चीन में एक विचारक हुआ है। लाओत्से। उसने ढाई हजार साल पहले कई मूल्यवान चीजें कहीं। उसकी बातें कीमती मालूम पड़ती हैं। वह कहता है। उसे देखे, फिर भी वह अनदिखा रह जाता है। उसे सुने फिर भी वह अनसुना रह जाता है। उसे समझे फिर भी वह अछूता रह जाता है। वह हर जगह है। लेकिन वह दिखता नहीं। सयुंक्त परिवार में मां । हर जगह होती है। लेकिन वह दिखती नहीं। उसके पास मां का दिखावा नहीं है। उसे अच्छी मां साबित होने की कोई जल्दबाजी नहीं है। बच्चें उसके प्रति ही जवाबदेह हों ऐसा कोई आग्रह नहीं है। उसे परमात्मा पर और पारिवारिक मूल्यों पर बराबर का भरोसा है। शायद यही वजह थी कि मैं होश संभालने के बाद भी सालों तक दादी को ही अपनी मां समझता रहा। मां और दादी में आज भी कोई अंतर नहीं कर पाता। दादी के पास ज्यादा रहा। सो उनसे .....लगाव आज भी कुछ ज्यादा ही है।
संयुक्त परिवार सिर्फ इतना नहीं है। जितना दिखता है। एक दरवाजे से सभी घर के अंदर जाए। और बाहर निकले। घर का खाना एक ही चूल्हे पर बनता हो। भगवान एक ही जगह रखे हों। और घर का मुखिया भी एक ही हो। यह तो केवल सतह है। अगर इतना ही समझे तो अज्ञानी ही रह जाओगे। आपको शायद यकीन न हों। मैं शुरू से ही अपनी दादी के पास रहा। मैने जाना ही नहीं कि मां कुछ अलग से होती है। मेरी जरूरतें परिवार पूरा करता रहा। किसने खाना खिलाया। किसने नहलाया। किसने पढ़ाया। किसने घुमाया। मुझे कुछ याद नहीं। मैं चाय का शौकीन बचपन से था। सो किसने कितने बार बनाई कभी गिनती ही नहीं की। लेकिन उन तमाम धुंधली यादों में मां की याद कहीं नहीं है। वह शायद परमात्मा की तरह हर जगह होती थी। लेकिन कभी अपना अहसास नहीं कराती थी।
लाओत्से एक बात और कहता है कि परमात्मा जगत बनाता है। लेकिन उसका कहीं दावा नहीं करता। तो हम कह सकते है कि मां ने भी कभी हम पर अपना दावा ही नहीं किया। मैं दिल्ली में आज भी हर रोज दादी से फोन पर बात करता हूं। जब दिल्ली आया था। तो हर रोज रात आठ बजे एक झूठ बोलता था। दादी मैं घर आ गया हूं। खाना खा लिया है। सोने ही वाला हूं। मैं उन दिनों जनसत्ता में रिपोर्टर था। आप जानते हैं कि रात आठ बजे तो अखबार में खबरें लिखना शुरू होती है। लेकिन वे तसल्ली कर सो जाती थी। और कभी कभार जब वे कहती कि भाभी से भी बात कर लो। तो मैं उनसे हालचाल पूछ लेता। और अपने बता देता। पिछले 13 सालों में उन्होंने एक ही सवाल शब्द बदल बदल कर पूछा है। खाना खा लिया या नहीं।
मैं अब तो 39 साल का होने वाला हूं। लेकिन आज भी जब भी मुझे कुछ भी करने की इच्छा होती है। तो दादी ही दिमाग में आती है। कभी लगता भी है कि कोई बुजुर्ग हमारी छत पर आकर हमें साया दे दे तो दादी ही मन में रहती हैं। मुझे लगता है कि सयुंक्त परिवारों में मां व्यक्ति नहीं विचार होता है। और इसको परिवार में कई लोग बांटते हैं। तुम्हारी मां सिर्फ परमात्मा की तरह तुम्हें देखती है। लेकिन तुम उसको नहीं देख सकते। मां का हिस्सा कभी दादी में है। तो कभी बुआ में। कभी चाची में तो कभी बहिन में। मां अलग से नहीं है। लिहाजा मदर्स डे पर सिर्फ एक ग्रीटिंग कार्ड से काम नहीं बनेगा। मेरे पास ऐसी कोई मां नहीं है। जिसे मैं एक ग्रीटिंग कार्ड देकर खुश कर सकूं। एक गिफ्ट देकर उरिन हो जाउँ। मैं कह सकता हूं। मेरी मां को मदर्स डे की अलग से जरूरत नही है। वह मेरे चारों तरफ हैं। भले मैं उसे देख न पाऊँ। उसकी सुगंध मेरे हर तरफ है। मैं भले उसे महसूस न कर पाऊ। मेरे चारों तरफ उसके प्रेम का इंद्रधनुष हैं। भले मेरी आँखे न देख पाए। वह दिल्ली में भी है। भले मैं उसे छू न पाउं। परमात्मा मुझे भले एक क्षण के लिए ही शक्ति देना लेकिन इस तरह की ही देना कि मैं जिसके लिए कुछ भी करू। उसे अहसास कराने का भी लोभ न करूं। अपना अधिकार न जताऊ। और कुछ अपेक्षा भी न करू। सिर्फ अपना कर्तव्य करता रहूं। मां की तरह। भाभी की तरह।
maa to wo khushboo hoti hai jo sarvatra failti hai .......ise kaun baandh saka hai........maa sirf maa hoti hai wo koi khas shakhsiyat mein basi nahi hoti uski khushboo sari kaynat mein faili rahti hai.
ReplyDeletewaah bahut sundar...aapne jo prarthna ki wahi meri bhi prarthna hai
ReplyDeleteसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां
ReplyDeleteयाद आती है चौका बासन, चिमटा फुकनी जैसी मां
चिड़ियों की चहकार में गूंजे राधामोहन अली अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती घर की कुंडी जैसी मां
बान की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी भरी दोपहरी जैसी मां
बीवी, बेटी, बहिन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सबमें
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां
बांट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गयी
फटे पुराने इक एलबम में चंचल लड़की जैसी मां
-निदा फ़ाज़ली