Tuesday, May 11, 2010

अपमानों से बहुत डरे अब सम्मानों से डरना होगा। क्या कहते हैं आप ?

आज दो घटनाएँ हुई। मेरे पास फोन आया। सबेरे सबेरे। हम आपको सम्मानित करना चाहते हैं। दिल्ली रत्न की उपाधी से नवाजना चाहते हैं। 11 हजार रुपए देगें। यकीन मानिए। उन्होंने ऐसे ही कहा था। और पांच सौ रुपए की शाल। मैं चुप रहा। मुझे पूरे वाक्य का अर्थ कुछ देर बाद समझ में आया। मैंने पूछा। नारियल और फूलों की माला देगें नहीं। या कीमत नहीं बताना चाहते। अब वो चुप हो गया। लगा जितनी गालियां बुंदेलखंड से सीखकर आया हूं। सारी सुना दू। लेकिन किसी को भी अपमानित करके आप भले कुछ देर के लिए खुश हो जाए। लेकिन संतुष्ट नहीं हो सकते। सो मैं चुप ही रहा। पूरे धैर्य के साथ मैने कहा कि मैं इस तरह के सम्मान में यकीन नहीं करता। मेरी खबर देखकर जब कोई दर्शक या मेरा पाठक सिर्फ कह देता है कि सही बात है। मेरे लिए वही सबसे बड़ा सम्मान हैं।
इसके बाद आज दिल्ली सचिवालय में हिन्दी अकादमी का सम्मान समारोह था। उसकी खबर हमें ही करनी थी। हालांकि मुझे लगता है कि इस तरह की खबरें ज्यादातर लोग चाव से नहीं देखते। लेकिन इस सम्मान समारोह को लेकर इतना विवाद था कि इसमें खबर बनती थी। सो अपन पहुंच गए। लेकिन वहां पहुंच कर मेरी सुबह वाली उलझन और ज्यादा बढ गई। मुझे लगा जो काम सुबह मेरे साथ एक धंधेबाज कर रहा था। क्या इस तरह का सम्मान उसी तरह का काम नहीं है। मंच पर मुख्यमंत्री खड़ी है। अपनी सहयोगी मंत्री से बात भी करती जा रही है। बुजुर्ग साहित्यकार जिन्हें चलने में भी परेशानी है। वे मंच पर चले जा रहे हैं। मुख्यमंत्री के सम्मान में हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं। और फूल शाल चैक और एक सर्टिफिकेट नुमा कुछ लेते जा रहे हैं। मुझ इस तरह का सम्मान कुछ समझ में नहीं आया। आप जानते ही हैं कि जब कार्यक्रम खत्म हुआ तो हम रिपोर्टर बाइट लेने के लिए पीछे भागने लगते है। सो हम भी भागे। एक साहित्यकार से पूछा कि आप में से कुछ लोग सम्मान लेने नहीं आए। क्या कहेंगे। वे बोले मैं सम्मान को ठुकराना उचित नहीं मानता। मैने तो अपना सम्मान ले लिया है। और अगर आप कहीं दो चार सम्मान और दिला दे तो हम उन्हें भी ले लेगें।
कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। मुझे लगा क्या ये वही लोग हैं। जिनमें समाज अपना चेहरा देखता है। क्या यही लोग जो आईने की तरह काम करते है। सरकार से कहते हैं कि देखों तुम्हारा चेहरा पीला हुआ जा रहा है। अपने को संभालो। लेकिन जब हमारे साहित्यकार ही इस तरह के सरकारी सम्मानों से अपने को गौरवांवित महशूस करते है। तब मुझे डर लगता है। क्यों कि यही लोग जो सरकार को ललकार सकते हैं। समाज को ये ही लोग टेर लगाते हैं। इनके अंदर की नसों में बहता खून समाज को क्रांति के लिए ललकारता है। लेकिन अगर ये हीं सत्ताधीशों के आगे इस तरह झुककर उनसे सम्मानित होगें। तो शायद हमारे हुक्मरान इनका भले सम्मान कर दे। लेकिन समाज का सम्मान नहीं कर पाएगे। समाज यानि आखरी पंक्ति में खड़ा आखरी आदमी। मुझे समझ में नहीं आया आपको जो भी लगे मुझे बताइएगा। कि हमें क्या इस तरह के सम्मानों से डरना चाहिए। या इन्हें स्वीकार करना चाहिए।

4 comments:

  1. मुझे लगा क्या ये वही लोग हैं। जिनमें समाज अपना चेहरा देखता है।
    really it is said in bundelkhandi.............Sau dandi-fandi,,,ek bundelkhandi.....

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  2. Daro bhaiya, bahut daro.Is prakar ke sammanno ko samaj ko bado barg achchi nigaho se to kabuo nai dekhat, sochat jaroor hai ke BIK GAYE.Bundelkhandi bade jangi.
    Dinesh Saraf

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  3. Daro bhaiya, bahut daro.Is prakar ke sammanno ko samaj ko bado barg achchi nigaho se to kabuo nai dekhat, sochat jaroor hai ke BIK GAYE.Bundelkhandi bade jangi.
    Dinesh Saraf

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  4. Daro bhaiya, bahut daro.Is prakar ke sammanno ko samaj ko bado barg achchi nigaho se to kabuo nai dekhat, sochat jaroor hai ke BIK GAYE.Bundelkhandi bade jangi.
    Dinesh Saraf

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