Monday, May 3, 2010

विवेकानंद, लाओत्से, कबीर को पढ़ कर बिगड़ गए हम.....

तुम handsome हो नहीं। कपड़े अच्छे पहनते नहीं। बाल गिर गए हैं। गंजे हो गए हो। मोटापा इतना है कि बेडोल दिखते हो। बाहर पेट निकला है। कहीं से स्मार्टनेस झलकती ही नहीं। बोलते हो तुतलाते हो। नौकरी....पत्रकार हो। आखिर तुम से कौन करेगा शादी। दिल्ली में सालों पहले अपनी एक महिला मित्र ने पूछा था। और मैने कहा था कि जो इसके पार देखेगा। वह झल्लाकर बोली। तुम विवेकानंद, लाओत्से, कबीर और ना जाने ये कौन कौन सी किताबें पढ़ते रहते हो। इनको पढ़कर तुम बिगड़ गए हो।
अपने घर में सब के सब मास्टर ही हैं। सो घर में हर विषय पर कोई ना कोई किताब बचपन से ही देखी। विवेकानंद पर दादा का ज्यादा जोर था। कबीर पर पिता का। सो अपन ने बचपन से ही इन किताबों को पढ़ना शुरू किया। जब लोग बचपन में चंपक, नंदन और चाचा चौधरी पढ़ते थे। हम उन दिनों में आवारा मसीहा और निराला की साहित्य साधना, लाओत्से के सूत्र, कबीर की उलट बासियां पढ़ने लगे थे। समझ में कितना आया पता नहीं। लेकिन उन दिनों ही किसी से सुना था कि विवेकानंद कहते है। भारत में किसी का भी व्यक्तित्व उसका चरित्र बनाता है। जबिक अमेरिका में दर्जी बनाता है। ये बात ना जाने किस मुहूर्त में सुनी की आज भी कहीं छपी हुई मालूम पड़ती हैं। अपना सारा जोर रोचक बाते करने में ही लगने लगा। दार्शनिकों की मिशालें देना। उनकी कही हुई बातों पर गप करना हमारा शौक बन गया। हमें मजा न कभी जिम जाकर बॉडी बनाने में आया और न कभी तीन बार ढाड़ी बनाकर युनिवर्सिटी जाने में आया। दुनिया में जो विषय हमें कम रुचिकर लगे। उनमें एक फैशन भी था। इस विषय में हम आज भी निरक्षर ही हैं।
दिल्ली जब आए तब इसका खामियाजा भुगतना शुरू किया। यहां लोगों के पास इतना समय नहीं होता कि वे तुम्हारा चरित्र समझने की कोशिश करे। और फिर तुम्हें लेकर कोई धारणा बनाए। न तुम्हारे परिवार की यहां विरासत चलती है। और न कोई पहचान। तुम पहली नजर में जैसे दिखते हो वैसे ही तुम मान लिए जाते हो। सो अपन हर सांचे में फेल ही हुए। पर अपनी लापरवाही नौकरी के साथ कुछ जम गई। पत्रकार को लोग वैसे भी अभावग्रस्त ही मानते हैं। लिहाजा अपना लुक काम कर गया। किसी ने लापरवाह कहा तो किसी ने सनकी। कुछ ने होशियार भी माना। हालांकि इसके मानने वाले कम ही मिले।
अपने एक पुराने मित्र हैं। मेरी इस आदत से वे हमेशा ही खफा रहते है। और मुझे लगभग गरियाते रहते हैं। उनका कहना है कि अच्छा दिखना भी मेहनत क काम है। तुम इतने लापरवाह हो की तुम अच्छे दिख ही नहीं सकते। अपने आलस्य को दार्शनिकों की बातों से मत ढका करो। फिट रहने क लिए सुबह उठकर जिम जाना होता है। अच्छे कपड़े पहनने के लिए। अच्छा कमाना होता है। स्मार्टनेस एक दिन का खेल नहीं हैं। सालों का रियाज है। और अच्छे दिखने में बुराई क्या है। लेकिन मुझे शुरू से ही लगता रहा कि कोई भी यात्रा एक ही दिशा में हो सकती है। या तो हम बाहर की तरफ चले। या हम अंदर की तरफ चले। बाहर को जो खेल है। वह कुछ समय बाद खत्म हो जाता है। लेकिन अंदर की यात्रा दिन ब दिन आयुवान होती जाती है। मैं कभी भी न अच्छा दिख पाया न कोशिश की। हां ये बात अलग है कि लोगों से मेरी दोस्ती देर से होती रही है। पर दोस्ती के बाद संबंध लंबे और गहरे होते गए। क्यों कि मुझे लगता है कि जो व्यक्ति आपकी सुंदर कमीज और ब्रांडिड जींस से प्रभावित होता। उसका प्रभाव कपड़ो के साथ खत्म भी होता है। लेकिन जो आपके चरित्र से प्रभावित हो कर दोस्ती करता वह रिश्ता लंबा चलता है। खैर ये दिल्ली है। यहां पर लिबास की कीमत ज्यादा है। आदमी की कम। लेकिन अपन ने कब चाहा कि अपनी कीमत भी यहां लगे। जिस शहर में अपनी कीमत है। एक दिन वहीं वापस लौट जाएगें।

4 comments:

  1. सही है, हा हा... भाई मजा आ गया आपकी करुण गाथा सुनकर.

    आम इंसान होना और वह भी लेखक.. बाप रे बाप..

    बेहतर व्यंग्य.

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  2. तुम तुम हो तो क्या हुआ
    हम हम है तो क्या हुआ
    न तुम कम हो
    ना मैं कम हूं.

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  3. पत्रकार को लोग वैसे भी अभावग्रस्त ही मानते हैं। लिहाजा अपना लुक काम कर गया।


    गुदगुदाते हुए बहुत पते की बात कह गये महाराज!!

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  4. Good one but you forget some of your friends are in Delhi and they also came from your Hometown and they understand you better...
    I also felt your observations when I came fisrt time in Delhi....
    Unfortunately no one is included in our close friends list in Delhi...

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