Saturday, June 12, 2010

हमनें कफन भी लिया है। तो जिंदगी देकर

खबर कुछ अटपटी थी। जल्दी लिखकर भी देनी थी। प्राइम टाइम में जानी थी। उसे जल्दी जल्दी टाईप कर रहा था। फिर भी script में जो संगीत बनता है। वह लय नहीं थी। सो मैं कुछ देर के लिए रुक ही गया। मैंने देखा मेरे एक साथी रजनीगंधा चोरी से खा रहे हैं। साथ में तुलसी मिलाकर। आज कल यह चलन में हैं। रजनीगंधा पान मसाला। और उसमें तुलसी जर्दा मिलाकर। मुझे लगा मैं भी दो चार दाने खा ही लूं। शायद लिखने में और ज्यादा मजा आए। मैं अपना काम छोड़कर उनके पास गया। मैंने कहा दो चार दाने हमें भी दे दे यार। वे बहुत ही सीधे और सज्जन आदमी है। हम कई सालों से एक साथ काम कर रहे हैं। हम कई बार एक दूसरे के काम आए हैं। लिहाजा उनके जवाब का इंतजार किए बगैर ही। हमने हाथ फैला दिया। लेकिन वे बोले भैया माफ करना। मैं नशे का सामान किसी को नहीं देता। मुझे अजीब लगा। लेकिन मैंने पूछा क्यों। वे बोले सौ बार देगें। तो आप कुछ भी नहीं कहेंगे। लेकिन एक बार मना कर देगें। तो आप बुरा मान जाएगें। लिहाजा सौ बार का क्यों इंतजार करना। आप आज ही बुरा मान जाइए। मैं चुप रहा। अपनी स्टोरी लिखने लगा। उसे जल्दी से बनाकर दे भी दिया। फिर कुछ देर बाहर निकला। और दस पैकेट खरीद कर लाया। रजनीगंधा पान मसाला के। और साथ में दस पैकेट तुलसी जर्दी के भी। उसके लिए।उसे धन्यवाद दिया। और कहा कि तुमने बात तो लाखों की कहीं। लेकिन मैं फिलहाल इतना ही दे सकता हूं।
मदद हो या फिर उधारी। इसकी मानसिकता भी गजब की है। शायद फ्रायड भी इसे आसानी से नहीं समझ पाता। अगर उसने कोशिश की होती। तो भी नहीं जान पाता। मैंने कई लोगों को देखा है। कि वे कुछ भी नशा करते हैं। और दिन रात इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं। कि कहीं से मुफ्त में जुगाड़ हो जाए। मैंने कई दोस्तों से पूछा भी। उनका गजब का मनोविज्ञान है। वे कहते हैं। हम नशे में पैसे बर्बाद नहीं करते। तो हमनें पूछा कि फिर करते ही क्यों हो। मैंने देखा है एक शराब की पार्टी के लिए। लोग किस तरह जुगाड़ में रहते हैं। एक सिगरेट या फिर मुफ्त में एक कप चाय भी उनके लिए उपलब्धि होती है। मैंरे एक दोस्त है। उनका नाम ही हम लोग जुगाड़ चंद रखे हैं। वे जुगाड़ करने में माफिर है। और हर चीज की जुगाड़ करते हैं। कभी शराब की। तो कभी नॉन वेज की । तो कभी अंडा करी की। कभी मुफ्त पास की। साल के शुरूआत मे कैलेंडर या डायरी की। और वे अक्सर सफल भी हो जाते हैं।
हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में हर चीज की कीमत अदा करना क्यों नहीं चाहते। हम मुफ्त में चीजें क्यों चाहिए। हमें जुगाड़ क्यों करनी है। हमें इमानदार नेता चाहिए। लेकिन खुद राजनीति में आने से परहेज करते हैं। हमें कर्मठ और संवेदनशील सरकार चाहिए। लेकिन वोट डालने नहीं जाते। हमें सजग और बेहतर मीडिया चाहिए। लेकिन अखबार वो खरीदेंगे। जिसमें रद्दी ज्यादा हो या फिर लड़कियों की तस्वीरें ज्यादा हों। हमें सच चाहिए। लेकिन उसकी कीमत अदा नहीं करेंगे। हमें हर चीज जुगाड़ से चाहिए। कीमत पर नहीं। मुझे नदीम का एक शेर यादा आ गया। हो सकता हैं थोड़ा गलत भी हो। हमें मुफ्त में कुछ भी लेने की आदत नहीं हैं नदीम। हमने कफन भी लिया है तो जिदंगी देकर।

6 comments:

  1. आईये जानें .... क्या हम मन के गुलाम हैं!

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  2. अच्छी बात कही है आपने। सवाल यही उठता है कि हम समाज को अच्छा बनाना तो चाहते हैं लेकिन उसके लिए खुद कोशिश नहीं करते।

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  3. बिना मेहनत के कुछ नहीं मिलता .. ये बात तो सबको समझनी चाहिए !!

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  4. sahab jaagrukta ki kami hai..hamne nayi peedhi ko keh keh ke ki raajneeti buri hai buri hai uske prati akarshan hi samapt kar diya...unhe samjhaane ki zarurat hai...desh na raha to unki aiyaashiyan dhari ki dhari reh jaayengi...

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  5. sach kaha aapna...ek kadva sach...shayed kuchh log sudhar jaye.

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