Wednesday, May 5, 2010

अंकल को पोएम सुनाओ। अच्छा अब एबीसीडी सुनाओ

दोस्त की महीनों से शिकायत थी। तुम पत्नी को लेकर घर आओ। दिल्ली में 40 किलोमीटर जाना और फिर वापस आना। वो भी दस साल पुरानी मोटरासाइकिल पर। और हम जैसे आलसी को। मुश्किल था। फिर भी हम पहुंच ही गए। लेकिन मुझे पता नहीं था। कि वे अभी कुछ दिन पहले ही अपने तीसरे बच्चे के एडमीशन की जंग जीतकर आए है। और घर में विजय उत्सव है। मैंने सुना है जीते कोई भी और हारे कोई भी। नुक्सान जंग से सभी को होता है। लेकिन मुझे ये पता नहीं था कि विजय उत्सव में शामिल होने वालों को भी एक जंग लड़नी ही पड़ती है।
शुरूआत ही ऐसी हुई। मेरे दोस्त अपने बेटे को गोदी में लेकर ही मुझे लेने आए। और उन्होंने परिचय भी ऐसा ही कराया। कि अँकल तुम्हारी पोयम सुनने दिल्ली से आए है। अगर अच्छे से सुनाओगे तो टीवी में दिखाएंगे। बताओं कौन सी वाली सुनाओगे। पिता-पुत्र के इस साक्षात्कार को मैने बीच में ही रोका। मुझे जोर से प्यास लगी है। मेरी पत्नी को मुझ से भी ज्यादा। थोड़ा जोर से कहा। शायद कभी कभी जीवन ही पूरा एक विचार का रूप ले लेता है। और हम सिर्फ उसके हिस्से रहते है। वे फिर बच्चे से मुखातिब हुए चलो अंकल को पानी लाए। वो पानी वाली पोएम याद है न। मछली जल की रानी है। बोलो बोलो आगे क्या है। बच्चा शर्माने लगा। मैने कोई खतरा मोल नहीं लिया। और कहा कि इस समय हमारा जीवन पानी है। उन्होंने अपने बच्चे से अंग्रेजी की पोएम सुनवाई। हम सुनते रहे। फिर हिंदी की कविताओं का नंबर आया। चंदा मामा से मछली तक सभी को हमने सुन। फिर एबीसीडी। फिर नोज से हेंड तक पूरे शरीर के हिस्से। और गुड नाइट तक हम नर्सरी का टेस्ट देते रहे। हां इस बीच पानी, चाय नास्ता और खाना भी हमने खाया।
जब बच्चा अपनी मासूमियत खुद लेकर चलता है। तो मजा देती है। लेकिन मासूमियम के नाम पर जब मम्मी उसे कुछ पहना कर भेजती है। तो वह विकृत हो जाती है। मुझे शुरू से ही बच्चों से प्रेम है। और मुझे लगता रहा है कि गांधी और अलबर्ट आइंसटाइन के अलावा मुझे कभी भी च्वाइस हो तो मैं बातचीत के लिए हमेशा बच्चा ही चुनूगां। उनकी मासूम बाते तुम्हारें तनाव को पानी की तरह धो देती है। लेकिन इन्हीं बच्चों के चेहरे पर जब कृत्रिमता पोत दी जाती है। तो मुझे और भी तनाव देती है। मेरे घर के सामने एक शर्मा जी रहते हैं। उनके बच्चे गाली तो बकते हैं। लेकिन संबोधन में आप कहते हैं। लिहाजा न गाली की सुंदरता बचती है। न संबोधन की। संयुक्त परिवारों में बच्चों को ट्रिम करने की फुर्सत मां बाप को नहीं होती। लिहाजा हमारी ग्रोथ टेड़ी मेडी ही रही। इस बात को हम कहते भी रहे हैं। कि हम इतनी जगह से टेड़े है। कि हम न तो फर्नीचर के काम के हैं और न हम मंहगे बिक सकते हैं। लेकिन मौलिक है।
हो सकता है आप भी मेरी तरह ऐसे अनुभवों से गुजरते होगे। इसी तरह हमने अपने एक मित्र को खाना खाने बुलाया था। वे अपने साथ एक सुटकेस नुमा सामान भी लेकर आए। हमने सोचा शादी इनकी हुई है। तोहफा तो हमें देना है। लेकिन इनका लाना तो ठीक नहीं था। कुछ मिनिट बाद ही पता चला कि वह बाकायदा सुटकेस ही है। और उनमें उनकी शादी के एलबम हैं। मैं आपसे झूठ नहीं बोलूगां। लेकिन पूरे दो घंटे हमने उनके सारे रिश्तेदारों की तस्वीरें देखीं। और सबकी विशेषताएं भी सुनी। आपको यकीन नहीं होगा। हमने खाने के बाद फिर उनकी हनीमून की तस्वीरें भी देखीं। कुछ वाक्या भी सुने। बात हमारी बोरियत की नहीं है। बात जिंदगी के उस क्षण की भी हैं। जिसे आप अपने सुकून के लिए अपने साथ रखना चाहते है। आपकी पत्नी हिमांचल के जेवर पहनकर और हिंमाचली पोशाक पहनकर आपको सुंदर लग सकती है। लेकिन हर को लगे। इसका आग्रह क्यों होना चाहिए। मेरी बुआ और मेरे फूफा के आशीर्वाद देती हुई फोटो हमारे लिए कीमती है। लेकिन हमारे घर आए दोस्तों को भी कीमती हो ये जरूरी नहीं। फिलहाल मैने सोच लिया है कि जब तक एडमीशन का समय पूरा नहीं हो जाता। मैं अब किसी के घर नहीं जाउँगा। आपके घर भी नहीं।

