Sunday, May 9, 2010

सागर की यादें। नन्हें महाराज, हल्के दाऊ और छोटे उस्ताद

complex का हिंदी शब्द मुझे नहीं पता। कुंठा से वह अर्थ नहीं पहुंचता। मैं दोनों शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं। आपको जो भी ठीक लगे। उसे ही सही मानिएगा। किसी भी आदमी का व्यक्ति कई बार उसके अंदर की कुठाओं का जोड़ होता है। और मनोविज्ञान मानता है कि कुंठित आदमी unpredictable होता है। अपना inferiorty complex छुपाने के लिए वह कभी भी किसी तरह का व्यवहार कर सकता है। छोटे शहरों और कस्बों में इस तरह के कुंठित लोग समाज के लिए मनोरंजन का उपयुक्त पात्र होते हैं।
अनिल सोनी। अमेरिका की एक कंपनी में Engineering head हैं। उनकी तरक्की हमारे शहर के सभी लोगों के लिए मजा देती है। वे जब से भारत आए हैं। उनसे मिलने की हमें बहुत इच्छा थी। सो हमने उन्हें बुलावा भेजा और वे आगए। सागर की कई यादें ताजी हुई। किस तरह हम चाय पर चाय पीते जाते थे। और गप्पों का सिलसिला चलता रहता था।
सागर कई चीजों के लिए जाना जाता था। गुंडागर्दी के लिए भी हमारा इलाका काफी नामी है। लिहाजा जो गुंडागर्दी करते थे उनके किस्से तो चलते ही थे। लेकिन जो इस काम में अपना नाम नहीं कमा पाए उनके लिए भी यह विषय झूठे किस्से गढ़ने के लिए काफी मौके मुहैया कराता था। कुछ बात आपको स्वाभाविक ही लगती होगीं। जैसे गुंडागर्दी करने वाले लोग हमेशा एक पहलवानी शरीर के मालिक होते हैं। लेकिन कई बार कुछ दुबले पतले लोग भी यह कारनामा कर जाते हैं। हमारे शहर में ऐसे कई लोग थे। जिनकी कद काठी कहीं से भी गुडों जैसी नहीं होती थी। लेकिन उनकी इच्छा हमेशा ऐसी कल्पनाएं करती रहती थी। समाज के कुछ हम जैसे लोग हमेशा से ही इन लोगों से रस लेते रहते थे। और इनकी कल्पनाओं को एक नदी की तरह बहने के लिए रास्ता बनाते जाते थे। जहां से इनकी कल्पनाएं सागर में जा मिलती।
छोटा कद। दुबला पतला शरीर। मुछों पर बल। बेवजह गुस्सा। सिर्फ कमजोंरों पर। शहर के नामी लोगों से दूर दराज की रिश्तेदारी। या फिर पहचान का तुर्रा। लगभग ऐसी ही होते थे। बड्डे। हल्के महाराज। छोटे दाऊ। छोटू उस्ताद। हमारी जमात के पास कई हल्के महाराज थे। इनके पास जाकर सिर्फ बैठना होता है। और लड़ाई झगड़े की बातें शुरू करनी होती थी। अगर आपने दो चार लोगों के सामने हाथ जोड़कर नमस्ते कर ली। या फिर पैर छू लिए। तो आपको बातचीत में की गुना मजा आएगा। हल्के महाराज से बात शुरू करो और फिर सुनो। किस तरह से उन्होंने यूनिवर्सिटी में तलवार लेकर सौ... कई बार दौ सौ लोगों को दौड़ लगवा दी थी। किस तरह उनके नाम से यूनिवर्सिटी में छात्र तो ठीक है। टीचर्स कांपते थे। हल्के महाराज अपने जीवन में कई बार भीड़ में अकेले घुस जाते थे। और दर्जनों लोगों को पीटना शुरू कर देते थे। इस तरह के किस्से घंटो चलते थे। किस तरह से उन्होने अपनी पिछली रेल यात्रा में अकेले ही चार पांच लोगों को पीटा। ये बात अलग है कि फिर उनसे कोई पूछ देता। महाराज लेकिन आप तो पिछले कई सालों से सागर के बाहर ही नहीं निकले। यहीं से बात बिगड़ना शुरू हो जाती।और महाराज सुनने वालों को ही गाली गलौच करने लगते। सवाल फिर पूछा जाता कि आपका साथी कुछ और बता रहा था कि कुछ लोग आपको सिर्फ पूछते हुए आए थे। तो आप डर कर डिपार्टमेंट में महिलाओं की बाथरूम में घुस गए थे। चार घंटे बाद निकले। जब चपरासी दरवाजा बंद करने लगा। बस यही आखरी सवाल होता था। और हल्के महाराज हम लोगों को गालियां बक कर चले जाते। फिर उन्हें हफ्तों लग जाते मनाने में। कई बार नमस्ते करो। कई बार पैर छुओं। जब वे फिर से ट्रैक पर आते थे। लेकिन आज देखने से लगता है कि वे कितने भोले थे। हम लोग सालों उनसे किस्से सुनते रहे। और सुनाते रहे। कितना खरा सोना थे। जो वक्त के साथ कभी खोटे नहीं हुए।
अब मैं घर जाता हूं। तो मेरे जमाने के कई हल्के महाराज। कई छोटे उस्ताद। जिंदगी के सही किस्सों में उलझ कर रह गए हैं। दो जून की रोटी भी जीवन में कितना संघर्ष शुरू कर देती है। अब ये कहानियां उनका चेहरा बताता है। वे चुप है। कितने बार लगता है कि फिर किसी हल्के महाराज के पैर छू लू। उन्हें चाय पिलाउं। उनकी बहादुरी के किस्से सुनू। लेकिन अब समय बदल गया है। अपनी रोज मर्रा की जिंदगी में हर रोज गन्ने की तरह पिसते ऐसे लोगों से अब मजाक करना भी अपराध लगता है। पर लगता है कि किसी दिन अगर मेरा पीर मुझसे प्रसन्न हुआ तो मैं जरूर दुआ करूंगा कि एक दिन के लिए ही सही हमारे इन तमाम उस्तादों को शहर का बादशाह बना दे। ताकि सालों तक दिन के उजाले में देखे इनके सपने पूरे हों। मेरे दादा ने एक बार कहा था। कि गप्प मारने वाला मजाक का पात्र नहीं होता। दया का पात्र होता है। वह अपनी सारी कुंठाए जो कर्म से पूरी नहीं कर पाया। शब्दों से पूरी करता है। आपको भी अपनी जिंदगी में अगर कोई हल्के महाराज मिले। तो उसकी बात पूरी इज्जत से सुनिएगा। और उठते समय इस तरह से नमस्कार करिएगा कि आपको उसकी कही पर यकीन था। मैं भी कोशिश करूगां। कि सागर जाऊं। तो हल्के महाराज को खोजकर उनकी बात सुनू। और जब उठूं। तो इस तरह से कि वे जो भी कह रहे थे। सच ही था। पूरा सच।

2 comments:

  1. complex मे इन्फिरियरिटी को कुंठा कहना ही उचित होगा इस आशय में.

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  2. सच है, हमारे कुछ जानने वाले हल्के, छोटे उस्ताद आज सागर मैं बीड़ी, अगरबत्ती की पेक्जिंग करते है, और
    अपने तीन / चार बच्चो की रोटी का इंतेजजाम करने मैं मशरूफ रहते है, लेकिन सच कहा अपने , अगर इन्हे
    एक मोका ईश्वर दे तो यह लोग शायद, अपनी और अपने बcचो की ज़िंदगी सुधार ले.

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