मेरी एक रिपोर्टर का फोन आया। मुझे छुट्टी चाहिए। मेरे जीज आए हैं। पहले तो मैने जीज को खीज सुना। मैने सुधारा। खीज आए नहीं। आई है। उसने दोहराया। खीज नहीं जीज। मैंने सारे रिश्ते याद कर लिए। लेकिन जीज को नहीं समझ पाया। यह शब्द और ये रिश्ता हमसे नहीं सुलझा। मैंने कहा। मैं समझा नहीं। उसने फिर बताया दीद आई हैं। साथ मैं जीज भी हैं। अब मैं समझा जैसे मम्मी वक्त के साथ ममा हुई और फिर मॉम। पिताजी, पापा हुए फिर डेडी और अब डेड। मेरे एक मित्र कहते भी है। जिसकी मॉम जितनी जीवंत होगीं। डेड उतने ही डेड होगें। हालांकि उनका ये दर्शन कुछ लोगों को गुस्सा भी दिलाता है।
संबोधन का सिर्फ इतना ही मकसद होता है। जिसे आप बुलाए वो सुन ले। ऐसा मैं सोचता था। लेकिन उम्र के साथ साथ मुझे लगने लगा है कि शब्द भी जीवंत होते हैं। इनमें भी जीवन है। इनको इस्तेमाल करने वाला अपना जीवन डालता हैं इनमें। और वह इन्हें आयुवान भी बनाता है। सयुक्त परिवारों में जैसा होता है। वैंसा चलन अपने यहां भी रहा। मैं आज भी अपने पिता को भैया। मां को भाभी कहता हूं। मेरी पत्नी अपने पिता को चाचा और मां को चाची कहती हैं। इसके चलते मैंने अपने जीवन में बहुत कम महिलाओं को भाभी कहा। और जिसको भाभी कहा। उसके साथ न कभी मजाक की। न कभी उनके साथ होली खेली। उन्हें मां की तरह ही माना। पिता भी कहते हैं। कि उन्हें कभी पिता का आभास ही नहीं हुआ। वे अपने बच्चों के बड़े भैया ही बने रहे।
आधुनिकता हमारे संबंधों के कद को छोटा करती जा रही है। इसका हमें आभास होता रहता है। संबोधन भी विकृत होते जा रहे हैं। इनका असर भी समाज पर दिखने लगा है। मुझे याद है कि दिल्ली की रहने वाली एक युवती हमारे बुंदेलखंड में कलेक्टर की ट्रैंनिंग करने गई थी। वे रात को दुकाने बंद कराने पहुंची। तो एक सज्जन व्यक्ति ने कह दिया कि दीदी बंद करता हुं। वे तपाक से बोली मेरे पिता तो यहां कभी आए नहीं। फिर में तुम्हारी दीदी कैसे हुई। जब उनसे मेरी मुलाकात हुई तो मैंने उन्हें बताया था। कि परदेशी को दीदी कहना अपनी मां की चरित्रहीनता का परिचय देना नहीं है। अपरिचित लड़की को भी बहिन का दर्जा देना हमारी बुंदेली संस्कृति हैं। इन्हीं मौहतरमा ने बाद के दिनों में एक शिक्षक को चांटा भी मारा था। और अपने सांसकृतिक मूल्यों का खुद ही परिचय दे दिया था।
बात इतनी सी नहीं है कि हम भी पिता को डेड या मां को मॉम कह सकते हैं। जीजा को जीज कहने में हर्ज नहीं है। लेकिन हम उस संस्कृति में पल कर आए हैं। जहां पर राम का नाम लिखने से पत्थर भी तैरने लगते है। लिहाजा हर शब्द का अर्थ होता है। और अर्थ से सांस चलती है। जीवन बनता है। लेकिन हमने यह भी जाना है कि मरा कहते कहते भी लोग राम कहने लगते हैं। बात शब्दों की नहीं बात संबंधो की है। हम कुछ भी कहे। कुछ भी सुने। लेकिन जब तक संबंध मीठे हैं। मजा तब तक ही है। हो सकता है आप लोग भी अपने माता पिता को अलग अलग नाम से बुलाते होगे। हमें लिखिएगा जरूर। बताइगा आपने अपने रिश्तों को क्या क्या नाम दिए हैं। हमें इतंजार रहेगा।
पोस्ट तो बढ़िया है भाई साहब, मगर खिल्ली उडाने के चक्कर में आपने गलत वर्तनी का प्रयोग किया है.. डेड नहीं डैड होता है..
ReplyDeleteजैसे एक बिन्दु हटाने से चिंता चिता हो सकती है फिर उसका भी हम मजाक उड़ा लें..