6 comments:

  1. प्रिय आलोक,

    तुम मेरे बच्चों से मिलोगे तो तुम्हें बच्चों को पॉयम सुनानी पड़ेगी। क्योंकि मेरे दोनों बच्चों को देखकर एक बार मैंने अपनी पत्नी को कहाकि हम लोग गेट पर एक डिसक्लेमर लगा देते हैं कि -

    'मेरे प्रिय। इस छोटे से दड़बे में दो बचपन पल रहे हैं। वो कलियां जिन्हें मसलने की हमारी कोई हसरत नहीं। हम लोग तो गांव में खिल आए, ये मासूम कहां जाएंगे? इसलिए आमतौर पर बदमाश नाम से बदनाम कर दिए गए स्वाभाविक बचपन से यहां आपका साक्षात्कार होगा। दुनिया जिसे पाप, बदमाशी, शैतानी, घृष्टता या बदतमीज़ी कहती है वो ये बच्चे कर सकते हैं। हम इसके लिए अग्रिम क्षमा चाहते हैं। हो सकता है आपको वो सब करना पड़े जो ये मासूम चाहते हैं और वो कुछ भी देखने को न मिले जो कुचल दिए गए बच्चों में देखने को मिलता है।

    क्षमाप्रार्थी-
    शबीना उस्मानी, अख़लाक़ उस्मानी'

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  2. हाहा! यह तो पूरी सजा हुई। जबरन थोपी हुई चीज़ें तो परेशान ही करती हैं। अविवाहितों से ही मिलें कुछ दिन।
    घुघूती बासूती

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  3. आलोक जी आपने एक बहुत ही जीवन्त चित्र प्रस्तुत कर दिया. और बाकी काम अखलाक उस्मानी जी की टीप ने कर दिया. हम इतना ही कहेगे कि हम खुद सामान्य रहे और बच्चो को अपने हिसाब से ही सीखने दे.

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  4. आलोक । मुझे लगा पोस्‍ट के शुरू में तुम मेरे घर आने की बात सुना रहे हो, तीन बच्‍चे और चालीस किलोमीटर बिल्‍कुल फिट बैठ रहे थे सिवाये इसके कि मुझे अब भी तुम्‍हारा इंतजार है। तुम्‍हारी बात सीधे दिल तक उतर गयी। मेरे बच्‍चों को भी दुनिया गंवार, इलमेनर्ड, बदतमीज, ढीढ और जाने क्‍या क्‍या कहती है। लेकिन मैं उनको पॉलिश करना नहीं चाहता। वो जिस तरीके से बात करते हैं, जैसे गंदे तरीके से खाते हैं, चीखते हैं, लड्ते हैं वो उनका अपना तरीका है। वो कोई प्रदर्शन की वस्‍तु नहीं हैं कि उन्‍हें लेकर हमें शर्म आये। उस्‍मानी जी की तरह हम भी बच्‍चों को उनके अपने तरीके से पालने में यकीन करते हैं इसलिये तुम जब घर आओगे तो दो चार कवितायें खुद याद करके आना, बच्‍चों को सुनाने के लिये।

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  5. अलोक जी - मौलिक ? वाह क्या बात है
    मौलिक होने से तनाव से बच सकते हैं
    बच्चे के दर्शन मात्र से भी

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  6. बिलकुल सही बात... आपकी इजाज़त हो तो कॉपी पेस्ट करके दुसरो को मेल करना चाहता हु, और हा अखलाख साहब की तारीफ करनी होगी बेहतरीन कमेन्ट के लिए

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