बात उन दिनों की हैं। जब हम सागर में रहते थे। और हमारे चाचा सतना में। गर्मी की छुट्टियों में हमारे जैसे छोटे शहरों में लोग अपने चाचा-बुआ के घर जाते हैं। या फिर मामा-मामी से मिलने नानी के घर। हमारे इलाके में हिल स्टेशन का चलन नहीं है। और न ही बच्चें समर कैंप में जाते हैं। जिन रिश्तों की हम सिर्फ साल भर आहट दूर से ही सुनते रहते हैं। उन्हें करीब से देखने का मौका इन छुट्टियों में ही मिलता है। हम भले जाते तो मई जून में थे। लेकिन मिलने का मजा हमें जनवरी से ही आने लगता था। चिट्ठी पत्री तभी से शुरू हो जाती थी। हां इस बीच परीक्षा भी आती और रिजल्ट भी।
सागर से बस रात को करीब दस बजे निकलती थी। और सतना सुबह सुबह पहुंचा देती थी। रात भर का सफर बस से होता था। वैसे चाय का शौकीन में बचपन से ही हूं। और पिता पान के। और हम दोनों को रात में नींद शूरू से ही कम आती है। सो बस में न वे सोते थे। और न हम। मुझे हर स्टेंड पर चाय पीने में ज्यादा ही मजा आता था। जैसे हर दुकान अलग-अलग तरह की चाय का स्वाद देती है। वैसे ही शहर के बदलते ही चाय का स्वाद भी बदलता है। आप भले न माने लेकिन चाय का स्वाद तो दिन और रात में भी अलग अलग मिलता है। उसी दुकान पर चाय आप दिन में पीयें तो अलग। और रात में उसका स्वाद अलग। लिहाजा अपनी तलब तो बस के सागर निकलते ही शुरू हो गई थी। मेरे साथ एक बात और है। मैंने कभी चाय को मना नहीं किया। और मुझे चाय कभी खराब नहीं लगती। सिर्फ एक बार ऐसा हुआ है। जब हम जनसत्ता में थे। तो हमारे गुरू सुधीर जैन सर भी उतने ही चाय के शौकीन हैं। जितने हम। हम दोंनो कई बार चाय पीने जाते थे। एक बार हमने चाय पी। और सुधीर सर केंटीन वाले के किचिन में चले गए। उन्होंने कहा सिर्फ तुम इतना बताओ की इतनी खराब चाय तुमने बनाई कैसे। इस तरह के मौके एक आध बार ही आए हैं। वर्ना चाय मुझे अच्छी ही लगती है। कई बार ऐसा भी होता है कि आप किसी के घर जाते हैं। तो चाचा या भैया या फिर आपके मित्र चाय बनाने को कहते हैं। और काम कर रहीं चाची या भाभी पूरे बेमन से खराब चाय बनाती है। मुझे वह चाय भी कभी खराब नहीं लगी। पूरी बेशर्मी के साथ में वह आज भी पीता हूं।
बस सागर से चलने के बाद आधी रात को छतरपुर में रुकी। हम चाय पीने फटाफट उतर गए। पिता को चिंता थी। आधी रात । अजनबी शहर। वो भी बस स्टेंड। हालांकि चाय पीने की उनकी भी इच्छा थी। एक ठेला देखकर मुझे रेगिस्तान में पानी मिलने की खुशी का आभास हुआ। और में लपक कर गया। मेंरे पीछे पीछे पिता भी थे। उसने चाय बनाई या बनी हुई थी। उसे ही गर्मी कर दी। मुझे याद नहीं। लेकिन अजीब बात थी। चाय का रंग तो चाय जैसी ही था। लेकिन इतनी बेस्वाद चाय। मैंने कम ही पी थी। मैं फिर भी मजे से पी ही गया। पिता हल्के से नाराज हुए। कहा कितना खराब चाय पिलाई। तुमने। चाय का स्वाद ही नहीं था। गर्म पानी था। हमार एक रूपए पानी में चला गया। चाय वाला भी गजब का था। उसने खराब चाय के लिए कोई सफाई नहीं दी। न ही कोई दलील। पर पूरी अकड़ के साथ बोला। बाबूजी। आपका तो एक रूपए पानी में गया। हमारा सोचिए। हमारी तो पूरी जवानी ही पानी मे चली गई। जब से शादी हुई है। सिर्फ दो रात ही घर पर सोया हूं। पूरी जवानी इसी स्टेंड पर काट दी। हम आपको चाय नहीं पिलाते। अपनी जवानी घोल घोल कर पिला रहे हैं। बस ने हार्न बजाया। हम आकर बस में बैठ गए। बस चल दी। लेकिन उस आदमी का चेहरा। उसकी चाय का स्वाद। और उसका जवाब। मुझे लगता है। जैसे किसी ने अभी अभी कहा हो। मुझे आज भी समझ में नहीं आता। हम उस रात एक रुपए में खराब चाय पीकर आए थे। या किसी आदमी की जवानी। किसी सुहागन की कुवारीं रात।
bahut mazedaar...1 rupaye me kisi ki javaani pee gaye janaab..hahaha
ReplyDeleteजबरदस्त संस्मरण !
ReplyDeleteIts really a nice piece of reminiscence, showing your leanings toward communism.i mean about a SARVAHARA.
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