Tuesday, June 28, 2011

मंजिल नहीं है। पैसा और यश। ये पीछे पीछे आते हैं।

डॉ विनोद खेतान ने अचानक कहा। पैसा और यश मंजिल नहीं है। ये by-product हैं। डॉ विनोद खेतान जाने माने नाम है। आप लोगों ने कभी न कभी उनके बारे में सुना होगा। वे एम्स में डाक्टर और स्किन की दुनिया में एक बड़ा नाम है। वैसे वे साहित्यकार भी बड़े है। और गुलजार को तो हमनें उनकी समझ से ही समझा। वर्ना वे हमारी दुनिया में सिर्फ एक फिल्मी गीतकार ही रह जाते। डॉ खेतान के साथ बैठकर गप्पें ठोकने में मजा आता है। हालांकि एम्स के डाक्टरों के पास समय कम होता है। फिर भी जैसे सचिन गेंद चार रन के लिए मार ही देता है। हम लोग भी स्पेश खोज ही लेते हैं। उन्होंने ये बात कही। और मैं वैसे ही रुक गया जैसे खिचड़ी में कभी कभार कंकड़ आजाता है। और हम रुक जाते हैं। वे और भी बाते करते रहे। लेकिन मैं वहीं थम गया। फिर वहां से हुमसा नहीं। हम लोग और भी बातें करते रहे। लेकिन इसके बाद का मुझे याद नहीं।
क्या ये मुमकिन है। क्या ये सच है। क्या ये हो सकता है। मेरे सवाल खत्म ही नहीं होते। कि हम यश और पैसा दोनों ही भूल जाए। इन्हें कमाना हमारा मकसद न रहे। इनके प्रति हमारी तिसना न हो। फिर हमे क्या चाहिए। हम क्या कमाना चाहते है। मैं बात को कठिन नहीं करना चाहता। न हीं कोई फलसफा शुरू कर रहा हूं। बौद्धिक आतंकवाद भी फैलाना नहीं चाहता। लेकिन बात रुक जाती है। क्या हमें सिर्फ कर्म करना है। क्या हमें अपने जुनून को ही अपनी मंजिल समझना है। क्या हम वो करें जो हमें अच्छा लगता है। क्या ये मुमकिन है कि कोई अमिताभ बच्चन से कहे की तुम दीवार फिल्म से अपना हटा लो और जो चाहो वो कीमत ले लो। क्या कोई सचिन से कहे कि तुम विश्व कप मत चूमों। और जो कीमत चाहिए। वो ले लो। मेरे वतन के लोगों गीत गाकर क्या मिला लता मंगेशकर को। जो मिला क्या उसे धन या फिर कोई यश तौल सकता है। क्या हमें कुछ अपनी संतुष्टि के लिए भी करना चाहिए। और क्या हम ऐसा कुछ कर पा रहे हैं। जिसको करने से हमें मजा आए।
हम धंधेबाज हो गए। अपने ही लिए। हमने दुकान खोल ली। हम खुद ही बिक रहे हैं। सामान बनकर। हमें दुनिया में पैसा चाहिए। ताकि हम सुख से जी सकें। हमें यश चाहिए। ताकि हम सुख से मर सकें।
डॉ खेतान की बात सुनकर मुझे अपना हर काम करते हुए डर लगता है। कभी यश तो कभी पैसा दिखता है। जिंदगी समझ में नहीं आती। कभी कभी हम इतना झूठ बोलते है। कि सच बोलने की आदत छूट जाती है। और झूठ ही सच लगने लगता है। शायद हमारी जिंदगी के साथ यही हो रहा है। मुझे पता नहीं कि इन आंखों से मैं दुनिया फिर से देख पाउंगा या नहीं लेकिन नई आंखे अच्छी है। क्या आप भी ऐसा कोई काम कर रहे है। जो यश और धन के लिए न हो। अगर कर रहे हों।तो हमें बताइएगा जरूर।

3 comments:

  1. वाह भैय्या !!! क्या बात कही है !!!
    आपको पता है हम दोनों जिस मिटटी से जुड़े हुए हैं लाख कोशिश कर भी लें पर कहीं न कहीं अपनी बोली से जुडाव और प्यार ( हुमसा , तिस्ना ) दिखा ही जाते हैं शायद मिटटी से दूर हो जाने के बाद उससे वफादारी भी कुछ बढ़ जाती होगी कुछ बात ही ऐसी है बुंदेलखंड की मिटटी में ......
    कुछ साल पहले मम्मी का एक ऑपरेशन हुआ था सर गंगाराम हॉस्पिटल में तब मेरे पापा से किसी डॉक्टर ने कहा था " दिल्ली तो अर्थ पिशाचो की नगरी है यहाँ आप जैसे पवित्र लोग कहाँ देखने को मिलते हैं "तब ये शब्द पहली दफा सुना था , आज आपका लेख पढ़ कर लगा सच में एक अंधी दौड़ शुरू हो गयी है महानगरो में...
    खैर आपकी नयी आँखों ने एक और हकीकत दिखाई
    कितना अच्छी हो अगर हम इन आँखों को किसी और के देखने के लिए दान करें .....

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  2. आपके लगातार ब्लॉग पडकर आच्छा लग रहा है,
    जेसे की सचिन तेंदुलकर लंबे अंतराल के बाद दुबारा
    मेच खेलने उतरा है.

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  3. गरीबों की दुनियां में पैसा और यश कभी नहीं आते

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