Tuesday, April 23, 2013

बच्चों को तालीम मिल रही है। तरबियत नहीं। नतीजा सामने हैं।

बच्चों को इन दिनों तालीम मिल रही है। तरबियत नहीं। और इसके नतीजे सामने हैं। समाज का माहौल खराब हो रहा है। आने वाले दिनों में हालात और भी खराब होगें। इतना कहकर एहतेशाम भाई हुक्का पीने लगे। और बहुत देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे।  खबरों के बीच में जब भी कभी समय मिलता है। और भूख लगी होती है। तो अपन भागकर मंडी हाउस जाते थे। लेकिन मंडी हाउस में अगर एहतेशाम भाई भी मिल जाए। तो मजा दो गुना हो जाता है। उम्र करीब ६५ साल लेकिन हैं जवान। उनकी आभा देखकर उनका सम्मान करने की इच्छा होती है। और व्यवहार देखकर उनसे मोहब्बत करने की। मैंने अपनी जिंदगी में इतने सुंदर कम बुजुर्ग देखे होगें। अपने इलाके के नामवर जमीनदार। गजब के निशांची और शेर शायरी के शौकीन। शायद यही रास्ता हम लोगों को मिलाता है। कहने को तो वे राजनीति भी करते है। लेकिन बात हमेशा अपनेपन की  करते हैं। मैंने कभी उनसे राजनीति की बात की ही नहीं। न उन्होंने मुझ से की। लेकिन मंडी हाउस फुटपाथ पर हुक्का लिए कोई पीता हुआ मिले। और उनके करीब कई लोगों बैठे हों तो समझ लेना एहतेशाम भाई की महफिल शुरू है और लोग जुड़ते जाएगें।
मुझे उनकी बात ने सोचने पर मजबूर किया कि क्या मामला सिर्फ कानून और न्याय व्यवस्था का है। या बात कुछ और भी है। हमारे जमाने में संस्कार देने में परिवार एक अहम भूमिका निभाता था। बल्कि गलती करने पर अगर किसी को सबसे ज्यादा शर्मिंदा करना है तो कह दिया जाता था कि तुम्हारे माता पिता ने तुम्हे यही संस्कार दिए है। मैंने तो अपने शहर की कई दुकानों पर लिखा हुआ भी देखा है कि आपका व्यवहार आपके पारिवारिक संस्कार बताता है। लेकिन महानगरों की भागदौ़ड़ में जब माता पिता को अपने बच्चे पालने के लिए समय नहीं है। उन्हें संस्कारित कब करेंगे। हमारी आने वाले पीड़िया और भी खतरनाक होगीं। हमारे बच्चों को फिल्में या फिर टीवी धारावाहिक संस्कारित कर रहे है। शायद यही वजह है कि वे ज्यादा हिंसक और असंवेदनशील हो रहे हैं।
एकल परिवार का सबसे बड़ा नुकशान शायद यही है। हमारी आने वाली पीड़ी संस्कार विहीन पैदा हो रही है। संयुक्त परिवार बच्चों को कई संस्कार बिना किसी कोशिश के ही दे जाता है। बच्चें बचपन से ही कई चीजें दादा दादी के साथ सीखते हैं। तो कई शिक्षाएं उन्हें कहानियों से भी मिलती थी। चीजें बांटकर खाना हमने किसी किताब में पढ़कर नहीं सीखा। न किसी ने बैत लेकर सिखाया लेकिन यह संस्कार सयुक्त परिवार देता है। आंख का लिहाज। बुजुर्गों का सम्मान इसी स्कूल की देन है। मोहल्ले की हर लडकी बहिन होती है। छोटे से ही बताया गया कि दीदी की जय कर लो। और अपन फट से पैर छू लेते थे। यही आदत सागर से दिल्ली तक बनी रही ।कई बार इस शहर में इस आदत के चलते मजाक का पात्र भी बनें। लेकिन आदतें कहां छूटती है।
परिवार के साथ साथ स्कूल भी बच्चों को संस्कारित करते थे। अपनी स्कूल में नैतिक शिक्षा का पीरियड अलग से होता था। लेकिन आज कल की धंधेबाज स्कूलों में इस तरह की पढ़ाई नहीं होती। शायद इसका फैशन नहीं है। बच्चों को अलग अलग तरह की पार्टी के लिए तो तैयार करते हैं। लेकिन नैतिक शिक्षा के लिए समय की गुंजाइश नहीं है। मुझे लगता है कि स्कूलों को धंधे की तरह चलाने वालों ने शिक्षा के साथ साथ सबसे ज्यादा नक्सान नैतिक मूल्यों का किया है। एक उम्र में किसी भी बच्चें पर शिक्षक का प्रभाव सबसे ज्यादा रहता है। और ऐसे समय में वो जो सिखाता है। जिंदगी की स्लेट पर किसी इबारत की तरह लिखा जाता है। लेकिन अब बच्चों को भी लगता है कि हम इतनी मंहगी फीस दे रहे है। और यह टीचर हमें पढ़ा रहा है। पैसे ले रहा है। क्लास में लेक्चर दे रहा है। सम्मान बीच में कहां से आता है।
सवाल सिर्फ समाज के बिगड़ते माहौल का नही है। बात हमारे परिवार की भी है।  आपको समाज की चिंता भले न हों। लेकिन आपको अपने परिवार की और अपने बच्चों की चिंता तो करनी ही पड़ेगी। उन्हें संस्कारित करने का कोई न कोई जरिया तो खोजना ही होगा। हम टीवी और फिल्मों के भरोसे उन्हें नहीं छोड़ सकते। और हमें भी कोशिश करनी होगी कि हमारा कल हमारे आज से संस्कारित हो। कम से कम इतना इंतजाम तो कर ही दे कि जो हम सीखकर आए हैं। कम से कम वो संस्कार तो अगली  पीडी़ तक पहुंच जाए।

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