Tuesday, May 4, 2010

मैं जिंदा में ही सेवा करना चाहता हूं। और तुम मरने के बाद

मेरे एक बहुत ही प्रिय दोस्त है। हालांकि ये उनकी उदारता है कि वे मुझे अपना बड़ा भाई मानते हैं। हम लोगों को जो कई चीजें निकट लाती है। उनमें से एक उसका नानी के प्रति अदभुत प्रेम है। उसने एक बात सुनाई कि किस तरह से उसके मामा जो विदेश में आला अफसर हैं। अपनी बीमार मां की सेवा के लिए महीनों से घर पर ही डेरा डाले थे। इतनी लंबी छुट्टी से मामी का परेशान होना स्वाभाविक था । और उन्होंने उनसे वापस आने की बात कही।उसके मामा ने जबाव दिया। उसके मामा का कहना था कि हम मां के जिंदा रहते उसके लिए हाथ जोड़ना चाहते हैं। और तुम मां के मरने के बाद हाथ जोडना चाहोगी। यह बात वह सुनाकर चला गया। लेकिन में अभी तक वहीं अटका हूं।
बचपन में जब भी कभी मंदिर में किसी के नाम के पत्थर लगे देखता था। या किसी पंखे पर किसी का नाम। किसी की स्मृति में प्याऊ चलाते लोग। अपने माता पिता की याद में धर्मशाला बनवाते लोग मेरे अँदर कई प्रश्न पैदा करते रहे हैं। मुझे शुरू से ही ये बात लगती रही है कि ये लोग अपने माता पिता की याद में पुण्य करते हैं। तो फिर अपना नाम साथ में क्यों लिखवाते हैं।कई बार तो ये नाम मातापिता के नाम से भी बड़े अक्षरों में होता है। ये स्मृति इनके बुजुर्गों की है या फिर इनका खुद का विज्ञापन। और जिस आदर सत्कार के साथ लोग अपने माता पिता का नाम लिखवाते है। उस से ही कई शंकाओं का जन्म होता है। जो भी बात कही जाए। वह कमजोर अपने आप हो जाती है। जब भी में इस बात का एलान करता हूं कि में अपने माता पिता का सबसे ज्यादा सम्मान करता हूं। उनका चरण सेवक हूं। यही से उपद्रव पैदा होता है। श्रवणकुमार ने अपने माता पिता की याद में कहीं भी कोई धर्मशाला नहीं बनवाई। मैं जानता हूं। अपने एक डाक्टर दोस्त को। जब उनके पिता मरे। तो बे सबसे कम रोए। बात साफ थी मैंने उनको सालों अपने पिता की सेवा करते हुए देखा है। उन्हें जो भी करना था। वे अपने हिस्से का कर चुके थे। अपने कर्तव्य को लेकर वे संतुष्ठ थे। मेरे दादा के निधन पर मेरे पिता ने कहा था। कि आदमी जहां जहां चूकता हैं। वहीं उसे पश्चाताप होता है। वहीं वह रोता है।
विज्ञापन की दुनिया में हर संप्रेषण की कीमत है। कितने बेहतर ढंग से आप अपनी बात कह सकते है। ये आप पर निर्भर हैं। गांव में आज भी जब रिश्तेदार आते हैं। तो गली के मुहाने से ही रोना शुरू कर देते है। उनके हिस्से में सेवा नहीं थी। अब रोकर ही उन्हें सब जताना है। अपने किसी बुजुर्ग की सेवा हम करते हैं। वह हमारे अपने लिए होती है। और जो दिखावा हम किसी के जाने के बाद करते हैं। वह विज्ञापन समाज के लिए है। और इसकी भी कीमत हम वसूलते रहेंगे। यह निवेश हैं। हमारी भावनाओं का समाज के खाते में। जिसे हम भंजाते रहेंगे। पत्रकार होने के नाते अपनी आर्थिक हालत अच्छी कभी रही नहीं। सो अपन ने दादा की याद में न पत्थर लगवाए। न मंदिरों में पंखा टांग पाए। और न ही कोई प्याऊ खोली। न धर्मशाला बनवाने ही हैसियत है। लेकिन हां। दादा के निधन के बाद दिल्ली में दो चुनाव हुए। लोकसभा और विधानसभा। सभा जानते हैं। चुनाव पत्रकारों के लिए उत्सव से कम नहीं है। लेकिन इन चुनाव में अपन बिके नहीं। कीमतें लगती और बढ़ती रहीं। अपन डिगे नहीं। दादा की याद में अपन ने भी एक बोर्ड लगाया है। कि हम बिकाऊ नहीं है। आप भी आशीर्वाद दीजिए कि ये लगा रहे। और उनके साथ साथ आप भी मुझ पर गर्व करते रहे।

4 comments:

  1. बहुत अच्छा लगा इस पोस्ट को पढकर...
    बहुत बधाई भाई... सत्य को इतनी बेबाकी से बयां करनें के लिए..

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  2. keep it up. Am reading daily. Dr KK Aggarwal

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