है। कुछ तो लिखूं। हालांकि किसी गुरू को अच्छा लगता है। जब उसका शिष्य उचाइंयों पर पहुंचे। अपन किसी भी गुरू को गुरूदक्षणा नहीं दे पाए। गुरू की सबसे बड़ी दक्षणा होती है उसके शिष्य की कामयाबी। यह सुख तो किसी भी गुरू को अपन दे नहीं पाए। पछतावा भी है। और शर्म भी। फिर भी बेशर्मी से लिखने बैठ गया।
स्कूल। कालेज। पत्रकारिता। और फिर जिंदगी। ये अपने रूप बदलते गए। और हर मोड़ पर मुझे नए नए गुरू मिलते गए। जो वर्तमान जिंदगी की कठिनाइयां कम करते गए। व समझाते गए। और मैं आगे चलता गया। यह बात अलग है कि जो जिंदगी में कर्म करना चाहिए था। वो हमसे न हुआ। और हम जिंदगी के रास्तों पर पिछड़ते चले गए। अपने तमाम गुरू हमसे खुश है। लेकिन मेरी असफलता उन्हें दुखी करती होगी। वे शायद सोचते थे। मैं जिंदगी में ऐसा कुछ करू। जो उनकी शिक्षा को सार्थक करें। मैं कुछ दुनिया को ऐसा दे जाऊं। जो मेरी पढ़ाई लिखाई का अर्थ बने। लेकिन अपन ऐसा कुछ भी नया और रचनात्मक नहीं कर पाए। और जिंदगी को कलम घसीटकर काटने लगे।
अवस्थी सर ने मनोविज्ञान सिखाया। सुधीर सर ने पत्रकारिता। रज्जाक चाचा ने जिंदगी। रज्जाक चाचा का यह कहना कि जिंदगी में तीन चीजें साफ रखना। शरीर। लिबास। और नियत। सुनने में लगता है। आसान है। लेकिन सद नहीं पाता। बीच बीच में गिर ही जाता हूं। सुधीर चाचा का हाथ पकड़कर ही अपन जनसत्ता में घुसे। और आज भी पत्रकारिता में जो भी कर पाते हैं। उनका महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने ही समझाया। लिखना और पढ़ना। और हां दादा की एक बात। जो अपने आप में गुरू है। जिंदगी में जो बो दोगे। वहीं काटोगे। संभल कर रहना। प्रकृति तुम्हारे सारे कर्म तुम्हें लौटाती है। बहुत सी बातें है। ब्लाग में नहीं लिखी जा सकती। इतनी जल्दी। फिर भी मुझे अपने तमाम गुरू याद है। आपको भी होगें। हे भगवान मेरे तमाम गुरूओं को अगले जन्म में सामार्थ्य शिष्य जरूर देना। जो उनका नाम रोशन कर सकें।
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